Tuesday, October 25, 2011

टीए - डीए का खेला ...

बचपन याद है ! बाबा सहकारिता आंदोलन के अपने क्षेत्र के अग्रणी नेता थे - सो - बिहार स्तर के कई सहकारी संस्थाओं में प्रतिनिधि थे ! साल में दो तीन बार सबकी मीटिंग होती थी - बिस्कोमान , सहकारी बैंक , भूमि विकास बैक इत्यादी ! बाबा की लाल बत्ती वाली गाड़ी में मै भी बैठ कर इन मीटिंग में पहुँच जाता था ! वहाँ एक लंबा लाईन लगा होता था - सामने एक आदमी बैठ होता था - जो एक अटैची और एक पैकेट देता था ! अटैची में कागज पत्र होते थे और पैकेट में कुछ सौ रुपये ! अटैची मै लेकर कार में रख देता था और पैकेट बाबा अपने पॉकेट में ! बाद में अन्य जिला से आये लोगों से उनको बात करते सुनता था - टीए कम दिया है ! डीए एक दिन और का मिलना चाहिए था - ब्ला..ब्ला ! हम ज्यादा माथा नहीं लगाते - दोपहर को पसंदीदा मुर्गा भात खाने को मिलता - तपेश्वर बाबु हर टेबल पर् पहुंचते और सबसे हाल समाचार पूछते ! इन्ही एक मीटिंग में बिस्कोमान भवन के निर्माण के मंजूरी मेरे आँखों से मिली थी ! इन्ही मीटिंग में एक बार तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व० बिन्देश्वरी दुबे को मुर्गा का टांग दोनों हाथ और दांत में दबाये हुए अखबार में फोटो छाप दिया था ! :) सब याद है - हमको ! वो मेरा स्वर्णीम काल था ! अब गदहा काल है :( खट रहे हैं :( 

हाँ तो बात हो रही थी - टीए डीए पर् ! बाबु जी वर्तमान में पटना के एक कॉलेज में विभागाध्यक्ष हैं - प्रैकटीकल परीक्षा में एग्जामिनर बाहर से आते हैं ! बिहार सरकार / कॉलेज / विश्वविद्यालय का जो हाल है वो किसी से छुपा नहीं है ! वैसे परीक्षक जाते वक्त 'टीए - डीए' को लेकर कुछ हल्ला नहीं मचाये सो बाबूजी को अपने पॉकेट से ही देना पड़ता है ! 

हम भी शिक्षक हैं ! दूसरे कॉलेज में प्रैक्टिकल परीक्षा लेने जाना पड़ता है ! परीक्षा खत्म होने के बाद - भारी हंगामा होता है ! टीए - डीए को लेकर हम तो चुप ही रहते हैं लेकिन बाकी लोग तो ऐसा करते हैं - जैसे उनका कोई हक मारा जा रहा है ! आयेंगे मोटरसाइकिल से टीए मांगेंगे - कार का ! एकाउंटेंट पूछ बैठेगा - कार नंबर दीजिए - बाहर पाकिंग से किसी का नंबर लिख देते हैं लोग ! एकॉन्टेंट हडकाता है - सरकार का पैसा है - जेल चले जाईयेगा ..ब्ला ब्ला...कौन उसकी बात सुनता है ! 

यही हाल कॉपी जांचते वक्त होता है ! उपरवाले की मेहरबानी से बड़ी कम उम्र में हेड एग्जामिनर बनने का मौका मिला ! बाकी के परीक्षक माथा नोच लेते थे - सर , एकॉन्टेंट बहुत बदमाश है - दो दिन का का डीए काट लिया ! सेन्ट्रलाईज कॉपी चेकिंग होती हैं ! भारी हेडक हो जाता है ! प्रोफ़ेसर को लेक्चरर वाला डीए मिल गया - हुआ हंगामा - बोला - इज्ज़त चला गया ! हम बोले भाई - दस - बीस रुपैया से क्या बिगड जायेगा ! प्रोफ़ेसर बोलेगा - आप नहीं समझियेगा ..ब्ला ..ब्ला ! 

कुल मिलाकर मेरी समझ में यही आया की - नौकरी करने वाला - टीए डीए को जन्मसिद्ध अधिकार समझता है - होना भी चाहिए - कंपनी / सरकार के काम से आप जा रहे हैं तो खर्चा पानी तो लगेगा ही ! हम भी गाँव में अपना नौकर को कहीं काम से भेजते हैं तो खर्चा देते ही थे ! लेकिन जब वो नौकर खर्चा में से कुछ बचा कर वापस कर देता था - मन एकदम से गद गद् हो जाता ! 


अब आईये - किरण आंटी पर् ! एक एनजीओ से पैसा उठाकर दूसरे एनजीओ को पैसा देना - गलत है ! सीधे  चंदा मांग लेती ! दरअसल आदत खराब है ! यह विशुध्ध पाकिटमारी है ! आप इतनी ईमानदार थी फिर 'मिजोरम' से क्यों भागना पड़ा ? आप सभी मीडिया की देन हैं और याद रखिये यही मीडिया आपके चमक  को  खत्म भी करेगा ! आपके जैसे हर स्टेट में दस आई पी एस अफसर हैं ! मीडिया मैनेज ही सब कुछ होता तो - भाजपा के रविशंकर प्रसाद को राज्यसभा में नहीं जाना पड़ता - लोकसभा में जाते ! आपने क्या काम किया जिसके लिये - आप खुद को राष्ट्रिय स्तर की नेता खुद को समझाने लगीं ! बस 'अन्ना' मिल गए - सब कूद गए ! 

जिस लोकसभा को आपसभी रामलीला मैदान में नौटंकी कर के क्या क्या नहीं कहा - आज उसी लोकसभा में बैठने के लिये - सबकुछ मंजूर है ! टीवी पर् देश के प्रधानमंत्री का मजाक उडाना कहाँ तक सही था ! उनकी मीमीकरी करना ! क्या यह सब एक पूर्व आईपीएस को शोभा देता है ! अवकात में रहिए ! हम भी बिहार से आते हैं जहाँ हर मोहल्ले से दो सिविल सर्वेंट होते हैं ! पर् आप जैसा किसी को नहीं देखा ! हाँ , कॉंग्रेस गलत है ! पर् देश का संविधान उसको पांच साल शासन का अधिकार दिया है - कोई गलत नहीं है ! मैडम , बहुत आसान है - दिल्ली के किसी क्षेत्र को रिप्रेजेंट करना ! देहाती क्षेत्र में बुखार छूट जायेगा ! बेटी की शादी में दो क्विंटल चीनी मांगेगा ! कोई अपने बेटा को नौकरी के लिये कहेगा ! कोई भूख मर जायेगा ! 

हिम्मत और अवकात है तो - देश का कोई पिछड़ा क्षेत्र से खुद को लोकसभा का उम्मीदवार घोषित कीजिए - चुनाव जीतिए और वहाँ की जनता के दर्द को समझिए ! टीवी पर् बोलना बहुत आसान है ! चार एंकर / न्यूज रीडर से दोस्ती कर - किसी चैनल पर् बोंल लेना आसान है ! असली जनता के बीच रहना आसान नहीं है , मैडम ! 

और आप केजरीवाल जी , याद है ..रँजन ऋतुराज का नाम ? नहीं याद होगा ! सत्येन्द्र दुबे हत्या कांड के बाद के जन्मे ग्रुप में ही आपका जन्म हुआ था ,ज्यादा नहीं लिखूंगा क्योंकी आपका भी इज्जत दो पैसा का हो गया है ! आई आई टी का सीट आपने खराब  किया - फिर सिविल सर्वेंट भी सही ढंग से काम नहीं किये - अब फ्लाईंग शर्ट को ऊपर से पहन - देश के सबसे ईमानदार बन् गए ! हद्द हाल देश की मिडिल क्लास का ! 

लोकपाल क्या कर लेगा ? दस लाख जनता से आप एक एम पी को चुनते हैं ! कभी किसी एम पी के घर गए हैं ? जितना आपके तनखाह है उतना का लोग उसके घर चाय पी जाता है ! कहाँ से लाएगा वो पैसा ? हर लगन में लाखों रुपैये के नेवता बंट जाता है ! कौन देगा ? 

देश के सबसे बेहतरीन दीमाग को आप सिविल सर्वेंट बनाते हैं - देते क्या है - उसको ? पांचवे वेतनमान में - तनखाह थी - आठ हज़ार बेसिक ! अब है पन्द्रह हज़ार बेसिक ! उसका बच्चा भूख रहे और आपलोग ? दो महीना जावा सीख लिये और पचास हज़ार कमाने लगे ! 

जितना लोग हल्ला करता है - इंटरनेट की दुनिया में - सबसे ज्यादा ट्रैफिक रुल वही तोडता है ! सुबह में ट्रैफिक रुल तोडेगा और शाम को इंटरनेट पर् 'अन्ना - अन्ना' चिल्लाएगा ! गजब का चमड़ी है ! मै गुस्सा में हूँ - मुझे तीन किलोमीटर का सफर ऐसे कार वालों के कारण एक घंटा लगाना पड़ता है ! हद्द हाल है ! 

दिन में फेसबुक पर् 'अन्ना - अन्ना' चिल्लाएगा और शाम को बेटा बेटी के एडमिशन के लिये स्कूल के दलाल के घर जायेगा ! मत जाओ ..ना ! सेना की नौकरी सबसे बढ़िया - पर् वहाँ जायेगा - कौन ? पड़ोसी का बेटा ! हाय रे ...मिडिल क्लास ! 

एल पी जी में सब्सीडी क्यों ? डीजल में सब्सीडी क्यों ? शर्म नहीं आती ? - डीजल कार खरीदते वक्त ! आज दिल्ली - मुंबई जैसे शहर में डीजल कार पर् आठ आठ महीना का लाईन है ! डीजल का सब्सीडी किसके लिये है - मेरी जान - मिडिल क्लास ? 

भारत में भ्रष्टाचार खून में है ! हीरा चोर - खीरा चोर को पिटता है ! कई ईमानदार लोग भी कई गलत काम कर बैठते हैं - हक समझ कर ! 

अब कितना लिखा जाए ! कानून भी दोषी है ! 

माथा खराब है !

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Tuesday, October 18, 2011

दूसरी आज़ादी के साइड इफेक्ट्स – भाग दो

 ऋतुराज सर का लिखा यह लेख ! ऋतुराज सर बिहार राज्य के नालंदा जिला के रहने वाले हैं ! विश्व प्रख्यात नेतरहाट विद्यालय , पटना कॉलेज और जेएनयू से शिक्षा ग्रहण करने के बाद सन 1983 में भारतीय आरक्षी सेवा के अधिकारी बने और अपने गृह राज्य बिहार को सन 2005 तक सेवा दिया और स्वेच्छा से अवकाश ग्रहण  किया  ! फिर उसके बाद कुछ वर्षों के लिये टाटा स्टील के साथ जुड़े रहे और पिछले दो साल से फुर्सत के क्षण अपने गृह जिला में बिता रहे हैं ! इनकी फोटोग्राफी भी कमाल की है !

वे पटना के एक नामचीन डाक्टर हैं. उनकी ख्याति पूरे राज्य में है और उनके क्लीनिक में मरीजों की लंबी लाइनें लगी रहती हैं. वे डाक्टरी के विज्ञान के साथ साथ मैनेजमेंट की कला में भी पारंगत हैं. बिहार का हर धनपशु उनका मरीज है. धनपशुओं से डाक्टर साहब के गहरे निजी सम्बन्ध भी हैं क्योंकि वे इनसे कोई फीस नहीं लेते हैं. धनपशुओं से फीस नहीं लेने की प्रक्रिया को डाक्टर साहब communication initiative की संज्ञा देते हैं और कहते हैं कि ये धनपशु ही उनके विजिटिंग कार्ड हैं. डाक्टर साहब की बात में दम भी है, क्योंकि इन धनपशुओं की बदौलत पूरे बिहार के मरीज डाक्टर साहब को साक्षात धन्वंतरि का अवतार समझते हैं. ऐसे आम मरीजों से डाक्टर साहब फीस लेने में कोई कोताही नहीं करते हैं क्योंकि उनके अनुसार, “घोड़ा यदि घास से दोस्ती कर लेगा, तो खायेगा क्या?”
लेकिन, डाक्टर साहब बहुत भावुक भी हैं और गरीबों के दुःख से पीड़ित हो कर वे प्रतिदिन 20 मरीजों का न केवल मुफ्त इलाज करते हैं बल्कि उन्हें “Physician’s Sample. Not for sale.” वाली दवाएं भी मुफ्त देते हैं. डाक्टर साहब की इस सदाशयता की अखबारों और टी वी चैनलों में जम पर प्रशंसा होती है क्योंकि हर संपादक और संवाददाता भी डाक्टर साहब का मरीज है. डाक्टर साहब अपनी इस सदाशयता को मैनेजमेंट की भाषा में ‘outreach programme’  कहते हैं. इस ‘outreach programme’ से न केवल डाक्टर साहब की दरियादिली का डंका बजता है बल्कि दवा कंपनियों को भी खूब फायदा मिलता है क्योंकि डाक्टर साहब सिर्फ दो दिन की खुराक मुफ्त देते हैं और बाद में यही दवाएं खरीद कर खाने की ताकीद कर देते हैं. लिहाजा, डाक्टर साहब दवा कंपनियों के चहेते हैं. उनके यहाँ medical representatives की भीड़ लगी रहती है जिनसे डाक्टर साहब सिर्फ रात के 10 से 11 बजे के बीच ही मिलते हैं. दवा कंपनियों के सौजन्य से डाक्टर साहब साल में सिर्फ दो बार सपरिवार छुटियाँ बिताने विदेश चले जाते हैं. लालच तो उन्हें छू तक नहीं गया है. उनके दिल में लक्ष्मी नहीं गांधीजी का वास है.
 अपने सामाजिक दायित्वों के निर्वहन में डाक्टर साहब देश के बड़े बड़े औद्योगिक घरानों के Corporate Social Responsibility Initiatives से भी आगे हैं.  नकली दवाओं के कहर से मरीजों को बचाने के उद्देश्य से डाक्टर साहब ने क्लीनिक के बगल में ही दवा की एक दुकान खोल दी है. उसी दुकान से दवा खरीदने की सख्त हिदायत डाक्टर साहब के कारिंदे हर मरीज को देते हैं और लगे हाथ यह गंभीर चेतावनी भी दे देते हैं कि किसी दूसरी दुकान से दवाएं खरीदने से जान जाने का भी खतरा है. लिहाजा, डाक्टर साहब की दवा दुकान में भीड़ लगी रहती है और अच्छा ख़ासा मुनाफा भी हो जाता है. यद्यपि उनकी पत्नी को दवा दुकान के कारोबार से कोई लेना देना नहीं है तथापि सरकारी तौर पर वे ही इसकी मालकिन हैं क्योंकि डाक्टर साहब टैक्स मैनेजमेंट में भी उस्ताद हैं.
हर आम भारतीय की तरह डाक्टर साहब आयकर को एक अनावश्यक बोझ मानते हैं; और आयकर के इस बोझ को सही-गलत किसी भी तरीके से कम करना अपना नैतिक कर्तव्य मानते हैं. अस्तु, वे मरीजों की संख्या का कोई लेखा जोखा नहीं रखते हैं, अपनी वास्तविक आय का एक दशांश ही अपने रिटर्न में दर्शाते हैं और अपने घर के बिजली-पानी, दाई-नौकर, रसोईया-खानसामा, ड्राइवर-माली इन सब पर होने वाले खर्च को भी अपनी आय में से मिन्हा कर देते हैं. वह तो दुष्ट सरकार ने ऐसा कोई प्रावधान नहीं बनाया वर्ना वे अपने घर के चावल-दाल, नून-हल्दी, सब्जी-भाजी का खर्च भी अपनी आय में से मिन्हा कर देते !! आयकर विभाग वाले उन्हें अनावश्यक तंग नहीं करें इस निमित्त डाक्टर साहब न केवल उनकी मुफ्त चिकित्सा करते हैं बल्कि हर दीपावली और नववर्ष के पावन अवसर पर आयकर विभाग के चपरासी से लेकर चीफ कमिश्नर तक को नियमित सौगात भी भेजते हैं. साथ ही साथ अपने चार्टर्ड अकाउन्टेंट (सी. ए.) को उन्होंने स्पष्ट हिदायत भी दे रखी है कि ‘खर्चा-पानी’ करने में कभी कोई कोताही ना करे.
डाक्टर साहब की इस चतुरंगी प्रतिभा के फलस्वरूप हर वर्ष उनके दो नंबर के बैंक खाते में एक मोटी रकम जमा हो जाती है. डाक्टर साहब अपने पूर्वजों का बहुत भी सम्मान करते हैं!  अतः उनसे प्रेरणा लेकर वे इस धन को जमीन में गाड़ देते हैं; और नियमित रूप से भूखंड / मकान / फ़्लैट का बेनामी क्रय कर लेते हैं.
अचल संपत्तियों के पंजीकरण की प्रक्रिया को डाक्टर साहब अत्यंत जटिल और कठोर मानते हैं क्योंकि इस प्रक्रिया में उन्हें स्टैम्प ड्यूटी अदा करनी पड़ती है. वे हमेशा न्यूनतम स्टैम्प ड्यूटी ही अदा करते हैं और अचल संपत्तियों का वास्तविक मूल्य कभी नहीं दर्शाते हैं. इस प्रयोजन हेतु डाक्टर साहब ने पंजीकरण कार्यालय के हर कारिंदे से ‘लेन-देन’ का एक पवित्र रिश्ता स्थापित कर लिया है.
सम्पूर्णता में देखा जाए तो डाक्टर साहब एक सच्चे भारतीय हैं !!!
और हर सच्चे भारतीय की तरह वे दूसरों के भ्रष्टाचार की सख्त खिलाफत करते हैं. भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी का नाम सुनते ही उनका चेहरा गुस्से से तमतमा जाता है, भृकुटी तन जाती है, नथुने फड़कने लगते हैं और आँखों से अंगारे बरसने लगते हैं. उनके इस रौद्ररूप को देखकर लगता है कि यदि कहीं कोई भ्रष्टाचारी उनके सामने पड़ गया तो वे उसका टेंटुआ ही दबा देंगे !!
हर सच्चे भारतीय की तरह डाक्टर साहब भी भ्रष्टाचार को देश का सबसे बड़ा कोढ़ मानते हैं; इसके उन्मूलन के लिए कड़े से कड़ा क़ानून बनाए जाने की पुरजोर वकालत करते हैं और मानते हैं कि जन लोकपाल कानून बनते ही भ्रष्टाचार का सर्वनाश हो जाएगा.
‘आज़ादी की दूसरी लड़ाई’ से वे इतने प्रभावित हुए कि अपने वातानुकूलित क्लीनिक से कूदकर सड़क पर आ गए तथा अन्य नामचीन और ख्यातिप्राप्त डाक्टरों के साथ ‘अन्ना टोपी’ और ‘अन्ना तख्ती’ से लैस होकर कड़ी धूप में पूरे आधे घंटे तक प्रदर्शन करते रहे !! उनके इस अप्रतिम बलिदान से सभी टी वी चैनल मंत्रमुग्ध हो गए और आधे घंटे के इस महान प्रदर्शन का ‘लाइव कवरेज’ 12 घंटे तक करते रहे!!!   
डाक्टर साहब ने उसी दिन फेसबुक प्रोफाइल से अपनी तस्वीर उखाड़ फेंकी और अन्नाजी को वहाँ चिपका दिया, अपने क्लीनिक को अन्नाजी की तस्वीरों से पाट दिया, ‘अन्ना टोपी’ को अपने वस्त्र-विन्यास का अभिन्न अंग बना लिया और अपने दिल में गांधीजी के साथ साथ अन्नाजी को भी एडजस्ट कर लिया. ‘दूसरी आज़ादी’ के आंदोलन ने उन्हें देशभक्त से अन्नाभक्त बना दिया !!! 
लेकिन अन्ना जी का अनशन समाप्त होने के कुछ दिनों बाद ही डाक्टर साहब के व्यक्तित्व में एक आमूलचूल परिवर्तन आ गया. उनके चेहरे से रौनक और सर से ‘अन्ना टोपी’ गायब हो गयी ! भ्रष्टाचार का नाम सुनने पर उनकी आँखों से अब अंगारे नहीं आंसू टपकते और अन्नाजी का नाम सुनते ही डाक्टर साहब दांत किटकिटाने लगते !!!
डाक्टर साहब के व्यक्तित्व के इस आमूलचूल परिवर्तन का कारण एक खौफनाक हादसा था. हुआ कुछ यूँ कि :-
एक दिन डाक्टर साहब ‘अन्ना टोपी’ लगाए मरीजों से मुखातिब थे. मरीजों का भारी हुजूम बाहर वोटिंग रूम में जमा था. एक मरीज अंदर आया. अपनी आदत के मुताबिक़ डाक्टर साहब ने उससे पूछा, “क्या तकलीफ है?” मरीज बोला, “आप आयकर की चोरी करते हैं, यही मेरी तकलीफ है.” डाक्टर साहब सकपका से गए. यह कैसा मरीज है जो उन्हें ही ताने दे रहा है!! पर, वे अन्ना रस में सराबोर थे, उनके सर पर ‘अन्ना टोपी’ थी. दिल में अन्ना भक्ति का ज्वार और ‘दूसरी आज़ादी’ प्राप्त हो जाने का गुरूर था. सो तैश में बोले, “इतनी ओछी बात करते आपको शर्म नहीं आती?” मरीज ने संजीदगी से कहा, “जी नहीं. आपको आयकर चोर कहने में मुझे तनिक भी शर्म नहीं आ रही है.”
मरीज की संजीदगी का असर डाक्टर साहब पर भी पड़ा, वे कुछ संयमित हुए और संजीदा लहजे में उन्होंने कहा, “माफ कीजियेगा, मैंने आपको पहचाना नहीं.” मरीज विनम्रता से फरमाया, “मैं इस एरिया का आयकर इन्स्पेक्टर हूँ.” डाक्टर साहब चौंके, यह कौन सा आयकर इन्स्पेक्टर आ गया जिसे वे पहचानते तक नहीं हैं? उन्होंने कुछ झेंपते हुए कहा, “यहाँ के इन्स्पेक्टर तो फलां जी हैं. मैं तो उन्हें बहुत अच्छे से जानता हूँ.” मरीज बोला, “उनका तबादला हो गया है और अभी दो महीने पहले ही मैंने यहाँ योगदान दिया है.”
डाक्टर साहब की जान में जान आ गयी, उनकी साँसे फिर से सामान्य हो गयी और दिल की धडकन 103 से घट कर पुनः 72 पर स्थिर हो गयी !!. वे समझ गए कि चिंता करने का कोई सबब है ही नहीं ... यह नया इन्स्पेक्टर अपनी उपस्थिति भर दर्ज करा रहा है. वे मुस्कुराते हुए बोले, “अच्छा, इसीलिए पहचान नहीं पाया आपको. मैं अपने सी.ए. को बोल देता हूँ वह मिल लेगा आपसे.” इन्स्पेक्टर ने भी मुस्कुराते हुए उत्तर दिया, “जी जानता हूँ मैं आपके सी. ए. को.”
डाक्टर साहब की पैनी बुद्धि ने तुरंत ताड़ लिया कि इन्स्पेक्टर सिर्फ अपनी खुराकी बढ़ाना चाह रहा है; और चाहे भी क्यूँ नहीं? मंहगाई भी तो आखिर आसमान छू रही है !! वे पुनः अपने प्रसन्नचित्त स्वरूप को प्राप्त हो गए और गदगद भाव से बोले, “वह मिल लेगा आपसे और जो भी आप चाहते हैं वह दे देगा.” इन्स्पेक्टर ने विनम्रता से उत्तर दिया, “लेकिन मुझे तो आप से ही चाहिए.”
डाक्टर साहब को इंस्पेक्टर की बात बहुत अटपटी लगी. क्या चाहता है यह इन्स्पेक्टर? क्या उन्हें अपने हाथों से इसे घूस देना पड़ेगा?? क्या यह दुर्दिन भी देखना पड़ेगा उन्हें? राम, राम ... अन्ना, अन्ना ... !! इतनी धृष्टता, इतनी निर्लज्जता?? डाक्टर साहब को लगा कि वह इन्स्पेक्टर नहीं साक्षात् दुश्शासन है जो मरीजों से भरी क्लीनिक में उनका चीर-हरण कर रहा है ! संकट की इस घडी में उन्होंने अन्ना को याद किया. अन्ना का स्मरण करते ही डाक्टर साहब के शरीर में एक नयी स्फूर्ति का संचार होने लगा, उनके अन्नाभक्त रक्त में उफान आने लगा और सहसा उन्हें यह दिव्य ज्ञान प्राप्त हो गया कि वे ‘अन्ना टोपी’ रुपी कवच से सुरक्षित हैं !! उन्होंने ऐंठते हुए इन्स्पेक्टर को धमकाया, “मैं आपकी शिकायत आपके कमिश्नर साहब से करूँगा और तब आपको पता चलेगा कि आप किस से उलझ रहे हैं. अरे, आप मुझे कोई ऐरा-गैरा-नत्थूखैरा समझ रहे हैं क्या? मैं अन्ना-भक्त हूँ और भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ हूँ.”
डाक्टर साहब के इस प्रलाप का इन्स्पेक्टर पर लेशमात्र भी असर नहीं हुआ. उसने अपना फटीचर सा ब्रीफकेस खोला और कुछ कागजातों के साथ-साथ एक टोपी निकाली. कागजातों को टेबल पर रख उसने टोपी को शिरोधार्य कर लिया. डाक्टर साहब को मानो सांप सूंघ गया. उनकी बोलती बंद हो गयी और विस्फारित नयनों से एकटक वे उस टोपी और टोपी धारक को ताकते रहे. वह इन्स्पेक्टर भी अब उनकी ही तरह ‘अन्ना टोपी’ से सुसज्जित हो गया था. ‘अन्ना टोपी’ को अपने सर पर सही ढंग से व्यवस्थित कर इन्स्पेक्टर डाक्टर साहब से मुखातिब हुआ और बोला, “आपको कमिश्नर साहब से बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि उनके निर्देशन में ही मैं पिछले एक महीने से आपका समस्त लेखा जोखा खंगाल रहा हूँ और उनके द्वारा हस्ताक्षरित ये नोटिसें आपको तामील करने आया हूँ. कृपया इन्हें हस्तगत करें और प्रमाणस्वरूप अपने हस्ताक्षर अंकित कर दें.” कांपते हाथों से डाक्टर साहब ने हस्ताक्षर किये.
इन्स्पेक्टर ने ‘अन्ना टोपी’ को पुनः ब्रीफ्केसस्थ किया और यह कहते हुए बाहर निकल गया, “मैं अन्नाभक्त नहीं सिर्फ ईमानदार हूँ! यह ‘अन्ना टोपी’ तो सिर्फ दिखावा है. होने को तो आप की ‘अन्ना टोपी’ भी वैसे दिखावा ही है, क्यूँ?” इन्स्पेक्टर के जाने के बाद डाक्टर साहब काफी देर तक ‘कारवाँ गुज़र गया ... गुबार देखते रहे’ की तर्ज़ पर नोटिसों को देखते और ‘दूसरी आज़ादी’ के इस साइड इफेक्ट पर सर धुनते रहे.
और उसी पल से डाक्टर साहब के चेहरे से रौनक और सर से ‘अन्ना टोपी’ गायब हो गयी !!

नोट : इस कथा के सभी पात्र और स्थान पूर्णतः काल्पनिक हैं और एक ‘सच्चे भारतीय’ के चरित्र को उजागर करने के लिए मात्र रूपक के तौर पर हैं. 


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रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Tuesday, September 6, 2011

दूसरी आज़ादी के साइड इफेक्ट्स - भाग एक

 ऋतुराज सर का लिखा यह लेख ! ऋतुराज सर बिहार राज्य के नालंदा जिला के रहने वाले हैं ! विश्व प्रख्यात नेतरहाट विद्यालय , पटना कॉलेज और जेएनयू से शिक्षा ग्रहण करने के बाद सन 1983 में भारतीय आरक्षी सेवा के अधिकारी बने और अपने गृह राज्य बिहार को सन 2005 तक सेवा दिया और स्वेच्छा से अवकाश ग्रहण  किया  ! फिर उसके बाद कुछ वर्षों के लिये टाटा स्टील के साथ जुड़े रहे और पिछले दो साल से फुर्सत के क्षण अपने गृह जिला में बिता रहे हैं ! इनकी फोटोग्राफी भी कमाल की है ! 

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मेरे एक पुराने मित्र हैं. हम दोनों कालेज और विश्वविद्यालय के दिनों से ही मित्र रहे हैं और यह मित्रता अब तक बरकरार है. सार्वजनिक रूप से उनका नाम बताने में संकोच है इसलिए उन्हें ‘राजा’ के छद्मनाम से ही संबोधित करूँगा. मूल बिंदु पर आने के पहले ‘राजा’ का एक संक्षिप्त परिचय समीचीन होगा.
मेरी ही तरह ‘राजा’ के जीवन के समापन की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है अर्थात 50 वर्ष की सीमारेखा के पार खड़ा है वह भी. सही उम्र का पता तो खैर उसे भी नहीं है, क्योंकि उसके दूरदर्शी और कंजूस पिता ने विद्यालय में नामांकन के समय ही अपनी कंजूस प्रवृति के अनुरूप ‘राजा’ की उम्र अंकित करने में भी कंजूसी दिखा दी थी.
      ‘राजा’ अपनी युवावस्था से ही काफी जुझारू किस्म का इंसान रहा है. लोकनायक जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रान्ति में उसने सम्पूर्णता से भाग लिया था. आपातकाल में पुलिस की लाठियां भी खाई थीं और जेल भी गया था. लिहाजा ‘राजा’ मुझसे दो साल बाद स्नातक बना. स्नातकोत्तर हेतु वह दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय आया और तब से संघर्ष के साथ-साथ उसने दिल्ली को भी सीने से लगा लिया. संघर्ष और दिल्ली ने उसके दिल में डेरा डाल दिया और इस चक्कर में प्रणय के लिए उसके दिल में कोई स्थान ही नहीं बचा. नतीजा यह हुआ कि 40 वसंत देखने के बाद ही वह प्रणय निवेदन कर सका. सम्प्रति ‘राजा’ अपने परिवार (पत्नी और दो छोटे बच्चों) के साथ दिल्ली में ही रहता है. लेकिन, दिल्ली की रौनक भी उसकी जुझारू प्रकृति के पैनेपन को कुंद नहीं कर पायी है और अभी भी वह हर संघर्ष में बढ़ चढ कर हिस्सा लेता है. ‘राजा’ की मैं बहुत कद्र करता हूँ क्योंकि तीन दशक से दिल्ली में रहने के बावजूद वह अब तक बुद्धिजीवी है.
      ‘राजा’ ने अपनी आदत के मुताबिक़ अन्ना हजारे जी के नेतृत्व में ‘दूसरी आज़ादी की अगस्त क्रान्ति’ में भी सम्पूर्णता से भाग लिया. इस दौरान एक दिन मैंने उसे टी वी पर देखा. बिलकुल शिव स्वरूप दीख रहा था ... गले में सर्प माला की जगह भ्रष्टाचार विरोध की तख्ती थी और सर पर जटा की जगह ‘मैं अन्ना हूँ’ की टोपी. बच्चों को भी उसने अन्ना टोपी से संवार दिया था और अपनी धर्मपत्नी के चेहरे पर तिरंगा का लेप लगवा दिया था. ‘राजा’ और ‘रानी’ दोनों एक एक बच्चे का हाथ थामे हुए थे और पूरा परिवार जोर जोर से ‘वंदे मातरम’ ... ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ के नारे लगा रहा था. मैं मंत्रमुग्ध हो इस अविस्मरणीय दृश्य तो तब तक देखता रहा जब तक मुए टी वी वालों ने दृश्य बदल नहीं दिया. दूसरे दिन ‘राजा’ को मैंने फोन किया और बताया कि मैंने उसे टी वी पर देखा था सपरिवार. वह खुशी से झूम उठा, और पूछा ‘बढ़िया लग रहा था न?’ मैंने कहा, ‘अत्यंत मोहक दृश्य था ... पूरे के पूरे जोकर लग रहे थे तुम सब!’ वह कुछ खिसिया सा गया लेकिन भडका नहीं. बहुत ही संजीदा इंसान है मेरा मित्र.
      कल जब अन्ना हजारे जी के अनशन का समापन हो गया और पूरा देश ‘दूसरी आज़ादी’ के जश्न टी वी पर मनाने लगा तो मैंने ‘राजा’ को बधाई देने के निमित्त फोन किया. परेशानी से सराबोर एक रुआंसी सी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तो मैंने पूछा, ‘क्या हुआ, खैरियत तो है न?’ ‘राजा’ ने कहा, ‘अरे क्या बताऊँ यार, भारी मुश्किल खड़ी हो गयी है. बाद में फोन करता हूँ तुम्हें.’
      मैं चिंताग्रस्त हो उसके फोन का इंतज़ार करने लगा. मन में तरह तरह बातें घुमड़ने लगीं. खैर, देर रात उसका फोन आया. इस वार्तालाप को अक्षरशः प्रस्तुत कर रहा हूँ :-
मैं : “क्या बात है, इतने परेशान क्यों थे?”
राजा : “भारी मुसीबत हो गयी थी यार. यह पांच साल का छोटुआ सुबह सुबह मोहल्ले के अपने 10-12 दोस्तों को बुला लाया और अन्ना टोपी पहन, डाइनिंग टेबल को मंच बना कर अनशन पर बैठ गया. उसके दोस्त डाइनिंग टेबल को घेर कर बैठ गए और भजन गाने लगे. बीच बीच में वे ‘वंदे मातरम’ और ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ के नारे भी लगाते.
मैं और तुम्हारी भाभी समझा समझा कर थक गए लेकिन वह माने तब तो !! काफी देर तक समझाने बुझाने के बाद मैंने खीझ कर डांट दिया तो उसके दोस्त भड़क गए. कहने लगे कि हम अन्ना की तरह अहिंसक और शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे हैं और आप हमें धमकी दे रहे हैं??? एक दो बच्चे गए और मोहल्ले के ढेर सारे बच्चों-बच्चियों को इकठ्ठा कर लाये. बगल के पार्क में एक टेबल लगा दिया और छोटुआ को कंधे पर बिठा कर नारे लगाते हुए वहाँ लेते गए. तीन से तेईस साल के बच्चे-बच्चियां इकठ्ठे होने लगे. कुछ गिटार और ड्रम ले आये और लड़कियों के साथ मिल कर ‘मितवा ... ओ मितवा’ गाने लगे. एस.एम.एस और इंटरनेट के माध्यम से अपने सभी दोस्तों को खबर कर दी और थोड़ी ही देर में मोटरसाइकिलों / गाड़ियों पर सवार हो हो कर बच्चे पहुँचने लगे. पार्क के अगल बगल की सारी सड़कें खचाखच भर गयीं. मोहल्ले के बाज़ार में खबर हो गयी तो चाट/आइसक्रीम/भूंजा/नूडल बेचने वाले भी अपना अपना ठेला ले कर चले आये. अन्ना जी के अनशन के चक्कर में दिल्ली के हर बाज़ार में तिरंगे झंडों और अन्ना टोपी / अन्ना तख्ती की दुकानें तो खुल ही चुकी थीं ... वे सब भी अपना अपना बचा खुचा माल ले कर आ गए और ‘एक पर एक फ्री’ चिल्लाने लगे. तुम तो जानते ही हो कि फ्री की हर चीज़ हम भारतीयों को कितनी अच्छी लगती है, सो देखते ही देखते पूरा पार्क रामलीला मैदान की तरह तिरंगों / अन्ना टोपियों / अन्ना तख्तियों से पट गया. बाल हितों की रक्षा करने वाले कुछ गैर सरकारी संगठनों (एन.जी.ओ.) को भी खबर हो गयी. तुरंत फैब इंडिया के डिजाइनर कपड़ों में सजे धजे एन.जी.ओ. वाले भी कंधे पर झोला टाँगे पहुँच गए. उनलोगों ने तुरंत मंच बने उस टेबल के ऊपर एक शामियाना टंगवा दिया, लाउडस्पीकर लगवा दिया, बिजली बत्ती का इंतजाम कर दिया और छोटुआ के लिए एक पेडस्टल पंखा भी मंगवा दिया. बाल हितों की रक्षा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करने के उद्देश्य से उन्होंने टी वी वालों को फोन करके खबर कर दी कि आज़ादी के बाद देश का महानतम बाल संघर्ष इस मोहल्ले में चल रहा है और इस संघर्ष को वे अपना पूरा समर्थन दे रहे हैं. बस, पलक झपकते टी वी वाले भी कैमरा और माइक लिए धमक गए. थोड़ी ही देर में पार्क में बच्चों से कहीं ज्यादा संख्या एन.जी.ओ. और टी.वी. वालों की हो गयी. बस यही समझो यार, कि रामलीला मैदान की तरह पूरा पिकनिक का माहौल बन गया मेरे मोहल्ले के पार्क में. अब बच्चे माइक के सामने ‘मितवा ... ओ मितवा’ के साथ साथ यह भी गाने लगे, ‘सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं”, “कर चले हम फ़िदा जान ओ तन साथियों ... अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों”, “मेरा रंग दे, मेरा रंग दे बासंती चोला ...”, “मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास ... हम होंगे कामयाब एक दिन” !!
      टी वी पर ब्रेकिंग न्यूज़ आने लगा “आज़ादी के बाद का सबसे व्यापक बालाक्रोश”, “अपने अधिकारों की रक्षा के लिए मासूम बच्चों ने बाँधे सर पर कफ़न”, “माता-पिता द्वारा अपने बच्चों के लोमहर्षक उत्पीड़न का पर्दाफाश”, “दिल्ली में माँ-बाप ने ही घोंट दिया ममता का गला” आदि आदि. कुछ टी वी चैनलों ने सेवानिवृत्त समाजशास्त्रियों, बेरोजगार मनोवैज्ञानिकों, बूढ़े पत्रकारों और निठल्ले नेताओं को बुला कर चर्चा प्रारम्भ कर दी और छोटुआ के अनशन का गहन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, मनोवज्ञानिक और भौगोलिक विश्लेषण होने लगा. एक दो टी वी चैनलों ने अन्य महानगरों में स्थापित अपने संवाददाताओं को निर्देश दिया कि दिल्ली में चल रहे इस बाल संघर्ष पर देश के बच्चों की प्रतिक्रियाएं दें. धड़ा-धड़ हर महानगर से बच्चों की प्रतिक्रियाएं आने लगीं कि वे इस संघर्ष में छोटुआ के साथ हैं और अपने माता-पिता के ज़ुल्म अब वे बर्दाश्त नहीं करेंगे. टी वी वालों ने छोटुआ के अनशन को “बाल आज़ादी का प्रथम भारतीय संग्राम” घोषित कर दिया.
      देखते ही देखते तीन-चार पुलिस जिप्सियां सायरन बजाती हुई मेरे घर के सामने आ गयीं. क्या बताऊँ भाई, पहली बार घर में पुलिस वालों को देख कर मेरे तो रोंगटे ही खड़े हो गए. थानेदार ने गुर्राते हुए कहा, “यह क्या बवंडर खड़ा कर दिया है आपके बच्चे ने? क्या मांग है उसकी??” मैंने कहा, “अभी तक तो मुझे बताया ही नहीं है कि उसकी मांग आखिर है क्या!!” इतना सुनते ही थानेदार हत्थे से उखड़ गया और बोला, “इतना बड़ा बवंडर खड़ा हो गया है और आप को पता तक नहीं है कि आपके बेटे की मांग क्या है?? तुरंत जाइए और इस मामले को फौरन निपटाइए, वर्ना आप दोनों पति-पत्नी को बाल उत्पीडन के जुर्म में गिरफ्तार करना पड़ जाएगा !” 
      मैंने थानेदार को समझाने की बहुत कोशिश की कि हमने कोई बाल उत्पीडन नहीं किया है. अपने दोनों बच्चों पर हाथ उठाना तो दूर हमने कभी उनके कान तक नहीं ऐंठे हैं. लेकिन वह मानने को तैयार ही नहीं हुआ और बोला, “इतना व्यापक जनाक्रोश क्या बिना बात के ही है? अरे, जरूर आप दोनों नियमित रूप से अपने बच्चों को उत्पीड़ित करते रहे होंगे जिसका परिणाम इस व्यापक जन आंदोलन में नज़र आ रहा है मुझे. आप अभी तुरंत जाइए और अपने बच्चे से बात करिये.” अपने छोटे दारोगा को उसने हिदायत दी, “साथ जाओ इसके ... और ध्यान रखना कहीं भाग ना जाए!”
      मुंह लटकाए मैं छोटे दारोगा और एक दो सिपाहियों से घिरा हुआ मंच के पास पहुंचा. मुझे पुलिस वालों के साथ देखते ही एन.जी.ओ. वाले उत्तेजित हो गए और नारे लगाने लगे. “हर जोर ज़ुल्म के टक्कर में ... संघर्ष हमारा नारा है”, “जो हमसे टकराएगा ... चूर चूर हो जाएगा”, और “वापस जाओ ... वापस जाओ” के नारों से पूरा मोहल्ला गूंजने लगा. मैं अवाक खड़ा हो कर टेबल नुमा मंच पर आसीन अपने बच्चे को देखता रहा ... वह मसनदों के सहारे अधलेटा हुआ था और उसकी दो सहपाठिनें उसे पंखा झल रही थीं. उधर भीड़ की उत्तेजना बढ़ती जा रही थी. वह तो भला हो उस छोटे दरोगा का जिसने समय रहते मुझे वहाँ से निकाल लिया नहीं तो मुझे अस्पताल ही पहुंचा देते ये एन.जी.ओ. वाले.
      थानेदार ने सुना तो उसने छोटे दारोगा को कहा, “फौरन दो तीन लोगों को सादे कपड़ों में भेजो और प्रदर्शनकारियों के प्रतिनिधिमंडल को वार्ता के लिए प्रेरित करो”. कुछ ही देर में तीन एन.जी.ओ. वाले छोटुआ के प्रतिनिधिमंडल के रूप में वार्ता के लिए आ गए. मैंने उनसे पूछा, “क्या मांग है छोटुआ की?” वे बोले, “आप पहले यह बताइये कि उसकी सभी मांगें मानने के लिए आप तैयार हैं या नहीं?” मैंने कहा, “अरे पहले मांगें तो बताइये!” मेरे यह कहते ही वे तैश में आ गए और तमतमाते हुए बाहर चले गए. टी वी वालों ने उनको घेर लिया और सवालों की बौछार कर दी. प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य ने जवाब दिया, ”हमारे लाख प्रयास करने के बावजूद, छोटुआ जी के पिता के अड़ियल रवैये के कारण ... वार्ता विफल हो गयी है. वे बालमानस की मांग तक सुनने के लिए तैयार नहीं हैं. ऐसा लगता है कि छोटुआ जी उनके सगे नहीं सौतेले बेटे हैं.”
      टी वी चैनलों में हमारी भर्त्सना करने की होड़ लग गयी. मेरा घर पड़ोसियों, पुलिसवालों और नेताओं से खचाखच भर गया. इन सबकी सलाह और डांट सुनते सुनते मेरे कान पक गए. उधर तुम्हारी भाभी का रो रो कर बुरा हाल हो गया. उसे चुप कराने जाऊं तो वह बार बार यही कहती, “दोपहर हो गयी और मेरे छोटुआ ने अभी तक कुछ खाया नहीं है. आप कुछ भी करिये लेकिन उसके  अनशन को समाप्त करवाइए नहीं तो मैं आपको कभी माफ नहीं करूंगी.”
      मैंने कुछ पड़ोसियों को कहा कि कृपया छोटुआ के प्रतिनिधिमंडल को वार्ता के लिए पुनः बुलाने का प्रयास करिये क्योंकि यदि मैं उस पार्क में गया तो भीड़ को एन.जी.ओ. वाले फिर उत्तेजित कर देंगे. मैं छोटुआ की हर मांग बिना शर्त मानने के लिए तैयार हूँ.
      पड़ोसियों ने लौट कर सूचना दी कि एन.जी.ओ. के नेतागण बगल के पांच सितारा होटल में लंच करने चले गए हैं. वे जब लौटेंगे तब ही वार्ता संभव है. मैंने माथा पीट लिया. उधर मेरा मासूम छोटुआ सुबह से भूखा प्यासा बैठा है और इधर ये एन.जी.ओ. वाले, जो खुद को उसका हमदर्द बताते हैं, पांच सितारा भोजन का लुत्फ़ उठा रहे हैं. मन में तो आया कि दुबारा आयें तो इन एन.जी.ओ. वालों का गला ही घोंट दूँ. पर क्या करता, खून का घूँट पीकर रह गया.
      शाम के चार बज गए तब जा कर कहीं छोटुआ का एन.जी.ओ. प्रतिनिधिमंडल प्रगट हुआ. पता चला कि लंच के बाद वे आराम करने चले गए थे. आते के साथ उन्होंने पूछा, “हाँ तो छोटुआ की सारी मांगें मानने के लिए आप तैयार हैं या नहीं?” मैंने दांत पीसते हुए कहा, “हाँ, मैं तैयार हूँ. क्या मांगें हैं उसकी?” वे बोले, ”अपनी मांगें तो वही बताएगा क्योंकि उसकी मांग से हमें कोई लेना देना नहीं है. हाँ, आज आपके छोटुआ के संघर्ष ने हमें पूरे भारत में विख्यात कर दिया है.” मारे गुस्से के मैं कांपने लगा. ये लोग मेरे छोटुआ को मोहरा बना कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं ... एक निरीह और अबोध बालक की जान से खेल रहे हैं ... ये इंसान हैं या हैवान??? क्या विदेशी धन के लालच में ये किसी को भी बलि का बकरा बना दे सकते हैं? तरह तरह के प्रश्न कौंध रहे थे मेरे मन में, पर मौके की नजाकत तो समझ कर मैं चुप ही रहा.
        एन.जी.ओ. प्रतिनिधिमंडल ने बाहर निकल कर घोषणा की, “छोटुआ जी  के पिता के रुख में कुछ बदलाव आया है लेकिन वे अभी भी सभी मांगें मानने के लिए तैयार नहीं हैं. इसलिए छोटुआ जी का अनशन अभी जारी रहेगा.”
      मैं, पडोसी, पुलिस वाले सभी अवाक रह गए ... यह क्या कह रहे हैं ये एन.जी.ओ. वाले??? मैंने तो बिना शर्त सभी मांगें मानने की बात कही थी और ये बिलकुल उल्टी बात बता रहे हैं टी वी वालों को !! गुस्से में मैं घर के बाहर निकला तो थानेदार ने मुझे रोक लिया. उसे अब मेरी हालत पर तरस आ रहा था. मुझसे उसने पूछा, “कहाँ है आपका बड़ा बेटा? उसे बुलवाइए.” कुछ पडोसी पार्क की तरफ भागे और थोड़ी देर में मेरे बड़े बेटे बड़कू को साथ लिए लौटे.
      थानेदार ने बड़कू को अपने पास बिठाया और प्यार से पुचकारते हुए कहा, “बेटा, तुम्हारा छोटा भाई सुबह से भूखा है, तुम्हारी माँ का रो रो कर बुरा हाल हो गया है, तुम्हारे पिता दिन भर परेशान रहे हैं. क्या तुम्हें अपने भाई के लिए बुरा नहीं लग रहा है?” बड़कू रुआंसा हो गया और बोला, “अंकल, छोटुआ तो कब से अनशन तोड़ने को तैयार बैठा है लेकिन ये एन.जी.ओ. वाले उसे मंच से हटने ही नहीं दे रहे हैं.” थानेदार ने कहा, “बेटा, जाओ और छोटुआ को बोलो कि वह मंच से घोषणा कर दे कि उसकी सभी मांगें मान ली गयी हैं और इसलिए वह अब अपना अनशन समाप्त कर रहा है ... लेकिन ध्यान रहे कि यह बात कोई एन.जी.ओ. वाला नहीं सुने.” बड़कू चुपचाप उठा और बाहर चला गया. कुछ पडोसी भी उसके साथ चल पड़े पीछे पीछे.
      कुछ समय बाद पड़ोसियों ने लौट कर बताया कि बहुत समझदारी का परिचय देते हुए बड़कू छोटुआ को ले कर टेबल के एक कोने में चला गया है और कान में फुसफुसा रहा है. थानेदार मुस्कुराया और बोला कि बस अब कुछ ही देर में सारा मामला शांत हो जाएगा ... आप लोग चिंता मत करिये बस टी वी देखिये.
      और थोड़ी ही देर में सचमुच टी वी पर ब्रेकिंग न्यूज़ आने लगा “छोटुआ जी की मांगे बिना शर्त मानी” ... “छोटुआ जी ने अपना अनशन समाप्त करने की घोषणा की”, “छोटुआ जी की जीत पूरे राष्ट्र के बच्चों के हक की जीत है” ... !!
      आधे घंटे में ही बड़कू और छोटुआ के अन्य दोस्त उसे कंधे पर बिठाए हुए घर आ गए. पीछे पीछे एन.जी.ओ. वाले भी जीत के नारे लगाते हुए चल रहे थे.  छोटुआ दौड कर अपनी माँ से चिपट गया. मैंने एन.जी.ओ. वालों को कहा, “सालों, यदि घर के अंदर पैर रखा तो पैर तोड़ कर हाथ में दे दूंगा ... उसके बाद बच्चों नहीं अपाहिजों के हितों की रक्षा करते रहना.” थानेदार भी उनपर गुर्राया तो वे अपना अपना झोला संभालते हुए भागे.
      घर के अंदर पहुंचा तो छोटुआ रोते रोते अपनी माँ से कह रह था कि मैं तो बस मैगी नूडल खाना चाहता था. उस दिन पापा के साथ रामलीला मैदान में अन्ना का अनशन देखा था तो मुझे लगा कि यह काम बहुत अच्छा होता होगा इसीलिए अनशन करने लगा था. अब कभी नहीं करूँगा मम्मी!!
      बस यार इसी परेशानी में दिन भर उलझा रहा था ... अभी मैगी नूडल खा कर छोटुआ सो गया है, तुम्हारी भाभी को भी काम्पोज खिला कर सुला दिया है और तुम्हें फोन करके अपनी आपबीती सुना रहा हूँ यार.”
मैं : “ अरे यार, यह तो लेने के देने पड़ गए तुम्हें.”
राजा : “हाँ यार, दूसरी आज़ादी का साइड इफेक्ट है यह.”



रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Friday, August 19, 2011

अन्ना का आंदोलन - भाग एक

बचपन याद है ! बुढा बाबा ( बाबा के बड़े चाचा ) ओसारा के एक कोना में एक पलंगनुमा काफी ऊँचा 'नेवारी'  के  खटिया पर् लेटे रहते थे ! बहुत गुस्से वाले थे और कंजूस भी - जो कुछ भी हम लोग हैं - उनके त्याग का ही फल है - खुद उनको अपनी कोई संतान नहीं थी ! छोटे मोटे ज़मींदार थे ! 

जब उनका मूड ठीक होता हम बच्चे उनके बगल में बैठ जाते ! वो दौर था - जब हम मिडिल स्कूल में पढते थे !  वीर कुंवर सिंह का नाटक हमारे किताब में था ! 'खूब लड़ी मर्दानी- झांसी की रानी' कविता कंठस्थ था ! चेतक :) और 'हार की जीत' ! बुढा बाबा से एक प्रश्न किया था - बाबा , देश आज़ाद हुआ तो आप कितने वर्ष के थे - वो बोले पचपन ! गांधी जी - हमारे गाँव आये थे ? वो बोले - हाँ , बगल वाले गाँव में 'कार' पर् ! गाँधी जी और कार :( मूड ऑफ हो गया था :( 'वामपंथी किताबों' में कार का जिक्र ही नहीं होता था ! 

बाबा राजनीति में थे ! बाबा से प्रश्न होता था - राजेन बाबु ( डा० राजेंद्र प्रसाद ) से आप मिले हैं ? वो बोले - हाँ ! संतोष होता था ! मेरा परिवार भी आजादी की लड़ाई में शामिल था ! राजेन बाबु की सादगी की कल्पना ही अपने आप में रोमांचित करती थी ! वामपंथी इतिहास की किताबें ! बाद में पता चला - राजेन बाबु का हमारे छपरा जिला के सबसे बड़े 'ज़मींदार' 'हथुआ' से काफी गहरे सम्बन्ध थे ! 

एक याद है - एक मामा के बियाह में १९८२ में पटना आये थे ! कदमकुआं से 'बिहार विधानसभा' निकल गए  - यह देखने की वो कौन सात विद्यार्थी थे जिन्होंने देश के लिये गोली खाया ! फिर उन नामो में 'खुद के जिले' का कोई है या नहीं - उसको खोजना ! मुजफ्फरपुर में थे तो 'खुद्दी राम बोंस' की मूर्ती के पास से जब भी गुजरे - एक नमन तो जरुर ही किया ! बचपन में सोचता था - जब भी बड़ा होऊंगा - भगत सिंह - चंद्रशेखर आज़ाद जैसा मुछ रखूँगा ! चंद्रशेखर आज़ाद के किस्से हर वक्त जुबान पर् होता था ! कई चाचा - मामा टाईप आईटम लोग वैसा ही मुछ रखता था ! 

थोडा बड़ा हुए तो - पटना आये ! यहाँ हर कोई 'छात्र आंदोलन ' का नाम लेता ! छात्र आंदोलन में हई हुआ - हउ हुआ ! लालू - नितीश - पासवान - यशवंत सिन्हा - फलना - ठेकाना - झेलाना - जिसको देखो - सब के सब 'छात्र आंदोलन' की उपज ! कुछ लोग इमरजेंसी की प्रशंषा भी करते - कहते ट्रेन समय से चलने लगे थे ! समाज में बकवास बंद हो गया था - पर् घुटन थी ! 

इस् तरह की कई कहानीयां कानों में गूंजती रही ! जब कोई बोलता - आंदोलन - तो हमारे जेनेरेशन के पास कहने को था - 'आई टी आंदोलन' ! मेरा जेनेरेशन सबसे ज्यादा बदलाव देखा है ! मंडल - कमंडल आया लेकिन वो समाज को विभाजीत ही कर के गया :( शर्म से उसको 'आंदोलन' नहीं कह सकते थे :( आई टी - आंदोलन में सब कुछ था - पर् वो नहीं था - जो आजादी और छात्र आंदोलन में था ! आई टी - आंदोलन कुछ फीका जैसा लगता था :( 

'अन्ना' आये ! क्या आये ! जबरदस्त आये ! वो सभी इतिहास की किताबों को सच करने का मौका आ गया ! कानो में गुजती उन कहानीओं को जुबान पर् लाने को दिल मचलने लगा ! टी वी पर् सीरीयल बंद हो गया - रवीश कुमार की खनकती आवाज़ गूंजने लगी ! मस्त ! दिन भर ओफ्फिस में बॉस से अन्ना को डिस्कस  करने के बाद 'होंडा सीटी' को घर के पड़ोस वाले पार्क के नज़दीक पार्क कर के - मोमबत्ती मार्च में शामिल होना - फिर खुद के घर के बालकोनी की तरफ - अपनी ही बीवी को गर्व से देखना - देखो ..देखो ..न..मै   भी कुछ कर सकता हूँ ! मै विदेशी कंपनी' का गुलाम नहीं - एक भारतीय भी हूँ - तुम भी आओ न ..हर्ष और खुशी को भी लेकर आओ ...रुको आती हूँ ..जींस मिल नहीं रहा !  ऐसा लगा - हम भी इतिहास में शामिल हो गए ! 

थैंक यू - अन्ना ! 

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Wednesday, June 22, 2011

बहस जारी रहेगी ...भाग एक !!

बहुत पहले की बात है ! एक दोस्त को इंजीनियरिंग में 'मैकेनिकल ब्रांच' मिला ! उसके बाबु जी का बयान था - 'जीप वाला नौकरी नहीं मिलेगा - एस डी ओ नहीं बन् पायेगा' ! बेहद निराशजनक शब्दों में ! शायद उसके बाबु जी की चाहत थी - सिविल इंजिनियर बनता - बिहार सरकार में इंजीनीयर होता - कंकरबाग में जमीन खरीदता - फिर उसमे चार मंजिला मकान - दरवाजे पर् एक जीप खड़ी होती ! दोस्त एकदम अड़ा रहा - पढूंगा तो मैकेनिकल ही वरना कुछ नहीं ! 

इस् पिता की अभिलाषा कहाँ से आई ? 

मेरे इस् मैकेनिकल दोस्त की एक दोस्त होती थी ! बेहद ख़ूबसूरत ! एक देर शाम "नोट्स" आदान प्रदान करना था ! अब उसके घर जाना था ! मै प्लस टू ज़माने में गैरों के लिये काफी 'सोबर' और नजदीक से जानने वालों के लिये 'बदमाश' ! अब दोस्त के 'दोस्त' के घर जाना था ! देर शाम था ! कार चलाने सिर्फ मुझे ही आता - ऊपर से मै काफी 'सोबर' - कहीं भी किसी से पहली मुलाकात में - एक इम्प्रेशन बढ़िया बनने का डर - मेरे दोस्त को सता रहा था ! खैर , मन मार् के वो मुझे लेकर गया !दोस्त के दोस्त के  घर पहुंचे ! एक ड्राईंग रूम खुला - वहाँ से दूसरा ड्राईंग रूम - फिर तीसरा ड्राईंग रूम ! मेरा माथा घूम गया ! टेंशन में हम सोफा पर् धम्म से जा गिरे ! ख़ाक ..इम्प्रेशन बनेगा ! तीन ड्राईंग रूम देख और तीनो बेमिसाल - 

हम तीन दिन तक सोचते रहे - बिहार सरकार ! 


मेरे गाँव में - हमारे घर के ठीक सामने वाले घर से - एक चाचा जी - इंजीनियरिंग में टॉप किये ! इंजीनियरिंग में टॉप बोले तो पक्का इंजिनियर - उनके फाईनल ईयर प्रोजेक्ट को देश भर में सहारा गया ! अब वो एम टेक करने लगे ! इरादा कुछ और था - होस्टल के लॉबी के सभी विद्यार्थी - यू पी एस सी दे रहे थे - ये भी बैठ गए ! आई ये एस बन् गए ! इनके बाबु जी इनको लेकर मेरे बाबु जी के पास आये ! सर झुका ! मेरे बाबु जी बोले - सर क्यों झुकाए हो ? हाकीम बन् गए :)) खुश रहो ! आई एस एस चाचा बोले - नहीं ....मन था अमरीका जा कर कुछ रिसर्च करता ! खैर हाकीमगिरी में अठारह साल गुजारे और अब देश के सबसे धनी व्यक्ती के कंपनी में सबसे बड़े मैनेजर हैं :)) 

क्या सामाजिक दबाब ने विश्व से एक बेहतरीन वैज्ञानिक नहीं छिन लिया ?? 

मार्च महीने में पटना जा रहा था ! राजधानी एसी टू में आर् ए सी ! साथ में उमर में काफी छोटा लड़का ! बात शुरू हुई - हम पूछे - बाबु क्या करते हो ? बोला - सर , मै फलाना स्टेट में फलाना अधिकारी हूँ ! मैंने बोला - हूँ ..आई ए एस हो - और मै मुस्कुरा दिया ! मेरी मुस्कान थोड़ी टेढी थी ! उसने हंसते हुए बोला - सर , मै ईमानदार रहूँगा ! मै जोर से हंस दिया ! वो काफी शरमा रहा था - टी टी को बुला - मैंने उसको फर्स्ट क्लास में भेज दिया ! 

क्या जरुरत आ पडी - उसको यह बोलने की - 'मै ईमानदार रहूँगा' ! 

बहस जारी रहेगी ....क्रमशः 

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Friday, June 10, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस - गर्मी की छुट्टी

परसों ट्विटर पर् देखा ..जुही चावला अपने बच्चों के बारे में लिखी थीं - उनके बच्चे गर्मी की छुट्टी मनाने अपने 'ग्रैंड  पैरेंट्स' के पास गए हैं :) मेरे बच्चे भी चार जुन को पटना निकल गए ! मुझे भी जाना था पर् नहीं गया ! ट्रेन पर् बहुत खुश थे ...ट्रेन खुलते वक्त बच्चों ने फ्लाईंग किस दिया ...रमेश भी उसी ट्रेन से जा रहा थे   ..गेट पर् लटका हुआ थे  - बोले की - किसको फ़्लाइंग किस दे रहे हैं ? हम बोले ..नहीं भाई ...बच्चे खुश हैं ...उनको फ्लाईंग किस मार् रहा था ..और कुछ नहीं ! 

अपना बचपन याद आ गया ! बचपन से लेकर मैट्रीक की परीक्षा पास करने तक मैंने सभी गर्मी की छुट्टीयां 'गाँव में बाबा - दीदी ( दादी ) के साथ ही मनाया है ! मस्त ! हर उम्र की यादें साथ हैं ! 

दस बजिया - हिन्दी स्कूल से पढ़ा लिखा हूँ ! छमाही की परीक्षा खत्म होते ही 'पटना/मुजफ्फरपुर' का डेरा जेल सा लगने लगता था ! माँ बाबु जी किसी जेलर से कम नहीं ! गाँव से किसी के आने का इंतज़ार - फिर गाँव के लिये निकल पड़ना ! बाबू जी वाला जेनेरेशन पहला जेनेरेशन नौकरी था - गाँव से लोगों को लगाव था ! पूरा गाँव आ जाता था ! मजा आता ! 

सुबह में दरवाजा पर् बड़ा बाल्टी और बाल्टी में पानी और पानी में आम ! कहीं से भी खेल कूद कर आईये और एक आम :) मुझे आम चिउरा बहुत पसंद ! चिउरा को पानी में फूला कर फिर आम के रस के साथ - भर पेट नाश्ता ! फिर थोड़ी धूप निकल जाती - तो दालान में "वीर कुंवर सिंह" वाला नाटक खेलना ! शाम को "घोन्सार" से भूंजा आता - तरह तरह का - चावल का - चना का - मकई का - शाम को भर पाकीट भूंजा ! फिर खेल कूद ! 

लट्टू नचाना पसंदीदा होता ! बढ़ई के यहाँ जा कर गूँज ठोकवाना ..फिर लट्टू ..शाम को 'गुल्ली - डंडा' ...वो एक समय था - "गुरदेल का" ( गुलेल ) ! गाँव के दक्षिण से 'चिकनी मिट्टी' लाना - उसकी गोली बनाना और फिर गोली को धूप में सुखा - आग में पका - गुलेल चलाना ! उफ्फ्फ्फ़ ....

क्या लिखूं और क्या न लिखूं ? सप्ताह में दो बार - गाँव में हाट लगता था - बाबा चार आना देते थे ! चार आना में "भगाऊ महतो" के ठेला पर् खूब तीता "भूंजा" खाते ...दौड़ते भागते घर लौट आना ! गाँव के बाज़ार में "छुरी" बिकता - बहुत मन करता - एक मै भी रखूं - बाबा से जिद करता - बाबा अपने पॉकेट में एकदम कडकड़ीया नोट रखते थे - वहीँ से एक पांच रुपैया का नोट निकालते और मै एक छुरी खरीदता - घर लौटते - लौटते उंगली कट चुकी होती - घर में किसी को इज़ाज़त नहीं थी - डांटने की ! 'हजाम डाक्टर' आते ! मरहम पट्टी लगती ! फिर मै बाबा के साथ उनके हवादार कमरे में सो जाता ! बाबा के सिराहने एक बन्दूक - एक टॉर्च होता और खूब बड़ा मसनद ! 

आम से कुछ याद आया - अन्यथा नहीं लीजियेगा ! हम बिहार के 'छपरा जिला' वाले थोड़े गरीब होते हैं ! पुरे भारत में इससे ज्यादा उपजाऊ ज़मीन कहीं और की नहीं है - सो जनसँख्या ज्यादा है ! 'इज्ज़त बचाने' के लिये हम सम्मलित रूप से रहते हैं ! कई बगीचा हम 'पट्टीदारों' में संयुक्त थे ! वहाँ से आप तुडा कर आता था - परबाबा जिन्दा थे - आँख से अंधा - क्या मल्कियत थी ....सभी आम उनके सामने रखा जाता ..एक आदमी गिनती करता ...फिर सभी पट्टीदारों में बराबर ..हाँ , पहला हिस्सा 'राम जानकी मठ' को जाता ! इसको हमलोग 'मठिया' कहते थे ! मेरे परिवार के पूर्वजों का देन है - ट्रस्ट है ! इस् ट्रस्ट का मुखिया हमेशा हमारे परिवार का सबसे बुजुर्ग व्यक्ती ही होगा ! गाँव की सबसे बढ़िया ज़मीन इस् ट्रस्ट को दान दी हुई है - करीब पचीस एकड का एक प्लाट है ! 

आम बंटवाने का रोज का नियम होता था ! तरह तरह के आम - केरवा आम , पिलुहिया आम , बिज्जू , सेनुर ..मालूम नहीं कौन कौन ...! तब तक बड़े बाबा मुजफ्फरपुर से लकड़ी के बक्सा में पांच दस हज़ार लीची भेजवा देते थे ! शाही लीची ! दालान पर् रख दे तो दालान खुशबू से भर जाता ! 

दोपहर में नहाने में मजा आता ! 'इनार' पर् - बाबा के साथ ! लक्स साबुन घस घस के ! "पकवा इनार" ! धीरे धीरे इनार की जगह चापाकल ले लिया ! थोड़ी देर चापाकल चलाया जाता ! उसमे ठंडा पानी निकलता ! पानी एक बड़ा लोहे के टब में भरा जाता ! टब को चार आदमी पकड़ के 'बरामदा में लाते' वहाँ एक खूब बड़ा पीढा होता - उसपर बाबा नहाते ! लक्स साबुन से ! जनेऊ मे वो  अपना  अंगूठी बाँध देते ! फिर वो दुर्गा पाठ करते - सिर्फ धोती पहन ! फिर एकदम सात्विक भोजन ! पीढा पर् बैठ के - भंसा घर के कोना पर् - परदादी खुद बाबा का खाना परोसती - अंत में दही  ! यह एक ऐसी आदत लगी मुझे की मै कभी भी 'भोज भात' में नहीं खा पाता हूँ - खाते वक्त मै बिलकुल अकेला होना चाहिए ! आज भी - दोपहर का भोजन मै बिलकुल अकेले करता हूँ ! डाईनिंग टेबल पर वो मजा नहीं जो पीढ़ा पर पालथी मार के बैठ - खाने में आता था ! 

बाबा राजनीति में थे सो गोपालगंज में डाकबंगला मिला हुआ था - कई एकड में फैला हुआ - डाक्बंगला ! लाल बत्ती गाड़ी और एस्कोर्ट जीप और मालूम नहीं क्या क्या ! बाबा के साथ गोपालगंज निकल जाता ! बाबा नहा धो अपने राजनीतिक सफर पर् और मेरे साथ उनका खानसामा ! डाकबंगला के सामने दो होटल थे ! वहाँ से एकदम खूब झालदार , गाढा रस वाला 'खन्सी का मीट' एक प्लेट आता ! भात और मीट खा के एक नींद मारता !  बाबा एक जीप मेरे लिये डाकबंगला में रखवा देते थे और गोपालगंज के सभी 'सिनेमा हौल' को बोला होता था - मै कभी भी किसी भी सिनेमा हॉल में धमक जाउंगा - सो बिना किसी रोक टोक सिनेमा देखने दिया जाए ;) मेरी सबसे छोटी और मुझे सबसे ज्यादा मानने वाली फुआ वहीँ गोपालगंज के महिला कॉलेज में शिक्षिका थी - उसके डेरा पर् निकल जाता ! बहुत खातिर होता ! बहुत महीन और पढ़ा लिखा परिवार ! बैंक में पैसा रख भूखे पेट सोने वाला परिवार नहीं था - तरह तरह का सब्जी ! छोटा फुफेरा भाई था - हम जहाँ जाते वो मेरे पीछे पीछे !   

धीरे धीरे हम टीनएज हो गए ! गाँव में लगन का समय होता ! दिन में जनेऊ और रात में बारात ! स्कूल पर् बारात ठहरता ! अपना टीम था ! अब हम रात में "दुआर" पर् सोने लगे ! दादी बहुत ख्याल रखती ! बाबा के बड़ा वाला खटिया के बगल में मेरा भी खटिया लगता ! खूब बड़ा - एक दम टाईट बिना हुआ ! सफ़ेद खोल वाला तोशक और चादर ! दो बड़ा मसनद , एक सर के पास और एक पैर के पास ;) बगल में स्टूल - स्टूल पर् एक 'जग ठंडा पानी' और गिलास ! मुशहरी का डंडा और सफ़ेद कॉटन वाला मुशहरी ! रात में सब चचेरा भाई लोग के साथ 'स्कूल पर् रुके हुए बारात का नाच देखने के लिये फरार' ;) डर भी - कोई पहचान न ले ! कभी कोई हंगामा होता तो सबसे पहले हम भागते ! हा हा हा ! सोनपुर मेला से खरीदा हुआ "गुपती" साथ में होता - किसी पर् चल जाए तो भगवान भी न बचा पाये ! 

थोड़ा और बड़ा हुए तो चाचा का 'राजदूत मोटरसाईकील' ! मजा आ जाता ! चाचा बैंक में मैनेजर हैं ! अगर चाचा गाँव पर् नहीं हैं - बाबा भी नहीं हैं - फिर एक चेला मोटरसाईकील के पीछे ! 

मैट्रीक की परीक्षा के बाद मै जबरदस्ती गाँव गया और खेती सिखा ! बाबा एक बगीचा लगवाए थे ! बाबा ही नहीं - हम तीनो पट्टीदार ! अलग अलग जगह - बगीचा के बगल में पोखर ! सुबह सुबह बगीचा चला जाता ! दस बजे तक वहीँ रुकता ! फिर पम्प सेट चालू करवा - खूब ठंडा पानी में  छोटा वाला चौकी पर् 'गमछी' लपेट - जनेऊ धारण कर - नहाता ! फिर वहाँ से खाली पैर - एक किलोमीटर चल घर पहुँचता ! फिर शाम को बगीचा में - फिर नहाना ! 

आज भी बाबा से उस बगीचे का हाल जरुर पूछता हूँ ! बाबू जी दोनों भाई को बाबा ज़मीन बाँट दिए हैं - बगीचा का कौन सा हिस्सा मुझे मिला - बाबा कहते हैं - आ कर देख लो ! अपना सब ज़मीन पहचान लो ! 

आज उस ज़मीन से पेट नहीं भरेगा ! बहुत दुःख है ! कुछ और ज़मीन होता ! असली रईसी तो वहीँ है - जो जमीन से जुड़ा है - बाकी सब तो ...खोखला है ! ज़मीन ऐसा चीज़ है ..टाटा - बिडला भी ईमानदारी से नहीं खरीद सकते :)) 

मेरे बच्चे पटना गए हुए हैं - गाँव भी जायेंगे ! 'मल्कियत' तो नहीं रही - फिर भी  कुछ तो एहसास होगा ....समय बदल गया है ...फिर भी ..कुछ चीजें इतनी जटिल होती हैं ..उनको बदलने में कई जेनेरेशन लग् जाता है !! 


रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Monday, April 25, 2011

एक सच्ची कहानी ....भाग - एक

बात चार साल पुरानी है ! मेरे 'हेड' जो भारत सरकार के वैज्ञानिक रह चुके थे अचानक से हमारे यहाँ से छोड़ कर चले गए ! जिम्मेदारी मेरे कंधो पर आ गयी ! मुश्किल घड़ी थी - तब जब आपके डिपार्टमेंट में करीब चालीस 'पढ़ी लिखी' महिलायें हो :( मैंने अपनी मुश्किल ऊपर तक पहुंचाई और मुझे 'एम टेक ( कंप्यूटर इंजिनीयरिंग)' का इंचार्ज बना दिया गया और डिपार्टमेंट के झमेले से छूटकारा मिल गया  ! यह कोर्स विश्वविद्यालय के शिक्षकों के लिए ही था ! खैर जुलाई का महीना था - कॉलेज में छुट्टी हो गयी और मै इस कोर्स के चलते छुट्टी पर नहीं जा सका ! यहाँ एक नियम था की सिर्फ - प्रोफ़ेसर रैंक के ही शिक्षक पढ़ा सकते हैं ! अब कंप्यूटर इंजिनीरिंग में प्रोफ़ेसर पास के आई आई टी में ही थे और उनके नखरे इतने की मुझे उनमे से किसी को बुलाने की हिम्मत नहीं हुई ! तभी अचानक एक वैज्ञानिक एवं भारत सरकार के एक शिक्षण संस्थान के प्रोफ़ेसर के बारे में पता चला ! मैंने उनके नाम के लिए - अपने वाईस चांसलर से परमिशन ले लिया ! उनकी उम्र करीब अस्सी को होने को आयी थी ! उनको लाने  और ले जाने के लिए - मुझे संस्थान से गाड़ी मिली थी पर उनकी इज्जत के लिए मैंने सोचा की - मै खुद उनको लाऊंगा और ले जाऊँगा ! तब मै सहायक प्राध्यापक था ! 

मेरी एक आदत है - जब मै किसी भी व्यक्ति से मिलता हूँ - उनके बारे में 'गूगल' में थोडा खोज बिन कर लेता हूँ ! इस प्रोफ़ेसर साहब के बारे में भी थोड़ा सर्च किया - हालांकी उनका बहुत छोटा और एक पन्ने का रेज्यूमे मेरे पास था ! थोडा इन्फो हंगरी हूँ ! गूगल पर खोज किया ! 

उनको क्लास लेने के लिए - मेरे यहाँ करीब पन्द्रह दिन आना था ! उनको लाते - ले जाते फिर क्लास के बीच चाय पानी फिर उनका मेरे केबिन में बैठना - जान पहचान और अपनापन बढ़ता गया ! मै उनसे 'कंप्यूटर इंजीनियरिंग' के सवाल न के बराबर पर जीवन दर्शन पर उनकी सोच के बारे में पूछता ! 

जो कुछ उन्होंने खुद के बारे बताया - वो इस प्रकार था - उन्होंने अपनी पी एच डी सन 1957 में विक्रम साराभाई के गाईड में की - उनके वाइवा लेने के लिए अमरीका से प्रोफ़ेसर आये थे - संयुक्त राष्ट्र संघ के ! फिर वो अमरीका के सबसे मशहूर विश्वविद्यालय में शिक्षक बने - जिंदगी मजे में गुजर रही थी - कहते हैं - एक दिन अचानक उनके पास भारत से फोन आया - 'श्रीमती गाँधी अब आप से बात करेंगी ' - श्रीमती गाँधी - " देश को आप जैसे लोगों की जरुरत है - अगर आप भारत लौट आयें तो देशवासीओं के साथ साथ मुझे प्रसन्नता होगी " ! वो कहते हैं - कौन ऐसा देशभक्त होगा जो सीधे प्रधानमंत्री से बात कर देश नहीं लौटेगा - मै अगले महीने ही 'भारत लौट आया' ! श्रीमती गाँधी ने बहुत इज्ज़त दी और धीरे - धीरे मै भारत सरकार के सभी 'विज्ञानं और तकनिकी प्रयोगशाला' में अपना योगदान दिया ! एक प्रधानमंत्री के लंबे कार्यकाल में मै 'उनका तकनिकी सलाहकार' बना ! ( पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आज़ाद , राष्ट्रपति बनने के पहले इसी पोस्ट पर थे ) !

कई बार मुझे अजीब लगता ! इतना बड़ा आदमी ! सरकारी बस से अपने संस्थान में आता है ! अस्सी के उम्र में भी पढाता है और पढता है ! मेरी रुची उनके बारे में जानने को और बढ़ी - मै गूगल के तरफ मुखातिब हुआ ! वैज्ञानिक लोग या शिक्षक देश विदेश के जर्नल में अपना 'पेपर' लिखते हैं - इनको भी आदत थी ! रक्षा के बड़े बड़े कंपनी अपने प्रोडक्ट के बारे में रक्षा से सम्बंधित मैग्जीन में निकालते हैं या कुछ फ्री सैम्पल विभिन्न सरकारों को भेजते हैं ! सो , इन्होने एक प्रोडक्ट का ट्रायल रिपोर्ट विदेश की किसी मैग्जीन वाले को भेजा ! कुरियर कंपनी को संदेह हुआ ! उसने कुरियर खोला और कुछ तकनिकी चीज़ें मिली ! केस दर्ज हुआ ! रातों रात छापा पड़ा ! कहीं कुछ भी नहीं मिला ! "जासूसी उपन्यास और मसाला " के लिए पुलिस अधिकारी बुरी तरह पीछे पड गए ! ( बड़े अधिकारी ) ! 

इनको कोर्ट ने बा इज्ज़त बरी कर दिया - सी बी आई के किसी अधिकारी की अहंकार को ठेस पहुँची थी ! उसने फिर से केस खुलवाया ! ऊपर वाले कोर्ट में अपील हुआ - देश के साथ विश्वासघात का ! देशद्रोह का ! केस दस साल चला - इस बीच इस गरीब ब्राह्मण ने अपने बड़ी पुत्र को खोया ! पूरा परिवार डिप्रेशन में ! वो सब कुछ बेच अपनी कोई इज्ज़त और प्रतिष्ठा के लिए लड़ रहे थे ! अंत में सुप्रीम कोर्ट ने जबरदस्त फटकार "बड़े पुलिस अधिकारिओं" को लगाईं और इनको बा इज्ज़त बरी किया गया ! इस बीच बारह साल बीत चुके थे ! 

इनको एक संस्थान में प्रोफ़ेसर एमिरीटस नियुक्त किया गया ! कुछ साल वो यहाँ बिताए - इसी दौरान मेरी उनसे मुलाक़ात हुई ! 

मै इस कहानी को जिस दिन जाना - रात भर नहीं सो सका ! अगले दिन जब उनसे मिला तो मै उनके चरण स्पर्श किया और आँख में आंसू आ गए - वो पूछे - क्यों रो रहे हो - मैंने झूठ बोला - आपको देख 'दादा जी' की याद आ रही है - छुट्टी मिलता तो गाँव घूम आता ! वो हंसने लगे - कहे मुझे भी गाँव जाना है - मेरी माँ ने मुझसे वादा माँगा था - जीवन में कुछ पैसे बचा लिया तो - गाँव के प्राथमिक विद्यालय को डोनेट करूँगा ! मेरे पास कुछ रुपैये बचे हैं - दो साल से लगा हूँ - गाँव का प्राथमिक विद्यालय लगभग तैयार हो चूका है ! 

मै हतप्रभ था - पावर के घमंड में चूर अधिकारी इनके जीवन से इनके पुत्र को छीना - आप जीवन में उच्च शिखर पर हैं - प्रधानमंत्री से हर हफ्ता मिल रहे हैं - अचानक आपके हाथ हथकड़ी और फिर बारह साल की लड़ाई ! फिर भी प्राथमिक शिक्षा के लिए यह व्यक्ति अपना सब कुछ लगा रहा है और वो भी अस्सी वर्ष की आयु में - उसी जोश से ! वो बार बार कहते रहे - 'प्राथमिक शिक्षा और शिक्षक' का बहुत रोल है जीवन में ! इनको इज्ज़त देना सीखिए !

 वो अपना मोबाईल नहीं रखते थे ..जब तक वो पढ़ाते रहे ..मै कोशिश करता रहा ..उनसे मिलूं ..और मिला भी ...उनकी पूरी कहानी नहीं छाप रहा हूँ ....पर ..बहुत दर्द छिपा था ...और हमेशा मुस्कुराते ...और मै .....

क्रमशः

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Saturday, April 23, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस - दादी की कहानी :))

मुजफ्फरपुर में रहते थे ! बात 1978 -1979 की रही होगी ! बड़ी दादी - हर शाम एक कहानी सुनाती थी ! उन्ही कहानी में से एक 'कहानी' जिसे आप सभी भी सुने होंगे - लिख रहा हूँ ! 

एक बारएक चिड़िया कहीं से दाल का एक दाना चुग कर ले जा रही थी ! रास्ते में सुस्ताने के लिये वो एक 'खूंटा' के ऊपर बैठ गयी ! तभी उसके चोंच से 'दाल का दाना' खूंटा के अंदर जा गिरा ! अब बेचारी 'चिड़िया' परेशान हो गयी ! बहुत दुखी :( सोचने लगी दाल का दाना कैसे वापस मिले ..इसी सोच में वो 'बढ़ई' के पास गयी ! बढई से बोली - ' बढ़ई - बढ़ई ..खूंटा चीर ..खूंटा में हमार दाल बा .का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं' ! बढ़ई कुछ देर सोचा फिर बोला - ए चिड़िया ..तुम्हारे एक दाना के लिये ..हम खूंटा नहीं चीरेंगे ..मुझे और भी काम है ! 

चिड़िया और दुखी हो गयी और वो 'राजा' के पास गयी और राजा से बोली - राजा राजा ..बढई के डंडा मार् ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ..खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का लेके परदेस जाईं ..! राजा हँसे लगा - बोला - ए चिड़िया ..तुम्हारे एक दाना के लिये हम 'बढ़ई' को क्यों मारे ..जाओ भागो यहाँ से ..मुझे और भी जरूरी काम है ! 

राजा से ना सुन ..चिड़िया और भी दुखी हो गयी ! कुछ हिम्मत रख वो 'सांप' के पास गयी और सांप से बोली - सांप सांप ..राजा डंस ..राजा ना बढ़ई डंडा मारे ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ...खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं ! सांप को भी अजीब लगा वो चिड़िया से बोला - तुम बेवकूफ हो , तुम्हारे एक दाना के लिए मै राजा को डंसने वाला नहीं हूँ ..जाओ ..भागो यहाँ से ..मुझे अभी सोना है !

अब चिड़िया को गुस्सा आया और वो 'लाठी' के पास गई ! लाठी से बोला - लाठी ..लाठी ..सांप मार ..सांप ना राजा डंस ...राजा ना बढ़ई डंडा मारे ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ...खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं ! लाठी को भी अजीब लगा और उसने चिड़िया को भगा दिया !

लाठी से ना सुन ...अब चिड़िया 'आग' के पास गयी ! आग से विनती किया - आग आग ...लाठी जलाव ..लाठी ना  सांप मारे ....सांप ना राजा डंस ...राजा ना बढ़ई डंडा मारे ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ...खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं ! आग को बहुत गुस्सा आया ....और वो चिड़िया को भगा दिया और बोला ..मुर्ख चिड़िया ..मै तुम्हारे एक दाना के लिए ...लाठी को जला दूँ ...ऐसा कभी नहीं हो सकता ..भागो यहाँ से ...!

अब चिड़िया हताश हो गयी और अंत में वो अपनी सहेली 'नदी' के पास गयी ! नदी को वो अपनी बड़ी बहन जैसा मानती थी ...रोज नदी में डूबकी लगा नहाती थी ...नदी को बोली - ' नदी ..नदी ..आग बुझाओ ..आग ना लाठी जलाव ...लाठी ना  सांप मारे ....सांप ना राजा डंस ...राजा ना बढ़ई डंडा मारे ..बढ़ई ना खूंटा चीरे ...खूंटा में हमार दाल बा ..का खाई ..का पी ..का ले के परदेस जाईं ! चिड़िया की व्यथा सुन ..नदी को तरस आ गया ..और वो सोची ...चलो ..बेचारी चिड़िया का मदद किया जाए ...और नदी निकल पडी ..आग बुझाने ..नदी को अपने तरफ आता देख ..आग डर गया ..और बोला ..अरे नदी ..मै अभी लाठी को जला कर आता हूँ ...आग को देख लाठी भी डर गया और वो बोला ..रुको ..मै अभी सांप को मारता हूँ ...लाठी देख ..सांप तेज़ी से राजा के तरफ भागा ..राजा को डंसने के लिए ....सांप को देख ..राजा ने बढ़ई को बुलवाया ...राजा के भय से ...बढ़ई तुरंत खूंटा को चीरने को तैयार हो गया ...बढ़ई को आता देख ...खूंटा बोला ..ए भाई ..हमको क्यों चिरोगे ...बस हमको उल्टा कर दो ...दाल का दाना खुद निकल जाएगा ...बढ़ई ने खूंटा को उल्टा किया और ..दाल का दाना बाहर निकल आया ..चिड़िया ..उसको अपने चोंच से पकड़ कर ...सबको धन्यवाद करके ...फुर्र्र से उड गयी ..:))

हम्मम्मम ....सो बच्चों और उनके माता - पिता  ...दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है ...बस ...एक हिम्मत और प्रण चाहिए :))

कहानी कैसा लगा ....कम्मेंट देंगे ..या फेसबुक पर लाईक करें ...:)) 

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Sunday, April 3, 2011

क्रिकेट जूनून है ....

कल रात मै दंग था ! हतप्रभ था ! बालकोनी से देखा - रात 'बारह' बजे - लोग सडकों पर् ! 'चिल्ला रहे थे' ! ऐसा वीकेंड कभी नहीं देखा ! जिस किसी ने भी इस् खुशी को हम सब को दिया - उनको शत शत 'नमन' ! 

हम एक गरीब देश थे ! 'खुशी' का इज़हार कभी सीखे ही नहीं ! टी वी पर् देखता था ! जर्मनी - इंग्लैण्ड में फूटबोंल मैच के बाद 'सडकों' पर् आया जाता है ! जोर जोर से चीखा जाता है - चिल्लाया जाता है ! हमें कभी मौका ही नहीं मिला की हम भी 'चीख - चिल्ला' दुनिया की इलीट क्लब में शामिल हो सकें ! 

सच पूछिए तो 1983 का वर्ल्ड कप जब भारत जीत गया तब 'हमको' पता चला था :( तब जा कर मैंने "खेल भारती' ( संपादक - डा० नरोत्तम पूरी ) और 'क्रिकेट सम्राट' - 'स्पोर्ट्स स्टार' जैसे पत्रिकाओं के मध्यम से 'खेल की दुनिया' को जाने ! "किर्ती आज़ाद' की पारी आज तक याद है - जवाहर लाल स्टेडियम में ! बाद में पता चला की - इनका पूरा नाम - 'किर्ती झा आज़ाद ' है :)) 

1985 में भी गावस्कर के नेतृत्व में "बेन्सन और हेजेज' ट्राफी जीते थे - ऑस्ट्रेलिया में ! एक एक मैच का गवाह हूँ ! कसम मेरे 'अटारी कलर टी वी' का ! रवि शास्त्री को "औडी" कार मिली थी ! फिर भी हिम्मत नहीं हुई थी - 'सडकों' पर् आकार "चीखूँ - चिल्लाऊँ" ! औडी तो बस टी वी में दिखा था :( आज कई दोस्तों के पास है - एक ने तो दो - दो रखी है ! हमउम्र है - दो चार साल ज्यादा ! 1985 से दीमाग में "औडी" घुसा हुआ होगा - आज पैसा हुआ तो एक को कौन पूछे - दो दो खरीद लिया :)) 

क्रिकेट जूनून है ! जिला स्कूल मुजफ्फरपुर में था - क्लास वालों ने 'कैप्टन' बनाने से मना कर दिया - तब हम क्लास के "मुकेश अम्बानी" हुआ करते थे ;) बेचारों को मुझे 'कप्तान' बनाना ही पड़ा ! नंबर पांच का बैट होता था - मेरी ही ऊँचाई का ! लिकोप्लास्त को साट के उसको कई वर्ष जीवित रखा ! पटना आया तो ज्यादा नहीं खेल पाया ..........तृष्णा को 'टी वी ' में देख तृप्त किया ! 

क्रिकेट खुदा है ! परबाबा के छोटे और चचेरे भाई थे - "छोटका बाबा" - संतोष रेडियो पर् दिन भर कमेंट्री सुनते थे  और उस जमाने में - रवि शास्त्री की धीमी पारी के सबसे बड़े आलोचक ! मेरी याद में ..मैंने उनको गाँव से बाहर कभी जाते नहीं देखा - पुत्र सभी अपने अपने 'कैरियर' में बहुत ऊँचाई पर् है - उनके साले साहब भी 'भारत के प्रमुख डाक्टर थे ! क्या जूनून था - पुरे स्टेडियम और खेल की कल्पना वो रेडियो पर् ही कर लेते थे ! दिन भर पान खाते और कमेंट्री सुनते थे ! 

हल्की याद है - बेदी की - प्रसन्ना की - चंद्रशेखर की ! बाबु जी अक्सर 'चंद्रशेखर' की बौलिंग की कहानी बताते ! हम भी उनकी बौलिंग बिना देखे - कल्पना कर लेते ! 'गावस्कर - कपिलदेव" पर् तो खुद भी कई बार दोस्तों से 'खून खराबा' कर चुके हैं :)) 

"कैरी पैकर" समय से कितना आगे थे ....आज वही सब "आई पी एल" में हो रहा है ! चैनल 9 से हमने 'प्रसारण' सीखा ! सुबह सुबह टी वी पर् ऑस्ट्रेलिया वाला खेल देखना और वहाँ के 'दर्शकों' को देखना ! एक एहसास था - हम उनके जैसे नहीं हैं ! ठण्ड के दिनों में - रजाई में दुबक कर 'मैच' देख लेना - बस जीत को स्कूल के दोस्तों तक इज़हार करना ! 

कल पुरस्कार समारोह में कई वर्षों बाद 'क्लाईव ल्योड़' दिखे ! उफ्फ्फ ...आज भी याद है ...उनके मैल्कम मार्शल ....जिनकी बहुत बड़ी तस्वीर मेरे कमरे में होती थी ! मालूम नहीं ..कितने लोगों ने उनको पहचाना ! 

पर् मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतिओं ने देश को कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया ! इस् देश में 'अज़ीम प्रेम जी - नारायण मूर्ती' पैदा लिये ! "राजू - रजत गुप्ता - मोदी" भी पैदा लिये ! जी - राजा और निरा राडीया भी ! 

हम सभी में आत्मविश्वास आया - अब हमने भी सडकों पर् "चीखना - चिल्लाना" सीख लिया है ! क्या अम्बानी - क्या सोनिया - क्या हम - क्या तुम ! 

आगे क्या लिखूं ......अचानक से आज एक खालीपन है .....! 


रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Wednesday, March 2, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस - मेरा स्कूल अलुम्नी मीट - पार्ट 2 :))


 सुन्दरम( 85 )  - दिवाकर( 83 ) - रँजन - रँजन पांडे ( 85 )
 रँजन - डा० दिवाकर तेजस्वी - तपन झा 


रँजन - प्रकाश - दीपक 
 रँजन - दीपक - उज्जवल नारायण - श्री गौरी शंकर सिन्हा एवं अन्य 


सोलह फरवरी को 'टीम' विदा लिया और तय हुआ की 'इण्डिया गेट' पर् अठारह को मिलेगा ! हम भी हाँ में हाँ मिला दिए ! सत्रह को 'एनर - बैनर' बैठ के डिजाईन करवाए और ऑर्डर दे दिए - अठारह को देगा ! अठारह को शाम पांच बजे पहुंचे तो पता चला की - "लह.." मशीन खराब है ..एक दो घंटा लेट होगा ! इसी चक्कर में 'इण्डिया गेट' नहीं पहुँच पाया ! 

अठारह काफी देर रात 'जमशेदपुर' से प्रकाश का फोन आया की वो उन्नीस को रांची में एक मीटिंग अटैंड कर के शाम वाला फ्लाईट से दिल्ली पहुँच जायेगा और शाम साथ बजे मेरे यहाँ ! शनीवार दोपहर रांची से दीपक का फोन आया की - "जेतना के मुर्गी न ..ओतना के मसाला" ! फिर हम दोनों हंस दिए ! शाम पांच बजे - दीपक और प्रकाश दिल्ली लैंड कर गए - फोन से बात हुई और बोले की - वो अपने ससुराल से दस मिनट मिल जुल कर - आ रहे हैं ! आठ बजे के करीब वो लोग पहुँच गए ! इतनी खुशी की उनको रिसीव करने मै खाली पाँव ही निकल पड़ा - करीब दस ग्यारह साल बाद 'प्रकाश' से मिल रहा था ! "कोई बदलाव नहीं" - हम दोनों ने एक दूसरे को यही बोला :)) वो आज भी उतना ही मेहनती - और मै आज भी उतना आलसी :))

मैंने पूछा - नॉन वेज ?? वो दोनों भाई बोले - शनिवार को नहीं ! फिर पत्नी ने शुध् शाकाहारी भोजन बनाया - इसी बीच हम तीनो पैदल एक राउंड 'इंदिरापुरम' का चक्कर लगा लिये ! गप्प - गप्प - पुरानी यादें - कुछ नयी भी - कुछ खट्टे तो कुछ मीठे :))) दीपक अपने स्वभाव के विपरीत चुप था ;) रात तीन चार बजे तक गप्प चलता रहा ! फिर सुबह साथ बजे हम तीनो उठ गए :) फिर गप्प ....दस बजे 'नरेन्द्र जी' का फोन आया - मै निकल रहा हूँ - आप भी पहुंचिए - मेरे मुह से निकला .."लह....." 

ड्राइवर 'त्यागी' को बोला - रमेश वाला बी एम डब्लू - सीरीज पांच  निकाल लो - चमका दो - आज इसी गाड़ी से जायेंगे :)) दीपक खुश हो गया - उसे महंगी गाडीओं का शौक है - खुद भी 'रांची' में बढ़िया सा रखा है - पिछली दफा आया था तो बोला "औडी" खरीद दो - मैंने मना  कर दिया - 

हम तीनो बिलकुल हाई स्कूल के विद्यार्थी का मन लिये हुए - स्पोर्ट्स क्लब पहुँच गए ! एक - एक कर के लोग आते गए ! दिवाकर भैया का फोन आया - "लैंड" कर गया हूँ ..बस पहुँच ही रहा हूँ ! मजा आ गया ! खुशी इतनी हो रही थी - कुछ समझ में नहीं आ रहा था - क्या बोले और क्या करें :) 'पंकज तेतरवे' का गोल्ड फ्लेक एक पॉकेट बातों ही बैटन में खाली हो गया ! धीरे से 'नरेन्द्र जी' से पूछा - स्टेज कौन देख रहा है ? बोले विश्वप्रिय के बड़े भैया - 1975 के 'शिवप्रिय वर्मा' ..मेरे मुह से अनायास ही निकल पड़ा - "वाह....." ! थोड़ी देर में 'रँजन पाण्डेय ' भी पहुँच गए - हमने पूछा - 'रँजन ठाकुर ?? ' ( 82 बैच ) ..मुझे थोडा डर था - अगले दिन से चालू होने वाले "लोक सभा" के कारण - हो सकता है - कई अधिकारी नहीं भी आ सकें ...पर् ये ..क्या ...धीरे धीरे ..लाल बत्ती - ब्लू बत्ती - ऑटो - कैब - सभी लोग आने लगे - शम्भू अमिताभ भैया भी ! हर किसी का चेहरा - मुस्कुरा रहा था :)) एक अजीब सी खुशी थी ....अधिकतर "88 बैच" वाले ही नज़र आ रहे थे :)) कमलेश भैया , गौरी शंकर भैया ..कई लोग ..तब तक एक हाथ कंधा पर् टिका - पहचान रहे हो ? हा हा हा ..ये थे "विनय रँजन" भैया करीब आठ साल से हम दोनों इंटरनेट के माध्यम से जुड़े थे - पर् मिल पहली बार रहे थे ...मजा आ गया ! 

कई भैया लोग जो मुझसे इंटरनेट पर् परिचित थे ..पर् पहली दफा मुझसे मिल रहे थे - अधिकतर का यही " आप बढ़िया ..लिखते हैं " :)) अच्छा लग् रहा था ! तब तक कुछ अनाउंस हुआ - हम कुछ इधर उधर देखते की - देखे की - "दीपक पाटलिपुत्रा  स्टाईल में " सबसे आगे वाला सीट लूट लिया :)) 

एक एक कर के सभी सीनियर लोग बैच वाईज स्टेज पर् आने लगे ...उफ्फ़ शमा बंध गया ...शिक्षकों की याद आने लगी ..कई किस्से निकल कर आये .."पिटाई " के किस्से ...दीपक सबसे आगे बैठ कर ..मजा ले रहा था ..मै उसके पास पहुँच कर पूछा .."मुर्गी महंगी या मसाला ??" वो हंस दिया और बोला - "मुर्गी" :)) हा हा हा ! 

बहुत सीनियर लोगों की बातें ..यहाँ नहीं लिख सकता ..पर् 1983 और 1984 बैच जब आया तो ..मजा आ गया ...एक से बढ़ कर एक ..."जय हो " के गाने पर् पहले डांस हुआ ..सांस रुका ..फिर यादों का सिलसिला ...दिवाकर भैया बोले - क्या स्कूल था - जिस बेंच पर् शहर के मशहूर डाक्टर का बेटा बैठा  हो - उसी बेंच पर् उनके धोबी का भी बेटा - जिस बेंच पर् 'राज्यपाल के पुत्र बैठे हों - उसी बेंच पर् उनके ड्राईवर का भी पुत्र ' ..धन्य है वो शिक्षक गण ...जिनकी नज़र में सभी बराबर ..पिटाई हो रही हो तो सबको एक बराबर ..' क्लास में , स्कूल में ..बोर्ड में ...फर्स्ट करना आपकी पहचान हो सकती है ...पर् कैम्पस के अंदर सब बराबर ! 

थोड़ी देर ही पहले ..इसी स्टेज से दिवाकर भैया के चाचा ..पी के शरण भैया एक कहानी सुना कर गए थे ..:)) हंसते हंसते लोट पोट हो गए थे हम सभी ...तपन भैया और आनंद द्विवेदी भैया  ..ने बहुत ही बढ़िया बात बोली ..कुछ करना चाहिए स्कूल के लिये जिससे हम स्कूल के गौरव को दुबारा स्थापित कर सकें !

अब 1984 बैच के "राज दुबे" भैया शुरू हो गए ...एकदम टिपिकल "पाटलिपुत्र स्कूल स्टाईल" में :) फिर स्कूल के लिये पचास हज़ार का डोनेशन भी अनाउंस किया ! 

अब आये ..रँजन पांडे भैया ...दिल्ली विश्वविद्यालय से अगर आप पढ़े हैं तो उनके नाम से परिचित होंगे :) मुझसे वो व्यक्तिगत रूप से कुछ कहानी बता चुके थे ...स्टेज पर् कुछ और कहानी सुनाये :)) ये उन लोगों में से थे - जिनके खानदान के कई लोग इस स्कूल से पढ़ चुके हैं ..सो एक भावनात्मक लगाव ! 

हर एक बैच और हर एक भैया लोग को स्टेज पर् "गुलदस्ता" दिया जा रहा था ...वो क्षण बड़ा ही भावुक होता था ..! एक दर्द और एक खुशी ..हर किसी के चहरे पर् ...बिहार बोर्ड में "नेतरहाट विद्यालय" को टक्कर देने वाला "सर गणेश दत्त पाटलिपुत्र विद्यालय" का नई दिल्ली में पहला संगठीत पूर्व छात्रों का मिलन ..इससे भी बड़ी कोई खुशी  हो सकती है ..भला ? 

इसी बीच विश्व प्रसिध्ध कार्टूनिस्ट "पवन" भी आ गए ....यहाँ वो अन्यों की तरह एक सामन्य अलुम्नी की तरह .. 

फिर हमारा बैच आया :) मैंने कुछ पहले से सोच नहीं रखा था ..बस यही पता था की ..अंत में 'नरेन्द्र जी के साथ धन्यवाद बोलना है " ..पर् मैंने भी कुछ बोला ....बैच के साथ ..जब सब बोल लिये ...मै थोडा "लंबा" बोल दिया :)) 

बाद में दिवाकर भैया बोले - गजब के ओरेटर हो और ......फिर वो , तपन भैया ..आनंद भैया ..राकेश भैया ..."कुछ मदद हम लोग भी करना चाहते हैं  " ...जिस प्रेम और हक से वो लोग बोले ..आँखों में आंसू आ गए ...नहीं भैया ..."कल शाम ही ...बहुत पैसा दुबे भैया , दिनेश भैया , रँजन भैया , उज्जवल जी इत्यादी का टीम दे चूका है ..." अब आगे जरुरत होगी तो खुद बोलेंगे ...! 

फिर आया 88 batch Onwards - जम के डांस किया सब ! "कार्टूनिस्ट" पवन ने जी भर नाचा :)) 

समय बहुत तेज़ी से खतम हो रहा था .....अंत में हम सभी स्टेज पर् कूद गए :) आप सभी ने फेसबुक पर् सारी तस्वीर देखी होगी .....

ऐसा भावुक माहौल हो गया की ....लौटते वक्त ..कोई किसी से नहीं मिला ..मालूम नहीं ...खुद को रोक पायें या नहीं ...

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कई दिन तक हैन्ग्वोभर रहा ..यही सोचता रहा ...एक स्कूल ..जिसके पास बिहार के अन्य स्कूलों की तरह अपना बहुत बड़ा कैम्पस नहीं ..सिमित  संसाधन ..फिर भी कैसे वो स्कूल "नेतरहाट विद्यालय" को टक्कर देता .होगा ....कैसे इसके विद्यार्थी ..भारत वर्ष में फैले हुए हैं ..1967 पास आउट से लेकर 1991 तक के पास आउट तक की बातों को सुन कर लगा ....यह योगदान उन शिक्षकों का है ...खासकर 1972 के पहले इसके प्रिंसिपल "अवधेश बाबु " और फिर "रामाशीष बाबु" का .....

देखिये ....बिहार में "नेतरहाट विद्यालय" के बाद मैंने किसी अन्य विद्यालय को कभी तरजीह नहीं दी ...पटना में कुछ और अन्य स्कूल हैं ..पर् वो समाज के एक खास वर्ग के लिये ही हैं ...वहाँ के अधिकतर विद्यार्थी में वो लचीलापन नहीं है की ..वो सब जगह फिट कर सकें ....! एक घटना याद है ....साईंस कॉलेज की चाहरदीवारी ..एक लाईन से पचास ...मेरे स्कूल वाले बैठे हुए हैं ..क्या मजाल की कोई कुछ बोल दे .....रांची मेसरा में एडमिशन के लिये ...सुबह वाली बस में तीस सीट ..सभी के सभी ...एक ही स्कूल के ....नालंदा मेडिकल कॉलेज ..ओल्ड कैम्पस हॉस्टल ...डा० प्रवीण गरज रहे हैं ....सभी चुप चाप सुन रहे हैं .....दिवाकर भैया ..को गोल्ड मेडल मिल रहा है .....आई आई टी - कानपूर में चुनाव ....कौशल अजिताभ ...गरज रहे हैं ....आई आई टी - जी ई ई  में प्रथम सौ का तगमा पहले से ही है - क्या मजाल की कोई कुछ बोल सके ....विश्व प्रसिध्ध ...आई पी एस .."अभय   आनन्द " - इस स्कूल के शिक्षकों को साष्टांग दंडवत करते हैं .....

सुब्रतो कप - फूटबाल ...भारतवर्ष में "सर गणेश दत्त पाटलिपुत्र हाई स्कूल" का नाम ....क्या लिखूं और और क्या न लिखूं ....स्कूल बिल्डिंग और कैम्पस से नहीं होता है .....विद्याथी और शिक्षक ...और अभिभावक का समर्थन ....

फिर कभी यादों को याद किया जायेगा ........


रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Wednesday, February 23, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस - मेरा मैट्रीक परीक्षा

बिहार में छठ पूजा के बाद - सबसे महत्वपूर्ण पर्व त्यौहार होता है - घर के लडके - लडकी का मैट्रीक परीक्षा ! मत पूछिए ! मैट्रीक परीक्षार्थी को किसी 'देवी - देवता' से कम नहीं वैल्यू नहीं होता है :)) 

दसवां में था तब - राजेंद्र नगर स्टेडियम में क्रिकेट मैच हुआ था - मार्च के महीना में - सब यार दोस्त लोग तीन चार दिन देखे थे ! उस वक्त हमसे ठीक सीनियर बैच का परीक्षा चल रहा था ! स्टेडियम से लौटते वक्त पुर रास्ता जाम रहता था ! सीनियर बैच का उतरा हुआ चेहरा देख दिल "ढक ढक" करे लगता :( 

दसवां के पहले मेरे यहाँ एक नियम था - छमाही - नौमही - वार्षिक परीक्षा के ठीक तीन दिन पहले - बाबु जी मेरा "रीन्युअल" करते - बहुत ही हल्का 'नेपाली' चप्पल होता था - बहुत एक्टिंग करना पड़ता - इस चप्पल से बिलकुल ही चोट नहीं लगता था - पर् एक्टिग ऐसा की जैसे की बहुत मार पड़ रहा हो ;) फिर हम कुल तीन दिन पढते और आराम से परीक्षा पास ;) 

अब मैट्रीक का परीक्षा आ गया था - सितम्बर -ओक्टुबर में "सेंटअप" का परीक्षा हो गया ! हम लोग का स्कूल जाना बंद ! "भारती भवन " का गोल्डन गाईड खरीदा गया ! गोविन्द मित्र रोड से खरीद - साईकील के पीछे 'चांप'  के - ऐसा लगता जैसे आधा परीक्षा पास कर गए ;) "गोल्डन गाईड" को अगरबत्ती दिखाया गया ! कभी वो टेबल पर् तो कभी वो बेड में तकिया के बगल में ! दोस्त यार के यहाँ गया तो देखा की उसको पन्द्रह भाग में विभाजीत कर दिया है - हम भी कर दिए ! अब इस गोल्डन गाईड का पन्द्रह टुकड़े हो गए - रोज एक "भुला" जाता - सारा गुस्सा माँ पर् निकलता :) 

हमको भूगोल / इतिहास / अर्थशास्त्र / नागरीक शास्त्र एकदम से मुह जबानी याद हो गया था ! शाम को बाबु जी आते तो बोलते की - हिसाब बनाये हो ? :( सब लोग कहने लगा की - सबसे ज्यादा "नंबर" गणित में उठता है - अलजेब्रा छोड़ सब ठीक था - थोडा मेहनत किया तो वो भी ठीक हो गया ! दिक्कत होती थी - केमिस्ट्री और बायलोजी में :( बकवास था ये सब ! डा ० वचन देव कुमार का "वृहत निबंध भाष्कर' तो खैर जुबान पर् ही था ! अंग्रेज़ी जन्मजात ही कमज़ोर था - इसलिए वहाँ तो बस "पास" ही करने का ओबजेकटीव था ! नौवां से ही - स्कूल के एक दो शिक्षक के यहाँ टीउशन का असफल प्रयोग कर चूका था - सो अब किसी के यहाँ जाने का सवाल ही पैदा नहीं था ! 

खैर ...एक दो और गाईड ख़रीदा गया ! सभी विषय का अलग से "भारती भवन" का किताब ! अर्थशास्त्र में "मांग की लोच " इत्यादी चैप्टर तो आज तक याद है :)) 

खैर ...धीरे धीरे ..प्रेशर बढ़ने लगा ...आज भी याद है ..गाँव से बाबा किसी मुंशी मेजर के हाथ कुछ चावल - गेहूं भेजे थे - और वो पटना डेरा पहुँच चाय की चुस्की के बीच - मेरी तरफ देखते हुए - बोला - "बउआ ..के अमकी "मैट्रीक" बा ..नु " ! मन तो किया की ..दे दू हाथ ! फूफा - मामा - मामी - चाची - चाचा - कोई भी आता तो "उदहारण" देता - फलाना बाबु के बेटा / बेटी को पिछला साल 'इतना' नंबर आया था - ऐसी बातें सुन - हार्टबीट बढ़ जाता ! फिर सब लोग गिनाने लगते - "इस बार कौन कौन मैट्रीक परीक्षा दे रहा है " जिससे मै आज तक नहीं मिला - वो भी मुझे दुश्मन लगता ! कोई चचेरा भाई - मोतिहारी में दे रहा है तो कोई फुफेरी बहन - सिवान में ! उफ्फ्फ्फ़ ....इतना प्रेशर ! 

रोज टाईम टेबल बनने लगा ! क्या टाईम टेबल होता था ;) बिहार सरकार की तरह - सब काम कागज़ में ही ;) धीरे धीरे ठंडा का मौसम आने लगा ! कहीं भी आना जाना बंद हो गया ! बाबु जी को सब लोग कहता - "आपके बेटा - का दीमाग तेज है - बढ़िया से पास कर जायेगा" ! अच्छा लगता था ! पर् ...और बहुत सारी दिक्कतें थी ...:(  

सुबह उठ के नहा धो के - छत पर् किताब कॉपी - गाईड लेकर निकल जाता ! साथ में 'एक मनोहर कहानियां या कोई हिन्दी उपन्यास ' ! गाईड के बीच उपन्यास को रख कर - पढ़ने में जो थ्रील आता ..वो गजब का था :)) फिर 'जाड़ा के दिन' में छत का और भी मजा था ! :)) कहीं से उपन्यास वाली बात 'माता श्री' तक पहुँच गयी ! 'माता श्री ' से 'पिता जी' तक :( तय हुआ - एक मास्टर रखा जायेगा - जो मुझे पढ़ाएगा नहीं - बल्की सिर्फ मेरे साथ दो तीन घंटा बैठेगा ! मास्टर साहब आये - एक दो महीना बैठे - फिर मुझ द्वारा भगा दिए गए ;) लेकिन एक फायदा हुआ - गणित के सवाल रोज बनाने से गणित बहुत मजबूत हो गया ! अलजेब्रा भी मजबूत हो गया - ! 

अब हम लोग दूसरी जगह 'सरकारी आवास' में आ गए - यहाँ भी सभी लोग बाबु जी के नौकरी - पेशा वाले ही लोग थे - माहौल अजीब था - किसी का पुत्र दून में तो किसी का वेलहम में - इन सभी लोगों का जीवन का उद्येश ही यही था - बच्चों को पढ़ाना - अब वो सब कितना पढ़े - हमको नहीं पता - पर् नसीब से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिला ! खैर ...

यहाँ के लिये मै अन्जान था - बस बालकोनी से मुस्कुराहटों को देख मूड फ्रेश कर वापस किताबों में घुस जाना ! तैयारी ठीक थी - मै संतुष्ट था ! अंग्रेज़ी - बायलोजी - केमिस्ट्री छोड़ सभी विषय बहुत परफेक्ट थे - मैंने किसी विषय को रटा नहीं था - आज भी 'रटने' से नफरत है ! खैर ...बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती - ऐडमीट कार्ड मिलने का दिन आ गया - स्कूल गया - कई महीनो बाद दोस्तों से मुलाकात हुई - 

स्कुल में पता चला की - सेंटर दो जगहों पर् पड़ा है :( पहले दो सेक्शन "जालान" और हम दो सेक्शन "एफ एन एस अकेडमी " ! मन दुखी हो गया - बहुत दुखी ! "जालान" में सुना था - उसका बड़ा गेट बंद कर के - अनदर ...सब कुछ का छूट था ;)  बहुत करीबी दोस्त था - दीपक अगरवाल - बात तय हुआ - परीक्षा के दिन - साईकल  से मै उसके घर जाऊंगा - फिर वहाँ से हम दोनों साथ में ! 

परीक्षा के दिन 'जियोमेट्री बॉक्स' लेकर ..एक हैट पहन कर ..साईकील से दीपक अगरवाल के यहाँ निकल पड़ा ..वहाँ पहुंचा तो पता चला की ..दीपक अपने मामा - मामी - फुआ - बाबु जी - माँ - बड़ा भाई इत्यादे के साथ निकल चूका है :(  अजीब लगा ..इतने लोग ..क्या करेंगे ?? रास्ते में साईकील के कैरियर से 'जियोमेट्री बॉक्स ' गिर गया ..देखा तो 'एडमीट कार्ड' गायब ....हाँफते - हुन्फाते ..साईकील को सौ पर् चलाते ..घर पहुंचा तो देखा की ..बाबु जी बालकोनी में मेरा एडमीट कार्ड हाथ में लिये खडा है ...जबरदस्त ढंग से दांत पीस रहे थे ... मुझे नीचे रुकने को बोले और खुद नीचे आये ...लगा की ..आज "जतरा" बाबु जी के हाथ से ही बनेगा ....फिर पूछे ..सेंटर कहाँ पड़ा है - हम बोले ...गुलजारबाग ...! हम अपना "हैट" अडजस्ट किये ..साईकील का मुह वापस किये  ..पैडल पर् एक पाँव मारे ..और चल दिए ...! 

अजीब जतरा था ...रास्ता भर साईंकील का "चेन" उतर जा रहा था :( किसी तरह पहुंचे ...मेरे मुह से निकला ..."लह" ....यहाँ तो "मेला लगा हुआ है " ! हा हा हा ....सेंटर पर् सिर्फ मै ही "अकेला" था ..वरना बाकी कैंडीडेट ..पुरा बारात ! अपने परीक्षा कक्ष में गया ....सबसे आगे सीट ! पीछे "राजेशवा" था ! फिएट से उसका  पुरा  खानदान लदा के आया था ! अब देखिये ...वो हमसे पूछता है ...."पुरा पढ़ के आये हो ना .." हा हा हा हा हा ....प्रश्नपत्र मिला और मै सर झुका के लिखने लगा ....एक घंटा ..शांती पूर्वक ...फिर पीछे के जंगला से एक आवाज़ आई - राजेश का बड़ा भाई था - "ई ..चौथा का आन्सर है" - ढेला में एक कागज़ लपेटा हुआ - राजेश के पास आया ...धब्ब...! राजेशवा जो अब तक मेरा देख लिख रहा था ....अब वो परजीवी नहीं रहा ...वादा किया .."लिख कर ..मुझे भी देगा " ....पहला सिटिंग खत्म हुआ ! टिफिन के लिये मै अपने साथ "शिवानी" के उपन्यास लाया था ..ख़ाक पढता था :(  हल्ला हुआ - सब क्योश्चन .."एटम बम्ब" से लड़ गया ...अब सेंटर के ठीक सामने "एटम बम्ब" बिक रहा था ...मै भी एक खरीद लिया ..बिलकुल सील किया हुआ :) खोला और एक नज़र पढ़ा ..बकवास ! 

हम हर रोज उदास हो जाता था ...सभी दोस्त के साथ पुरे खानदान की फ़ौज होती थी ! टिफिन में हम अकेले किसी कोना में बैठे होते थे ...इसी टेंशन में ...दीपक अगरवाल' को बीच चलते हुए परीक्षा में "धो" दिए ....उसको भी कुछ समझ में नहीं आया ..वो मुझसे क्यों धुलाया ...हा हा हा ! 

इसी तरह एक एक दिन बितता गया ....अंग्रेज़ी भी पास होने लायक लिख दिया ..गणित- अर्थशास्त्र - भूगोल  -  इतिहास -  और संस्कृत सबसे बढ़िया ...बहुत ही नकरात्मक हूँ ..फिर भी खुद के लिये बहुत अच्छे नंबर सोच रखे थे ....अंतिम दिन ..चपरासी को दस रुपैया देकर ..कॉपी कहाँ गया है ..पता करवा लिया ...पर् जहाँ कोई मेरे साथ "सेंटर" पर् जाने को नहीं था ...कोई "कॉपी" के पीछे क्यों भागता ..हा हा हा .....

अंतिम दिन परीक्षा देकर ..कहीं नहीं गया ...चुप चाप चादर तान सो गया ...कितने घंटे सोया ..खुद नहीं पता ...ऐसा लग् रहा था ..वर्षों से नहीं सोया हूँ .....

आज पटना वाले अखबार में पढ़ा की - कल से "बिहार मैट्रीक परीक्षा " शुरू हो रहा है ..सभी विद्यार्थीओं को शुभकामनाएं ..... ज्यादा क्या कहूँ ..मेहनत कीजिए :))

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Tuesday, February 22, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस - मेरा स्कूल अलुम्नी मीट - पार्ट १ :))

भैया लोग ( सीनियर ) 
भयवा ( बैचमेट )
भाई लोग ( जूनियर ) 

हैंगओवर क्या होता है ? वो आज हमको बुझा रहा है ! परसों  मेरे स्कूल का अलुम्नी मीट था - नई दिल्ली में ! क्या कहूँ ..और क्या न कहूँ ...यादों की बारात अपने आप में एक याद बन् के रह गयी ! बिना शराब पिए हुए - हैंगओभर ...
चलिए कुछ पृष्ठभूमी बताता हूँ ...( भाषा पर् गौर मत फरमाईयेगा ) 

सन 2005 में 'नरेन्द्र जी' ( 88 बैच ) मिलने के लिये आये ! उनदिनो मै सेटर बासठ - नॉएडा में रहता था ! उनदिनो घर के लोगों के बीमार रहने के कारण करीब २ साल से परेशान था ! बात आई गई हो गयी ! इस बीच पटना में स्कूल मीट होता रहा - पिछला साल दिसंबर में जाने का बहुत मन था - पर् 'नौकरी' के कारण नहीं जा सका ! खैर .....

इसी बीच 'फेसबुक' पर् नरेन्द्र जी अचानक प्रकट हुए और वो स्कूल अलुम्नी मीट - दिसंबर - पटना गए ही नहीं अपने तरफ से वहाँ "कनट्रीब्यूट" भी किया और हम दोनों के बीच बात हुआ की - हम लोग किसी शनीवार मिलेंगे ! एक शनीवार वो आये - जनवरी में - हम दोनों "कुछ यहाँ भी करना है" पर् बात कर ही रहे थे की उनके बैच के दो और लोग आ गए - सुजय जी ( लोकसभा पदाधिकारी ) और आनंद वर्धन ( राष्ट्रीय सहारा ) ! बस एक छोटा सा अलुम्नी मीट हो गया :))फिर अशोक अगरवाल भैया ( 1979 )  दिल्ली में थे तो हमको और नरेन्द्र जी को बुलाहट  हुआ और जल्द से जल्द नई दिल्ली मीट पर् आगे बढ़ने का बात हुआ - वहाँ उनके बैच के भारतीय विदेश सेवा के 'शम्भू अमिताभ' भैया , आई आर् एस दीप शेखर भैया , बिहार निवास में इंजिनीयर - पद्म कान्त झा भैया , एल आई सी के सुनील भैया इत्यादी से मुलाकात हुई ! फिर निर्णय हुआ की - अब बस स्कूल अलुम्नी मीट करवा देना है ! कुछ जगहों का वो सब निर्णय भी कर लिये ! मेरे लिये तो आज भी 'दिल्ली' अन्जान ही है - नरेन्द्र जी से अगले दिन से बात होने लगी - लगभग हर शनीवार - इतवार वो जगह खोजने लगे ! अंत में ..स्कूल के ही और नरेन्द्र जी की तरह ही सुप्रीम कोर्ट के वकील - "रँजन पांडे " भैया ( 1985 ) ने स्पोर्ट्स क्लब बुक करवा दिया - नरेन्द्र जी का फोन आया - जगह बुक हो गया - अब "रेस" हो जाईये :)) अब रेस होना था - कैसे रेस हुआ जाए :( मेरे जैसा आदमी के लिये भारी टेंशन :(  हम दोनों लगभग हर शनीवार मिलने लगे ...

Gardenia India Limited  वाले बिहार के ही हैं और मेरे जान पहचान के हैं - उन्होंने बोल रखा था - "रँजन जी , आपसे पुराना परिचय है - जब कभी भी आपको बिहार से जुड़े किसी भी कार्यक्रम को करना है - संकोच नहीं कीजियेगा - जितना संभव हो - मै मदद करूँगा" ! फिर भी मेरे लिये ये कष्टदायक था ! एक दिन उनलोगों से मिला और बोल दिया ! फिर एक दिन उनको फोन किया - वो बोले की आप मेरे गाज़ियाबाद वाले ओफ्फिस चले जाईये - एकाऊँन्टेंट को बोल दिया हूँ ! हम और नरेन्द्र जी वहाँ पहुंचे - मै अंदर गया - थोडा संकुचाये हुए - कुछ बोला -  एकाऊँन्टेंट ने दे दिया और हम नरेन्द्र जी को ! हम दोनों कनफीडेंस में आ गए ! अगले दिन 'रँजन पांडे' भैया भी कुछ नरेन्द्र जी को दे दिए ! नरेन्द्र जी ने करीब एक सौ बीस लोगों के लिये - क्लब वाले को पैसा जमा करवा दिए ! डेट फिक्स हो गया - बीस फरवरी - रविवार ! 

अब हम लोग टेकनौलोजी का प्रयोग शुरू किये ! इसी बीच नीरज आनंद भी जुड गए - वो नरेन्द्र जी के ही बैच के  हैं ! नरेन्द्र जी को अपने बैच , दुबे भैया , रँजन पांडे भैया पर् पूरा  विश्वास - हर बार वो कहते - ऋतुराज जी , घबराईये मत ! इस बीच मेरी बात हुई - रँजन पांडे भैया से - बोले ...तुम्हारा ब्लॉग तो पढ़ लिया - बढ़िया लिखते  हो ..मै मुंबई निकल रहा हूँ ...तुम और नरेन्द्र देख लेना ..."लह" ...मेरे मुह से पटना स्टाईल में निकल गया ..हा हा हा 

कुछ लोगों का पता / फोन पटना से दीपक जैसवाल भैया और संजय भैया से मिला ..संजय भैया हर दो दिन पर् एक दो नंबर  भेज रहे थे ...नरेन्द्र जी अपना डायरी में नोट कर रहे थे ..इधर हम भी ...मेरे पास पचास लोग का डाटा तैयार हो गया ..नरेन्द्र जी के पास भी ..दोनों को मर्ज किया गया ..संख्या करीब डेढ़ सौ पहुँचने लगी ...अब काम होना था ..सबको "फोन " करना ..एक दिन नरेन्द्र जी सुप्रीम कोर्ट से ही मेरे पास आ गये ..हम दोनों बैठ कर एक एक कर के बहुत लोगों को फोन किये ....इस बीच जब नरेन्द्र जी को फुर्सत मिलता ..वो लोगों से बात करते ...एक दिन हम पूछे ...आपके बैच के उज्जवल जी ?? जबाब आया - दुबई ..हम बोले .."लह" ...हा हा हा ...
उनके बैच का ही और मेरा काफी करीबी दोस्त - प्रकाश जो टॉपर भी था और अब बिजिनेस मैन - अफ्रीका में दो स्टील प्लांट खरीदा है - बोला मुझे भी अफ्रीका दौरा पर् निकलना है ..फिर मेरे मुह से निकला ...."लह" ....हा हा हा ...

पर् नरेन्द्र जी अति आशावादी ...हम उम्र ही हैं ..एक दिन हमदोनो ..भर पेट यहीं इंदिरापुरम में "चिकेन चंगेज़ी" खाए ...थोडा टेंशन कम हुआ ! 

हम भी अपने ढेर सारे बैचमेट को जानते थे - खबर कर दिया गया - नरेन्द्र जी को हम साफ़ साफ़ बोल दिए - बैचमेट को "निहोरा" नहीं करने जायेंगे - सीनियर - जूनियर के 'गोर' भी पड़ लेंगे ....कौन हम अपना बेटा का "तिलक" कर रहे हैं ...

इस बीच - वरिष्ठ अधिकारी गण को फोन करने का जिम्मा मिला - सुजय जी को ! वो एक राऊंड  सबको खबर कर दिए - जितना वो जानते थे - मीडिया का  जिम्मा मिला- "आनंद वर्धन" जी को  ! नीरज आनंद बाबु - कूदने लगे - म्यूजिक रहना चाहिए ...हम लोग बोले - पाटलिपुत्रा स्टाईल में - कर भयवा ..जे करेला हउ ...वो खुद बोले  किसी भी कीमत पर् - "शीला - मुन्नी" नहीं रहेगी :) 

नरेन्द्र जी से लगभग रोज बात होते रही - भोजन 'नान वेज' और "लिकर"  इत्यादी बिलकुल ही नहीं क्योंकि डर था - सीनियर लोग 'लिकर' के बाद 'एन डी ए से लेकर रविन्द्र बालिका' घूमने लगते ...हा हा हा हा ....

फिर ...हुआ की 'एनर - बैनर' इत्यादी ..जिम्मा हम उठा लिये ...फिर हम लोग सोलह तारिख को एक बार फिर बैठे - सभी लोग मेरे ही डेरा में आ गए -नरेन्द्र जी और  नीरज आनंद जी और हम शुरू हो गए फिर से सभी को एक एक कर के फोन करना ...थोड़ी देर में सुजय और आनंद वर्धन भी आ गए ....थोड़ी देर के लिये ऐसा लगा की ..जैसे कॉल सेंटर में बैठे हैं ....उसी दिन निर्णय हो गया की ...प्रती व्यक्ती पांच सौ और एन सी आर् से बाहर वालों से कुछ नहीं ...

धकाधक बाहर से कन्फर्मेशन आने लगा ..विजय रँजन भैया ( 85 ) मुंबई से ....दिवाकर तेजस्वी भैया और उनके बैच के राकेश दुबे और आनंद द्विवेदी पटना से ...टाटा से प्रकाश ..रांची से दीपक ...पटना से विश्व प्रसिध्ध कार्टूनिस्ट - पवन और दीपक जयसवाल भैया तो एक दम से रोज खुद नगाडा पीट रहे थे :) 

अगला पार्ट का इंतज़ार कीजिए ;) ..............

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !

Sunday, February 6, 2011

मेरा गाँव - मेरा देस - मेरा स्कूल

हम कितना स्कूल में पढ़े - ये खुद हमको नहीं पता है :(  कभी हम स्कूल को रिजेक्ट किये तो कभी स्कूल हमको रिजेक्ट किया ;)  खैर , सातवीं क्लास मैंने अपने खानदानी स्कूल  "जिला स्कूल - मुजफ्फरपुर" से पास किया ! ये  स्कूल कई मायनों में मेरे परिवार के लिये महतवपूर्ण है - परबाबा से लेकर मुझ तक - चार पीढ़ी इस स्कूल में पढ़े  और इसके ठीक बगल में 'चैपमैन गर्ल्स स्कूल' था जिसमे फुआ दादी और फुआ तीनो बहन ! तीन खूब बड़े बड़े मैदान , अंग्रेजों के द्वारा बनवाया हुआ विशाल स्कूल , स्कूल के अंदर ही शिक्षकों का बड़ा बड़ा क्वार्टर ..क्या नहीं था ! सबसे विशेष यह था की - वहाँ के प्रिंसिपल 'जयदेव झा' ! वो बाबु जी  को पढ़ा चुके थे - अब मै उनका विद्यार्थी था ! न जाने कितने ऐसे शिक्षक थे - जो बाबु जी सभी भाईओं को पढ़ा चुके थे और अब मै उन सब शिक्षकों का विद्यार्थी था ! स्नेह मिलता ! कई किस्से हैं ..कभी बाद में सुनाऊँगा :)) 

 अभी सातवीं का  वार्षिक परीक्षा देने ही वाला था की बाबु जी का ट्रांसफर 'पटना' हो गया ! हम मुजफ्फरपुर में ही रुक गए - फिर टी सी लेकर  पटना आ गए ! हम सभी उन दिनों - नाना जी के साथ 'सलीम अहरा - गली नंबर  एक " ( उमा टाकीज के ठीक पीछे ) रहते थे ! पटना हम लोगों के लिये किसी भी विदेश से कम नहीं था ! बड़ा और लगभग सौ साल पुराना मकान था ! खूब चौडा चौड़ा बरामदा ! मामू जान लोगों के पीछे - पीछे ही समय कटता था ! अब मेरा 'एडमिशन' कहाँ हो - यह नाना जी का हेडक था ;) नाना जी कहीं से किसी से "चिठ्ठी" लिखवा कर लाये - फिर एक दिन मै पहुँच गया - " सर गणेश दत्त पाटलिपुत्र हाई स्कूल " , कदम कुआं ! जहाँ मै भव्य 'जिला स्कूल' से आया था वहीँ ये स्कूल का कैम्पस छोटा था ! मन में अभी भी 'नेतरहाट' था - एक क्लास जूनियर ही सही - वहीँ निकल जाना चाहिए ! बहुत लोग बोले - बिहार बोर्ड में "नेतरहाट" के बाद "सर गणेश दत्त पाटलीपुत्र " ही आता है ! फलाना बाबु का बेटा - चिलाना बाबु का पोता - तरह तरह के उदाहरण दिए गए ! खैर 'आठवीं' में एक सेक्शन में जगह मिल गया ! 

पहला दिन स्कूल जाने के लिये 'रिक्शा का भाड़ा' मिला ! हम भी रिक्शा खोज उस पर् बैठ गए ! शाम को लौटे तो पता चला की पड़ोस में रहने वाले के पुत्र महोदय भी मेरे क्लास लेकिन दूसरे सेक्शन में हैं - कल से उन सब के साथ ही जाना है ! नाना जी के पड़ोसी थे - पटना / बिहार के शराब के सबसे बड़े विक्रेता 'शालीग्राम प्रसाद' ! बहुत पैसा पर् हम सभी का गजब का इज्जत ! अगले दिन से "बबलू" के साथ जाने लगा ! एक नियम था - मकान के कैम्पस से निकल कर रोड पर्  खडा होना - फिर देखता की उधर से कई लडके आ रहे हैं - फिर एक झुण्ड बन् गया ...और झुण्ड चल दिया ..जगत नारायण रोड :)) रास्ता में 'जन संपर्क विभाग' का एक ऑफिस था  - जहाँ मै थोड़ी देर के लिये 'हिन्दी अखबार' पढ़ने के लिये रुकता था ...हाल में वहाँ गया था - कुछ नहीं था :( "बबलू " चिल्लाता - अखबार पढता है ..हुंह ..नेता बनना है ..का ?? :))

रिक्शा की जगह - पैदल जाने में मजा आने लगा ! रास्ता भर तरह - तरह 'बहस' और स्कूल पहुँचते सब अपने अपने क्लास में ! मेरे बेंच पर् थे - मृत्युंजय कुमार  , दीपक अगरवाल , एक था कोचर और चौथा था - एक वर्मा - नाम भूल रहा हूँ :( श्रीकांत बाबु क्लास शिक्षक थे ! यहाँ फीस का जमाना नहीं था - पर् जो जितना दिन ऐबसेंट रहता - उतना दिन का - प्रती दिन शायद दस पैसा के हिसाब से जमा करना होता था ! पहले ही महीने - श्रीकान्त बाबु ने मुझे यह अवसर दिया की मै ही वो पैसा सर के बगल में बैठ कर जमा करूँ - यह बात उन विद्यार्थीओं को नहीं पचा जो मुझसे पहले से इस स्कूल में थे ! अगले महीने से मै दरकिनार कर दिया गया :( 

खैर ..दो तीन महीना के बाद ही हम लोग 'डोक्टोर्स कॉलोनी ' कंकडबाग आ गए !क्या मजाल की कोई  दूसरा स्कूल वाला कुछ बोल दे ..मेरे मकान में ही 'आनंद मोहन' भैया रहते थे - गजब का स्नेह ! ठीक सामने - बलदेव बाबु का मकान था - जो उन  दिनों वाईस प्रिंसिपल होते थे ! शाम को उनके यहाँ मेरे बैच के कई लडके पढ़ने आते ! उनका खुद का बहुत ही बड़ा मकान था !

अब कंकडबाग से स्कुल जाने के लिये 'हीरो' का नया साईकील खरीदाया ...पहला दिन साईकील से स्कुल गए ...कोई घंटी चुरा लिया :( दोस्तों की जिद से ..अब हम सभी पैदल जाने लगे ! सचिवालय कॉलोनी से मृत्युंजय , पत्रकार नगर से प्रमोद और भी एक दो क्लास जूनियर सब आने लगे ...हम लोग 'राजेंद्र नगर' गुमटी पार कर के          जाने लगे ..तब 'राजेंद्र नगर ओवरब्रिज' बन् रहा था ! वहाँ नीचे ....जुआ वाला सब ठेला पर् जुआ दिखाता ...ताश के तीन पत्ते का हेर फेर ...कई दोस्त जिनको लंच के नाम पर् कुछ पैसा घर से मिलता था ..वो रास्ते में ही इस 'जुआ' में गंवा देते ...हा हा हा हा हा ! हम सब उसका हाथ पकड़ के खिंच के वापस ले जाते ...वैशाली सिनेमा के ठीक सामने से होते हुए ..शेखर सुमन के घर होते हुए ...लोहानीपुर से एक पतली गली से होते हुए स्कुल ....लोहानीपुर पहुंचते ही हम सब ठिठक जाते ....कंकडबाग वाला लड़का सब एक दम से सावधान की मुद्रा में ! मेरे क्लास में 'इन्द्रजीत - दिग्विजय' ..एक से एक हीरो ! अब मालूम सब कहाँ हैं :(

घींच घांच के आठवीं पास किया ! नौवीं में बद्री बाबु क्लास टीचर थे - अंग्रेज़ी पढ़ाते - सैमसंग एंड डेलीला ....डी डी राय ..जो पुरे पटना के सबसे मशहूर शिक्षक थे - वो गणित पढ़ाते - एक दिन 'दिग्विजय' हत्थे चढ गया - हो गया धुनाई .....हा हा हा हा ....महिला शिक्षक बहुत ही कम ...! एक दू नेता टाईप शिक्षक भी ! प्रिंसिपल थे - रामाशीष बाबु - जबरदस्त - भारी भरकम शारीर - अपने कमरे से अगर निकल गए तो - फिर क्या - जो जहाँ है - वो वहीँ रुक गया ! पर् उनसे भी ज्यादा शक्तिशाली - हमारे स्कुल का गेटकीपर - लंच के ठीक बाद - जब वो शहंशाह स्टाईल में गेट का सिक्कड़ घुमाता ....हीरो टाईप लड़का लोग का होश ठिकाने आ जाता ! क्या मजाल कि कोई लडका गेट से निकल जाए ! प्रिंसिपल सर के कमरे में "ट्रॉफी" भरा होता था ! बोर्ड  लगा होता - बोर्ड पर् तेज विद्यार्थी का नाम - राजीव कुमार सेठ - बिहार बोर्ड - प्रथम - फलाना - बिहार बोर्ड - तृतीय ..चिलाना - बिहार बोर्ड - नौवां स्थान !

नौवां में ही था - युवा दिवस के शुभ कार्यक्रम के लिये - मोईनउल हक स्टेडियम में - हमें कुछ प्रैक्टिस करने जाना था - अपने क्लास से मै सेलेक्ट हुआ - स्कूल से नौवीं और दशमी के ढेर सारे लडके - वहाँ एक दिन प्रैक्टिस के दौरान मेरे स्कूल के किसी दसवें वाले ने किसी 'अंग्रेज़ी' स्कूल की लडकी पर् सीटी मार दी - अगले दिन - हुआ मार - हा हा हा हा हा ....अब सर गणेश दत्त पाटलिपुत्रा का विद्यार्थी कहाँ रुकने वाले थे ...जबरदस्त हंगामा ! कार्यक्रम रोकना पड़ा ! कहानी शुरू हुआ - लोयला में एक बार सेंटर पड़ा - लोयला में डी डी राय पर् कुछ कमेन्ट हुआ ...लगा की ...लोयला में आग लगा देंगे ! ये क्रेज था - डी डी राय का !

वचनदेव कुमार का बृहत् निबंध भाष्कर जुबान पर् था ! एक घटना याद है - आठवीं का नौमही परीक्षा दे रहा था - वर्मा प्रेस से लाल हरा नीला - प्रश्नपत्र आता था ! हिन्दी का परीक्षा था - बगल में नौवां का एक विद्यार्थी बैठा था - इंदिरा गाँधी पर् निबंध लिखने को आया था - हम अपना परीक्षा छोड़ - अपने सीनियर को पुरा  निबंध लिखने में मदद की !

क्लास में अंदर - एक लडका था - राकेश - काला सा - क्या लिखता था ..एकदम मोती जैसा अक्षर और गजब का लैंग्युज सेंस - उससे जलन होती :) एक बेंच पर् हम सभी - फिक्स थे ! महीनो आपस में बात चीत नहीं होता - इगो क्लैश ! एक क्लास छूटता और दूसरे शिक्षक के आने के बीच - पुरा स्कुल ..बरामदा में :) इस वक्त आप किसी को खोज नहीं सकते ! छुट्टी के समय - जिस रफ़्तार से हम सीढियां फांदते ...उफ्फ़ ...! लौटते वक्त ..रास्ता  भर .."कपिलदेव बनाम गावस्कर" ...एक दिन गेट पर् एक सरदार विद्यार्थी .. ..तिवारी पर् मुक्का चला दिया ..तिवारी का जबड़ा टूट गया ....उफ्फ़ ...अगर आज ऐसा होता तो ..अखबार और टीवी में तिवारी हीरो बन् जाता ! गेट पर् छुट्टी के ठीक बाद सभी क्लास के हीरो भाई लोग ..एक साथ जमा होता था ...हा हा हा ...यूँ कहिये ..लोहानीपुर का सब विद्यार्थी हीरो ही होता था !

दसवीं में 'डी डी राय' हमारे क्लास टीचर बने ! बहुत ही गर्व की बात थी - हमारे लिये ! इसी  साल  उनका आवाज़ जाने लगा ...और बाद में पता चला की उनको "कैसर" हो गया ! पटना प्रसिध्ध इस टीचर के हम अंतिम बैच थे ! आज भी उनकी याद आती है ....मन करता है ..उनके नाम पर् एक स्कॉलरशिप शुरू करूँ .....

बहुत यादें हैं ....क्या लिखूं और क्या न लिखूं ....सभी शिक्षक को नमन ....सीनियर को नमस्ते ......बैचमेट को .." का रे ? कहाँ हो आज कल ? " ......जूनियर को ....."और भाई ...सब ठीक न .." :))

आपको एक बात बताता हूँ ....इस स्कुल का अलग संस्कार होता था .....पुरे भारत में उच्च शिक्षा का कोई ऐसा संस्थान नहीं है ...जहाँ यहाँ के विद्यार्थी नहीं पाए जाते होंगे ...अगर आप उन्हें पहचानना चाहते हैं तो जो भी आदमी पटना का हो ..थोडा टेढा हो ..आप "सूंघ" के बता देंगे की - वो "सर गणेश दत्त पाटलिपुत्रा" का अलुम्नी है ....

चलिए ....कुछ आपको याद हो तो लिखिए ...कमेन्ट में ...मै अगले  पोस्ट में आपके कमेन्ट डालूँगा :))


हाँ , बीस फरवरी को हम सभी नेशनल स्पोर्ट्स क्लब ऑफ इंडिया , प्रगति मैदान के ठीक सामने , नई दिल्ली में "री उनीयन" / गेट टूगेदर / मीट ..जो कहिये ..मना रहे हैं ....जबरदस्त ढंग से ....

रंजन ऋतुराज - इंदिरापुरम !