Thursday, December 26, 2019

श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा / Smt Tarkeshwari Sinha


#TarkeshwariSinha #MustRead
स्व तारकेश्वरी सिन्हा जी देश की आज़ादी के वक़्त 'लंदन स्कूल ओफ इकोनोमिक्स' में थी । महज़ 26 साल में सांसद बनी और बाद में नेहरु मंत्रिमंडल में उप वित्त मंत्री भी । पटना पूर्वी / बाढ़ से चार बार सांसद भी रही ।
उनका यह लेख मैंने वर्षों पहले पढ़ा था । बेहतरीन वक़्ता थी और विचारक / लेखक भी । फ़ुर्सत हो तो यह लेख पढ़िए ।


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इस आपाधापी के जीवन में जब कोई पूछ बैठता है कि संसद में नहीं रहने के बाद आप क्या कर रही हैं, तो जी चाहता है उत्तर दूँ कि 'झख' मार रही हूँ। तारकेश्वरी सिन्हा का जीवन अकसर लोग संसद के घेरे में ही देखते रहे हैं। जैसे, मैं कोई कबूतर हूँ जो संसद में ही घर बनाकर 'गुटर गूँ' करती रही हूँ। पर कबूतर का भी तो अपना जीवन होता है और संसद की मुँडेरों पर घोसला बना कर वह प्यार करता है, बच्चों को जन्म देता है, दाना–चारा लाकर बच्चों का पेट भरता है, उड़ना सिखाता है, और फिर एक दिन उन्हें उड़ाकर स्वयं भी घोसले को छोड़ देता है और भविष्य में नया घोसला बनाने का उपक्रम भी शुरू कर देता है।

फिर मैं क्यों संसद की सदस्य बनकर उड़ान भरने का हक नहीं रखती। संसद की सदस्य तो मैं थी, पर घर–परिवार को छोड़ा तो नहीं था, माँ बनकर माँ की जिम्मेदारी को भी निभाया था। पर यह प्रश्न तो कोई पूछता ही नहीं। जो मेरी जिंदगी में वर्षों तक छाये रहे, वो भी यही कहते हैं, "तारकेश्वरीजी, अब आप क्या कर रही हैं?" मैं यह तो कहने की जुर्रत कर नहीं कर सकती कि यह प्रश्न आप लोगों ने महात्मा गांधी से नहीं पूछा, जयप्रकाश नारायण से नहीं पूछा, अरूणा आसफ अली से नहीं पूछा कि संसद के तो आप लोग कभी सदस्य रहे नहीं, तो जीवन कैसे बिताया? फिर मुझ पर ही क्यों, आप लोग, अपने सितुए की धार तेज करते रहते हैं, जैसे मैं सिर्फ कद्दू का टुकड़ा हूँ।

वैसे राजनीतिज्ञ की जिंदगी अपने और गैरों का फर्क निरंतर मिटाने की कोशिश करती रहती है। पर क्या अंतर सिर्फ संसद के दायरे में उलझा रहता है? या फिर राजनीतिक जीवन की आपाधापी में, 'संसद के बाहर' उसका आधार सामाजिक परिवेश में, आर्थिक परिवेश में बहुत बड़ा होकर अपनी ही गहराइयों की तरफ खसकाता है और महसूस कराता रहता है ––
सफर है, रास्ता है, फासला है
कदम मंजिल, कदम ही रहनुमा है
और निरंतर इन्हीं क्षणों में जीना, हमारी जिंदगी का अनूठा क्षण होता है। पर जब कोई पूछ बैठता है कि वह कौन–सा क्षण है, तो ऐसा लगता है जैसे, मैं समुद्र के किनारे बसे एक शहर के मकान की बालकनी में खड़ी हूँ और अपने सामने देख रही हूँ अनगिनत लहरों के थपेड़ों को, जो बीच से उमड़कर किनारे पर आते हैं और हलके से टकराकर न जाने कहाँ खो जाते हैं। न जाने कितनी बार उनकी गिनती की है, पर हिसाब नहीं रख पायी हूँ अब तक।

हाँ, देखा है कुछ हरे–मुरझाये पत्ते, कुछ कागज के टुकड़े, कुछ लकड़ियों के टूटे–फूटे हिस्से, कुछ बिखरे फूल और उन्हीं के बीच, जिंदगी का अहसास देती और इधर–उधर दौड़ती–सरसराती मछलियाँ। अगर मैं कहूँ कि मेरे जीवन के अनूठे अनुभवों का यही सिलसिला है –– तो क्या किसी को आश्चर्य होगा? उसी तरह की तो मेरी जिंदगी की झलकियाँ हैं –– जिनका संसदीय जीवन से कोई रिश्ता नहीं, पर मुझसे बहुत गहरा है।

अहसास मछलियों का

संसद के भवन में रहते–रहते, एक दिन महसूस हुआ कि मेरी जिंदगी भी समुद्र के तट की तरह है –– जहाँ मैं खुद एक बालकनी पर खड़ी हूँ। समुद्र की लहरों को रोज गिनती हूँ पर पकड़ नहीं पाती। और घर में रहनेवाले मेरे बच्चे उन मछलियों की तरह हो गये हैं जैसे, समुद्र में दौड़ती–सरसराती मछलियाँ। जिस दिन पहली बार यह महसूस हुआ, वही शायद मेरे जीवन का सबसे अनूठा संस्मरण है।

मेरे बड़े लड़के का इम्तहान था। उसने एक दिन मेरे कमरे में आकर कहा, "अम्मा! आप जरा मुझे नागरिक शास्त्र पढ़ा दें। मैं उसी दिन दिल्ली से बाहर जानेवाली थी। मैंने कहा कि तीन–चार दिन में लौटकर आती हूँ तो तुम्हें पढ़ा दूँगी। मैं जिस दिन सुबह लौटकर आयी, वह ऊपर के कमरे से दौड़ता हुआ किताब लेकर नीचे आया, तब तक कुछ लोग आ गये और मैं उनमें उलझ गयी। ऐसा उस दिन तीन बार हुआ। फिर वह मुझसे पढ़ने कभी नहीं आया। उस दिन से वह बहुत कुछ बदल गया। जब भी घर आता, सीधे ऊपर चला जाता अपने कमरे में, वैसे भी ज्यादातर वह बाहर ही रहता। एक बार मोटर साइकिल से गिरने से उसे बहुत सख्त चोट आयी थी। उस दिन भी उसने मुझसे कुछ नहीं कहा और सीधे ऊपर चला गया। जब मुझे मालूम हुआ कि उसे गहरी चोट लगी है, तो मैं भागकर ऊपर गयी। मुझे देखकर, लगा जैसे उसकी आँखें एकाएक अपरिचित–सी हो गयीं हैं।

उस दिन मैं बहुत ही डर गयी थी। इसलिए कि माँ, बेटे से बहुत दूर चली गयी थी। उस घटना को बरसों बीत गये हैं। अब वह लड़का काम करने लगा है दिल्ली से बाहर। दूरी में –– मैंने उसे शायद, फिर पा लिया है। उसकी चिठ्ठियों में वही प्यार और अपनापन झलकता है। पर अभी हाल में ही मैं उसकी पुरानी फाइलों को साफ कर रही थी। उसमें उसकी लिखी एक डायरी मिली। डायरी में लिखा था – 'जब तक जीवित रहूँगा, अपनी माँ को कभी माफ नहीं कर सकूँगा। मेरी माँ संसद और राजनीति के समुद्र में खो गयी है। मैं अपने घर में भी बहुत अकेला महसूस करता हूँ, आखिर क्यों? माँ के पास सबके लिए समय है, संवेदना है, तड़प है –– पर इतनी फुरसत कहाँ कि मेरे और उनके दरम्यान उठती दीवार को वह तोड़ सकें। मैं भी बहुत चुप होता जा रहा हूँ। पर फिर भी अपने बारे में एक कविता लिख रहा हूँ।

अकेलेपन से ओतप्रोत उसकी वह कविता मेरे जीवन में, सबसे अनोखा अहसास बन गयी है और इसलिए जब–तब मुझे महसूस होता है कि मैं बालकनी में खड़ी हूँ, समुद्र के किनारे और गिन रही हूँ जिंदगी की लहरों में खोये हुए अहसासों को, मुरझाए हुए रिश्तों को और साथ ही कभी–कभी तैरती हुई मछलियों को, जिन्हें पकड़ पाना तो संभव नहीं, पर महसूस करना संभव है, इस अहसास के साथ, जैसे वो कह रही हों ––
तुम हो जहाँ, बेशक वहाँ ऊँचाई है
मगर इस सागर की कोख में
गहरी खाई है ....
~ तारकेश्वरी सिन्हा


@  Ranjan Rituraj 

Friday, April 5, 2019

चिट्टी मिट्टी नरेन्द्र झा फाऊंडेशन


जीवन इस काया के पहले भी है और जीवन इस काया के बाद भी है ! पिछले साल 2018 के 14 मार्च की सुबह प्रसिद्द अभिनेता नरेन्द्र झा अपनी काया छोड़ दिए ! अब उनकी इस नयी काया को गढ़ रही हैं उनकी पत्नी , परिवार और मित्र ! 
उसी क्रम में 'चिट्टी मिट्टी नरेन्द्र झा फाऊंडेशन' का जन्म होने जा रहा है ! इस रविवार 7 अप्रैल को रांची के हरमू मैदान में आयोजित झारखण्ड मिथिला मंच के कार्यक्रम में छः सम्मान होंगे ! 
* भद्रकाली नाट्य परिषद् , कोइलख , मधुबनी 
* श्रीमती गौरी मिश्रा , सुप्रसिद्ध समाज सेविका और दरभंगा के विख्यात डॉ भवनाथ मिश्र की पत्नी ! 
* श्री सुरेन्द्र यादव , प्रसिद्द मैथिलि गीतकार , संगीतकार और गायक 
* श्री अभिनव आनंद , महज १७ साल में ही कई किताबों से प्रसिद्द कथाकार 
* श्री मुकुंद नायक , झारखण्ड में आदिवासी कल्याण में एक सुप्रसिद्ध नाम 
* झारखण्ड मिथिला मंच , रांची 
इन सभी को 'मिथिला रत्न नरेद्र नारायण झा सम्मान' से सुशोभित किया जाएगा जिसके अंतर्गत रु 25,०००/- , शाल , सम्मान पत्र और एक मोमेंटो !  
नरेन्द्र नारायण झा मिथिला के कोइलख ग्राम , मधुबनी के रहने वाले थे ! पटना विश्वविद्यालय , जेएनयू के बाद उन्होंने रंगमंच के तरफ अपना रुख रखा जो उनके अंतिम दिनों तक कायम रहा ! बेहतरीन मॉडल , फिर करीब २० से ऊपर टेलीविजन सीरियल और इतने ही बड़े छोटे सिनेमा ! वो खुद एक बेहतरीन गायक और कई वाद्ययंत्रो पर माहिर थे ! अध्यात्मिक थे - एकांत के क्षणों में मंदिर के चबूतरे पर बैठना उन्हें पसंद था ! एक अदभुत बात थी - मीडिया के ही सबसे बड़े रूप सिनेमा से जुड़े थे लेकिन अन्य रूपों से दुरी रखते थे ! मुझसे पहली ही मुलाकात में - मैंने यही बोला था - काश मेरे पास पैसा होता और मै आपको लेकर 'द ग्रेट गेट्सबाई' सिनेमा का हिंदी रूपांतर बनाता और फिर हमदोनो जोर जोर से हंसने लगे थे ! ग्रीक गॉड की विशाल छवि लेकर पैदा हुए थे और उसी छवि के साथ अपनी काया भी छोड़े ! जेएनयू में उनके सहपाठी टाईम्स ऑफ़ इंडिया में श्रधांजलि देते हुए लिखा था की - नरेन्द्र जी का आवरण ऐसा था की आप बिना प्रभावित हुए नहीं रह सकते थे ! 
मैंने जो कुछ भी उनके बारे में जाना , वो उनकी पत्नी पंकजा के माध्यम से ही जाना और कुछ उनसे कुछ उनसे हुई मेरी मुलाकतों में  ! इस फाऊंडेशन की सूत्रधार और कर्ता उनकी बहादुर पत्नी पंकजा है ! 
पंकजा का परिचय जरुरी है - सर्वप्रथम वो दालान ब्लॉग की फैन नंबर एक है !पंकजा की एक बात मुझे अक्सर याद आती है ! नरेन्द्र जी और पंकजा मुंबई से दूर एक मकान बना रहे थे - सिविल डिजाईन में चौखट की उंचाई थोड़ी कम थी - पंकजा ने पलभर में निर्णय लेकर उस अर्धनिर्मित मकान को फिर से बनवाया क्योंकि नरेंद्र झा की लम्बाई ज्यादा थी , पंकजा का प्रेम नरेन्द्र जी के लिए गीत और कविता में नहीं बल्कि एक्शन में था और शायद यही प्रेम की सच्ची अनुभूति होती है ! पंकजा साहसी है , भयमुक्त है ! मेरे पिता जी इन्हें बहादुर कहते है ! दिल्ली विश्वविद्यालय से गोल्ड मेडलिस्ट होते हुए भी वर्षों बाद मुझे पता चला की वो एक गोल्ड मेडलिस्ट है तब जब हमदोनो के परिवार पिछले चालीस साल से ज्यादा से एक दुसरे को जानते हैं ! पंकजा असीम ऊर्जा की वाहक है - नरेन्द्र जी की अनुपस्थिति में पिछले एक सवा साल से जिस भावनात्मक उतार चढ़ाव से वो गुजर रही हैं - वहां से खुद को सकरात्मक रखना आसान ही नहीं असंभव था और फिर इस फाऊंडेशन का जन्म ! कहते हैं - पंकजा से विवाह करने के लिए नरेन्द्र करीब छः साल इंतज़ार ही नहीं किये बल्कि पंकजा की गरिमा को बरक़रार रखने के लिए पंकजा के माता पिता से एक अनुरोध के साथ पंकजा का हाथ माँगा!यह अंदाज़ मैंने खुद दो बार देखा - जब पटना आगमन पर पंकजा की उपस्थिति में नरेन्द्र जी के हाव भाव , बातों  और आँखों में पंकजा के लिए असीम आदर देखा ! तब जब हैदर , रईस , मोहनजोदारो , काबिल इत्यादि फिल्मों के साथ नरेन्द्र जी काफी बड़े नाम हो चुके थे ! हैदर में पूरी फिल्म ही उनके इर्द गिर्द मन में गुजंती है तो रईस में उनकी भूमिका को युवा वर्ग इन्स्टाग्राम पर चंद सेकेण्ड में कई हज़ार लाईक आये - ये कौन तो ये कौन ! लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था ! 
पंकजा भारतीय राजस्व सेवा की बेहतरीन अधिकारी रह चुकी है ! वो कर्मठ है ! पंद्रह साल पहले जब वो मुंबई इंटरनेश्नल एअरपोर्ट पर पदस्थापित थी और टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने उन्हें अपने पहले पन्ने पर 'किरण बेदी' की संज्ञा दी और पंकजा कभी इसकी चर्चा भी नहीं करती है ! बतौर फिल्म सेंसर बोर्ड सीइओ पंकजा ने कई ऐसे निर्णय लिए जो ना सिर्फ वजनदार थे बल्कि उनके द्वारा लिए गए निर्णय इतिहास भी बनाए और उनके शुरूआती दौर में ही दिल्ली के टाईम्स ऑफ़ इण्डिया ने उनपर एक लेख छापा - तब मैंने जाना की पंकजा अब सेंसर बोर्ड की सीइओ बन चुकी है - और तब से लेकर आज तक पंकजा दालान की फैन नंबर एक है , 9 साल से लगातार !  पंकजा की सबसे बड़ी खासियत है - कमिटमेंट ! प्राण जाए पर वचन ना जाये ! कमिटमेंट वाला उनका यह व्यक्तित्व जबरदस्त है ! जो उन्हें जानते है वो मेरी बातों से अवश्य ही सहमत होंगे :)   
इसी वर्ष फ़रवरी 2019 को पंकजा ने स्वेच्छा से वीआरएस लिया तब जब वो बिहार झारखंड की कम्निश्नर ( जीएसटी ) थी ! यह निर्णय भी अपने आप में बहुत साहसी था - और उस संध्या उनके सामने बैठा था - उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं था और उस वक़्त भी उनका मन  इस फाऊंडेशन के जन्म को लेकर चिंतित था ! 
पंकजा कर्मवीर है लेकिन उनके व्यक्तित्व को 360 डिग्री के साथ जानने के बाद - मुझे हमेशा यही लगता है - उनका साहस , उनकी ऊर्जा किसी कर्म से नहीं प्राप्त की जा सकती - यह दैवीय संयोग और आशीर्वाद है ! 
लेकिन आप कितने भी मजबूत क्यों न हो , ज़िन्दगी इम्तहान जरुर लेती है और इन्ही इम्तहानों में पता चलता है की आप सचमुच में कितने मजबूत है ! मै खुद , परिवार और दालान के पाठकों के तरफ से यही कामना करूंगा की पंकजा मजबूत बनी रहें और यह फाऊंडेशन अपने शिखर के तरफ बढे :)) 


शुभकामनाओं के साथ - 
~ दालान 


@RR

Tuesday, March 5, 2019

स्त्री - पुरुष / स्पर्श

स्त्री और पुरुष जब एक दुसरे से नजदीक आते हैं ! स्पर्श की अनुभूति या स्पर्श का होना ही प्रेम का परिचायक है ! स्त्री 'मन के स्पर्श' को प्रेम कहती है और पुरुष 'तन के स्पर्श' को प्रेम की मंजिल समझता है ! यह स्पर्श कैसा होगा - यह उन्दोनो के प्रेम की इन्तेंसिटी पर निर्भर करेगा ! लेकिन ऐसा नहीं की पुरुष सिर्फ तन के स्पर्श को ही प्रेम समझते हैं या स्त्री सिर्फ मन के स्पर्श को ! दोनों को दोनों तरह का स्पर्श चाहिए लेकिन प्रमुखता अलग अलग है ! 
एक उदाहरण  देना चाहूंगा ! हमारे दौर में भी क्रश होता था ! स्कूल कॉलेज इत्यादि में ! यहाँ लड़की लडके की किसी अदा पर रिझती थी - शायद वही मन का स्पर्श होता है ! वहीँ लडके क्लास नोट्स आदान प्रदान के वक़्त उंगलिओं के स्पर्श को ही प्रेम की मंजिल समझ लेते थे से लेकर शादी की बात तक ! जैसा की मैंने ऊपर लिखा है - प्रेम के विस्तार तक - स्पर्श की अनुभूति या कल्पना ! 
स्त्री के मन को समझना कठिन है ! यह तरल है ! बहाव में तेज़ी है ! इस मन का कैसे और कब स्पर्श होगा - कहना मुश्किल है ! उम्र के हिसाब से इसका अंदाज़ लगाने की कोशिश की गयी है - एक पैटर्न को देखते हुए ! फिर भी एक पुरुष के लिए यह समझना कठिन है ! यौवन के शुरुआत में गली मोहल्ला के लोफर का बाईक चलाना से लेकर यौवन के अंत में किसी पुरुष की कुलीनता ! लेकिन यह एक महज एक स्टडी है - सच्चाई नहीं ! 
हमारे इलाके में - एक स्त्री को अपने जेठ से किसी भी तरह की दैहिक छुअन की मनाही है ! वो जब अपने जेठ के पैर छूकर प्रणाम की जगह - उनके पैरों के पास जमीन को छुएगी ! यह सामाजिक परम्परा इंसान की मन को देख कर बनाया गया होगा ! यह मान कर चला गया होगा की स्त्री अपने से ज्यादा उमरदराज जेठ से प्रभावित हो चुकी होगी और जेठ अपने से कम उम्र की भाभी / भाभो के तरफ आकर्षित हो चुका होगा ! अब यह बात यहीं ख़त्म हो जाये सो इसके लिए किसी भी तरह स्पर्श की सख्त मनाही है ! स्त्री स्वभाव से अपने से ज्यादा उम्र के पुरुष के प्रति आकर्षित हो चुकी होती है ! वो उन्हें विशाल मान कर चलती है - तब जब उनकी उपस्थिति मृदुल और सुरक्षात्मक हो ! पुरुष अपने से कम उम्र की स्त्री के प्रति आकर्षित हो चुके होते है , तब जब उनकी उपस्थिति एक झरोखों में हो ! स्त्री को अपना जेठ भले वो घास काटने वाला क्यों न हो - विशाल लगेगा ही लगेगा ! तब जब कोई अन्य अहंकार की टकराव न हुई हो ! शायद यही वजह रही होगी की हमारे यहाँ शादी में एक रस्म - आशीर्वादी / मझ्क्का ! जहाँ वर अपनी वधु के सर पर के आंचल को पीछे की तरफ खींचेगा और जेठ उस आँचल को आगे की तरफ लाएगा ! यह उस मनोभाव को दर्शाता है की - पुरुष समय के साथ नजदीक आने पर अपनी स्त्री / पत्नी के इज्जत के साथ खिलवाड़ कर सकता है और तब उस जेठ का दायित्व होगा की वह अपनी भाभी / भाभो के इज्जत को बरक़रार रखे ! यह पूरा खेल - विशालता का है ! और स्त्री विशालता ही तलाशती है तभी किसी भी तरह के स्पर्श की सख्त मनाही है ! 
स्त्री के मन को कुछ भी स्पर्श कर सकता है , कुछ भी ! झूट या सही - मुझे पता चला की देश की एक मशहूर परिवार की लड़की एक अत्यंत साधारण लडके के तरफ इसलिए आकर्षित हुई की वो लड़का डांस फ्लोर पर बहुत बढ़िया डांस करता था ! हा हा हा ! यह घटना हम जैसे तीसरे इंसान के लिए एक घोर आश्चर्य की बात थी ! मै तो इस सुचना के बाद कई दिनों तक सोचता रहा की कोई इतने बड़े खानदान की लड़की किसी पुरुष के डांस से कैसे प्रभावित होकर अपना जीवन सौंप सकती है ! लेकिन ऐसे कई उदहारण है ! किसी पुरुष की कौन सी बात किस स्त्री के मन को स्पर्श कर जाए - कहना मुश्किल है ! फिल्म पाकीज़ा में मीना कुमारी की खुबसूरत पैरों की तारीफ करना ही उनके मन को स्पर्श कहा जा सकता है ! उस तारीफ में कितनी इंटेंसिटी रही होगी की पूरी फिल्म ही उस घटना के इर्द गिर्द घुमती है ! ऐसी घटनाएं हम पुरुषों को हतप्रभ कर देती हैं लेकिन किसी अन्य महिला को नहीं ! शायद वजह होगी की एक महिला दुसरे महिला का मन समझ सकती है ! 
ठीक उसी तरह मेरे अत्यंत प्रिय कलाकार शाईनी आहूजा के ऊपर नौकरानी ने आरोप लगाए तो मेरी पत्नी को आश्चर्य हुआ - मुझे नहीं ! हा हा हा ! पुरुष का मन शारीरिक स्पर्श के लिए कब जाग जाए - कहना कठिन है ! सिवाय खुद के भाई बहन के - कहीं भी ! उसी तरह स्त्री का मन कब और कौन स्पर्श कर जाए कहना कठिन है ! 
एक यात्रा के दौरान मै एक बकरी पालन के बिजनसमैन से  वार्तालाप किया और उन्होंने कहा की जब तक बकरी इजाजत नहीं दे - बकरे दैहिक मिलन को पास नहीं जाते हैं ! यह प्रक्रिया / स्वभाव  कई जानवरों में पायी जाती है ! इंसान को छोड़ ! शायद यहीं से सभी समाज में 'स्वयंवर' की प्रथा चालु हुई होगी ! प्रकृति यह इजाजत सिर्फ और सिर्फ स्त्री जाति को देती है की वो किसको अपने पास आने की इजाजत देगी और इंसानों का भी सभ्य समाज हमेशा से इसका आदर किया है ! असभ्य समाज पुरुष के अहंकार से चलता है और सभ्य समाज स्त्री के मन से ! और यहाँ बकरी जाति से सीखना होगा की - जो पसंद है उसे कैसे पास बुलाएं :) 
तो यह मान कर चलना चाहिए की पुरुष शारीरिक मिलन को बेचैन होते हैं और महिलायें मन के मिलन को ! लेकिन ऐसा भी नहीं है ! बस अनुपात का अंतर है ! शायद स्त्री अपने शरीर के मिलन के साथ पुरुष के मन में जाना चाहती है और पुरुष मन के रास्ते स्त्री के तन तक ! यह भी एक कारण रहा होगा की समाज में पुरुष को अपने मन को खोलने की मनाही है और स्त्री को तन की ! स्त्री अपने मन को कभी भी और कहीं भी खोल सकती है ! पुरुष भी ! नजदीक आने पर स्त्री का मन खुलना ही खुलना है और पुरुष तो अपना शर्ट का दो बटन खोल पहले से ही बैठे होते हैं ! हा हा हा ! पुरुष भूल जाते हैं - मन को मन ही स्पर्श करता है ! और पुरुष सबसे अंत में अपनी आत्मा खोलते हैं और स्त्री सबसे अंत में अपना शरीर ! जिस पुरुष ने संबंधों में अपनी आत्मा पहले ही खोल दी - वो स्त्री के सामने अपनी महता खो भी सकता है और कुछ ऐसा ही नियम स्त्री पर लागु होता है की वो सबसे अंत में अपना शरीर खोले ! लेकिन यह पुर्णतः सच भी नहीं है - यहाँ परिपक्वता का खेल है ! एक परिपक्व दिमाग सामने वाले के शरीर की इज्जत देगा और मन की भी ! लेकिन दोनों तरफ इस स्पर्श के पहले - पूरी तरह ठोक बजा लेते हैं ! यहीं व्यक्तित्व है ! खुलना तो है ही है - राजा हो रंक ! क्योंकि खुलना प्रकृति है ! और आप हम सभी प्रकृति के नियम से बंधे है ! भूख सबको लगती है - राजा हो या रंक ! यह समाज है जो हमें गलत सिखाता है की राजा नहीं रोयेगा या उसे सिर्फ रानी से प्रेम होगी इत्यादि इत्यादि ! यह गलत है ! सही यही है की प्रकृति या ईश्वर की नज़र में सब बराबर है ! भावनाओं का अनुपात इंसान इंसान पर अलग अलग निर्भर करेगा ! या ज़िन्दगी का अनुभव या प्राकृतिक परिपक्वता उन भावनाओं को बढ़ा देंगी या घटा देंगी ! 
लेकिन वो सारे प्रेम अधूरे हैं - जहाँ अभी तक स्पर्श नहीं हुआ हो - या शायद वही प्रेम ज़िंदा हैं :)
@RR / 5 March 2019 / Patna 
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Monday, March 4, 2019

स्त्री - पुरुष / अर्धनारीश्वर

आज महाशिवरात्रि है ! स्त्री पुरुष के बीच के संबंधों को समझने का एक अध्यात्मिक कोण ! किसी भी चीज को समझने का अलग अलग कोण है ! अब आप अपने सुविधानुसार या किसी कारणवश किसी भी चीज को अपने कोण से देखते हैं और आपको प्रकृति भी आपको अपने कोण से देखने की छुट भी देती है ! 
सर्वप्रथम  यह मान के चलना चाहिए की यह 'महाशिवरात्रि' नहीं बल्कि 'महाशिवशक्ति रात्री' है ! शिव और शक्ति दोनों के मिलन की रात्री है ! अर्धनारीश्वर का कांसेप्ट ! एक ऐसी संरचना या  अनुभूति जहाँ शिव और शक्ति दोनों की बराबर उपस्थिति है ! जैसे 'शिव लिंग की पूजा' - वो शिव लिंग नहीं बल्कि 'शिव और शक्ति' दोनों का लिंग है ! वो मिलन के मुद्रा में है - वह मिलन जो इस जगत का आधार है , वो मिलन जो इंसान के परम सुख का आधार है ! यही मिलन अर्धनारीश्वर है ! 
संभवतः समाज पुरुष प्रधान रहा होगा तो इस शिव और शक्ति के मिलन वाले दिन को महाशिवरात्री कह दिया गया या शिव शक्ति के लिंगों के मिलन को सिर्फ शिव लिंग कह दिया गया और यह परंपरा चलती आई ! हालांकि इस विषय पर मैंने कुछ साल पहले हलके इशारा में इसी शिव रात्री के दिन लिखा था - यह कह कर की यह 'शिव शक्ति रात्रि' है ! आज का संयोग देखिये - मैंने इसी नाम से एक ज्वेलरी  का दूकान भी देखा !
जब हम शिव के नाम के साथ शक्ति का भी प्रयोग करते हैं  संभवतः हम शक्ति को भी उचित स्थान देते हैं , हालांकि धर्म के जानकार यह कह सकते हैं की शिव में शक्ति का मिलन है तो शिव नाम से ही शक्ति का भी ध्यान होता है ! यह तर्क भी उचित है लेकिन मै विशुद्ध शक्ति का उपासक हूँ तो मेरे व्यक्तिगत मत से शिव के साथ साथ शक्ति शब्द का भी प्रयोग होना चाहिए ! या फिर लोग करते आये हैं ! लेकिन हमारी कल्पना में शिव पूर्ण है - जहाँ शक्ति समाहित है !
स्त्री और पुरुष के बीच तीन तरह के सम्बन्ध बनते है - कारण जो भी हो ! शारीरिक , भावनात्मक और अध्यात्मिक ! उम्र के अलग अलग पड़ाव पर अलग अलग ढंग से बन सकते हैं ! माँ और पुत्र में यह अध्यात्मिक होता है - जन्म के साथ ही शायद हम पुरुष अपनी माँ के साथ एक अध्यात्मिक भाव बनाते हैं ! फिर उम्र के हिसाब से अन्य स्त्रीओं के साथ शारीरिक आकर्षण और साथ में भावनात्मक भी ! कभी भावनात्मक तो कभी शारीरिक आकर्षण - उस दौर के हिसाब के ! लेकिन माँ के साथ बचपन में अध्यात्मिक सम्बन्ध के बाद - यौवन की नज़र की पहली फुहार भावनात्मक होती है - वो कहीं से शारीरिक नहीं होती है ! मै बात यौवन की पहली फुहार की कर रहा हूँ ! फिर उम्र के साथ शारीरिक आकर्षण ! प्रकृति है ! आप प्रकृति से नहीं बच सकते ! जैसे आपके घर का कुत्ता विशुद्ध शाकाहारी ढंग से दूध रोटी खिला कर पाला पोशा गया हो लेकिन हड्डी देखते ही वो उसकी सुगंध के तरफ आकर्षित होगा ही होगा ! यह प्रकृति है ! बकरी को हड्डी नहीं लुभाएगा क्योंकि बकरी को प्रकृति ने शाकाहारी बना के भेजा है !
लेकिन एक लोचा है - उम्र के एक ख़ास पडाव या दौर में क्षणिक ही सही लेकिन शारीरिक और भावनात्मक सम्बन्ध - दोनों साथ साथ होते है ! यह जोड़े जोड़े पर निर्भर कर सकता है - किसमे किस आकर्षण का अनुपात ज्यादा है ! कहीं शारीरिक ज्यादा तो कहीं भावनात्मक ज्यादा ! 
लेकिन 'शिव शक्ति' का मिलन इन तीनो भावों को दर्शाता है ! तीसरा भाव 'अध्यात्मिक' बहुत कठिन है ! इसे बहुत वक़्त चाहिए ! बहुत ! कई संबंधों में यह भाव तब आता है - जब बाकी के दोनों भाव ख़त्म हो चुके हों ! आप आस पास के संबंधों को गौर से देखिये - कई पति पत्नी में यह अध्यात्मिक भाव आपको नज़र आएगा - जब पत्नी माँ के रूप में बन जाती है ! काफी उमरदराज जोड़ों में यह नज़र आएगा - जब उन्हें जीवन का अनुभव सच के करीब लाएगा ! लेकिन कम उम्र में - इन तीनो भावों के साथ कोई रिश्ता बनाना अत्यंत कठिन है ! सारे योग फेल हो जायेंगे क्योंकि मनुष्य की प्रकृति इसकी इजाजत नहीं देती ! दो भाव एक साथ आयेंगे तो तीसरा नदारत ! और सिर्फ एक भाव के साथ सम्बन्ध को टूटने का ख़तरा क्योंकि इन सारे रहस्यों को एक वातावरण भी कंट्रोल करता है - जिसे हम संसार कहते हैं और संसार आपके हिसाब से नहीं चलता !
शायद यही वजह है हम तीसरे भाव के लिए ईश्वर की तरफ धकेल दिए जाते हैं ! क्योंकि एक साथ इन तीनो भाव के होने की इजाजत यह संसार नहीं देता ! शायद इसलिए मैंने अपने एक पुराने पोस्ट में ईश्वर , प्रकृति के साथ साथ संसार को भी एक बराबर की जगह दी है ! हालांकि मेरा झुकाव प्रकृति के तरफ होता है क्योंकि मै मानव स्वभाव को समझने की कोशिश करता हूँ !
एक बात और क्लियर है की जो एक ख़ास उम्र के दौर में है और अद्यात्मिक है - वह अपनी आत्मा या अपने से ऊँची आत्मा के साथ संपर्क बनाना चाहता है या बन चुका है - उसके अंदर भी बाकी के भाव होंगे ! यहाँ समाज या तीसरा व्यक्ति गलत कैलकुलेट करता है और कई बार अध्यात्मिक लोग कई लांक्षण के शिकार होते हैं क्योंकि वो बाकी के दोनों भाव को रोक नहीं पाते ! यहाँ उम्र भी कारक है ! लेकिन समाज कहता है की जब आप अध्यात्मिक हो गए यानी अपने से ऊपर किसी आत्मा के संपर्क में आ गए फिर आपके दोनों बाकी भाव ख़त्म हो जाने चाहिए ! शायद यह योग से संभव है ! लेकिन योग की भी काल / समय के साथ एक सीमा है ! लेकिन यह योग बहुत हद तक मदद करता है लेकिन किसी भाव को रोकना - प्रकृति के नियम के खिलाफ है ! जैसे किसी नदी की दिशा को मोड़ना ! फिर वो बाढ़ लाएगी ! शायद यही वजह है की इंसान अध्यात्म में ईश्वर के किसी रूप से खुद को कनेक्ट करना चाहता है - इंसान का कोई भरोसा नहीं और इंसान के बीच सिर्फ और सिर्फ भावनात्मक या शारीरिक आकर्षण ही बन के रह पाता है ! भावनात्मक भाव के चरम बिंदु से अध्यात्म की शुरूआत होती है और शारीरिक भाव के चरम बिंदु से भावनात्मक ! शायद यही वजह है की कई बार सेक्स वर्कर अपने चरम बिंदु से बचते / बचती है क्योंकि यहाँ से उनको भावनात्मक भाव के आ जाने का भय होता है ! यह कतई जरुरी नहीं की भावनात्मक भाव के लिए स्पर्श जरुरी है लेकिन स्पर्श के माध्यम से आया भावनात्मक लगाव थोड़ा टिकाऊ होता है !
स्त्रीयां यहाँ अलग ढंग से सोचती है - कहीं एक मशहूर लेखिका ने लिखा था - 'मन से देह का रास्ता जाता है या देह से मन का - कहना कठिन है' ! स्त्री के लिए उसके देह का रास्ता मन से होकर जाता है और पुरुष के लिए उसके मन का रास्ता देह से होकर जाता है !
शायद यही वजह है की - कई दफा कोई स्त्री अपने पुरुष के अन्य दैहिक सम्बन्ध को तो स्वीकार कर लेती है लेकिन अपने पुरुष के भावनात्मक समबन्ध पर चिढ जाती है , वहीँ दूसरी और पुरुष अपने स्त्री के अन्य भावनात्मक सम्बन्ध को स्वीकार तो कर लेते हैं लेकिन शारीरिक कतई नहीं ! हालांकि भय दोनों तरफ होता है - कहीं यह सम्बन्ध भावनात्मक से शारीरिक न हो जाए या फिर शारीरिक से भावनात्मक न हो जाए ! लेकिन तीनो भावों की जरुरत स्त्री और पुरुष दोनों को होती है ! देर सबेर या कम ज्यादा ! 
खैर , बात अर्धनारीश्वर से शुरू हुई थी ! जब शक्ति शिव में समाहित होती है - मूलतः वो प्रेरणा होती है ! कई साधारण से साधारण पुरुष भी किसी स्त्री के संपर्क मात्रा से अपने सांसारिक जीवन में कई सीढ़ी ऊपर चढ़ जाते हैं - पताका लहराते हैं ! अब यह उस पुरुष पर निर्भर करता है की वह कैसी प्रेरणा स्वीकार करता है ! यह उसकी अपनी वर्तमान परिस्थिति या ग्रहों की दिशा तय करेगी ! हर पुरुष एक शिव है और हर स्त्री एक शक्ति है ! कब किस शक्ति को किस शिव में समाहित होना है - यह ग्रहों के भाव तय करेंगे ! लेकिन शक्ति के समाहित होने के साथ कोई इंसान शिव न बने - यह असंभव है ! 
अर्धनारीश्वर का कांसेप्ट मूलतः 'शिव शक्ति' के मिलन के उस रूप को है ! अब आप इसे भावनात्मक भाव से देखिये या शारीरिक या अध्यात्मिक - यह सोच आपकी वर्तमान मनोवस्था की परिचायक होगी ! लेकिन इस सारे कथा कहानी या शास्त्र का स्रोत समाज या संसार रहा है जो प्रकृति के इन रहस्यों को स्वीकार तो करता है लेकिन अपने शर्तों या नियम के साथ और इन रहस्यों के साथ बंधे सामाजिक शर्त को हम भी रहस्य मान बैठते हैं या फिर इंसान इतना कमज़ोर होता है की समाज के शर्तों में बंधी इन रहस्यों को स्वीकारने का हिम्मत उसके अंदर नहीं ! कारण जो भी हो लेकिन किसी भी स्त्री पुरुष का मिलन किसी भी भाव के साथ ही 'अर्धनारीश्वर' का कांसेप्ट है ! अब वह भाव वह जोड़ा तय करेगा !
याद रहे - सभी भावों की आयु कम है ! और इंसान की अपेक्षा अनंत है ! तभी प्रकृति और सामाज के साथ साथ ईश्वर भी है या यूँ कहिये ईश्वर ही हैं :)) 
@रंजन ऋतुराज / 4 मार्च 2019 / महाशिवशक्ति रात्री :) 

Thursday, February 28, 2019

प्रेम और विशालता ....

प्रेम और विशालता : दिनकर लिखते हैं - "नर के भीतर एक और नर है जिससे मिलने को एक नारी आतुर रहती है - नारी के भीतर एक और नारी है - जिससे मिलने को एक नर बेचैन रहता है " ..)
और यहीं से शुरू होती है ...प्रेम और विशालता की कहानी ! ना तो आकर्षण प्रेम है और ना ही रोमांस प्रेम है ! प्रेम एक विशाल क्षितिज है !
कोई भी नर किसी नारी के प्रेम से उब नहीं सकता - उसके अन्दर प्रेम की कमी होती है - वो कठोर होता है - उसे खुद को मृदुल बनाना होता है - वह डूबता चला जाता है - वह डूबता चला जाता है ! नारी हैरान रहती है - आखिर क्या है इस प्रेम में - वो समझा नहीं पाता है - उसे वो प्रेम का सागर भी कम लगता है ! अब सवाल यह उठता है - प्रेम में डूबने के बाद भी - वह प्रेम उसे कम क्यों लगता है ? नारी अपने प्रेम के बदले नर की विशालता देखना चाहती है - क्योंकी प्रकृती ने उसे प्रेम तो दिया पर उस प्रेम को रखने के लिए एक विशालता नहीं दी ! नारी अपने प्रेम को उस विशाल नर को सौंपना चाहती है जो उसके प्रेम को अपने विशालता के अन्दर सुरक्षित रख सके ! और यहीं से शुरू होता है - द्वंद्ध !
तुम मुझे थोड़ा और प्रेम दो - तुम थोड़े और विशाल बनो ! अभी मै भींगा नहीं - अभी मै तुम्हारे विशालता में खोयी नहीं - वो अपना प्रेम देने लगती है और नर अपनी विशालता फैलाने लगता है - हाँ ...प्रेमकुंड और विशालता ..दोनों एक ही अनुपात में बढ़ते रहने चाहिए ! एक सूखे कुंड में एक विशाल खडा नर - अजीब लगेगा और एक लबालब भरे कुंड में - एक छोटा व्यक्तित्व भी अजीब लगेगा !
नारी उस हद तक विशालता खोजती है जहाँ वो हमेशा के लिए खो जाए - नर उस हद प्रेमकुंड की तलाश करता है - जहाँ एक बार डूबने के बाद - फिर से वापस धरातल पर लौटने की कोई गुंजाईश न हो !
इन सब के जड़ में है - माता पिता द्वारा दिया गया प्रेम - पिता के बाद कोई दूसरा पुरुष उस विशालता को लेकर आया नहीं और माँ के बराबर किसी अन्य नारी का प्रेम उतना गहरा दिखा नहीं - फिर भी तलाश जारी है - डूबने की ...फैलने की ...प्रेमकुंड की ...विशालता की !
अपने प्रेमकुंड को और गहरा करते करते नारी थक जाती है - अपनी विशालता को और फैलाते फैलाते नर टूट जाता है ...शायद इसीलिये दोनों अतृप्त रह जाते है ...अपनी गाथा ...अगले जन्म में निभाने को ...
ना तो आकर्षण प्रेम है और ना ही रोमांस प्रेम है ! प्रेम एक विशाल क्षितिज है - जहाँ उन्मुक्ता बगैर किसी भय के हो ....
~ कुछ यूँ ही ...
28 Feb 2015 .



@RR