Saturday, September 27, 2014

छठ पूजा - दालान / अख़बार के पन्नो से

रविश कुमार शौक से पत्रकार है - मेरे पड़ोसी से मेरा ही परिचय देने लगे - "हम यादों में जीते हैं" - आज के 'प्रभात खबर' के पहले पन्ने पर छपी - उनकी बेहतरीन लेख - छठ पूजा पर - "सामूहिकता सिखाते छठ घाट"
‘नरियलवा जे फरेला घवद से, ओह पर सुग्गा मेड़राए, ऊ जे खबरी जनइबो अदित से, सुग्गा दिले जूठइयाए, उ जे मरबो रे सुगवा धनुष से, सुग्गा गिरे मुरझाए .’ मैं कहीं भी रहूं, किसी भी हालत में रहूं, बस यह गाना किसी तरह मेरे कानों से गुजर जाये, मैं छठ में पहुंच जाता हूं. यह गीत रुलाते-रुलाते अंतरात्मा के हर मलिन घाट को धोने लगता है, जैसे हम सब बचपन में मिल कर झाड़ू लेकर निकल पड़ते थे, सड़क-घाट की सफाई करने. मुझे मालूम है कि छठ के वक्त हम सब भावुक हो जाते हैं. आपको पता चल गया होगा कि मैं भी भावुक हूं. हर छठ में यह सवाल आता है कि छठ में घर जा रहे हो. घर मतलब गांव. गांव मतलब पुरखों की भूमि. अब घर का मतलब फ्लैट हो गया है, जिसे मैंने दिल्ली में खरीदा है. गांववाला घर विरासत में मिला है, जिसने हमें और आपको छठ की संस्कृति दी है. मेरा गांव जितवारपुर बूढ.ी गंडक के किनारे है. बड़की माई छठ करती थीं. उनकी तैयारियों के साथ पूरा परिवार, जो जहां बिखरा होता था, सब छठ के मूड में आ जाता था. मां पूछती, ऐ जीजी केरवा केने रखाई, बाबूजी अपने ब.डे भाई से पूछने लगते थे- हो भइया,मैदा,डालडा कब चलल जाई अरेराज से ले आवे, आ कि पटने से ले ले आईं. कब जाना है और कब तक मीट-मछरी नहीं खाना है, सबकी योजना बन जाती थी. डालडा में ठेकुआ छनाने की खुशबू और छत पर सूखते गेंहू की पहरेदारी. चीनीवाला ठेकुआ और गुड़वाला ठेकुआ. एक कड़ा-कड़ा और दूसरा लेरु आया(नरम) हुआ. आपने भी इसी से मिलता- जुलना मंजर अपने घर-परिवार और समाज में देखा होगा. छठ की यही खासियत है, इसकी जैसी स्मृति मेरी है, वैसी ही आपकी होगी. आज के दिन जो भी जहां होता है, वह छठ में होता है या फिर छठ की याद में.
उस दिन मेरी नदी गंडक कोसी के दीये से कितनी सुंदर हो जाती है, क्या बताएं. अगली सुबह घाट पर प्रसाद के लिए कत्थई कोरवाली झक सफेद धोती फैलाये बाबूजी आज भी वैसे ही याद आते हैं. जब तक जिंदा रहे, छठ से नागा नहीं किया. दो दिनों तक नदी के किनारे हम सब होते हैं. सब अपनी- अपनी नदियों के किनारे ख.डे उस सामूहिकता में समाहित होते रहते हैं, जिसका निर्माण छठ के दो दिनों में होता है और जिसकी स्मृति जीवन भर रह जाती है. हमारे जितने भी प्रमुख त्योहार बचे हैं, उनमें से छठ एकमात्र है, जो बिना नदी के हो ही नहीं सकता. बिहार को नदियां वरदान में मिली हैं, हमने उन्हें अभिशाप में बदल दिया. आधुनिकता ने जबसे नदियों के किनारे बांध को ढूंढ.ना शुरू किया, नदियांे का वर्णन भयावह होता चला गया. छठ एकमात्र ऐसा पर्व है, जो नदियों के करीब हमें ले जाता है. यह और बात है कि हम नदियों के करीब अब आंख मूंद कर जाते हैं, ताकि उसके किनारे की गंदगी न दिखे, ताकि उसकी तबाही हमारी पवित्रता या सामूहिकता से आंख न मिला ले. घाटों को सजाने का सामूहिक श्रम नदियों के भले काम न आया हो, मगर सामाजिकता के लिए जरूरी है कि ऐसे भावुक क्षण ज़रूर बनते चलें.
‘पटना के घाट पर, हमहूं अरिगया देबई हे छठी मइया,हम न जाइब दूसर घाट, देखब हे छठी मइया.’ शारदा सिन्हा जी ने इसे कितना प्यार से गाया है. पटना के घाट पर छठ करने की जिद. गंगा की तरफ जानेवाला हर रास्ता धुला नजर आता है. सीरीज़ बल्ब से सजा और लाउड स्पीकर से आनेवाली आवाज, ऐ रेक्सा, लाइन में चलो, भाइयो और बहनो, कृष्णानगर छठपूजा समिति आपका स्वागत करती है. व्रती माताओं से अनुरोध है कि लौटते वक्त प्रसाद जरूर देते जाएं. कोई तकलीफ हो, तो हमें ज़रूर बताएं. पूरी रात हिंदी फिल्म के गाने बजने लगते हैं. हमारे वक्त में दूर से आवाज़ आती थी, हे तुमने कभी किसी को दिल दिया है, मैंने भी दिया है. सुभाष घई की फिल्म कर्ज का यह गाना खूब हिट हुआ था. तब हम फिल्मी गानों की सफलता बॉक्स ऑफिस से नहीं जानते थे. देखते थे कि छठ और सरस्वती पूजा में कौन- सा गाना खूब बजा. काश कि हम नदियों तक जानेवाले हर मार्ग को ऐसे ही साल भर पवित्र रखते. जो नागरिक अनुशासन बनाते हैं, उसे भी बरकरार रखते.
कितने नामों से हमने नदियों को बुलाया है. गंगा,गंडक,कोसी,कमला, बलान, पुनपुन, सोन, कोयल, बागमती, कर्मनाशा, फल्गु, करेह, नूना, किऊल ऐसी कई नदियां हैं, जो छठ के दिन किसी दुल्हन की तरह सज उठती हैं. आज कई नदियां संकट में हैं और हम सब इन्हें छोड़ कर अपनी- अपनी छतों पर पुल और हौद बना कर छठ करने लगे हैं. दिल्ली में लोग पार्क के किनारे गड्ढा खोद कर छठ करने लगते हैं. यहां के हजारों तालाबों को हमने मकानों के नीचे दफन कर दिया और नाले में बदल चुकी यमुना के एक हिस्से का पानी साफ कर छठ मनाने लगते है. तब यह सोचना पड़ता है कि जिस सामूहिकता का निर्माण छठ से बनता है, वह क्या हमारे भीतर कोई और चेतना पैदा करती है. सोचियेगा. नदियां नहीं रहेंगी, तो कठवत में छठ की शोभा भी नहीं रहेगी. घाट जाने की जो यात्रा है, वह उस सामूहिकता के मार्ग पर चलने की यात्रा है, जिसे सिर्फ नदियां और उनके किनारे बने घाट ही दे सकते हैं. क्या आप ईद की नमाज़ अपने घर के आंगन में पढ. कर उसकी सामूहिकता में प्रवेश कर सकते हैं. दरअसल इसी सामूहिकता के कारण ईद और छठ एक -दूसरे के करीब हैं. बिहार की एकमात्र बड़ी सांस्कृतिक पहचान छठ से बनती है. इसका मतलब यह नहीं कि अन्य सामाजिक तबकों के विशाल पर्व -त्योहार का ध्यान नहीं है, लेकिन छठ से हमारी वह पहचान बनती है, जिसका प्रदर्शन हम मुंबई के जूहू बीच और कोलकाता के हावड़ा घाट पर करते हैं. इस पहचान से वह ताकत बनती है, जिसके आगे ममता बनर्जी बांग्ला में छठ मुबारक की होर्डिंग लगाती हैं और संजय निरूपम मुंबई में मराठी में. दिल्ली से लेकर यूपी तक में छठ की शुभकामनाएं देते अनेक होर्डिंग आपको दिख जायेंगे.
अमेरिका में रहनेवाले मित्र भी छठ के समय बौरा जाते हैं. हम सब दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु में रहनेवाले होली को जितना याद नहीं करते, छठ को याद करते हैं. यह एक ऐसा पर्व है, जो भीतर से बिल्कुल नहीं बदला. पूजा का कोई सामान नहीं बदला. कभी छठ में नया आइटम जुड़ते नहीं देखा. अपनी स्मृति क्षमता के अनुसार यही बता सकता हूं कि छठ की निरंतरता गज़ब की है. बस एक ही लय टूटी है, वह है नदियों के किनारे जाने की. लालू प्रसाद के स्वीमिंग पुल वाली छठ ने इसे और प्रचारित किया होगा. यहीं पर थोड़ा वर्ग भेद आया है. संपत्र लोगों ने अपने घाट और हौद बना लिये. बिना उस विहंगम भीड़ में समाहित होने का जोखिम उठाये आप उस पहचान को हासिल करना चाहते हैं, यह सिर्फ आर्थिक चालाकी ही हो सकती है, लेकिन इसके बाद भी करोड़ों लोग नंगे पांव पैदल चल कर घाट पर ही जाते हैं. जाते रहेंगे. घाट पर नहीं जाना ही तो छठ में नहीं जाना होता है. अब रेल और बस के वश की बात नहीं कि सभी बिहारियों को लाद कर छठ में घर पहुंचा दें. इसलिए आप देखेंगे कि छठ ने अनेक नयी नदियों के घाट खोज लिये हैं. यह छठ का विस्तार है.
‘सर..सर.छुट्टी दे दीजिए.सर. बस चार दिन में आपना गांव से वापस लौट आयेंगे. माई इस बार छठ कर रही है, मामी भी, छोटकी चाची भी. सब लोग. कलकत्ता से बड़का भईया भी आ रहे हैं. सर.हम भी जायेंगे.सर.टिकट भी कटा लिये हैं.. सर सब कुछ तो आपका ही दिया हुआ है.यह बुशर्ट ..यह खून में मिला नमक..मेरा रोम- रोम आपका कर्ज.दार है..बिहारी हैं न..पेट भरने अपने घर से मीलों दूर..आपकी फैक्टरी में..पर सर.छठ पूजा हमारे रूह में बसता है..अब हम आपको कैसे बताएं..छठ क्या है.हमारे लिए. हम नहीं बता सकते और न आप समझ सकते हैं.’
हमारे मित्र रंजन ऋतुराज ने अपने फेसबुक पर इस काल्पनिक से लगने वाले छठ संवाद को लिखा है. क्या पता कितने लोगों ने ऐसे ही छुट्टी मांगी होगी, मिलने पर नाचे होंगे और नहीं मिलने पर उदास हो गये होंगे. सब आपस में पूछ रहे हैं, तुम नहीं गये, जाना चाहिए था. हम तो अगले साल पक्का जायेंगे. अभी से सोच लिये हैं. बहुत हुआ इ डिल्ली का नौकरी. हम सब यहां जो गंगा और गंडक से दूर हैं, छठ को ऐसे ही याद करते हैं. कोई घर जाने की खुशी बता रहा है, तो किसी को लग रहा है कि शिकागो में आकर भी क्या हासिल, जब छठ में गांव नहीं गये. तभी मैं कहता हूं कि इस व्रत को अभी नारीवादी नजरिये से देखा जाना बाकी है, हो सकता है इसे जातिगत सामूहिकता की नजर से भी नहीं देखा गया हो, जरूर देखना चाहिए, लेकिन इस त्योहार की खासियत ही यही है कि इसने बिहारी होने को जो बिहारीपन दिया है, वह बिहार का गौरवशाली इतिहास भी नहीं दे सका. शायद उस इतिहास और गौरव की पुनर्व्याख्या आने वाली राजनीति कर के दिखा भी दे, लेकिन फिलहाल जिस रूप में छठ हमें मिला है और हमारे सामने मौजूद है, वह सर माथे पर. हर साल भाभी का फोन आता है. छठ में सबको चलना है. जवाब न में होता है, लेकिन बोल कर नहीं देते. चुप होकर देते हैं. भीतर से रोकर देते हैं कि नहीं आ सके, लेकिन अघ्र्य देने के वक्त जल्दी उठना और दिल्ली के घाटों पर पहुंचने का सिलिसला आज तक नहीं रुका. छठ पूजा समिति में कुछ दे आना, उस सामूहिकता में छोटा सा गुप्तदान या अंशदान होता है, जिसे हमने परंपराओं से पाया है. तभी तो हम इसके नजदीक आते ही यू ट्यूब पर शारदा सिन्हा जी को ढूंढ.ने लगते हैं. छठ के गीत सुनते- सुनते उनके प्रति सम्मान प्यार में बदल जाता है. शारदा जी हम प्रवासियों की बड़की माई बन जाती हैं. हम उनका ही गीत सुन कर छठ मना लेते हैं.

~ रविश कुमार / प्रभात ख़बर 
( दालान उनका शुक्रगुजार है - उन्होंने दालान के पन्नो को उसी भाव से - बिना सम्पादन - अपने लेख का हिस्सा बनाया - वो ऐसा पहले भी कर चुके हैं )
~ 18 November - 2012 

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