Thursday, September 25, 2014

दुर्गापूजा - २०१३

धर्म एक विशुद्ध फिलोसोफी है - जीवन को जीने का आधार ! जीवन में मजबूत और कमज़ोर दोनों तरह के समय आते हैं - मजबूत इंसान वही है जो इन दोनों समय में धर्म को जीवन दर्शन समझ खुद को मजबूत बनाए रखे ! 
ईश्वर तो एक ही है - यह सत्य है ! आम इंसानों के वश का बात नहीं जो बिना आकार वाले एक सत्य को स्वीकार कर सके ! जब यह सत्य आप स्वीकार कर लेंगे - कई चीज़ों से ऊपर उठ सकते हैं - मसलन लिंग / जाति इत्यादी ! 
पर जीना तो हमें इस धरती पर ही एक आम इंसान के रूप में है - फिर हमें एक 'जीवन दर्शन' चाहिए ! यहाँ धर्म हमें सहारा देता है ! 
इस नवरात्र हम शक्ति की पूजा करते हैं - शक्ति के हर रूप की पूजा करते हैं - जहाँ कहीं भी हमें शक्ति का आभास हुआ - उसको हमने पूज दिया ! और यह प्रक्रिया सिर्फ एक दिन की नहीं है - हज़ारों साल से चली आ रही इस प्रक्रिया में हम आप जैसे लोग कुछ न कुछ जोड़ते चले आ रहे हैं ! 
दरअसल यह पूजा 'स्त्री के स्वाभिमान' की होती है - प्रकृती ने पुरुष को बलशाली बनाया - उसको भक्षक बनाया - उसको रक्षक भी बनाया - फिर 'स्त्री के स्वाभिमान' की रक्षा का कर्तव्य / धर्म भी उसका ही है ! महिषासुर भक्षक प्रवृती को दर्शाता है - वहीं वो सारे देव जिन्होंने 'दुर्गा' को सजाया - वह एक रक्षक प्रवृती को दिखाता है ! 
पर पुरुष तो बलशाली है - अहंकारी है - स्त्री को पुजेगा - उसके स्वाभिमान की रक्षा भी करेगा - पर ...किस रूप में ..:)) ? कौन से रूप के आगे वो नतमस्तक होगा ? ...जब स्त्री उसके जीवन में एक माँ के रूप में आती है ....बात यहाँ कोख की नहीं है ...कहते हैं ..न ...एक पत्नी / प्रेमिका को अपने पुरुष के लिए वो सारे रूप दिखाने होते है ...और अंत में माँ के रूप में भी ..आकर ...पुरुष को हमेशा के लिए झुका देना होता है ...और जब तक अहंकार नतमस्तक नहीं हुआ ...पूजा तो शुरू ही नहीं हुई ....:))
~ दुर्गापूजा - २०१३ 

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