सैराट : समीक्षा की समीक्षा
मैंने यह मराठी सिनेमा नहीं देखी है । कुछ भाई बंधु का समीक्षा पढ़ा । सिनेमा और विषय पर कुछ नहीं कहूँगा लेकिन अपने ज़िंदगी के अनुभव पर कुछ लिखूँगा ।
हर इंसान जवान होता है और कहीं न कहीं उसका एक मुचूअल क़्रश होता है - अगर आई लव यू बोल दिया तो अफ़ेयर हो गया वरना वो मुचूअल क़्रश हवा हो गया । ज़िंदगी आगे बढ़ गयी - अतीत का गीत तबतक गाते रहिए जबतक की आपका वर्तमान तहस नहस न हो जाए ।
ख़ैर , प्रेम से पवित्र कुछ भी नहीं - लेकिन यह प्रेम कितना प्रेम है - यह भी जान लेना चाहिए । बस स्टॉप पर किसी लड़की के गिरे हुए किताब को उठा कर दे देना और फिर उसके पीछे पीछे उसके घर तक पहुँच जाना - प्रेम का प्रथम पायदान हो सकता है , सम्पूर्ण प्रेम नहीं ।
इस तरह के प्रेम के हर पहलू को देखना ज़रूरी है । घर से लेकर समाज तक , आज के दिन मैं दस ऐसे उदाहरण मेरी आँखों के सामने हैं , जहाँ अलग अलग क्लास में प्रेम विवाह हुआ और शादी टूटी नहीं - लड़के ग़ायब हो गए , कोई दिल्ली कमाने गया तो वापस नहीं लौटा - कहाँ गया वो प्रेम ? उस विवाहित लड़की का बोझ कौन उठाएगा ? उसके अकेली रातों का कष्ट कौन उठाएगा ? ड़ाइवोर्स भी एक आसान उपाय है लेकिन वह ऐसी मानसिक कष्ट है जिससे जेनिफ़र लोपेज़ तक जैसी मज़बूत महिला भी नहीं बच सकी । लेकिन ड़ाइवोर्स भी तब जब लड़का का पता चले ।
लिबरल और मॉडर्न माता - पिता किस कष्ट से गुज़रते हैं , इसकी कल्पना अपने आप में रोंगटे खड़ा कर देती है ।
अब सवाल उठता है - ऐसा होता क्यों है ? मैं एक पुरुष हूँ , कोई मुझसे पूछे 'असल और सच्चा प्रेम क्या है ?' - पुरुष का प्रेम उसके सेक्स से जुड़ा होता है , उसकी तमन्ना एक नंगी औरत होती है - लेकिन अगर अंदर प्रेम नहीं है फिर नंगी औरत से गंदी भी उसे कुछ नहीं लगती - स्खलन के बाद भी जो पुरुष अपनी प्रेमिका के वक्ष से चिपका रहे वही असल प्रेमी है और बार बार उसी भावना से उसी प्रेम को तलाशे - वही असली चाहत है । लेकिन यही सबसे बड़ा ट्रैप है और लोग यहीं फँसते हैं ।
अपनी प्रेमिका को मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ की नक़ल में गीत गा कर सुनाना और चंद शेर शायरी लिख देना ही प्रेम नहीं है । ज़िंदगी लम्बी होती है - कई क़समें वादे निभाने होते हैं । प्रेम सिर्फ़ ग़ज़ल नहीं है ।
मेरे एक निकटतम रिश्तेदार की बेटी को प्रेम हुआ - अंतरजातीय था । मुझसे सलाह माँगा गया - मेरा प्रथम सवाल था - परिवार ? मैं लड़के वालों से ख़ुद मिला और बेसिक ख़ुद के परिवार जैसा पाया - हाँ , हुई और आज दोनो बहुत ख़ुश है ।
तथाकथित प्रेम आसान है - रिश्ता निभाना बहुत मुश्किल है । प्रेम रहेगा तो रिश्ता भी निभ जाएगा , यह कहना बहुत मुश्किल है - रिश्ते में कई कारक/ फ़ैक्टर होते है - शायद यहीं परिवार या एक समान बेसिक वैल्यू / बचपन और बहुत कुछ मैटर करता है । कई बार एक जैसा पढ़ाई लिखाई और नौकरी भी रिश्ता को जोड़े रखता है । सुबह से शाम एक साथ रहने पर बहुत बारीकी से बहुत कुछ का अंतर पता चलता है ।
प्रेम त्याग माँगता है । एक मुँह बोली बहन को अंतरजातीय प्रेम हुआ - लड़का अलाएड जैसी एक नौकरी में था , वो बहन दूसरे प्रोफ़ेशन में थी - ज़िंदगी कैसे साथ कटेगी , लड़के ने एक मिनट में नौकरी को लात मारी और अपनी प्रेमिका के प्रोफ़ेशन को अपना लिया ।
प्रेम दृढ़ निश्चय माँगता है । मेरे सबसे क़रीबी दोस्त दीपक के मौसेरा भाई नवीन आइएएस टॉप टेन बने । समस्तिपुर के गाँव में पढ़ते वक़्त किसी ज़मींदार परिवार की लड़की को वचन दे दिए । लड़की से छः महीना का समय माँगे - दिल्ली गए और उधर से आइएएस की नौकरी । लड़की का हाथ पकड़े और जम्मू कश्मीर क़ैडर जोईन किए - फिर कभी बिहार नहीं झाँके । ना तो कभी शेर शायरी लिखे और ना ही नाक में कपड़ा वाला क्लिप लगा के मुकेश की आवाज़ की नक़ल में गीत गाए ।
मैं जाति में विश्वास नहीं रखता लेकिन मैं लालन - पालन / क्लास में विश्वास रखता हूँ । मेरी भी एक बेटी है । वह सिर्फ़ एक लड़की नहीं है - वह एक परिवार की बेटी है - वह एक समाज की बेटी है - प्रेम गुनाह नहीं है लेकिन प्रेम टिकाऊ तभी रहता है - जब वह कई अन्य चीज़ों के साथ जुड़ा रहे ।
पहले प्रेम मुश्किल होता था - रिश्ता निभाना आसान - अब प्रेम होना आसान हो गया है - रिश्ता निभाना मुश्किल ।
प्रेम घटते बढ़ते रहता है - बेसिक वैल्यू / सामाजिक स्तर / परिवार / सभ्यता इत्यादि का एक समान होना रिश्ते को बनाए रखता है ।
बाक़ी असफल प्रेम कहानी बहुत लुभाती है - लेकिन सफल प्रेम कहानी किस किस रास्ते से गुज़रती है , कैसे कैसे त्याग और क़समें वादों पर टिकी होती है - यह किसी को नज़र नहीं आता ।
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