बहुत लोग हमको कहे कि " मुखिया जी , दीपावली मे आप कुछ नही लिखे ? " , क्या लिखते ? यही कि यह धनी मनी लोगों का पर्व है ? यही लिखते कि गरीब लोग घर से हजार किलोमीटर दूर - saat समुन्दर पार दीपावली के दिन भी कम्पूटर पर ठुक ठएं कर रहे थे ! यही लिखते कि बाबा-दादी गाँव पर अकेले हैं , माँ- बाबुजी पटना मे अकेले हैं और हम यहाँ "दिल्ली" कि दीपावली मना रहे हैं ?
कल्ह , छठ पूजा का नहाय - खाए है ! बिहार के हर घर मे छठ पूजा का गीत शुरू हो चुका होगा ! ऐसा लगता है यह पर्व हमारे खून मे समां चुका है - मालूम नही क्या है ? श्रद्धा का वातावरण कब और कैसे बन जाता है ! हेमंत ऋतु मे पर्वों का होना और बचपन का याद आना -
कैफी आज़मी साहब के चंद लाईन याद आ रहे हैं -
चंद सीमाओं में, चंद रेखाओं में ,
जिंदगी कैद है , सीता की तरह ,
पता नही ,राम कब लौटेंगे ?
काश ! कोई रावण ही आ जाता ॥
पटना का छठ पूजा बहुत धूम धाम से मनाया जाता है ! इस पूजा कि एक सब से बड़ी खासियत है कि - यह समता भाव का पूजा है ! क्या अमीर , क्या गरीब , क्या राजा और क्या रंक ? क्या घूसखोर और क्या इमानदार , सभी के सभी एक साथ डूबते और उगते सूरज को "अरग" देते हैं ! शाम वाले अरग के दिन आपको पटना का पुरा गाँधी मैदान भरा हुआ नज़र आएगा ! मैंने देखा है - बड़ा से बड़ा आदमी भी माथा पर "डाला" उठाए हुए चल रहा है ! ऐसा जैसे सूरज देवता के सामने सभी बराबर है ! सुबह वाला अरग के समय पर पटना के गांधी सेतु से घात का नजारा देखते ही बनता है !
हम लोग बच्चा थे ! गाँव जाते थे - दीपावली के ठीक अगले दिन या आज वाले दिन ! मुजफ्फरपुर मे सुबह सुबह इमली चट्टी से बस पकड़ कर ! रात मे कलकत्ता से एक ट्रेन आती थी और कलकतिया सब बस पर कब्ज़ा जमा लेता था ! "सिवान" वाले बच्चा बाबु का बस होता था सो जगह मिल जाती थी ! अगल बगल मे कलकतिया सब एकदम "चुकु- मुकू " कर के सीट पर बैठा होता था ! साथ मे एक झोला - झोला मे सब से ऊपर एक कियो -कारपीन तेल और दू ठो लक्स साबुन ! सब का देह बसाता था ! गाँव के पास वाले स्टॉप पर पहुंच कर हम लोग बैलगाडी या हाथी या टम-टम पर बैठते थे ! बैलगाडी या टम टम को साडी या चादर से ढक दिया जाता था !परदा वाला जमाना था ! धीरे धीरे जमाना बदलने लगा ! तम तम और बैलगाडी और हाथी की जगह "जीप" आ गया ! हम लोग भाडा पर गाओं तक के लिए "जीप" ठीक कर लेते थे ! रास्ता मी कई लोग मिलते थे ! साईकिल पर ! हाल चाल पूछते थे ! "घर" पर डीजल "जीप" की आवाज़ से आँगन से चचेरे फुफेरे भाई बहन सभी निकल आते थे ! "बाबा" दुआर पर आराम कुर्सी पर खादी वाला हाफ बांह वाला गंजी पहन कर बैठे होते थे ! आस पास ४०-५० आदमी ! "बाबा" के पास जाने पर वहाँ कई लोगों को पैर छू कर प्रणाम करना पङता था ! कोई फलना बाबु टू कोई चिलाना बाबु ! पटना / मुजफ्फरपुर से दीपावली वाला पटाखा बचा कर लाते थे और सभी भाई-बहन को दिखाते थे ! मन नही मानता था तो एक दो छोड़ देते थे ! कभी कभी डांट भी मिलाती थी !
खरना वाले दिन शाम को जम के पटाखा छोडा जाता था ! कभी कभी भाई-पट्टीदार से "शक्ति-पर्दर्शन" भी होता था ! किसके पटाखे मे कितना है -दम ! शाम वाले अरग के दिन "दुआर" पर हम सभी बच्चे लोग नया नया कपडा पहन कर खूब मस्ती करते थे ! उन दिनों होली और छत मी ही सिर्फ़ नया कपडा मिलता था ! वक्त बदल गया - यहाँ "मेट्रो" मे हर महीना "सेल " लगता है और और धर्म-पत्नी जी मेरी गाढी कमाई मे आग लगा कर दीवाली मनाती हैं !
रात मे "लुकारी" बनाया जाता था ! या फिर गैस लाईट के साथ साथ "छठ वरती" लोग सुबह ४ बजे ही घाट पर पहुँच जाते थे ! उगते सूरज को अर्ध्य देकर - हम सभी घर वापस आ जाते थे ! परसाद मिलता था ! दिन भर हम सभी "ईख" चबाते थे !
शाम को माँ- बाबु जी को अटैची पैक करते देख "कलेजा" धक् से कर जाता था ! रात भर यह सोच कर नींद नही आती थी की अब अगला दिन " कसाई -खाना" जाना है ! सुबह सुबह मेरा झूठ मूठ का कभी पेट ख़राब तो कभी उलटी ! बाबा मेरे मन का बात समझ जाते थे और बाबु जी को बोलते - " एक दिन और रुक जाओ " !
मेरा तो मानो लोटरी खुल गया !
बहुत कुछ लिखना छुट गया है ! आपके कमेंट के इंतज़ार मे -
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा