बचपन के दिन याद आ गए ! घर - परिवार - ननिहाल में शादी होता था - हम सभी पन्द्रह दिन पहले ही गांव पहुँच जाते थे ! पहला रस्म होता था - 'फलदान' - लडकी वाले कुछ फल इत्यादी लेकर 'वर' के घर जाते थे ! बहुत दिनों तक - बहुत ही कम लोग आते थे - पर धीरे - धीरे यह एक स्टेटस सिम्बल बन गया - लडकी वाले १०० -५० की संख्या में आने लगे ! गांव भर से चौकी , जाजिम , तकिया , तोशक मांगा कर 'दालान' में बिछा दिया जाता था ! मेरे खुद के परिवार में - मुझे याद है - खुद का 'टेंट हॉउस' वाला सभी सामान होता था ! कई जोड़े 'पेट्रोमैक्स' , टेंट , बड़ी बड़ी दरियां , शामियाना - पर दिक्कत होती थी - चौकी की सो गांव से चौकी आता था और चौकी के नीचे य बगल में 'आलता' से उस चौकी के मलिक का नाम लिखा जाता था ! समय पर लाना और समय पर पहुंचवा देना किसी एक खास मुंशी मैनेजर की जिम्मेदारी होती थी ! मुंशी - मैनेजर के आभाव में गांव घर के कोई चाचा या बाबा !
जैसा 'वर' का हैशियत वैसा 'लडकी वाला' सुबह होते होते लडकी वाले पहुँच जाते ! हम बच्चे बार बार 'दालान' में झाँक कर देखते और 'दालान' की खबर 'आँगन' तक पहुंचाते थे ! ड्राम में 'शरबत घोला जाता था ! हम बच्चे 'ड्राम' के आगे पीछे ! दोपहर में गरम गरम 'गम्कऊआ भात' पात में बैठ कर खाना और आलू का अंचार , पापड़ - तिलौडी और ना जाने क्या क्या ! लडकी का भाई 'फलदान' देता था - उस ज़माने में 'लडकी' को दिखा कर शादी नहीं होती थी सो अब लडकी कैसी है यह अंदाजा उसके 'भाई' को देख लगाया जाता था ! आँगन से खबर आती - जरा 'लडकी' के भाई को अंदर भेज दो - माँ - फुआ - दादी टाईप लोगों को जिज्ञासा होती थी !
शाम को मुक्त आकाश में खूब सुन्दर तरीके से 'दरवाजा ( दुआर) ' को सजाया जाता ! ५-६ कम ऊँची चौकी को सजा उसके ऊपर सफ़ेद जाजिम और चारों तरफ पुरे गाँव से मंगाई हुई 'कुर्सीयां' ! मामा , फूफा टाईप लोग परेशान कर देते थे - एक ने पान माँगा तो दूसरे को भी चाहिए - किसी को काला - पीला तो किसी को सिर्फ 'पंजुम' , किसी को सिर्फ कत्था तो किसी को सिर्फ चुना वाला पान ! जब तक 'पन्हेरी' नहीं आ जाता - हम बच्चों को की 'वाट' लगी रहती थी !
गांव के बड़े बुजुर्ग धीरे धीरे माथा में मुरेठा बंधे हुए लाठी के सहारे आते और उनकी हैशियत के मुताबिक उनको जगह मिलती थी ! होने वाले 'सम्बंधिओं' से परिचय शुरू होता ! फिर , 'आँगन से सिल्क के कुरता या शेरवानी ' में 'वर' आता ! साथ में 'हजाम' होता था - जिसका काम था - 'वर' का ख्याल रखना - जूता खोलना , हाथ पकड़ के बैठना इत्यादी इत्यादी ! दोनों तरफ के पंडीत जी बैठ जाते - उनमे आपस में कुछ नोक - झोंक भी होती थी जिसको गांव के कोई बाबा - चाचा टाईप आईटम सुलझा देते ! इस वक्त 'लडकी वालों ' के बिच कुछ खुसुर फुसुर भी होती थी - 'वर' की लम्बाई - चेहरा मोहरा इत्यादी को लेकर !
फिर 'फलदान' का प्रोसेस शुरू होता और कुछ मर मिठाई - अर्बत - शरबत भी चालू हो जाता ! फलदान होते ही 'हवाई फायीरिंग' भी कभी कभार देखने को मिला - जब लडके और लडकी वाले आपस में तन गए - मेरा यह मानना है की फलदान होते ही सामाजिक तौर पर दोनों परिवार बराबर के हो गए - तिलक - दहेज की बात अब इसके बाद नहीं होती !
फलदान में लडकी वाला अपनी हैशियत के हिसाब से लडके को देता था ! कुछ कपड़ा या कुछ दर्जन 'गिन्नी- अशर्फी' !
फिर , दोनों पक्ष दालान में बैठ कर आगे का कार्यक्रम बनाते ! तिलक में कितने लोग आयेंगे - बरात कब पहुचेगी - विदाई कब होगा - किसको किसको दोनों तरफ से 'कपड़ा' जायेगा ! तब तक शाम हो जाती ....
और हम बच्चे .."पेट्रोमैक्स' के इर्द - गिर्द गोला बना के बैठ जाते - उसको जलने वाला भी एक व्यक्ति विशेष होता - जो हम बच्चों को बड़ा ही 'हाई - फाई' लगता ! :)
क्रमशः
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !