आखिरकार वो कैसी घड़ी रही होगी - जब मोहनदास करमचंद गाँधी - सूट बूट में - चमड़े की सूटकेस और अंग्रेजों की चाबुक ! बैरिस्टर साहब की जिंदगी बदल गयी ! उस वक्त 'ब्लॉग' नहीं होता था - वरना वो अपनी बेइज्जती 'ब्लॉग' पर उतार शांत हो जाते ! खैर ...
क्षेत्रीयता क्या है ? जिंदगी की कुछ घटनाएँ याद हैं ! बात करीब १९८० की रही होगी ! मेरे गाँव में रेलवे स्टेशन नहीं था तो बाबा ने तत्कालीन सांसद स्व० नगीना राय को पत्र लिखा ! उन्होंने ने मदद किया और ५-६ साल में रेलवे विभाग ने एक 'हॉल्ट स्टेशन' पारित कर दिया ! पूरा गाँव खुश था ! पर एक दिक्कत आ गयी - बगल के गाँव वाले उस स्टेशन का नाम अपने गाँव पर रखना चाहते थे - जब यह नहीं हो पाया तो वहाँ के सब से बड़े आदमी ने कुछ 'पैरवी' लगा कर अपने दादा - परदादा के नाम पर 'स्टेशन' का नाम रख दिया ! दोनों गाँव में "आग लग गयी" ! जिनके नाम ये स्टेशन रखा गया - वो भी हमारी जाति के थे - पर यहाँ 'क्षेत्रवाद' उभर कर आ गया ! बाबा चुप थे ! आँखें नाच रही थी ! स्टेशन का उदघाटन का दिन आ गया ! 'तनाव' चरम सीमा पर थी ! उनलोगों ने किसी बड़े आदमी को बुला रखा था - उदघाटन के लिए ! और हमारा गाँव इस जीद पर अडा था की - स्टेशन का 'उदघाटन' मेरे बाबा ही करेंगे ! खैर , पहली ट्रेन रुकी और बाबा की उपस्थिती में स्टेशन चालू हुआ ! उस गाँव के लोग जो हमारी जाति ही नहीं एक गोत्र के भी थे - उनसे 'नेवता - पेहानी' काफी दिन तक बंद रहा !
कहाँ गया 'जातिवाद' ???
दूसरी घटना याद है ! मेरे गाँव में एक बहुत बड़ा "पोखर" है ! पूर्वजों ने उसको एक ब्राह्मण को दान दे दिया था ! वो ब्राह्मण नाव्ल्द हो गए ! उनके मरने के बाद उनकी पत्नी अपनी मायके रहने लगी ! बगल के गाँव में एक आदमी 'ठिकेदारी' से बहुत पैसा कमाया और उस विधवा से जमीन अपने नाम करवा लिया ! क्योंकि , वो पोखर करीब २०-२५ एकड़ में था सो मछली उत्पादन और आय का बहुत श्रोत हो सकता था ! पर एक दिक्कत थी - ब्राह्मण के नहीं रहने के हालत में - वो पोखर धार्मिक कामो में प्रयोग होने लगा और माल मवेशी को नहाने धुलाने में ! हिंदू वहाँ 'छट पूजा' करते थे ! पोखर के पछिम दिशा में बाबा ने मुसलमानों को बुला उनसे चंदा दिलवा - एक छोटी मस्जिद भी बनवा दी ! 'दान' दी हुई चीज़ थी - सो परिवार में किसी को कभी कोई लालच नहीं हुआ - अब वो पुरे गाँव का हो गया था ! पर , ठेकेदार एक दिन मछली मारने पहुंचा ! 'मेरा पूरा गाँव' हल्ला बोल दिया ! कागज़ी तौर पर वो मजबूत था - पर गांव को ये मंजूर नहीं था ! कोर्ट - कचहरी शुरू हुआ ! गाँव के हर घर पर उसकी आमदनी के अनुसार चंदा बाँध दिया गया ! सभी मंजूर कर लिए ! और ये 'मुकदमा' हारते - जीतते अंततः "पोखर" सार्वजनिक घोषित हुआ !
मैंने समाजशास्त्र किसी किताब में नहीं पढ़ी है ! १९८७ के बाद शायद की कोई किताब इन विषयों की पढ़ी हो ! पर , समाज के साथ रहा हूँ - पला बढ़ा हूँ , सो जो महसूस करता हूँ - लिखता हूँ !
मनोविज्ञान को भी नहीं पढ़ा ! पर इसी छोटी उम्र में हजारों लोगों से मिल चूका हूँ ! लोग किस किस अवस्था में कैसे सोचते हैं - पता है !
मैंने पहले भी कहा है - मंगल ग्रह पर कोई भी आदमी 'पृथ्वी' का अपना लगेगा ! अमरीका में बैठा 'पाकिस्तानी' करीबी लगेगा ! बंगलौर में 'यू पी ' वाला भाई लगेगा ! दिल्ली में 'बिहार के किसी भी जिले' का कोई भी अपना लगेगा ! बिहार में अपना जिला वाला प्यारा लगेगा ! अपने जिला में अपना गाँव वाला सब से नजदीकी होगा ! अपने गाँव में अपना घर वाला सब से निकट का महसूस होगा ! और परिवार के अंदर - अपनी बीवी - बाल बच्चों के हित में सोचूंगा और बीवी से झगडते वक्त - अपनी दलील पर कायम रहूँगा :)
इन्ही शब्दों के साथ ....
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !