Friday, June 10, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस - गर्मी की छुट्टी

परसों ट्विटर पर् देखा ..जुही चावला अपने बच्चों के बारे में लिखी थीं - उनके बच्चे गर्मी की छुट्टी मनाने अपने 'ग्रैंड  पैरेंट्स' के पास गए हैं :) मेरे बच्चे भी चार जुन को पटना निकल गए ! मुझे भी जाना था पर् नहीं गया ! ट्रेन पर् बहुत खुश थे ...ट्रेन खुलते वक्त बच्चों ने फ्लाईंग किस दिया ...रमेश भी उसी ट्रेन से जा रहा थे   ..गेट पर् लटका हुआ थे  - बोले की - किसको फ़्लाइंग किस दे रहे हैं ? हम बोले ..नहीं भाई ...बच्चे खुश हैं ...उनको फ्लाईंग किस मार् रहा था ..और कुछ नहीं ! 

अपना बचपन याद आ गया ! बचपन से लेकर मैट्रीक की परीक्षा पास करने तक मैंने सभी गर्मी की छुट्टीयां 'गाँव में बाबा - दीदी ( दादी ) के साथ ही मनाया है ! मस्त ! हर उम्र की यादें साथ हैं ! 

दस बजिया - हिन्दी स्कूल से पढ़ा लिखा हूँ ! छमाही की परीक्षा खत्म होते ही 'पटना/मुजफ्फरपुर' का डेरा जेल सा लगने लगता था ! माँ बाबु जी किसी जेलर से कम नहीं ! गाँव से किसी के आने का इंतज़ार - फिर गाँव के लिये निकल पड़ना ! बाबू जी वाला जेनेरेशन पहला जेनेरेशन नौकरी था - गाँव से लोगों को लगाव था ! पूरा गाँव आ जाता था ! मजा आता ! 

सुबह में दरवाजा पर् बड़ा बाल्टी और बाल्टी में पानी और पानी में आम ! कहीं से भी खेल कूद कर आईये और एक आम :) मुझे आम चिउरा बहुत पसंद ! चिउरा को पानी में फूला कर फिर आम के रस के साथ - भर पेट नाश्ता ! फिर थोड़ी धूप निकल जाती - तो दालान में "वीर कुंवर सिंह" वाला नाटक खेलना ! शाम को "घोन्सार" से भूंजा आता - तरह तरह का - चावल का - चना का - मकई का - शाम को भर पाकीट भूंजा ! फिर खेल कूद ! 

लट्टू नचाना पसंदीदा होता ! बढ़ई के यहाँ जा कर गूँज ठोकवाना ..फिर लट्टू ..शाम को 'गुल्ली - डंडा' ...वो एक समय था - "गुरदेल का" ( गुलेल ) ! गाँव के दक्षिण से 'चिकनी मिट्टी' लाना - उसकी गोली बनाना और फिर गोली को धूप में सुखा - आग में पका - गुलेल चलाना ! उफ्फ्फ्फ़ ....

क्या लिखूं और क्या न लिखूं ? सप्ताह में दो बार - गाँव में हाट लगता था - बाबा चार आना देते थे ! चार आना में "भगाऊ महतो" के ठेला पर् खूब तीता "भूंजा" खाते ...दौड़ते भागते घर लौट आना ! गाँव के बाज़ार में "छुरी" बिकता - बहुत मन करता - एक मै भी रखूं - बाबा से जिद करता - बाबा अपने पॉकेट में एकदम कडकड़ीया नोट रखते थे - वहीँ से एक पांच रुपैया का नोट निकालते और मै एक छुरी खरीदता - घर लौटते - लौटते उंगली कट चुकी होती - घर में किसी को इज़ाज़त नहीं थी - डांटने की ! 'हजाम डाक्टर' आते ! मरहम पट्टी लगती ! फिर मै बाबा के साथ उनके हवादार कमरे में सो जाता ! बाबा के सिराहने एक बन्दूक - एक टॉर्च होता और खूब बड़ा मसनद ! 

आम से कुछ याद आया - अन्यथा नहीं लीजियेगा ! हम बिहार के 'छपरा जिला' वाले थोड़े गरीब होते हैं ! पुरे भारत में इससे ज्यादा उपजाऊ ज़मीन कहीं और की नहीं है - सो जनसँख्या ज्यादा है ! 'इज्ज़त बचाने' के लिये हम सम्मलित रूप से रहते हैं ! कई बगीचा हम 'पट्टीदारों' में संयुक्त थे ! वहाँ से आप तुडा कर आता था - परबाबा जिन्दा थे - आँख से अंधा - क्या मल्कियत थी ....सभी आम उनके सामने रखा जाता ..एक आदमी गिनती करता ...फिर सभी पट्टीदारों में बराबर ..हाँ , पहला हिस्सा 'राम जानकी मठ' को जाता ! इसको हमलोग 'मठिया' कहते थे ! मेरे परिवार के पूर्वजों का देन है - ट्रस्ट है ! इस् ट्रस्ट का मुखिया हमेशा हमारे परिवार का सबसे बुजुर्ग व्यक्ती ही होगा ! गाँव की सबसे बढ़िया ज़मीन इस् ट्रस्ट को दान दी हुई है - करीब पचीस एकड का एक प्लाट है ! 

आम बंटवाने का रोज का नियम होता था ! तरह तरह के आम - केरवा आम , पिलुहिया आम , बिज्जू , सेनुर ..मालूम नहीं कौन कौन ...! तब तक बड़े बाबा मुजफ्फरपुर से लकड़ी के बक्सा में पांच दस हज़ार लीची भेजवा देते थे ! शाही लीची ! दालान पर् रख दे तो दालान खुशबू से भर जाता ! 

दोपहर में नहाने में मजा आता ! 'इनार' पर् - बाबा के साथ ! लक्स साबुन घस घस के ! "पकवा इनार" ! धीरे धीरे इनार की जगह चापाकल ले लिया ! थोड़ी देर चापाकल चलाया जाता ! उसमे ठंडा पानी निकलता ! पानी एक बड़ा लोहे के टब में भरा जाता ! टब को चार आदमी पकड़ के 'बरामदा में लाते' वहाँ एक खूब बड़ा पीढा होता - उसपर बाबा नहाते ! लक्स साबुन से ! जनेऊ मे वो  अपना  अंगूठी बाँध देते ! फिर वो दुर्गा पाठ करते - सिर्फ धोती पहन ! फिर एकदम सात्विक भोजन ! पीढा पर् बैठ के - भंसा घर के कोना पर् - परदादी खुद बाबा का खाना परोसती - अंत में दही  ! यह एक ऐसी आदत लगी मुझे की मै कभी भी 'भोज भात' में नहीं खा पाता हूँ - खाते वक्त मै बिलकुल अकेला होना चाहिए ! आज भी - दोपहर का भोजन मै बिलकुल अकेले करता हूँ ! डाईनिंग टेबल पर वो मजा नहीं जो पीढ़ा पर पालथी मार के बैठ - खाने में आता था ! 

बाबा राजनीति में थे सो गोपालगंज में डाकबंगला मिला हुआ था - कई एकड में फैला हुआ - डाक्बंगला ! लाल बत्ती गाड़ी और एस्कोर्ट जीप और मालूम नहीं क्या क्या ! बाबा के साथ गोपालगंज निकल जाता ! बाबा नहा धो अपने राजनीतिक सफर पर् और मेरे साथ उनका खानसामा ! डाकबंगला के सामने दो होटल थे ! वहाँ से एकदम खूब झालदार , गाढा रस वाला 'खन्सी का मीट' एक प्लेट आता ! भात और मीट खा के एक नींद मारता !  बाबा एक जीप मेरे लिये डाकबंगला में रखवा देते थे और गोपालगंज के सभी 'सिनेमा हौल' को बोला होता था - मै कभी भी किसी भी सिनेमा हॉल में धमक जाउंगा - सो बिना किसी रोक टोक सिनेमा देखने दिया जाए ;) मेरी सबसे छोटी और मुझे सबसे ज्यादा मानने वाली फुआ वहीँ गोपालगंज के महिला कॉलेज में शिक्षिका थी - उसके डेरा पर् निकल जाता ! बहुत खातिर होता ! बहुत महीन और पढ़ा लिखा परिवार ! बैंक में पैसा रख भूखे पेट सोने वाला परिवार नहीं था - तरह तरह का सब्जी ! छोटा फुफेरा भाई था - हम जहाँ जाते वो मेरे पीछे पीछे !   

धीरे धीरे हम टीनएज हो गए ! गाँव में लगन का समय होता ! दिन में जनेऊ और रात में बारात ! स्कूल पर् बारात ठहरता ! अपना टीम था ! अब हम रात में "दुआर" पर् सोने लगे ! दादी बहुत ख्याल रखती ! बाबा के बड़ा वाला खटिया के बगल में मेरा भी खटिया लगता ! खूब बड़ा - एक दम टाईट बिना हुआ ! सफ़ेद खोल वाला तोशक और चादर ! दो बड़ा मसनद , एक सर के पास और एक पैर के पास ;) बगल में स्टूल - स्टूल पर् एक 'जग ठंडा पानी' और गिलास ! मुशहरी का डंडा और सफ़ेद कॉटन वाला मुशहरी ! रात में सब चचेरा भाई लोग के साथ 'स्कूल पर् रुके हुए बारात का नाच देखने के लिये फरार' ;) डर भी - कोई पहचान न ले ! कभी कोई हंगामा होता तो सबसे पहले हम भागते ! हा हा हा ! सोनपुर मेला से खरीदा हुआ "गुपती" साथ में होता - किसी पर् चल जाए तो भगवान भी न बचा पाये ! 

थोड़ा और बड़ा हुए तो चाचा का 'राजदूत मोटरसाईकील' ! मजा आ जाता ! चाचा बैंक में मैनेजर हैं ! अगर चाचा गाँव पर् नहीं हैं - बाबा भी नहीं हैं - फिर एक चेला मोटरसाईकील के पीछे ! 

मैट्रीक की परीक्षा के बाद मै जबरदस्ती गाँव गया और खेती सिखा ! बाबा एक बगीचा लगवाए थे ! बाबा ही नहीं - हम तीनो पट्टीदार ! अलग अलग जगह - बगीचा के बगल में पोखर ! सुबह सुबह बगीचा चला जाता ! दस बजे तक वहीँ रुकता ! फिर पम्प सेट चालू करवा - खूब ठंडा पानी में  छोटा वाला चौकी पर् 'गमछी' लपेट - जनेऊ धारण कर - नहाता ! फिर वहाँ से खाली पैर - एक किलोमीटर चल घर पहुँचता ! फिर शाम को बगीचा में - फिर नहाना ! 

आज भी बाबा से उस बगीचे का हाल जरुर पूछता हूँ ! बाबू जी दोनों भाई को बाबा ज़मीन बाँट दिए हैं - बगीचा का कौन सा हिस्सा मुझे मिला - बाबा कहते हैं - आ कर देख लो ! अपना सब ज़मीन पहचान लो ! 

आज उस ज़मीन से पेट नहीं भरेगा ! बहुत दुःख है ! कुछ और ज़मीन होता ! असली रईसी तो वहीँ है - जो जमीन से जुड़ा है - बाकी सब तो ...खोखला है ! ज़मीन ऐसा चीज़ है ..टाटा - बिडला भी ईमानदारी से नहीं खरीद सकते :)) 

मेरे बच्चे पटना गए हुए हैं - गाँव भी जायेंगे ! 'मल्कियत' तो नहीं रही - फिर भी  कुछ तो एहसास होगा ....समय बदल गया है ...फिर भी ..कुछ चीजें इतनी जटिल होती हैं ..उनको बदलने में कई जेनेरेशन लग् जाता है !! 


रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

7 comments:

vandana gupta said...

सुन्दर संस्मरण्।

Anonymous said...

एक गहरी साँस भर गुमसुम हो गया हूँ। अपना बचपन याद आ गया।

यादें भी कितनी मीठी होती हैं

Manoj K said...

गाँव की यादें. गर्मी कि छुट्टियों कि कुछ यादें हमारी भी है अपने नाना-नानी के यहाँ की!!!

आंचलिक शब्दों ने आपकी पोस्ट को और असरदार बना दिया .. खूब लिखा है जनाब !!

मनोज

केशव कुमार पाण्डेय said...

Ranjan Rituraj Ji

Bilkul sahi likhe hain. Aapke dada ji Chairman the mai bhi suna hoon aur aap ak jamindar parivar se hain. Ye sach hain.

Koi baat nahi sab samay hain. Phir bhi kuchh kami nahi hain. Aapke chachi ji jo Bank me the aajkal dikhai nahi dete hain. Shayad unka name Sh. Pramod Singh Hain.

Ravish_IITG said...

brought back sweet memories !!! well writen !!! dil khush ho gya apni mitti apna gaon !!!

Unknown said...

बहुत बढ़िया।

Anonymous said...

Awesome. ...very true. ..don't know what kind of life we are leading today...specially our kids.