Wednesday, April 9, 2008

भारतीयता कोई बिहार से सीखे !

नवभारत टाइम्स
सुधांशु रंजन लिखते हैं :-

महाराष्ट्र की घटनाओं से बिहार के लोगों को गहरी तकलीफ पहुंची है। कुछ अरसा पहले बिहार विधानमंडल के साझा सम्मेलन में कुछ विधायकों ने 'मराठी राज्यपाल वापस जाओ' के नारे लगाए। बिहार के लोगों की पीड़ा को समझा जा सकता है, लेकिन यह कार्रवाई बिहार की परंपरा और संस्कृति के अनुरूप नहीं थी। बिहार की अपनी खामियां हैं, लेकिन भारतीयता के पैमाने पर उसने जो मिसाल कायम की है, वह काबिलेतारीफ है। इस पर चलकर ही यह देश खुश रह सकता है। बिहार को कई बातों के लिए नीची नजर से देखा जाता है। उसकी गरीबी और पिछड़ेपन का मजाक उड़ाया जाता है। उसके जातिवाद को बुराई की मिसाल बताया जाता है। लेकिन सच यह भी है कि प्रांतवाद या क्षेत्रवाद के कीटाणु इस राज्य में कभी घुस नहीं पाए। बिहारी अस्मिता हमेशा राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ी रही। हजार बरसों तक पाटलिपुत्र इस भूभाग की राजधानी रहा और पाटलिपुत्र का इतिहास ही देश का इतिहास बन गया। राजा जनक, दानी कर्ण, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, राजनयिक चाणक्य, सम्राट चंदगुप्त मौर्य, अजातशत्रु, अशोक महान, सेनापति पुष्यमित्र शुंग, दार्शनिक अश्वघोष, रसायन शास्त्र के जनक नागार्जुन, चिकित्सक जीवक और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट जैसे महापुरुष इस धरती पर हुए, जिनसे भारत को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली। इस परंपरा पर कौन गर्व नहीं करता? क्या इसे बिहारी परंपरा कहा जाएगा? भारतीय राष्ट्रवाद की परंपरा बिहार में आधुनिक समय में भी जारी रही। आजादी के बाद कोयले और लोहे पर मालभाड़ा समानीकरण की नीति को बिहार ने बिना किसी ऐतराज के स्वीकार कर लिया। इस कदम से बिहार की इकॉनमी की कमर टूट गई। समान खर्च पर लोहे और कोयले की दूसरों राज्यों तक ढुलाई की सुविधा का असर यह हुआ कि उद्योगों को बिहार आने की जरूरत नहीं पड़ी। वे दूसरे राज्यों में लगते गए। बिहार के संसाधन खुद उसके काम नहीं आए। गौरतलब है कि कॉटन के लिए यह नीति लागू नहीं की गई। एक और उदाहरण लीजिए। दिसंबर 1947 में बिहार विधानसभा में इस मुद्दे पर बहस चल रही थी कि दामोदर घाटी परियोजना में बिहार को शामिल होना चाहिए या नहीं। एक-एक कर कई सदस्यों ने कहा कि इस परियोजना से बाढ़ बचाव और बिजली उत्पादन का फायदा पूरा का पूरा बंगाल को मिलेगा, जबकि डूब और विस्थापन का खतरा बिहार को उठाना पड़ेगा। इस तर्क का जवाब सरकारी पक्ष के पास नहीं था। सिंचाई मंत्री को जवाब देना था, लेकिन उनकी जगह चीफ मिनिस्टर श्रीकृष्ण सिन्हा खड़े हुए। उन्होंने कहा, अभी 15 अगस्त को देश आजाद हुआ है, हम सबने अखंड भारत के प्रति वफादारी की कसम खाई है, लेकिन उसे हम इतनी जल्द भूल गए। अगर इस परियोजना से बंगाल के लोगों को फायदा पहुंच रहा है, तो क्या गलत है? वे भी उतने ही भारतीय हैं, जितने कि बिहार के लोग। बिहार ने अगर खुद को भारतीय अस्मिता के साथ एक न कर दिया होता, तो क्या वहां से इतनी बड़ी तादाद में गैर-बिहारी सांसद बनते? आजादी की लड़ाई के दौरान 1922 में परिषद के चुनाव लड़ने के मुद्दे पर कांग्रेस बंट गई थी। गया अधिवेशन में भाग लेने आए जयकर और नटराजन जैसे नेता जब अपने राज्यों से कांग्रेस कमिटी के प्रतिनिधि नहीं चुने जा सके, तो बाबू राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें बिहार से निर्वाचित कराया। यह सिलसिला चलता रहा। संविधान सभा में सरोजिनी नायडू बिहार से चुनी गईं। आजादी के बाद जे।बी। कृपलानी, मीनू मसानी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नान्डिस, रवींद्र वर्मा, मोहन सिंह ओबेरॉय आदि को बिहार ने अपना नुमाइंदा चुना। इंद्रकुमार गुजराल भी यहीं से राज्यसभा में पहुंचे।

क्या बिहार में प्रांतवाद इसलिए नहीं है कि उसका सारा ध्यान जातिवाद में लगा रहता है? कुछ लोग ऐसा तर्क दे सकते हैं, लेकिन ऐसा कहना बिहार के साथ अन्याय होगा। अखिल भारतीय सेवाओं के जो अफसर बिहार में तैनात हैं, वे मानते हैं कि उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता। एक मायने में बाहरी होना उनके पक्ष में जाता है, क्योंकि वे जातिगत समीकरणों से अलग रह पाते हैं।

खुद महाराष्ट्र की परंपरा भी ओछे प्रांतवाद के खिलाफ है। यह राज्य समाज सुधारकों, संतों और समाजवादियों का गढ़ रहा है। बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेताओं ने राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाया। तिलक ने पूरे देश से धन इकट्ठा कर डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी की 1884 में स्थापना की। तब से आज तक सोसाइटी के पैम्फलेट के कवर पर यह साफ लिखा होता है कि जाति, धर्म, भाषा या प्रांत के नाम पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। सोसाइटी की स्थापना में उन्हें गोखले और गोपाल गणेश आगरकर का सक्रिय समर्थन मिला। महर्षि कर्वे जैसे शिक्षाविद् भी इससे जुडे़। पुणे का मशहूर फर्गुसन कॉलेज उसी सोसाइटी की देन है। गोखले ने ही गांधी से कहा था कि देश में कुछ करना चाहते हो तो देश को समझो और देश को समझना चाहते हो तो देश में घूमो। बहरहाल, ये मिसालें पेश करने का मकसद यह है कि हम क्षेत्रवाद और राष्ट्रवाद को समझें। याद कीजिए कि ब्रिटेन की प्राइम मिनिस्टर मार्गरेट थैचर और रूस के प्रेजिडेंट मिखाइल गोर्बाचेव ने भारत से सबक लेने को कहा था, जहां इतनी विभिन्नता के बीच लोग साथ-साथ रहते आए हैं। अब अगर हम इस बात को भूलकर राज्यों के बीच फर्क देखने लगें, तो भारत का क्या होगा? हमें भारतीय राष्ट्रवाद से अपने टूटते तारों को फिर जोड़ना होगा। इस देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सदियों से रहा है, भले ही राजनीतिक राष्ट्रवाद हाल की बात हो। हमारे यहां सात नदियों को पूजने की परंपरा रही है। ये नदियां सारे देश में फैली थीं। शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों में पीठों की स्थापना की थी। आधुनिक समय में राजनीतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा पैदा हुई, जिसके तहत हमने आजादी की लड़ाई लड़ी। हमारी खुशकिस्मती है कि सांस्कृतिक और राजनीतिक भारत का नक्शा लगभग एक जैसा है। भाषाई आधार पर प्रांतों का गठन काफी बाद की घटना है, लेकिन हमने इसे इतना तूल दे दिया है कि यह हमारे राष्ट्रवाद पर भारी पड़ रही है। इस ट्रेंड से बाहर निकलने के लिए हमें क्या करना चाहिए, इस पर सभी को विचार करना होगा। ( लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं)


रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

8 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

मसले को सलीके से उकेरा गया है. बधाई सुधांशु को.

Ram N Kumar said...

The way in which it has been written, shows how important is subnationalism.

संजय शर्मा said...

सांस्कारिक लेख सांसारिक और संकुचित विचार पर सकारात्मक प्रभाव डाले ! शुभकामना ! बहुत बहुत वधाई सुधांशु रंजन जी को , उनसे सम्पर्क साधकर उन्हें ब्लोगर बनाया जाये .
माटी की महक महसूस किया इस लेख मे ,मुखिया को धन्यवाद देता हूँ पढ़ने, पढाने के लिए .

रवीन्द्र प्रभात said...

भाई ,
मैं तो बिहार के शाब्दिक अर्थ से बिहार को जोड़कर देखता हूँ , जिसमें एक साथ ब्यूटीफूल , इंटेलिजेंट,
औनेस्ट , एबल और रिलैबल का बोध होता है . यही वह भूमि है जहाँ जगत जननी सीता पृथ्वी के गर्भ से उत्पन्न हुयी थी , अम्बपाली ने पायल झनका कर रुनझुन गीत सुनाये थे , यही वह भूमि है जहाँ राष्ट्र कवि दिनकर का द्वन्द्वगीत गूंजा था .......आदि-आदि , इस भूमि को मेरा शत-शत वार प्रणाम और बहुत बहुत वधाई सुधांशु रंजन जी को ,

Sarvesh said...

Bihar has glorious history of humanity. We tought civilization and humanity to world.

Jivitesh said...

Very Well said by Sudhanshujee.....
Bihar has always been the Intellectual capital of Aaryavart..so called India, and we must be proud of our pedigree.

Mukhiyajee....I am a regular at Dalaan and Quite a fan of yours now.

You have successfully placed your words in right areas so that It can create ripples in our heart for Our Motherland...Bihar...

Thanks a ton for this....

Ranjan said...

Jivitesh :)

r u same Guy from JSSATE ?

Ranjan

Jivitesh said...

Yeah...I am the same.... Waise bhi ...You dont come across many Jivitesh....its quite a unsual Name.....

And Where there is same kind of feelings in our heart ....i am not supposed to be far from Dalaan......