Thursday, July 17, 2008

माँ और भूख !

दालान पर , कल्ह कादिरी मियाँ से संक्षिप्त मुलाकात का नतीजा है कई शेर अपनी यादों के जंगल से छोड़ गए मियाँ . इन दो के अतिरिक्त सब मेरे शिकार बने .और मैं इनका शिकार हुआ .दम है क्या इनमे ?
"एक निवाले के लिए मार दिया जिसको हमने ,
वो परिंदा भी कई रोज का भूखा निकला / "

" पत्थर उबालती रही एक माँ तमाम रात ,
बच्चे फरेब खाकर ,फर्श पे सो गए /

Friday, July 4, 2008

अच्छा लगता हूँ !

शब्द ज़माने का .वाक्य बन गया मेरे से . सो सर्वाधिकार सुरक्षित कैसे हो ? इन बने -बिगडे वाक्य को कविता, गीत ,गजल,या छंद क्या कहा जाय ,मालूम नही .

बस अच्छा लगता हूँ



आजकल सोचते हुए अच्छा लगता हूँ।
ख़ुद को कोसते हुए अच्छा लगता हूँ ।

दर्द जो सीने से उठकर, चेहरे पर गिरती है।
वापस,दिल में खोंसते हुए अच्छा लगता हूँ ।
रखके उनके लबों पर उनके हिस्से का मुस्कान,
अब अपनी आंसू पोछते हुए अच्छा लगता हूँ।

जो ख़त्म न हो इन्तजार उसका शौक पाला है ।
गुजरे लम्हों की बाट जोहते अच्छा लगता हूँ ।

व्यस्क हो चले ज़ख्मी दिल का खुराक भी बढ़ा है।
रोज लजीज दिलासे परोसते हुए अच्छा लगता हूँ ।
- संजय शर्मा

Tuesday, June 17, 2008

एक अस्पताल दिल से। अभयानंद की पहल !



एक अस्पताल दिल से। न कोई सरकारी मदद और न कोई ग्रांट की व्यवस्था, एक शख्स बस दिल से लग गया तो वैसे लोग भी मिलते गये, कारवां बढ़ता गया। एक उपेक्षित अस्पताल इस तरह अब आधुनिक नर्सिग होम की शक्ल में आ चुका है। यहां अल्ट्रासाउंड व एक्स-रे से लेकर अत्याधुनिक ओटी भी है। इसे सुंदर और सुविधाजनक बनाने के लिए जवान अपने परिजनों की स्मृति में रिसेप्शन पर टीवी व एक्वागार्ड लगवा रहे हैं। राजधानी के समीप फुलवारीशरीफ में बीएमपी-5 के परिसर में स्थापित यह अस्पताल अब नए लुक में है। झाड़ू देने वाले बुजुर्ग गणेश राम ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उनके हाथों कभी किसी अस्पताल का उद्घाटन भी होगा, पर यह सच हुआ। माह भर के भीतर रिटायर होने वाले गणेश राम ने अस्पताल के नये स्वरूप का उद्घाटन किया है। उन्होंने सोमवार को बीएमपी कमांड हास्पिटल को एक दर्जन बटालियन के जवानों की सेवा में समर्पित कर दिया। 13 पुरुष और चार महिला बेड वाले इस अस्पताल की सज्जा अब एक नर्सिग होम से कम नहीं है। अब इसका अतीत जानिये- यह वही अस्पताल है, जहां देर शाम लोग फटकते तक नहीं थे। वहां कुत्ते बड़ी संख्या में दरवाजे के पास ही रहते थे। अस्पताल का भवन था और पटना में रहने को ख्वाहिशमंद चार चिकित्सक भी यहां पदस्थापित थे पर इलाज कम और फर्जी सर्टिफिकेट बनाने का काम ज्यादा होता था। सिपाहियों के लिए सिक लीव यानी बीमारी की छुट्टी के लिए सर्टिफिकेट बनाने के अलावा यहां कुछ खास नहीं होता था। बीएमपी के एडीजी अभयानंद ने बताया कि जब वह यहां पहुंचे तो तय किया कि जवानों के इलाज की कुछ व्यवस्था करें। इसी क्रम में उन्होंने बीएमपी जवानों के एसोसिएशन के पदाधिकारियों से बात की। वे अस्पताल के नाम पर तैयार हो गए। तय हो गया कि एक-एक बटालियन से पचास-पचास हजार रुपए तो चंदे के रूप में आएंगे। इस तरह से बारह बटालियन के हिसाब से छह लाख का इंतजाम पंद्रह दिनों के भीतर हो गया। इस पैसे को लेकर हमें अस्पताल शुरू करना था सो हम उन लोगों के पास गए जो अस्पताल के क्षेत्र में अनुभव रखते हैं। लोगों में सहयोग की भावना क्या है, इसका अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि लायंस क्लब आफ फेमिना की महिलाएं इस बात को आगे आ गई कि वह अस्पताल के जर्जर हो चुके बेड को ठीक कराकर उनके लिए गद्दे वाले बिस्तर की व्यवस्था कर देंगी। इसके बाद लायंस क्लब आफ पटना फेवरिट को जब यह पता चला कि गैर सरकारी सहयोग से अस्पताल बनाया जा रहा है, तो उन्होंने अपनी ओर से अल्ट्रासाउंड की व्यवस्था कर दी। इसके बाद रुबन मेमोरियल अस्पताल ने बीएमपी कमांड अस्पताल को एक्स-रे मशीन गिफ्ट कर दी। इसके बाद स्टेट बैंक के स्थानीय मुख्यालय के अधिकारी आगे आ गए। दरअसल बीएमपी के जवानों को वेतन स्टेट बैंक से ही मिलता है। स्टेट बैंक ने अपने पैसे से अस्पताल के ओटी को नया शक्ल दे दिया। इस तरह सहयोग का कारवां बढ़ता गया। एक उपेक्षित अस्पताल अत्याधुनिक उपकरणों और वातानुकूलित ओटी से लैस हो गया। एडीजी ने बताया कि अपने चंदे के पैसे से हमलोगों ने अस्पताल के पैथालाजी विभाग के लिए उपकरण व फ्रिज खरीद लिए। अस्पताल नये रूप में शुरू हो गया। यहां बाजार से आधी से भी कम दर पर सिपाहियों को पैथालाजिकल जांच की सुविधा होगी। पूरी तरह से मोर्बोनाइट फर्श और ग्रेनाइट के खंभे वाले इस साफ-सुथरे हास्पिटल में अब सिर्फ एंबुलेंस की कमी है। बीएमपी के पास चार बटालियनों में एंबुलेंस हैं। एक-एक दिन के लिए उसे यहां लाने की योजना पर काम हो रहा है। अस्पताल में अपनी दवाई की दुकान भी हो, इसकी व्यवस्था भी कर ली गई। सरकार से लाइसेंस लेकर अपनी आउटलेट भी शुरू कर दी गई है। अभयानंद के मुताबिक अस्पताल के संचालन के लिए जवानों का एक ट्रस्ट बना दिया जाएगा और वही ट्रस्ट इस अस्पताल को चलाएगा। मामूली शुल्क पर इलाज और जांच की व्यवस्था रहेगी। हर साल ट्रस्ट का चुनाव होगा। अस्पताल को लेकर जवानों में इतना उत्साह है कि वे अपने परिजनों की स्मृति में रिसेप्शन पर टीवी व एक्वेरियम आदि लगवा रहे हैं। बाहर के विशेषज्ञ डाक्टरों की पेड-सर्विस भी शुरू किए जाने की योजना है।

रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Friday, June 6, 2008

मेरे मन के तार !

सन् १९८४ मे मेरे मन की बात कागज़ पर उतर आई थी .आज अचानक, न जाने क्यों ब्लॉग पर उतरने को बेताब दिखी . पर मैंने इसे ब्लॉग पर उतारा नही चढाया है .
कुछ तार मेरे मन के उलझे हुए है /
कुछ सार इस बात के सुलझे हुए हैं //

रोशनी मिली तो उठाई न नज़र /
अब तो सारे चिराग बुझे हुए हैं //
कुछ तार मेरे मन के .........

दुखाया है बड़ी बेरहमी से तेरा दिल /
एहसास इस बात के अब मुझे हुए है //
कुछ तार मेरे मन के .........

किस कदर दूं उस जख्म पे मरहम /
जो जख्म मेरे घात के तुझे हुए है //
कुछ तार मेरे मन के .........

Tuesday, May 13, 2008

बहुत दिनों बाद देस में

बहुत दिनों बाद देस में -सुरेंद्रनाथ तिवारी


"क्या हुआ? एकदम आनन-फानन में गाँव जाने का डिसीजन ले लिया?" मेरे मित्र डॉ. दास ने पूछा।"हाँ, डॉ. साहब, कुछ बात ही ऐसी है, इस बार २००४ में ७-८ मार्च की होली है और इस बार केवल गाँव ही जाना है, वह भी बस होली के लिए।"
यह निर्णय सचमुच ही केवल गाँव में होली बिताने के लिए लिया गया था। इतने दिनों अमेरिका में रहने के बाद ऐसे लिए गए अचानक निर्णय पागलपन ही हैं, इसलिए दास साहब के इस प्रश्न से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। योजना थी, जहाज़ से बनारस और फिर बनारस से ट्रेन से गाँव। मेरा गाँव चंपारण जिले के सेमरा स्टेशन के पास है। बनारस से ट्रेन से गाँव जाने का एक बड़ा फ़ायदा यह था कि यह पूरा रास्ता भोजपुरी-भाषी इलाके के बीच से होकर जाता है, और बहुत दिनों बाद यह इच्छा थी देखने की कि फागुन में यह इलाका सचमुच कितना सुंदर लगता है।
किशोरावस्था तक कई प्रयोजनों से मैं पूरे इलाके में घूम चुका था, एक बार फिर इच्छा थी उस सौंदर्य को निहारने की, ख़ास कर फागुन में। बनारस से उत्तर की तरफ़ गोरखपुर होते हुए अगर नेपाल की सीमा तक जाएँ और वहाँ से पूरब मुड़कर सीतामढ़ी, और फिर दक्षिण की तरफ़ मुजफ्फरपुर, वैशाली, फिर गंडकी का किनारा पकड़े पश्चिम में छपरा होते हुए, सोन नदी के साथ-साथ डिहरी-आन-सोन और फिर पश्चिम मुड़कर भभुआ के पहाड़ और कर्मनाशा पार कर बनारस के दक्षिण तक जो क्षेत्र बनता है, वह क्षेत्र मोटे तौर पर भोजपुरी-भाषी क्षेत्र कहा जाता हैं। भाषा एक होने के कारण दो प्रदेशों में होते हुए भी सांस्कृतिक एकता है।
इस प्रदेश ने महात्मा गांधी का पहला सत्याग्रह देखा था। इसने, भारत को पहला राष्ट्रपति (जीरादेई, सीवान के डा. राजेंद्र प्रसाद) और एक प्रधानमंत्री, बलिया के चंद्रशेखर, दिया है। यह इलाका लोकनायक जयप्रकाश का जन्मस्थल-कर्मस्थल है। संपूर्ण क्रांति का उद्घोष इसी मिट्टी से हुआ था। सासाराम के जगजीवन राम और रामसुभग सिंह नेहरू मंत्रीमंडल में मंत्री थे। अगर बनारस की साहित्यिक विभूतियों, जैसे प्रसाद जी, प्रेमचंद आदि छोड़ भी दें तो भी यह क्षेत्र हिंदी साहित्य का सारस्वत-संघ है। सर्वश्री रामबृक्ष बेनीपुरी, शिवपूजन सहाय, रामदयाल पांडेय, विवेकी राय, गोपालसिंह नेपाली, मनोरंजन प्रसाद सिंह, लोहा सिंह आदि इसी इलाके की देन हैं। राष्ट्रकवि दिनकर जी की कई सशक्त कविताएँ सासाराम में लिखी गईं थीं, जब वे यहाँ की शिक्षा-विभाग में थे।
इस क्षेत्र की एक दूसरी विशेषता यह है कि यहाँ के ही लोग गिरमिटिया मजदूरों के रूप में, ज़्यादा तादाद में, अंग्रेज़ों द्वारा फिजी, गयाना, मारिशस, ट्रिनीडाड आदि देशों में ले जाए गए थे। इसके कारण रहे होंगे, लोगों की सरलता और अशिक्षा, बेहद परिश्रम करने की शक्ति तथा गन्ना उपजाने का अनुभव।
गंगा जी के अलावा गंडक, सरयू, घाघरा, कर्मनाशा और कई छोटी सरिताओं से वलयित यह क्षेत्र समतल और बहुत ही उपजाऊ है। और इस उपजाऊ-पने के कारण मसुरी-खेसारी-मटर-अरहर जैसे दालों के फूलों से लेकर पूरे वर्ष कभी न कभी उडहल-बागनबेलिया-गुलाब-सेमर-गुलदाउदादी-गेंदा-जूही-रजनीगंधा आदि खिले मिल जाते हैं, बड़ी तादाद में, और सरसों-तीसी तथा सूरजमुखी का कहना ही क्या, जैसे किसी ने प्रकृति को पीली लाल चूनर पहना रखी हो। ऐसी प्राकृतिक संपदा से परिवेष्टित जीवन अगर अल्हड़ हो तो आश्चर्य क्या और यही अल्हड़ता भोजपुरी अंचल की विशेषता है।
बनारस में रात में अपने प्रिय मित्र प्रमोद जी के पास रहना था। शाम को भगवान विश्वनाथ जी के दर्शन कर निकलते ही भारी भीड़-भाड़ में देखा तो एक विक्षिप्त आदमी रास्ते में गा रहा था, शायद रंग और अबीर की दर्जनों दुकानों को देखकर :
"संउसे सहरिया रंग से भरी,
केकरा माथे ढ़ारूँ अबीर,
होकेकरा माथे ढ़ारूँ अबीर?"
यानी सारा शहर तो रंग से भरा है, किसके माथे अबीर ढ़ारूँ?
बनारस में लिच्छवी एक्सप्रेस लेट आई। बसंत के आगमन का आभास तो हमें पहले ही हो गया था- जब बनारस के म्युनिसिपल-पार्क में गदराई बागनबेलिया के रंग-बिरंगे फूलों के ऊपर सेमर का एक मात्र पेड़ अपनी लाल टेसुओं की पगड़ी बाँधे हँस रहा था। जैसे-जैसे ट्रेन पूरब की ओर बढ़ती गई, फागुन की धूप गुनगुनी आँच में सर्दी तपने लगी थी, हल्के कुहासे के पार, सरसों के खेतों की पीली चादर पर बिछी ओस, किरणों की ऊष्मा से पिघल रही थी, एक नए दिन की अगवानी में फ़ागुन का एक नया दिन घीरे-घीरे जग रहा था। ट्रेन के सामने से गुज़रते एक रेलवे-क्वार्टर में उड़हुल और जूही के पेड़ भी किरणों का स्पर्श पा अपने उनींदे फूलों को जगा रहे थे, और मुझे दिनकर जी की एक कविता याद आ रही थी,
मैं शिशिर शीर्णा चली, अब जाग री मधुमास-आली।
वर्ष की कविता सुनाने कूकते पिक मौन भोले,
स्पर्श कर द्रुत बौरने को आम्र आकुल, बाँह खोले,
पंथ में कोरकवती जूही खड़ी ले नम्र डाली।
मैं शिशिर शीर्णा चली, अब जाग री मधुमास-आली।
मेरी ट्रेन एक छोटे स्टेशन पर रुकी। सुबह की खुमारी ओस की तरह किरणों की आँच से उड़ रही थी, सामने की एक छोटी अमराई में 'भोली पिकी' आम के नए किसलयों में छिपी 'वर्ष की कविता' सुनाने को अकुला रही थी -- फागुन में खोया था।
छपरा पहुँचते-पहुँचते फागुन की वह गुनगुनी धूप जवान हो गई थी।अब हम सोनपुर में रुके हैं। सोनपुर में गंगा-गंडक के संगम पर पुराना और विशाल पुल है। यह गज-ग्राह की कहानी वाला स्थल है, जहाँ भगवान गज को ग्राह से बचाने आए थे। आज भी यहाँ का मेला, कुंभ के बाद शायद भारत का सबसे बड़ा मेला है। मैं ट्रेन की खिड़की से नीचे झाँकता हूँ - - गंगा से मिलने जा रही गंडकी के पश्चिमी किनारे पर दो लड़के अपनी भैसों को पानी पिला रहे हैं, नहला रहे हैं, मैं उनकी बातें तो नहीं सुन सकता पर एक लड़के की भंगिमा से लगता है वह हाथ उठाए होली या बिरहा गा रहा है। एक नाविक अपनी बाँस की पतवार थामे मस्त हो गा रहा है। गीत तो हर जगह जीवित है, बस गाने वाला चाहिए।
मेरी ट्रेन वैशाली जनपद में प्रवेश कर रही हैं, वैशाली - - संसार का पहला गणतंत्र, भगवान महावीर का जन्मस्थल, भगवान बुद्ध का विहार, सुंदरी आम्रपाली का जन्मस्थल, उसकी प्रणय-स्थली मुझे अपनी कविता की पंक्तियाँ याद आ रही हैं,
इन कुंजों में खेल खेलकर बड़ी हुई होगी अंबाली,
उसके अल्हड़पन से गुंजित अब भी उसकी डाली डाली।
आम्रपाली के प्रथम प्यार की साक्षी उसके गलियाँ आँगन,
उस अल्हड़ नूपुर की धुन को अब भी ढूँढ़ रही वैशाली।
बचपन में पढ़ी श्री रामवृक्ष बेनीपुरी की 'आम्रपाली' याद आती है, उतनी सुंदर आम्रपाली सचमुच किसी की नहीं - रचयिता अगर माटी में सन जाए तो रचना अद्वितीय होती है, बेनीपुरी जी स्वयं वैशाली के थे, आम्रपाली वैशाली की थी। हाजीपुर पहुँचते-पहुँचते रेलवे लाइन की दोनों तरफ़ खास कर गंगा जी की तरफ़ छोटे केले के पेड़ों का अतुल भंडार। गंगा जी तक फैला यह विस्तृत क्षेत्र ऐसे केलों के लिए भारत-प्रसिद्ध है।
हाजीपुर स्टेशन पर पंजाब से लौटते मजदूरों की कई टोलियाँ दीखती हैं जो होली में घर जा रही हैं। बिहार के बहुत से मजदूर बिहार की दु:स्थिति के कारण बाहर मजदूरी करने को मजबूर हैं। टोलियों में चर्चा के विषय दो हैं, 'अबकी गाँव में फगुआ कैसे होई' और 'तोहरा किहा फगुआ कहिया बा?' फगुआ याने होली। इस पर मुझे याद आता है कि इस बार होली के बारे में यह विवाद है कि वह सात मार्च को है या आठ मार्च को। मैं स्टेशन पर खड़े किसी युवक से पूछता हूँ, "कहिया बा फगुआ? सात के कि आठ के?"उसका तपाक उत्तर है, "जहिया मन करे, हमनी त दूनू दिन मनाईब।" यानी जिस दिन आपका दिल चाहे। हम लोग तो दोनों दिन मनाएँगे। और वह कृशकाय युवक ज़ोर से ठठाकर हँसता है।नवयुवकों से इसी उत्तर की आशा करनी चाहिए। उनके लिए तो फगुआ हर रोज़ है।
गाँव पहुँचकर इस बात की प्रबल इच्छा थी कि पिता जी के साथ में सरेह घूम आऊँ। सरेह यानी वह भूमि जिस पर लोग बसते न हो, जो कृषि मात्र के लिए है। सुबह तड़के उठकर हम सरेह चले, ओस अभी भी रबी की फ़सलों पर ऊँघ रही थी, मटर, बकला, आलू के नन्हें फूलों पर किरणें खेलने लगी थीं, गेहूँ अब फूटने लगा था। पहले गेहूँ के पौधे छोटे होते थे, अब वे बड़े दीखते हैं, शायद गेहूँ की दूसरी प्रजाति है। हम कई सरेह घूमते रहे। अब तो कई दशक हो गए, पर जिन खेतों में हमने मसूर बोया था, गेहूँ काटा था, उनके बोझे बनाए थे, उन बोझों को उठाकर खलिहान लाया था, आषाढ़ में जिन गन्ने के खेतों में हमने तीतर और पंडुक मारे थे, गन्ने चुराकर खाए थे, सब यथावत आँखों के सामने चित्र की तरह घूमने लगे थे। मुझे याद आ रहे थे, सिरिसिया सरेह में अगहन में धान काटने के बाद खेतों में धान के अकेले खूँट और उन्हें देखकर श्री रामदयाल पांडेय जी की कविता जो उन्होंने कटे खेतों को देखकर लिखी थी -
उजड़ दयार या चमन कहूँ?ओ बसुंधरे!
इस परिवर्तन को,निधन कहूँ या सृजन कहूँ?
टोरांटो से अमेरिका जाते वक्त रास्ते में मकई के विशाल खेतों में पड़े, कटे खूँटों को देखकर, वह कविता अब भी मन में गूँजती है।हम घर लौटे तो दुपहरिया हो चुकी थी, कुछ किशोर लड़के मेरे दरवाज़े पर खड़े थे,"सम्मत में आइएगा न, पंडी जी?" याने रात में जो संवत जलता है, उसमें मुझे शरीक होना है। रात में कोई बारह बजे मेरे भाई साहब मुझे जगाते हैं, "भइया, लड़के आए हैं सम्मत जलाने के लिए। जाइएगा?"
मैं आधा ऊँघता जाने को उद्यत होता हूँ। सम्मत गाँव के छोर पर जलता है। वहाँ जाते-जाते मेरी नींद समाप्त हो जाती है। ढोलक की आवाज़ तेज़ होती जा रही है, जैसे लोगों को उठाकर बुला रही हो। कुछ लड़के होरी गा रहे हैं, ज़्यादा इस फिक्र में हैं कि सम्मत की लपटें दूसरे गाँव से ऊँची कैसे हो, इस प्रयत्न में बहुत सी चीज़ें आग की भेंट चढ़ती हैं, कभी-कभी उन पड़ोसियों की खाट-कुर्सी भी जिनसे इन अल्हड़ किशोरों की दुश्मनी हो। मैं अलग-थलग-सा हूँ, सोच नहीं पा रहा कैसे शरीक होऊँ, पर ढोलक की आवाज़ बुला रही है म़ैं भी अगल-बगल फैले, बटोरे गए झाड़-फूस को आग में झोंकता हूँ, पुराना वर्ष जल रहा है, कल नया वर्ष आएगा।
दूसरे दिन, कोई दस बजे होंगे। किशोरों का एक झुंड, धूल-कीचड़ से सजा, गाँव की पगडंडी पर हुड़दंग करता घूम रहा है। परंपरा यह है कि सुबह-सुबह धूल-कीचड़ से होली खेलकर, दोपहर में नहाकर रंग खेला जाए, फिर शाम को अबीर लगाकर हर दरवाज़े पर घूमके फगुआ गाया जाए। पर फगुआ और भांग की मस्ती में यह क्रम पूरी तरह बिसरा दिया जाता है। ये किशोर अपनी पूरी मस्ती में हैं, कुछ ने अवश्य पी भी रखी है, एक दूसरे पर धूल उछालते, ये गाँव के पुराने कुएँ पर स्र्कते हैं, फिर आगे बढ़ जाते हैं। कुएँ पर दो महिलाएँ पानी भर रही हैं, एक अधेड़ पुरुष बाल्टी से पानी निकाल नहा रहे हैं। एक लड़का अपनी भर्राई-लड़खड़ाती आवाज़ में गाने लगता है,
आ हो भौजी,
तोरा नइहरवा कुआँरी बहिनिया भौजी,
कह त गवना करा के ले आईं।

दूसरा खिलखिलाकर हँसता है, उससे कहता है, "आरे बेकूफ, कुँआरी ना, कटारी, कटारी। गाने भी नहीं आता है।" और वह अपने बेसुरे स्वर में शुरू हो जाता है,"तोरा नइहरबा कटारी बहिनिया भौजी"
बाकी लड़के खिलखिलाते हैं और उनका समवेत स्वर गूँजता है :"आय हाय, कटारी बहिनियाँ। क्या गाना बनाया है।"मैं कटारी शब्द का हिंदी-अनुवाद सोचता हूँ, भावनाओं का अनुवाद नहीं होता। कटारी का मतलब हिंदी में शायद हो तीखे नाक-नक्श वाली।कुएँ वाली औरतें कुछ हंसती, शर्माती हैं, पुस्र्ष अपनी भद्रता में कहते हैं, "ये लड़के बिगड़ गए हैं।"मैं सोचता हूँ, बसंत आ गया है।दो बजने को आए हैं, दुपहरिया ढ़लने लगी हैं। मेरे दालान वाले चबूतरे पर कुछ लोग जमा हो गए हैं। मैं उनसे बातें करने में मशगूल हूँ, तब तक रंगों की एक पूरी बाल्टी मेरे दालान में खिड़की के पीछे से आकर बिख़र जाती है। चौकी, हमारे कपड़े, नीचे का कच्चा फ़र्श, सभी रंगों से भीग जाते हैं। यह अचानक हुआ हैं, मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, दरवाज़े के भीतर धोबी जाति की गाँव की एक अधेड़ महिला, जो मेरी भाभी लगती हैं, खड़ी खिलखिला रही हैं। साथ बैठे कुछ मित्र नाराज़ होते हैं, कुछ खुश। मुझे हँसी आती है। मस्ती में कह बैठता हूँ,"आई ना बाहरा, भीतरी का लुकाइल बानी? तनी हमहूँ त देखौं कि केतना निमन लाग तानीं।" यानी, बाहर आइए न, भीतरी क्या छुप रही हैं, ज़रा हम भी तो आपको ठीक से देखें कि आप कितनी खूबसूरत लग रही हैं।
वे भी चुहल में कम नहीं हैं।"मन बात भीतरी आँई, तब नू निमन से देखब।" यानी, मन है तो भीतर आइए, तब न ठीक से देख पाइएगा। लोग खिलखिलाते हैं।
कई किशोरियाँ रंग की बाल्टी लिए, रंगों से सनी, बांस की पिचकारियाँ भरे, मेरे आँगन में चली जा रही हैं। अंत:पुर में स्त्रियों की खनखनाहट मुखर हो गई है, रंगों की छप-छप, पिचकारियों का शोर कुछ-कुछ सुनाई देता है। मैं सोचता हूँ, मेरा आँगन लाल-लाल हो गया होगा, तभी मेरे गांव के मोहन भैया कहते हैं, "हमरो घरे बोलाहट बा, फगुआ खेले खातिर, बहुत दिन से अइबे ना कइनी हैं रउआ। मेरी पत्नी ने भी बुला रखा है फगुआ खेलने के लिए, आप बहुत दिनों से गाँव आए ही नहीं।"
मैं कहता हूँ, "ओ! जाइल ज़रूरी बा? अब त सब लोग गावे खातिर आवे लागल बा।" यानी जाना ज़रूरी है क्या, अब तो सब लोग गाने के लिए जमने लगे हैं, देर हो जाएगी।"नाहीं, तुरते चलीं, चल आवल जाई, जले लोग आइहें।" जल्दी चलिए, जब तक लोग आएँगे, हम लोग चले आएँगे।
मेरे छोटे भाई बाल्टी में रंग लाते हैं और बाँस की पिचकारी। मैं कुछ घर छोड़ मोहन भैया के घर पहुँचता हूँ। उनकी बिटिया, जिसकी शादी उन्होंने पिछले साल की थी, अपने नैहर आई है। वह आगे बढ़कर मेरा पाँव छूती है, मैं आशीर्वाद देता हूँ 'खुश रह।' मोहन भैया की पत्नी अपने कमरे में अंदर लजाती खड़ी है, घंूघट काढ़े। कोई दस वर्षों से मैंने उन्हें नहीं देखा है, मोहन सिंह ने कोई पैंतीस साल पहले कलकत्ते के जूट मिल में मजदूर की नौकरी कर ली थी तब से उसी नौकरी में रहे, कभी-कभी गाँव आते।
मोहन भैया मौन तोड़ते हैं, भोजपुरी मिश्रित हिंदी में,"अब क्या लजाती हैं, सुरेंदर जी आए हैं नू, बहुत रंग लगाने को कहती थीं, अब लगाइए ना।"
भाभी का मौन टूटता है, लज्जा मुखर होकर पिचकारी में बदल जाती हैं, और मैं सराबोर हो जाता हूँ, रंगों में। रंग तो मुझे भी लगाना है म़ैं सारी बाल्टी उठाकर उनपर उझल देता हूँ। उनका बदन सिहरता है। साड़ी भींग जाती है।उनकी बिटिया हम अधेड़ लोगों की यह रास-लीला देख हँसती है,"ठीक कइनी ह चाचा, कहिया से कहत रहली ह कि रउआ आइब त अबकी फगुआ ज़रूर खेलब।" यानी, चाचा आपने ठीक किया, कब से कह रहीं थीं कि आप आइएगा तो फगुआ ज़रूर खेलेंगी।
और उसके बाद कई घर, अधेड़-बूढ़ी होती भाभियाँ, रास्ते में मिली रंगों से भरी लड़कों, लड़कियों की टोली ग़लियों की धूल रंगों से भर गई हैं, हर आँगन में, दालान में माटी रंग गई है। मुझे बनारस का वह विक्षिप्त आदमी याद आता है, उसका वह गीत :संऊसे सहरिया रंग से भरीं।
मोहन भैया के दालान से परंपरागत रूप से होली शुरू होती है। वहाँ जमघट होने लगी है। तासा, ढ़ोलक, झाल और मजीरे की आवाज़ें आने लगी हैं।लोगों की, किशोर, युवा, अल्हड़, बूढ़े, सबकी लरजती आवाज़ फगुनी बयार पर चढ़कर वातावरण में तैर रही है। मेरे दालान में आकर वह टोली जमा हुई हैं। मेरे पिताजी अबीर की थाल आँगन से मँगवाते हैं, सबो को अबीर लगता है, मैं थोड़ी अबीर पिता जी को लगा, उनके चरण छूता हूँ।
ढोलक, झाल के स्वर धीरे-धीरे उपर उठ रहे हैं, एक लड़का शुरू करता है :"शिव बबा, रउरी लाल धजा, देखि हुलसे ला हमरो शरीर आहो शिव बबा।"यह भगवान शंकर की प्रार्थना है, शुभ काम ईश्वर की प्रार्थना से ही शुरू होता है, हे शिव बाबा, आपकी लाल ध्वजा देख मेरा शरीर हुलस रहा है। एक समवेत स्वर उठता है:

"हो हो शिव, आ हो शिव।
आ हो शिव बबा,
रउरी लाल धजा देखि हुलसे ला हमरो शरीर,
हो देखि हुलसे ला हमरो शरीर
आ हो लाला हुलसे ला हमरो शरीर..."
गीत की रफ़्तार तेज होती जा रही है और आवाज़ ऊँची ढोल, तासे की आवाज़ों में सभी झूम रहे हैं, तासा वाला लड़का खड़ा होकर नाचने लगा है, तासा ज़ोर-ज़ोर से पीट रहा है। सभी लोग घुटनों पर खड़े हो, उसकी तरफ़ मुख़ातिब हो, हाथ भाँजकर गा रहे हैं :

"रउरी लाल धजा, रउरी लाल धजा, देखि हुलसे ला हमरो शरीर..."
लगता है एक तरह का नशा छाया है सबों पर। ऊपर उठते, नीचे उतरते स्वर, ज़ोर-ज़ोर से, झाल, मजीरे की आवाज़ें, तासा पीटने की आवाज़ और फिर समापन।
दूसरे गीत से पहले, जगत भैया सबों को डाँटते हुए कहते हैं, "ए, तासा ठीक से नइखे उठत," यानी तासा की आवाज़ सही तरीके से ज़ोर से ऊपर नहीं उठ रही है। मुझे याद आता है, बचपन में जगत सिंह और भृगुनाथ सिंह दो भाई फगुआ गाने के लिए प्रसिद्ध थे, उनके बिना फगुआ पूरा नहीं होता था, उसी तरह कैलाश काका और कपिलदेव भैया। अब कोई नहीं रहे। केवल लखदेव काका हैं, कोई पचासी के आसपास के अवश्य होंगे, लाठी टेकते आ रहे हैं, इस उम्र में भी फगुआ के ढोल की पुकार वे अनसुनी नहीं कर पाए। मैं उन्हें सादर पकड़ कर दालान की सीढ़ियों पर चढाता हूँ, वे कहते हैं, "गोड़ लागीले महराजी।" यानी पंडित जी प्रणाम। मैं संकुचित हूँ, सोचता हूँ, मैं उन्हें क्या आशीर्वाद दूँ, मैं कहता हूँ, "काहाँ रह गइनी ह? हमनी राह देखत रहनी ह?" वे मेरे पिता जी के पास जाकर दीवार से सटकर बैठ जाते हैं।
जगत भैया फिर कहते हैं, तासा ठीक से नहीं बज रहा है, अब मेरे हाथों में वह शक्ति नहीं है, कोई अच्छा बजाने वाला नहीं है क्या? भोला हजरा, जो जाति से दुसाध हैं और मेरे बचपन के मित्र हैं, दीनानाथ सिंह की और मुखातिब होकर कहते हैं, "का हो दीनानाथ, बेइजती करईब?" उनका कहना है कि दीनानाथ, तुम हम लोगों की बेइज्जति करवाओगे क्या, अरे तासा सँभालो, और ज़रा फगुआ जमाओ। दीनानाथ आगे आते हैं, तीस पैंतीस के आसपास के युवा, और उनके तासा की आवाज़ और नेतृत्व पर पूरी टोली झूमने लगती है। दर्जनों गीतों पर दीनानाथ हम सबों का नेतृत्व कर रहे हैं, शुरुआत सबों की बैठकर होती है, पर जब स्वर उठने लगता है तो कोई भी बैठा नहीं रह पाता, समापन खड़े होकर ही होता है। दीनानाथ स्वर उठाते हैं:
घरहीं कोशिला मैया करेली सगुनवा,

बने बने राम जी का बीतेला फगुनवा।
यानी माँ कौशल्या इधर घर में सगुन करवा रही हैं कि रामचंद्र कब आएँगे और उधर श्री राम बन-बन में अपना फागुन व्यतीत करने को विवश हैं।
मुझे याद है, यह मेरी माँ का प्रिय फगुआ था। जब मैं सेना में था और कभी होली में घर नहीं जा पाता था तो वह अवश्य गाती थी।ऐसे ही कितने गीत, भक्ति के, रास के, जीवन के, कछ बानगी देखें :"हाथ लिए बेलपत्र के दौरा,मन से महादेव पूजेली गौरा"यानी हाथ में बेलपत्र की टोकरी लिए, गौरा-पार्वती महादेव शिव की पूजा मन से कर रही हैं।
राम खेले होरी, लछुमन खेले होरी,

लंका में राजा रावण खेले होरी,
अजोधा में भाई भरत खेले होरी।

हंसेला जनकपुर के लोग सभी
होलइका राम धनुष कैसे तुरिहें?
यानी जनकपुर के सभी लोग हँस रहे हैं कि राम तो अभी बच्चे हैं, धनुष कैसे तोड़ पाएँगे?
राधे घोर ना अबीर,

राधे घोर ना अबीर,
मंड़वा में अइलें कन्हइया।
यानी राधा, अबीर घोलो न, कन्हैया मंडप में आ गए हैं।
उठ सइयाँ लीख पांती,

भेज नइहरवा,
झूमक मोरा छूटे हो हो कोहबरवा।
यानी सइयाँ (पति के लिए भोजपुरी संबोधन), मेरे नैहर एक पत्र लिख दो, मेरा झूमक कोहबर वाले कमरे में छूट गया है। (झूमक, यानी कान की बाली और कोहबर उस कमरे को कहते हैं जहाँ शादी के बाद पति-पत्नी एक दूसरे से पहली बार मिलते हैं।)
नथिया में गुँजवा, लगा द सइयाँ हो,

मोरा नइहरवा अनारी सोनार-वा।
यानी सइयाँ मेरी नथिया में तुम्ही उसकी गूँज लगा दो, यानी कस दो, मेरे नैहर का सोनार अनाड़ी है।
और ऐसे दर्जनों गीत, भक्ति के, रास-रंग के!
चैत का पहला दिन, साल का पहला दिन, इसी भक्ति और रास-रंग में बीत गया है, हम दरवाज़े घूम कर फगुआ गाते रहे हैं, फगुआ अपनी भरी जवानी पर है, रात भी।अब रात भी काफी हो चुकी है। मेरा बदन अब काफी थक चुका है, मैं लौटता हूँ, लड़के अभी भी मस्त हैं।
दूसरे दिन मुझे लौटना है पटना। सुबह ही, कुछ मित्रों के आग्रह पर मुझे अपने विधायक जी से मिलने जाना पड़ा। पिछले साल की बाढ़ से बड़ी तबाही हुई है। गन्ने का उद्योग, जो मेरे इलाके के लोगों के लिए एकमात्र आधार था नगद पैसों का, पूरी तरह ठप है। बिहार की अराजकता अपनी चरम सीमा पर है। हमारे विधायक वर्तमान सरकार में मंत्री भी हैं, अत: उनसे मिलना, मिलकर इन समस्याओं का निदान निकालना ज़्यादा सार्थक हो, यही मित्रों की आशा है। मुझे ऐसी कोई आशा नहीं है, पर प्रयत्न आवश्यक है।
हम मंत्री जी के घर पहुँचते हैं, छपवा चौक। रास्ता पक्की सड़क होकर ही है, जिसपर रक्सौल-काठमांडू-भैंसालोटन जाने वाला पूरा ट्रैफिक दिनरात दौड़ता है। सुबह में रास्ते में देखता हूँ, मेरे गाँव की कच्ची सड़क जहाँ पक्की सड़क से मिलती है, वहाँ देवी का एक छोटा मंदिर है। पर चूँकि ट्रैफिक बहुत है, सड़क की दोनों तरफ़ कई दुकानें उग आई हैं। दुकानों में अलग-अलग रंगों के अबीर के ढेर बिक रहे हैं, रंगों का मेला, सुबह की धूप में चमक रहा है। 'छपवा और मेरे गाँव के बीच दो और गाँव हैं, दोनों गाँवों में सड़क की काली पीठ पर बरन-बरन के रंगों का कोलाज, घरों के बीच सड़क पूरी तरह रंगों से भरी पड़ी है। रात में खूब फगुआ हुआ होगा।
हम मंत्री जी के घर के बरामदे में इंतज़ार करते हैं। मंत्री जी तैयार हो रहे हैं। थोड़ी देर के बाद मंत्री जी खादी के नए धुले सफ़ेद धोती-कुर्ते में बरामदे में आते हैं। हमारी बातचीत होती है, बाढ़ के पानी की निकासी के प्रयत्नों, गन्ने के लिए विदेशी निवेश आदि पर कोई आधे घंटे बातचीत होती है। मुझे मंत्री जी की मिलनसारिता, आम लोगों की उन तक पहुँच, समस्याओं के बारे में उनके कुछ मूल विचार अच्छे लगते हैं।
तभी सामने कोई एक दर्जन लोग बाल्टी में रंग लिए आते हैं, कुछ रंगों से भीगे कपड़ों में हैं, कुछ की नंगी पीठ पर ही रंग बिखरे पड़े हैं। मंत्री जी भाँप जाते हैं कि ये लोग रंग खेलने आए हैं, लोगों से मिन्नत करते हुए कहते हैं, उन्हें आज ही पटना जाना है, अत: वे पूरी तरह तैयार होकर जाने के लिए निकले हैं, कृपया उन्हें रंग न लगाया जाए। अपने इस विनय में वे मुझे भी ढाल के रूप में प्रयोग करते हैं, "आ हई पंडी जी अमेरिका से आइल बानी, ई लोग उहाँ रंग-वोंग ना खेले। रहे दीं सभे, काल्ह फगुआ हो गइल नू।" यानी, देखिए, ये पंडित जी अमेरिका से आए हैं, ये लोग वहाँ रंग-वंग नहीं खेलते हैं। आप लोग रहने दीजिए, अरे कल फगुआ हो गया न।"
लेकिन उनकी यह दलील, उनकी मिन्नत कोई सुनने वाला नहीं है। एक आदमी, आधी फटी बनियान पहने, रंगों से ढँके चेहरे पर लाल अबीर लगाए, सामने आते हैं, कहते हैं,

"मंत्री जी आज अमिरका ना, सर्गा से केहू आवे, फगुआ त खेलहीं के बा।
आ रउआ पटना चल जायेब, अबहीं त बेरा बा।"
उनकी बात मुझे अच्छी लगती हैं, मंत्री जी आज अमेरिका ही नहीं, स्वर्ग से भी कोई आए, फगुआ तो खेलना ही है। और आप पटना चले जाइएगा, अभी तो पूरा दिन पड़ा है।
और हम पर बाल्टियाँ उझल दी जाती हैं आज कोई मंत्री नहीं, कोई मजदूर नहीं। फगुआ के रंग से सबों को नहाना है, 'संउसे सहर' को। मंत्री जी खाने का आग्रह करते हैं, "पूआ बनल बा पंडी जी, मगावतानी।" यानी पूआ बना है, मँगवाता हूँ। ह़मारी परंपरा है होली के दिन पुआ खाने की। मैं नकार जाता हूँ, लौटना है। मेरी लौटती यात्रा है, पटना से दिल्ली का जहाज़, चैत का झक-झक दिन, दाहिनी तरफ़ गंगा जी दीखती हैं, सोन पार करने के बाद, कोइलवर पुल के उस तरफ़ आरा जिला आएगा अपनी अक्खड़ता तथा स्वतंत्रता-सेनानी बाबू कुँअर सिंह के लिए प्रसिद्ध, उनकी वीरता की प्रशंसा में लोग होली गाते हैं,

"बाबू कुँअर सिंग तेगवा वहादुर,
बंगला में उड़ेला अबीर,
आ हो लाला बंगला में उड़ेला अबीर।"
मैं गुनगुनाता, गुनता चुपचाप बैठा हूँ, सोचता अभी बनारस आएगा, मुझे याद आता है श्री विश्वनाथ गली का वह विक्षिप्त आदमी और उसका फगुआ संउसे सहरिया रंग से भरी
कहाँ जा रहा हूँ मैं यह रंग-भरा शहर छोड़कर -


रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Tuesday, April 22, 2008

दिल मे छुपे बात और दर्द भी


शायद ऐसे कई दर्द और राज आपके दिल मे छुपे हों ! अमेरिका मे एक ऐसा ही मुहीम चल रहा है ! जहाँ लोग अपने घर मे बने हुए पोस्ट कार्ड से अपने दिल मे छुपे दर्द और कई बातों का इज़हार करते हैं ! ज्यादा के लिए आप http://postsecret.blogspot.com/ को देख सकते हैं !

रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Wednesday, April 9, 2008

भारतीयता कोई बिहार से सीखे !

नवभारत टाइम्स
सुधांशु रंजन लिखते हैं :-

महाराष्ट्र की घटनाओं से बिहार के लोगों को गहरी तकलीफ पहुंची है। कुछ अरसा पहले बिहार विधानमंडल के साझा सम्मेलन में कुछ विधायकों ने 'मराठी राज्यपाल वापस जाओ' के नारे लगाए। बिहार के लोगों की पीड़ा को समझा जा सकता है, लेकिन यह कार्रवाई बिहार की परंपरा और संस्कृति के अनुरूप नहीं थी। बिहार की अपनी खामियां हैं, लेकिन भारतीयता के पैमाने पर उसने जो मिसाल कायम की है, वह काबिलेतारीफ है। इस पर चलकर ही यह देश खुश रह सकता है। बिहार को कई बातों के लिए नीची नजर से देखा जाता है। उसकी गरीबी और पिछड़ेपन का मजाक उड़ाया जाता है। उसके जातिवाद को बुराई की मिसाल बताया जाता है। लेकिन सच यह भी है कि प्रांतवाद या क्षेत्रवाद के कीटाणु इस राज्य में कभी घुस नहीं पाए। बिहारी अस्मिता हमेशा राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ी रही। हजार बरसों तक पाटलिपुत्र इस भूभाग की राजधानी रहा और पाटलिपुत्र का इतिहास ही देश का इतिहास बन गया। राजा जनक, दानी कर्ण, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, राजनयिक चाणक्य, सम्राट चंदगुप्त मौर्य, अजातशत्रु, अशोक महान, सेनापति पुष्यमित्र शुंग, दार्शनिक अश्वघोष, रसायन शास्त्र के जनक नागार्जुन, चिकित्सक जीवक और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट जैसे महापुरुष इस धरती पर हुए, जिनसे भारत को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली। इस परंपरा पर कौन गर्व नहीं करता? क्या इसे बिहारी परंपरा कहा जाएगा? भारतीय राष्ट्रवाद की परंपरा बिहार में आधुनिक समय में भी जारी रही। आजादी के बाद कोयले और लोहे पर मालभाड़ा समानीकरण की नीति को बिहार ने बिना किसी ऐतराज के स्वीकार कर लिया। इस कदम से बिहार की इकॉनमी की कमर टूट गई। समान खर्च पर लोहे और कोयले की दूसरों राज्यों तक ढुलाई की सुविधा का असर यह हुआ कि उद्योगों को बिहार आने की जरूरत नहीं पड़ी। वे दूसरे राज्यों में लगते गए। बिहार के संसाधन खुद उसके काम नहीं आए। गौरतलब है कि कॉटन के लिए यह नीति लागू नहीं की गई। एक और उदाहरण लीजिए। दिसंबर 1947 में बिहार विधानसभा में इस मुद्दे पर बहस चल रही थी कि दामोदर घाटी परियोजना में बिहार को शामिल होना चाहिए या नहीं। एक-एक कर कई सदस्यों ने कहा कि इस परियोजना से बाढ़ बचाव और बिजली उत्पादन का फायदा पूरा का पूरा बंगाल को मिलेगा, जबकि डूब और विस्थापन का खतरा बिहार को उठाना पड़ेगा। इस तर्क का जवाब सरकारी पक्ष के पास नहीं था। सिंचाई मंत्री को जवाब देना था, लेकिन उनकी जगह चीफ मिनिस्टर श्रीकृष्ण सिन्हा खड़े हुए। उन्होंने कहा, अभी 15 अगस्त को देश आजाद हुआ है, हम सबने अखंड भारत के प्रति वफादारी की कसम खाई है, लेकिन उसे हम इतनी जल्द भूल गए। अगर इस परियोजना से बंगाल के लोगों को फायदा पहुंच रहा है, तो क्या गलत है? वे भी उतने ही भारतीय हैं, जितने कि बिहार के लोग। बिहार ने अगर खुद को भारतीय अस्मिता के साथ एक न कर दिया होता, तो क्या वहां से इतनी बड़ी तादाद में गैर-बिहारी सांसद बनते? आजादी की लड़ाई के दौरान 1922 में परिषद के चुनाव लड़ने के मुद्दे पर कांग्रेस बंट गई थी। गया अधिवेशन में भाग लेने आए जयकर और नटराजन जैसे नेता जब अपने राज्यों से कांग्रेस कमिटी के प्रतिनिधि नहीं चुने जा सके, तो बाबू राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें बिहार से निर्वाचित कराया। यह सिलसिला चलता रहा। संविधान सभा में सरोजिनी नायडू बिहार से चुनी गईं। आजादी के बाद जे।बी। कृपलानी, मीनू मसानी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नान्डिस, रवींद्र वर्मा, मोहन सिंह ओबेरॉय आदि को बिहार ने अपना नुमाइंदा चुना। इंद्रकुमार गुजराल भी यहीं से राज्यसभा में पहुंचे।

क्या बिहार में प्रांतवाद इसलिए नहीं है कि उसका सारा ध्यान जातिवाद में लगा रहता है? कुछ लोग ऐसा तर्क दे सकते हैं, लेकिन ऐसा कहना बिहार के साथ अन्याय होगा। अखिल भारतीय सेवाओं के जो अफसर बिहार में तैनात हैं, वे मानते हैं कि उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता। एक मायने में बाहरी होना उनके पक्ष में जाता है, क्योंकि वे जातिगत समीकरणों से अलग रह पाते हैं।

खुद महाराष्ट्र की परंपरा भी ओछे प्रांतवाद के खिलाफ है। यह राज्य समाज सुधारकों, संतों और समाजवादियों का गढ़ रहा है। बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेताओं ने राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाया। तिलक ने पूरे देश से धन इकट्ठा कर डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी की 1884 में स्थापना की। तब से आज तक सोसाइटी के पैम्फलेट के कवर पर यह साफ लिखा होता है कि जाति, धर्म, भाषा या प्रांत के नाम पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। सोसाइटी की स्थापना में उन्हें गोखले और गोपाल गणेश आगरकर का सक्रिय समर्थन मिला। महर्षि कर्वे जैसे शिक्षाविद् भी इससे जुडे़। पुणे का मशहूर फर्गुसन कॉलेज उसी सोसाइटी की देन है। गोखले ने ही गांधी से कहा था कि देश में कुछ करना चाहते हो तो देश को समझो और देश को समझना चाहते हो तो देश में घूमो। बहरहाल, ये मिसालें पेश करने का मकसद यह है कि हम क्षेत्रवाद और राष्ट्रवाद को समझें। याद कीजिए कि ब्रिटेन की प्राइम मिनिस्टर मार्गरेट थैचर और रूस के प्रेजिडेंट मिखाइल गोर्बाचेव ने भारत से सबक लेने को कहा था, जहां इतनी विभिन्नता के बीच लोग साथ-साथ रहते आए हैं। अब अगर हम इस बात को भूलकर राज्यों के बीच फर्क देखने लगें, तो भारत का क्या होगा? हमें भारतीय राष्ट्रवाद से अपने टूटते तारों को फिर जोड़ना होगा। इस देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सदियों से रहा है, भले ही राजनीतिक राष्ट्रवाद हाल की बात हो। हमारे यहां सात नदियों को पूजने की परंपरा रही है। ये नदियां सारे देश में फैली थीं। शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों में पीठों की स्थापना की थी। आधुनिक समय में राजनीतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा पैदा हुई, जिसके तहत हमने आजादी की लड़ाई लड़ी। हमारी खुशकिस्मती है कि सांस्कृतिक और राजनीतिक भारत का नक्शा लगभग एक जैसा है। भाषाई आधार पर प्रांतों का गठन काफी बाद की घटना है, लेकिन हमने इसे इतना तूल दे दिया है कि यह हमारे राष्ट्रवाद पर भारी पड़ रही है। इस ट्रेंड से बाहर निकलने के लिए हमें क्या करना चाहिए, इस पर सभी को विचार करना होगा। ( लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं)


रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Tuesday, April 8, 2008

इस हमाम मे आप भी "नंगे" हो गए ! दुःख है !

मुझे यह नही पता नही था या इसका यह अहसास नही था की यह "ब्लॉग" की चर्चा मे पुरा देश लपेट मे आ जाएगा ! अखबार मे पहले पृष्ठ पर "जाति गत" गमले देख मैं स्तब्ध रह गया !
मैं शर्मिंदा हूँ अपने उन पाठकों से - अपने बचपन के दोस्तों से और अपने साथ वालों से की जति के जहर पर चर्चा ने सब के मुह को बेस्वाद किया ! हम सभी पत्रकार नही है - हमारी आवाज़ "हिंदुस्तान दैनिक" मे नही उठ सकती है - हमारे पीछे कोई राज नेता नही है ! और न ही हम सभी कोई दवा कम्पनी के "दलाल" हैं ! न ही किसी राजनेता के इशारे पर कर रहे हैं और न ही किसी "दवा कम्पनी " से उगाही का इरादा है !
दुःख सिर्फ़ यह हुआ की "दवा के व्यापार " को जति से जोड़ दिया गया ! ठीक कुछ महीनों पहले उक्त 'कथित पत्रकार' ने एक रिपोर्ट मे आईडिया कम्पनी के प्रचार को जोर शोर से दिखाया - वह वही प्रचार था जिसमे एक खास जति को लड़ते हुए दिखाया गया ! ये वही कथित पत्रकार है - जिनके रिपोर्ट से बाकी दुनिया जानी ! उसके पहले "कथित पत्रकार" ने उपन्यास लिखने के दौरान लगातार एक खास जाती को निशाना बनते चले गए ! उसी दौरान - बिहार के एक बाहुबली विधायक पर न्यूज़ रूम से लेकर कैमेरामन तक एक साजिश रची और फलस्वरूप खुलेआम न्यूज़ रूम से खास जाति को बाहुबली विधायक से जोड़ दिया गया ! किसी भी ब्रह्मण के लिए यह कितना कष्ट दायक होगा जब हम यहाँ दिल्ली मे बैठे - यह घोषित कर देन की बिहार के सबसे कुख्यात अपराधी "सतीश पण्डे" को पूरे ब्रह्मण समाज का आशीर्वाद प्राप्त है - यह सरासर अन्याय होगा ! जबकि पुरा बिहार जनता है की सतीश पण्डे एक खास जाति के खून के प्यासे हैं और वह जितने खुद कर चुके है - उसमे अधिकतर एक खास जाती के ही निर्दोष लोग हैं ! अगर "जातिये दुराग्रह " पर आधारित ऐसे आरोप भारत के प्रतिभाओं को गाली देना होगा ! देश मे आज भी कई एक से बढ़ कर एक प्रतिभावान "ब्रह्मण" हैं ! कहाँ भी जाता है - देश को तीन ब्रह्मण चला रहे हैं - तमिल ब्रह्मण , कश्मीरी ब्रह्मण और मैथिल ब्रह्मण ! क्योंकि इनसे तेज कोई जाति नही है ! पर सतीश पांडे जैसे अपराधी को भारत के समस्त ब्राहमणों से जोड़ कर देखना कितना उचित होगा ? ठीक उसी तरह किसी दवा व्यापारी को , किसी बाहुबली विधायक को या किसी पत्रकार को जाति की नज़रों से देखना किसी भी पढे लिखे इंसान को शोभा नही देता है !
आप बड़े हैं - आप आदरनिये हैं - आप समाज मे अपनी एक पहचान रखते हैं - आपको जातिगत निगाह से किसी ख़ास जाति को अपने तीर से लगातार निशाना बनाना शोभा नही देता ! इस तरह के हथकंडों से आपकी गरिमा नीचे गिरती है !

आज के दौर मे जाति कहीं से भी ना तो आपकी पहचान है और न ही मेरी ! हमारा ब्लॉग गाओं मे बैठा कोई नही पढ़ रहा है - जिसके बदौलत मुझे कोई राजनीती करनी है - और ना ही आपको - फ़िर यह जाति का जहर क्यों ? क्या आप डाक्टर के यहाँ जाति देख कर इलाज कराने जाते हैं ? क्या दवा कम्पनी की जात देख कर दवा खरीदते हैं ? या फ़िर आप नया इतिहास लिखेंगे ?
इस हमाम आप बिल्कुल नंगे खड़े हैं ! जातिये दुराग्रह छोडिये और उपन्यास लिखिए !
"बिहार" जैसे प्रान्त को सपूत की जरूरत है यह ना की अपनी माँ के फटे आँचल को दुनिए के सामने बेचने वालों की !
मैं उन सभी लोगों से क्षमा प्रार्थी हूँ जिन्हें मेरे लेख से दुःख हुआ होगा ! व्यक्तिगत हमलों के दौरान शायद हम सभी ने जातिये हमले भी किए होंगे - जिसका इरादा और सोच बिलकूल नही थी !
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Saturday, April 5, 2008

कम्बल ओढ़ के हम घी पी रहें है या पानी ?

मैं बिहार मे पैदा हुआ दिल्ली मे प्रगतिशील पत्रकार कहलाता हूँ . सर नेम को झटक कर जाति से अपने परहेज की मात्रा मापी जाने लायक बना लिया है . शुरू से ही दुबे ,चौबे, झा ,मिश्रा ,तिवारी ,त्रिपाठी , सिंह , शर्मा , चौहान जैसे सरनेम नेम से विलीन हो गुप्त आचरण मे समाहित हो , चाहता रहा .और मिलीमीटर से भी कोई मेरे ब्रह्मनत्व को माप न पाये इसके लिए मैं सरनेम पासवान, राम , बाल्मीकि, बैठा , प्रसाद ,मंडल, महतो आदि सरनेम नेम से न जुदा हो , इसका हिमायती रहा हूँ. खोज-खोजकर इनको दोस्त बनाता हूँ सो स्वाभाविक क्रिया के तहत साथ उठना बैठना खाना पीना सब चलता रहता है . इनकी आवाज़ उठाते रहने से ताली , खाली नही जाती.और अपनी धर्मनिरपेक्षता का क्या कहना ? हम तो अपने पत्रकारिता धर्म को भी ठेंगा दिखाते रहते हैं , क्या मजाल की इंसानियत का धर्म मेरे से नज़र मिलाये . ब्राह्मण और हिंदू होने के वावजूद मैंने जनेऊ से लेकर 'शिखा 'तक उखाड़ लेने का पक्षधर रहा . शंकर महादेव को "शंकर महादेवेन " से ज्यादा भाव कभी न दिया . अयोध्या के बानर सेना वाले सीताराम को ४ विदेशी कुत्ता पालनहार श्री सीताराम येचुरी से अधिक महत्व न देने का प्रमाण पत्र मेरी जेब मे ही रहता है . हिंदू पूजा पद्धति के ख़िलाफ़ समूचा देश मे, पर बंगाल के ज्योति बाबू की काली पूजा को मुस्लिम के नवाज के समकक्ष ही रखा .
मेरे टाइप के लोगों को "मोदी" मे "मद" और "बुद्धदेव" मे "मध"[शहद ] नज़र आता है .प्रगतिशीलता के नए मापदंड [-अपने "शील" को प्रगति देकर यानी चलायमान रख कर विरोधियों की प्रगति को येन केन प्रकारेण "सील" करना ] पर बिल्कुल खरा उतरने को आतुर एक पत्रकार ही तो हूँ . " रेड लेबल " के पत्रकार कहलाने के लिए क्या-क्या न किया कथित उच्चे कुल मे जन्म लेकर , अपने कुल सहित समस्त उच्चे कुल को गालियों और गोलियों से रौदता रहा रौदवाता रहा .इस तरह सामाजिक न्याय दिलाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया .पत्रकार की कोई जाति नही होती ,धर्म नही होता उपर्युक्त बातों से साफ हो गया होगा . अब पत्रकारिता की कोई सीमा नही होती इसको भी साफ कर ही दूँ .मैं बिहारी बिहार से चला .मात्र १८-२० घंटे की यात्रा ने बिहार को भुला देने मे मेरी मदद की . दिल्ली से दूर तक देख पाने की शक्ति मिली . नक्शे पर समूचा हिंदुस्तान क्या चीन, रूस देखता रहा .चीनी रूसी लेखक के अलावा अपने टाईप के धर्मनिरपेक्ष के धर्म गुरुओं का किताब चाटते रहे .अध्ययनशील रहने की बीमारी से ग्रषित हो जाने के कारण आंखों की नजदीकी नजर जाती रही दुरी का विस्तार मेरी सीमा का विस्तार करता गया . बंगाल की करतूत हमे तबतक नही दिखाई देती जबतक की वहाँ कांग्रेस या भाजपा न आए . मोदी को देख सकता हूँ पर उसकी अच्छाई धुधला दिखता है , और उसकी बुराई थोड़ा सा भी दिखे तो परिमार्जन विद्या से पहाड़ मे परिणत कर देने मे ज्यादा टाइम नही लगाता . और बिहार का क्या जहाँ सांप्रदायिक ताकत से मिलकर सरकार चलाने वाला नीतिश को पहले सड़कछाप मुख्यमंत्री बता दिया गया है . बाढ़, सूखा ,अतिवृष्टि का दंश झेलता चार बीघे जमीन वाले को माओवादी के धमकी भरे पत्र को प्रेम-पत्र से ज्यादा कुछ मैं नही समझता . जातिवाद का जहर कम न पड़े इसका प्रयास हमे जारी रखना है अपनी खोजी पत्रकारिता के तहत .क्योंकि इधर मैंने देखा है उच्च जाति ने छुआछूत को छू भी नही रहा . पढे लिखे साफ सुथरे दलित ,अर्धदलित के साथ आम सवर्ण भी घुलनशील होता जा रहा है , ठीक मेरी तरह . ये सर्वाधिक चिंता का विषय है मेरी और मेरी विचारधाराओं के लिये . ख़ुद को मैंने कई बार मार कर खबरों का खुदा बनने की कोशिश की .गिनिए कितनी मौत मरा हूँ ,कितनी बार अपने आपको मिटाया हूँ . अपने सरनेम को मिटाया , अपनी जाति मिटाई , अपना हिंदू धर्म मिटाया , अपना प्रान्तवाद मिटाया . फ़िर ये कुछ सामंतवादी लोग मेरे धर्म और निरपेक्षता मे फासला कायम करना चाहते हैं .कितनी ग़लत बात है ? है कि नही ? अरे साहेब इसीलिय सलमा आगा के दुःख के बराबर मेरा भी दुःख है ."ख़ुद को भी हमने मिटा डाला मगर , फांसले जो दरमिया से रह गए ." खैर कम्बल ओढ़ के हम घी पी रहें है या पानी ? ये हमारे साथी को पता चलेगा तभिये न दुरी बढायेगा .अभिये से बुरबक की तरह तनावोचित बिहेवियर सर्वथा अनुचित है .

Friday, April 4, 2008

कमाल के हैं - "कमाल खान " !

प्रणव राय के न्यूज़ चैनल मे "कमाल खान " एक रिपोर्टर हैं - आप इनके रिपोर्टिंग को देखें - मंत्र - मुग्ध हो जायेंगे ! बिल्कुल सरल और साफ पानी की तरह ! एक दिशा मे बिना किसी विद्वेष और "दुराग्रह" के ! रमजान के महीने मे इन्होने मक्का - मदीना के बारे एक रिपोर्टिंग की ! शायद "वाह ! जनाब और लाजबाब " जैसे शब्द भी कम पड़ जायेंगे ! दुःख है की यह कोई "ब्लॉग" नही लिखते हैं और दिल्ली मे इनका कोई हितैषी भी नही है ! मैंने पूछा - आप दिल्ली क्यों नही आ जाते ! मुस्कुरा दिए ! मैं समझ गया - यहाँ कई "नाग" बैठे हैं - जो पल भर मे इनके "पत्रकार" जीवन को डस - सदा के लिए सुला देंगे ! "कमाल खान को सिर्फ़ उर्दू ही नही आती है - यह संस्कृत के श्लोक भी धारा प्रवाह बोलते हैं ! यह किसी पर दुराग्रह से प्रभावित कोई हमला नही करते हैं - पर अपने "कॉम" की सुंदर तस्वीर देने से जिझाकते भी नही हैं !
" कमाल , तुझे मेरा सलाम " !
इलेक्ट्रोनिक मीडिया इतनी गंदी और गुटबाजी की शिकार हो गयी है की कहना मुश्किल है की किसका चेहरा बेदाग है ! "पुण्य प्रसून" जैसे वक्ता को भी नही बख्शा जाता है ! कुछ लोग पत्रकारिता को बाप-दादा की जमींदारी समझ लिए हैं - जमींदारी छीन जाने के डर ने इनको आक्रामक बना दिया है - इनके आक्रमण के शिकार कई भले मानुष हो जाते हैं - वह बेचारे कुछ बोल नही पाते हैं - पिछले साल इलेक्ट्रोनिक मीडिया मी कई "चाल" चले गए - शायद आप सभी को पता ही होगा !
कभी कभी यह पत्रकार वर्ग ख़ुद को इतना मजबूत पता है की सता को गिराने का ठेका भी ले लेते हैं ! पिछले साल पटना के एक बाहुबली विधायक पर हमला और फ़िर उसकी पोल खोल ने जग जाहिर कर दिया की - दिल्ली के न्यूज़ रूम से लेकर पटना के कैमरा मन तक सभी के सभी इस गंदी राजनीती के हिस्सा थे ! अब ये उस प्रकरण पर कुछ भी नही बोलते !
एक अजीब सा वातावरण बना दिया जता है - पिछले साल राम नाथ गोएंका अवार्ड के असली विजेता और सही रूप मी पत्रकारिता का काम कर रहे लोगों की चर्चा किसी ने नही की - बल्की क्षेत्रिये पुरस्कार के विजेता को कंधे पर बैठा लिया गया - क्योंकी यह पत्रकार - दिल्ली मे बैठा अपने जाती के पत्रकारों का "अर्जुन" है !
इस अर्जुन- द्रोणाचार्य के गठजोड़ मे कई एकलव्य बरबाद कर दिए गए और किए जा रहे हैं ! यह अंतहीन "तमाशा" कब तक चलेगा - पता नही ! -

रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Wednesday, March 26, 2008

मार्च का महीना और बहुत कुछ ! भाग - १

मार्च का महीना "गजब" का महीना होता है ! मुझे लगता है यह महीना बाकी सभी महीनों मे सबसे महताव्पूर्ण होता है ! बिहार और देश भर मे इस महीना मे "मैट्रिक" का परीक्षा होता है ! बिहारी लोग इस परीक्षा को एक "पर्व" की तरह मानते हैं ! घर मे जो परीक्षार्थी होता है - उसको वरती के रूप मे मान लिया जाता है ! एक जमाना था जब पूरे गाँव के हर घर से एक दू वरती होता था ! माँ और बेटी दोनों एक साथ परीक्षा देते हुए देखा गया है ! एक साल पहले से "वरती या परीक्षार्थी" को लोग टोकना शुरू कर देते हैं - " तब , इस बार है , नु " ! मामा - मामी , चाची- चाचा , फुआ - फूफा - बड़ा भाई - छोटा भाई - घर परिवार , आस पड़ोस , पट्टीदार - गोतिया , सभी के सभी आपको ध्यान मे लाते हैं - कभी कभी थोडा बहुत पढे लिखे नौकर भी टोक दिया करते हैं !
मैट्रिक का परीक्षा अपने आप मे एक "प्रोजेक्ट होता है ! कहीं कहीं यह देखा गया है की - जिस शिक्षक से बाप ने पढ़ा - बेटा का मार्ग-दर्शन भी वही शिक्षक करते हैं ! प्रे बोर्ड के बाद - गेस पेपर खरीदना से लेकर - चिट पुर्जा के तकनीक - यह सभी " परीक्षार्थी" की कुशल प्रबंधन और स्टेटस को बताते हैं ! घर परिवार मी कुछ लोग कुशल मैट्रिक परीक्षा प्रबंधक होते हैं - उन लोगों विशेष रूप से बुलाया जाता है ! जहाँ परीक्षा केन्द्र बना हैवहाँ कोई चित परिचित खोजा जाता है - कभी कभार या अधिकतर जगहों पर देखा गया है की परीक्षा केन्द्र के "चपरासी" जितना काम कर जाते हैं - उतना बड़ा से बड़ा अधिकारी भी नही ! परीक्षा केन्द्र पर एक अलग नजारा होता है - बिल्कुल मेला की तरह - होम गार्ड के जवानों के पास साल भर मी कमाने का पहला और अन्तिम मौका होता है ! परीक्षा ख़त्म होते ही वही "चपरासी" बताता है की कॉपी कहाँ कहाँ गयी है ! फ़िर शुरू होता है - जांच केन्द्रों मी अपने आदमीओं की खोज !
आने वालों सालों मे यह एक मील का पत्थर होता है - लोग बात चिट मे कहते हैं - फलाना के बेटा के मैट्रिक के परीक्षा मे मेरा "छाता " खो गया टू कोई कहता है की होम गार्ड के डंडा से मेरा कुर्ता फट गया !
वक्त बदल गया - आज २१ साल हो गए मुझे मैट्रिक पास किए हुए - सब कुछ आंखों के गुजर रहा है - जैसे कल की ही बात है !
खैर ...... क्रमशः
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Tuesday, March 25, 2008

वेतन आयोग !

बाबु जी को ५०० मिलाता था ! एकदम मस्त जिंदगी था ! रिक्शा अपना सवारी था ! सप्ताह मे २ दिन आलू दम और दू दिन मीट - भात भी बन जाता था ! शाम को हम लोग खेल कूद भी कर लेते थे ! सैकील से स्कूल भी चले जाते थे ! मौका मिला त बाबु जी के "लेम्ब्रेटा" पर लटक भी जाते थे ! साल मे दू बार कपडा - लत्ता भी खरीदा जाता था ! पाकिट मे चार आना और गप्प हांकते स्कूल पहुँच जाते थे ! जो दोस्त यार सैकील या स्कूटर रखता था - वह अपना समाज से अलग हो जाता था ! लंच मे चार अन्ना मे आलू चौप वाला चाट खा कर जो आनंद मिलाता था वह शायद डोमिनो पिज्जा मे नही मिलाता है ! होली मे पटना के सब्जी बागः से रु ३५/- वाला कुरता मे जो मजा था वह मॉल से खरीदा हुआ दीजैनदार कुरता मे नही है !
सब कुछ , जी हाँ , सब कुछ बाबु जी के ५०० मे ही हो जाता था - वह भी मजे से ! अब त कुत्ता बिल्ली , गदहा - बैल सबको कई हज़ार मे वेतन मिलता है - फ़िर भी सब बेचैन है ! ई , आला दर्जा का "सरकारी बाबु " सब का माथा ख़राब हो जाएगा - इतना तनखाह मिलने के बाद - क्या ये लोग "घूस" कमाना बंद कर देगा ? हमको टू नही लगता है :( !
साला समाज भी अजीब है - अगर आप "सरकरी बाबु " है और घूस के पैसा से पटना के पाटलिपुत्र मे एक कित्ता माकन नही है या फ़िर दिल्ली - नॉएडा मे २-३ थो फ्लैट नही है टू "समाज" से इज्जत की बात छोडिये - आपके बेटा - बेटी का बियाह होना मुश्किल हो जाएगा ! "बाबु" का मतलब ही लोग समझता है की - झाड़ के पैसा !
फ़िर दोषी कौन हुआ ? समाज जो आप पर दबाब बनाता है ! सरकारी नौकरी नही लगा त - प्राइवेट मी नौकरी कर ली - और प्राइवेट मी भी नही टीक पाये त बिजिनेस - अब बिजिनेस वाले को दोनों हाथ लूटते देख बेचारा सरकारी वाला क्या करेगा ?
अब त खबरिया वालों को भी भरपूर पैसा मिलने लगा है - अधिकतर टू वही लोग है - जो पटना - भोपाल- बनारस से दिल्ली आए थे कलक्टर बनने के लिए और सरकारी मी चपरासी भी नही बन पाये - हिन्दी - अंग्रेज़ी थोड़े अछ्छी थी सो "पत्रकार" बन गए - अब हज़ार की कौन पूछे - लाख मी पैसा कमा रहे हैं -
कहने का मतलब जब समाज का बौधिक रूप से कमज़ोर तबका भी लाख - करोड़ का बात कर रहा है टू सरकारी कर्मचारी को कुछ मिल ही गया टू इतना हंगामा क्यों ?
वैसे त आप लोग मुंशी प्रेमचंद की कहानी "नमक का दरोगा" टू पढ़ा ही होगा ! :)
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Saturday, March 15, 2008

झारखण्ड फ़िर एक बार और बिकेगा !

कई साल पहले मई एक सरस्वती के आराध्य के घर गया पर आश्चार्य हुआ की उनके यहाँ "लक्ष्मी" की फोटो लगी थी - पूछने पर बताया गया की - सभी "रास्ते" यहीं आते हैं ! यह बात आज तक मेरे मानस पटल पर अंकित है लेकिन दिल मनाने को तैयार नही है ! पर कब , तक ?

राज्यसभा चुनाव आते ही फ़िर से एक बार - वनवासियों का प्रदेश "झारखण्ड" बिकने को तैयार है ! मुकेश अम्बानी के दूत श्री परिमल नाथ्वानी जी निर्दालिये उम्मीदवार के रूप मे राज्य सभा के लिए तैयार है ! जीत स्वाभाविक है ! पर कई साल जमीन के धूल चाटने वाले राजनीतिक उम्मीदवारों का क्या होगा ?

पैसा मे बहुत दम है - यह मेरा ८ वर्षीय बेटा भी जानने लगा है ! शायद उसे एक शिक्षक पुत्र होने और महानगर की संसकृति की दबाब ने बहुत कम उमर मे "काफी परिपक्वा" बना दिया है ! उसे पता है - उसके पिता क्या खरीद सकते हैं और क्या नही - शायद यही "आभाव" उसके उज्जवल भविष्य को इंगित करता है !


रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Tuesday, March 11, 2008

होली आ रहा है - भाग १

पेट भरुआ बिहारी लोग अगला सप्ताह से घर जाने का तैयारी कर रहा होगा ! लालू जी के ट्रेन से गाँव जाएगा ! इस मौसम मे ट्रेन मे सीट मिलाना किसी सौभाग्य से कम नही है ! सुना है नीतिश जी 'चका चक' बिहार बना रहे हैं ! तब तो जाना और जरुरी है ! देखेंगे - कुछ 'जुगाड़' होगा त वहीं रूक जायेंगे ! अब , ई रोज रोज का राज ठाकरे का गाली और तेजेंद्र खन्ना का लाठी कौन सहेगा ! हम त "पुण्य प्रसून " भैया को भी यही बोले थे ! कहाँ यहाँ २ का ४ के चक्कर मे फँसे हुए हैं ! "होली" के बहाने से चुपके से बिहार सरक लीजिए ! "पटना दरबार" मे गुन गान कीजियेगा - कुछ न कुछ जरूर ही मिल जाएगा - नही मिलेगा त मोतिहारी वाला दरबार चले जाईयेगा !
मेरे जैसा पेट भरुआ लोग शायद नही जाए ! किसी के बेटा का "एक्साम" है तो किसी की बीबी का ! किसी को छुट्टी नही मिल रहा है तो किसी को टिकट ! वैसे नया नया जो दिल्ली आया है - वह तो ट्रेन मे लटक के ही जाएगा - जब तक वह लटक के नही जाएगा - उसको लगेगा ही नही की वह दिल्ली कमाने के लिए आया है - भाई , कुछ पसीना बहना चाहिए न !
मेरे जैसा खबरिया चैनल देखने वाला - कौन कैसे "होली" मनाया मे बिजी रहेगा ! आडवाणी जी बाबा के यहाँ गए या यशवंत सिन्हा रवि शंकर प्रसाद के यहाँ ! कुछ लोग सुबह से ही तुन रहेगा ! एक दिन पहले से ही बिना नाम वाला मैसेज आने लगेगा - अप खुश होंगे फ़िर तबाह हो जायेंगे ! जिसको आप भेजेंगे वह आपको नही भेजेगा - कोई और जिसका नाम आपके फोन मे नही है ! तरह तरह का मैसेज आवेगा ! "होली" के दिन ऐसा आदमी के यहाँ जन पड़ता है जिसके घर आप दुबारा नही जायेंगे ! क्योंकि सब लोग तो आप जैसा अभागा तो होता नही की "गाँव" नही जाए !
दिल्ली मे रु ३५/- वाला कुरता खोजने मे रु २०० का पेट्रोल खर्चा हो जाएगा या फ़िर बीबी आपका पिछला साल वाला कुरता खोजने मे आपको २-४ थो श्लोक सुना देगी ! वैसे मेरे कई ऐसे मित्र हैं - बीबी श्लोक सुने बिना दिन का जतरा नही बनता है ! बढ़िया है - जतरा बनाईये ! कुरता - पैजामा मिल जाएगा त "नारा " नही मिलेगा :( अब , क्या कीजियेगा ? रुकिए - सलवार से ही निकाल लीजिए ;)
जब शाम को बीबी हुर्केचेगी त किसी दोस्त के यहाँ का प्लान बनायीयेगा ! तब तक किसी दोस्त का फोन आ जाएगा की वही - आपके घर आ रहा है ! भाई - वह भी तो शादी शुदा है !
क्रमशः
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Wednesday, March 5, 2008

ठाकरे बाबा सही कह रहे हैं !

लालू कहते हैं की बुढापा का लक्षण है ! नीतिश जी नालंदा स्टाइल मे मे मी आ रहे हैं ! पासवान को बुझा ही नही रहा है की क्या कहें ? भाई , आप तीनो ने "मंडल" के सहारे जो वातावरण तैयार किया है बिहार मे उसका कोई जबाब नही है ! एक बात बताएं ? - आप तीनो १८ साल से बिहार मे कर क्या रहे हैं ? लालू - समान्त्वादों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला - नीतिश जी लालू के ख़िलाफ़ और पासवान जी दोनों के ख़िलाफ़ , बढ़िया है ! लगे रहिये ! लालू बिहार के लिए कुछ नही किए - आशा भी नही था ! पर , नीतिश बाबु - आप त जात पात से ऊपर उठ कर चुन कर आए थे - फ़िर ये अचानक जाती प्रेम कैसे जाग गया ? खैर , यह आपका दोष नही है - यह तो बिहार का संस्कार है ! हम त आपसे भी ज्यादा जात पात करते ! "बिहारी" जो ठहरे !
गरीब लोग कहाँ जाएगा ? भावनात्मक बहाव मे लालू-नीतिश -पासवान को वोट तो दे दिया और आज ठाकरे बाप बेटा मजा चखा रहा है ! काहे नही नीतिश-लालू-पासवान को कहते हो की हर जिला मे १० थो फैक्ट्री खोल दे ! सच्चाई यह है की नीतिश ख़ुद विकास नही चाहते हैं !
आप बिहारी हैं त तनी आप अपना गाओं - मोहल्ला - परिवार मे नज़र डालिए - आपको बिहार का कोई ऐसा परिवार नही मिलेगा जिसका कोई न कोई सदस्य बिहार से बाहर कमाने नही गया हो ? इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? बिहार का बंटवारा कौन करवाया ? क्या कसूर है हमारा ? अब त ख़ुद लालू का परिवार बिहार मे नही रहना चाहता है ! एक आम बिहारी भी बिहार नही जन चाहता है ! लालू राज मे सब से कम पलायन यादव लोग का था ठीक ऐसा ही नीतिश राज मे है - जब तक यह सब चलेगा - बिहार कैसे सुधरेगा ?
बिहार का जितना मीडिया वाला है - सब का सब एक नंबर का दलाल ! सब को पता है बिहार मे खुलेआम फेक एन्कोउतर हो रहा है - पैसा मे इतना दम है की सब चुप है !
सवाल बहुत है !
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Monday, March 3, 2008

" कब अईबू अंगनवा हमार ": भोजपुरी सिनेमा समीक्षा


अनजान शहर मे अनजान चेहरों के बीच अपनी सभ्यता और संसकृति की झलक देखने को ही मिल जाए - यही बहुत है ! काफी अरसा हो गया था - भोजपुरी सिनेमा देखे हुए ! श्री कवि कुमार द्वारा निर्मित " कब अईबू अंगनवा हमार " को नॉएडा के मल्टीप्लेक्स " P V R - Spice " ने दिखाने क निर्णय लिया तो यह भोजपुरी सिनेमा के इतिहास क पळ था क्योंकि यह अपने आप मे पहली भोजपुरी सिनेमा है जो किसी मल्टीप्लेक्स मे "चल " रही है !

कल यह सिनेमा देखने kaa मौका मिला ! श्री कवि कुमार बिल्कुल ही साफ सुथरी फ़िल्म लेकर आए हैं ! अभिनेता और गायक श्री मनोज तिवारी ne काफी स्वाभाविक अभिनय की जितनी तारीफ की जाए कम है ! विनीत कुमार भी दमदार नज़र आए ! सिनेमा के कार्यकारी निर्माता श्री अंशुमन मिश्रा ने बताया की इस तरह की साफ सुथरी बड़े बजट की भोजपुरी सिनेमा बनाना आसान काम नही हैं - मुझे भी ऐसा ही लगा ! इस सिनेमा मे पहली बार DABING के बिना काम चलाया गया है = जिसे टेक्नीकल भाषा मे "सिंक साउंड " कहते हैं - ऐसा प्रयोग सिर्फ़ लागान के कुछ दृश्यों के लिए किया गया था ! छरहरी बदन की मालकिन और मेरी हमउम्र श्वेता तिवारी ने काफी प्रभावित किया है !

सिनेमा अपने पहले मध्यांतर मे आपको अपने गाओं की याद से आखों को नम करेगा और दूसरे मध्यांतर मे एक प्रवासी "पूर्वांचल" के दर्द के कारन आपकी आँखें नम होंगी ! हाँ , सिनेमा एक स्वाभाविक कहानी और स्वाभाविक दमदार अभिनय पर केंद्रित है जिसके कारन थोडा लंबा हो गया जो निर्देशक की कमजोरी को दिखता है !
कुल मिला कर - यह सिनेमा आप हम सभी अपने परिवार के साथ बैठ कर देख ही नही सकते बल्कि इसकी खूबसूरत गानों क आनंद भी उठा सकते हैं !
निर्माता श्री कवी कुमार बिहार प्रान्त के सीतामढी निवासी हैं और सिनेमा की शूटिंग उनके गाओं मे ही हुयी है ! श्री कुमार एक बेहतरीन वक्ता भी हैं और पूर्वांचल और अर्थशास्त्र के मुद्दों पर खबरिया चैनल पर नज़र आते रहते हैं !
सभी पैसा खाने के लिए नही होता है - कुछ दिखाने के लिए भी होता है ! "तिरहुत" वासी सम्प्पन लोग समाज के प्रती अपनी जिम्मेदारियों को अच्छी तरह समझते हैं ! सिनेमा निर्माता श्री कवि कुमार अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों क निर्वाह करते नज़र आए और सिनेमा के मध्यम से अपनी मिटटी क क़र्ज़ भी कुछ हद तक उतरा है - जो एक सराहनीय कदम है

Wednesday, February 20, 2008

बिहार चलो !!!

बिहार चलो ! ४ लाठी राज ठाकरे दिया नही की बिलबिलाने लगे की "बिहार चलो" ! कमज़ोर जीन ! मजदूर ! बिहारी को कितना भी पढ़ा लिखा दीजिए - २-४ करोड़ पाकिट मे दे दीजिए ! मानसिक स्तर पर यह मजदूर ही रहते हैं ! समाजवाद इनके खून मे बसा है ! लोहिया , जे प्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर की मानसिकता से बिल्कुल जकडे हुए हैं ! जात पात खून के अंतिम लेअर तक है ! रहेगा अमेरिका मे और सोचेगा जहानाबाद की तरह !
हम बचपन मे देखा करते थे की - लोग अमेरिका या ब्रिटेन पढ़ने के लिए जाते थे - कमाने के लिए नही ! समाज का कमज़ोर तबका कलकत्ता , दिल्ली या मुम्बई कमाने के लिए जाता था ! जिसका पेट बिहार मे नही भरता था वह "बेचारा" बन के परिवार से हजारों मील दूर "पेट भरुआ" बन के जीवन चलता था ! क्या पढ़ा लिखा और क्या अनपढ़ सब के सब मेरे तराजू मे एक ही थे ! कोई जनरल bogee मे तो कोई वातानुकूलित मे ! सफर के ट्रेन और मंजिल तो एक ही थी और साथ ही साथ मकसद भी एक ही ! फिर कैसा फरक ? एक जमाना वह भी था जब डाक्टर लोग ब्रिटेन से पढ़ लिख कर सीधे पटना रुकता था या दरभंगा - मुजफ्फरपुर ! अब यह वर्ग दिल्ली मे निवेश करता है !
इन सब के लिए समाज जिम्मेवार है ! मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद - पटना मे कंप्यूटर का व्यापार शुरू किया ! साले ससुराल वाले और इर्द गिर्द के समाज वाले जीना मुहाल कर दिए थे ! हुर्केच हुर्केच के मेरे रातों का नींद गायब कर दिए थे ! फलाना का बेटा - मुम्बई मे फलाना कम्पनी मे है - चिलाना का बेटा अमेरिका जा रहा है ! धेकाना का दामाद दिल्ली मे फ्लैट ले लिया है ! अरे मेरे बाप - यह सभी " पेट भरुआ" हैं ! मुझे इस झमेला मे नही डालो ! मुझे "पटना " पसंद है और मुझे "पटना" मे ही रहना है ! मुझे "बड़ा" नही बनाना है ! मुझे द्वितीये स्तर का नागरीक बन के पेट नही भरना है ! पब्लिक कहाँ maanane वाली थी !
बिहारी लोग समाजवाद और सामंतवाद दोनों को आदर्श मानते हैं ! मैंने कई कम्पनी के बड़े अधिकारीओं को डिप्रेशन मे देखा है ! दिल मे सामंतवाद और जुबान मे समाजवाद ! बढ़िया नौकरी - बढ़िया पैसा और पातर पातर अंग्रेज़ी बोलने वाली बीबी फिर भी दिल उदास है - क्योंकि कोई "pahchaan" नही है ! अब मुम्बई और दिल्ली मे आप ५० लाख की गाडी पर चढें आपको कोई सलाम कयों करेगा ? दिल मे तो सामंतवाद है ! बचपन मे दादा - दादी के मुह से जिला जवार के बड़े बड़े सामंती लोगों की जीवन शैली को देखा और सुना है !
दिल्ली के एक बहुत बड़े बिहारी का फोन आया - बेटी का बियाह है - "अपने" लोग आते तो अच्छा रहता ! शादी बियाह के मौके पर लोक गीत का आनंद ही कुछ और है ! अब भाई जी दिल्ली आकर करोड़पति तो बन गए लेकिन अपने लोग "बिहार" मे ही छुट गए - मामा - फूफा की जगह "दिल्ली" के dalalon ने ले ली है !
खैर , जब सब बिहारी "बिहार" चला जाएगा तो ई नीतिश और लालू का क्या होगा ?
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Friday, February 15, 2008

नीतिश कुमार की बकरी !!

लालू जी को अपनी 'भैंस' के कारण नाम और बदनाम दोनों मिला ! अब भला नीतिश जी क्यों पीछे रहे ? उन्होंने एक 'बकरी' पाल रखा है ! जहाँ कहीं भी जाते हैं - अपनी ' बकरी' को साथ मे ले जाते हैं ! 'बकरी' की शिक्षा - दीक्षा काफी अच्छे स्कूल कॉलेज मे हुई है ! लेकिन यह बकरी जब "नालंदा' वाली मगही मे " मेमीआती" तो नीतिश जी का दिल बाग़ बाग़ हो जाता है ! "बिहार" नालंदा है और "नालंदा" ही बिहार है ! मुझे कई पत्रकार बोले की - हर जनता दरबार मे इस बकरी को बगल मे बिठा - पूरे राज्य को यह संदेश देना चाहते हैं की - अब बिहार मे बकरीवाद ही चलेगा ! "बकरीवाद" के चलते - राज्य के मुठ्ठी भर 'शेर' परेशान हैं ! ( गौर तलब है - नीतिश जी बिहार के "सवर्ण" समुदाय को "मुठ्ठी भर लोग " कह कर बुलाते हैं )
नीतिश के कुछ चमचों बेलचों सलाह दी की किसी बकरे को "शेर" की शक्ल दे दी जाए ! नीतिश जी के ख़ास 'बकरी' के चहेते 'बकरे' को रंगा - पोता गया - 'शेर' की शक्ल दी गयी और राजधानी की सुरक्षा मे लगा दिया गया ! अब यह नादान बकरा उछल कूद कर हर रोज "मुठ्ठी भर " लोगों को चुन चुन कर मारता है ! मारना भी चाहिए - जब तक मुठ्ठी भर लोग ख़त्म नही होंगे - बिहार मे "बकरीवाद " कैसे आएगा ?

दिल्ली के समीप "नॉएडा" मे करोड़ों की लागत से नीतिश की बकरी का महल तैयार हो रहा है ! कई और बकरी हैं जिनके पैसे इंदिरापुरम और नॉएडा के बड़े बड़े प्रोजेक्ट मे लगे है ! भाई , यह सब नीतिश राज मे शाकाहारी भोजन से बचाए हुए पैसे हैं !

नीतिश जी बहुत इमानदार हैं ! अब्दुल कलाम के नालंदा दौरे मे "सिंगुर" वाली समस्या हो गयी ! ख़बर को कम महत्वपूर्ण और दबाने के मे कई 'पत्रकार' भाई मालामाल हो गए ! "नालंदा" की उपजाऊ जमीन को जबरदस्ती लिया गया ! कीमत भी बाज़ार से कई गुना कम ! जाती गत आधार पर "गाओं" का "गाओं" साफ किया गया !

नीतिश जी मुस्कुराते हैं ! मंद मंद ! और अपनी बकरी को शाकाहारी घास फूस देते हैं !

लिखने को बहुत कुछ है - धीरे धीरे - ! चलिए तबतक हम कुछ मांसाहारी भोजन कर आयें !


रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Tuesday, February 5, 2008

ठीक हो रहा है !

टीवी पर बिहारियों को पीटाते देख थोडा सुकून हुआ ! लेकिन थोडा और हंगामा होना चाहिऐ था ! जम के ! दहशत का माहौल भी खड़ा होना चाहिऐ ! "अपना घर" बर्बाद हो रहा है और चले हैं दूसरों के घर को सजाने के लिए ! "दूसरा" हमेशा से ही दूसरा ही होता है !
ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है ! उदाहरण के तौर पर - हम लोग करीब १०० साल से मुजफ्फरपुर शहर मे बसे हैं ! दादा-परदादा की जमींदारी थी ! घर - परिवार के लोग मुजफ्फरपुर से ही पढे लिखे हैं ! लेकिन आज तक "तिरहुत" वाले महीन लोग हमलोगों को अपना नही सके ! आज भी हम सभी "छपराहिया " ( छपरा जिला का रहने वाला ) ही कहलाते हैं ! हम भी अडे हैं - अपनी भाषा "भोजपुरी" ही बोलते हैं !
अगर आप - गाँव के रहने वाले हैं तो देखा ही होगा की किस कदर बाहर से आ कर बसे हुए लोगों को तंग किया जाता है ! खासकर " तड़का" वाले केस मे ! जहाँ " दामाद" को अपने ससुराल मे सम्पति मिलता है ! लोग अपने भागिना - नाती को अपना लेते हैं लेकिन "दामाद" को हमेशा से ही पराया समझा जाता है !
बहुत साल पहले - मैंने अपने गृह जिला "गोपालगंज" मे एक स्कूल मालिक के यहाँ गया ! वह केरल राज्य के रहने वाले थे ! उनका स्कूल काफी पैसा कम रह था ! पर स्कूल मालिक का जीवन शैली काफी निम्न था ! मैंने मजाक मजाक मे ही कुछ पूछ दिया - उन्होने जबाब दिया की - वह केरल मे एक माकन बना रहे हैं और फिर अपने माकन का फोटो दिखाया - फोटो देख कर मुझे ऐसा लगा की वह केरल मे कई करोड़ का मकान बना रहे हैं !
"बाबा" आये हुए थे - कह रहे थे की "खेत" मे काम करने को नही मिलता है - सभी के सभी "पंजाब" "दिल्ली" और गुजरात" चले जाते हैं ! पटना के एक तकनिकी कॉलेज के मालिक ने कहा - कोई पढ़ने वाला नही मिलाता है ! बिहार सरकार के एक उच्च पधाधिकारी से मेरी बात हो रही थी - बता रहे थे की पटना के सड़क पर आपको एक भी युवा नही मिलेगा ! या तो २० बरस से कम उमर वाले या फिर ४५ से ज्यादा वाले !
चलो "बिहारियों" - घर चलो ! जब हम सभी दूसरों का घर स्वर्ग बना सकते हैं तो फिर अपना क्यों नही ?


रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Monday, February 4, 2008

राज ठाकरे को "मीडिया" की मदद

आज जो भी बवाल मुम्बई मे हो रहा है - उसमे राज ठाकरे से ज्यादा मीडिया की भूमिका है ! "दलाली" की हद कर दी आप सभी ने ! दरअसल इलेक्ट्रोनिक मीडिया मे अत्यंत ही घटिया और कमज़ोर मानसिकता वाले लोगों का जमावडा हो गया है ! ऊपर से नेताओं के लगे पैसा का दबाब - कचरा को पेश किया जा रहा है ! उलुल - जलूल खबरों को महताव्पूर्ण बना देना और पूरे देश को उसमे झोंक देना - यह गलत ही नही अपराध है !
राज ठाकरे का बयां इतना महताव्पूर्ण नही था जिसको इस कदर दिखाया जाये ! वह बिल्कुल ही एक छोटी सभा मे कुछ उलुल जुलूल बक रह था ! मीडिया ने इतना महाताव्पूर्ण बना दिया की - टीवी पर दिखने के चक्कर मे बेचारे "पूर्वांचल" के लोग अब पीट रहे हैं !
देश को पूरी तरह "दलालों" के हाथ मे हम सभी ने दे दिया है ! आज तक यह दलाल समाज की आबरू को बेच रहे थे - अब यह खुद की आबरू की दाम लगायेंगे ! "पैसा-पैसा" के इस खेल मे हम सभी इतने व्यस्त हो चुके हैं की हमे यह नही पता चल रहा है की हम आने वाले पीढी के लिए कैसा समाज बना रहे हैं !
सैफ और करीना की खबर - देश की प्रगति की खबर से ज्यादा "important" बन जाती है !
आप सभी से मेरा निवेदन है की आपको जहाँ भी इस तरह के " इलेक्ट्रोनिक जर्नलिस्ट " मिले , मेरे तरफ से इनको समझायें ! विनम्र निवेदन करें ! अगर फिर भी नही सुधारें तो " चार" लात दीजिए ! फिर देखिए - कैसे यह अपनी आबरू को बेचेंगे !
मुझे जया बच्चन का बयां ज्यादा पसंद आया की - राज ठाकरे कौन है ? बात ख़त्म !
खैर , राज ठाकरे कौन हैं यह सबको पता है ! इनके असली पिता कौन हैं यह भी सबको पता है !



रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Tuesday, January 22, 2008

पैसा - पैसा , लहू लुहान बाज़ार

लहू लुहान बाज़ार मे मेरे जैसे कई निवेशक शोक मुद्रा मे होंगे ! होना भी चाहिऐ ! गाढी कमाई है ! कोई यूं ही क्यों उसको उड़ते हुए कैसे देख सकता है ! बाबुजी बहुत समझाए थे - "फिक्सड डेपोजीत" कर दो - "सोना" खरीद लो - गाँव मे २-४ कत्था ज़मीन ले लो ! मैं कहाँ मनाने वाला था ! मुझे तो हडबडी थी रातों रात - अमीर बनने की ! आस - पास कई लोगों को देखा हूँ ! मंद बुद्धि वाले भी लाखों और कड़ोरों की बात करते हैं ! मुझे सब से आसान रास्ता चाहिऐ था - जहाँ से मैं कई गुना पैसा देखते देखते कमा सकूं !
लालच बहुत बुरी बला है ! बचपन मे सिखा था ! जवानी मे पाया की - आदमी स्वभाव से ही लालची होताहै ! अब इसमे मेरा क्या दोष है ? धरती पर रहना है तो - पैसा तो चाहिऐ ही , न ! अत्यधिक लालच भी एक अपराध है ! लालच मे आदमी अपने परिवार , बाल बच्चों , समाज के साथ गुनाह करता है ! सिर्फ बन्दूख से गोली चलना ही अपराध की श्रेणी मे नही आता है !

एक डाकू से रामायण के रचयिता बनते हुए सब ने "बाल्मीकि" के बारे मे सुना है ! अंगुलिमाल डाकू के बारे मे सुना है ! देश - प्रदेश मे कई ऐसे "लालची" पैदा हुए जिन्होंने आँख खुलने के बाद अपनी सारी सम्पति समाज को दे दी !

यूं मेरा सब कुछ डूबा नही है ! पर तात्क्षानिक लाभ की लोभ ने मुझे बेचैन कर दिया है ! सालाना १२ % से ज्यादा की आशा करना बेवकूफी है ! बेहतर हो हम सभी चक्रवर्धी व्याज की भाषा सीखें ! या फिर धैर्य रखना सीखें ! हम आम आदमी सिर्फ और सिर्फ अपने लिए ही नही कमाते हैं ! मजबूत नींव देना भी हमारा मकसद होना चाहिऐ ! अपने जीवन काल मे - हम सभी कम से कम ५ पीढी को तो देख ही लेते हैं ! अपने दादा जी से लेकर अपने पोता-नाती तक ! जो हम अपने दादा जी - पिता जी से सिखते हैं वह हम खुद पर प्रयोग करते हैं और खुद के प्रोयोग से सीखे हुए संस्कार को अपने आने वाली पीढी को देने की कोशिश करते हैं !

धन संचय भी एक कला और विज्ञान है ! सभी अंडो को एक ही झोला मे ना रखें ! जोखिम अपनी अवकात और उम्र को ध्यान मे रख कर ही लें ! कुछ धन खाने के लिए और कुछ धन दिखाने कभी लिए भी !

रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Saturday, January 5, 2008

सारी प्रगति के पीछे है शिक्षा : अभ्यानंद

श्री अभ्यानंद भारतीये पुलिस सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी है और अपने  गरीब बच्चों को भारतीये प्रद्योगिकी संस्थान तक पहुँचने के लिए "सुपर-३०" की स्थापना की! आज दैनिक जागरण पटना संस्करण ने काफी प्रमुखता से इनके विचार एक लेख के रुप मे प्रकाशित किया है ! आशा है आप सभी भी इसे पढ़ कर लाभंवाती होंगे :-




प्राणी का जन्म हुआ। प्राणी को एक व्यवस्था के रूप में देखा जाय तो जन्म के साथ ही इस व्यवस्था का सामाजिक, आर्थिक, भौतिक, मनोवैज्ञानिक, राजनैतिक के साथ-साथ अन्य आयामों के अन्तर्गत ही, उसके समस्त पर्यावरण से विनिमय प्रारंभ हो जाता है। विनिमय अगर परस्पर लाभकारी हुआ तो व्यवस्था एवं पर्यावरण दोनों के लिए सुखदायी है, अन्यथा अन्तत: यह अहितकर विनियम कष्टों का सबब बनकर रह जाता है। प्राणी के कई कष्ट ऐसे हैं जो उनके शरीर में जन्म के साथ ही उनके जिन्स में निहित रहते हैं। इन कष्टों का जीवन यात्रा के दौरान शनै-शनै विस्तार होता है जिससे कि न केवल वह प्राणी बल्कि उसका पर्यावरण भी उनके कष्टों से आहत हो जाता है। इस प्रकार के कष्ट जो प्राणी के जिन्स में ही निहित हो उसके निराकरण के लिए मानव-जाति नैनो टेक्नोलौजी के माध्यम से सूत्र ढूंढने का प्रयास कर अगर इसमें सफलता मिली तो अहितकर विनिमय, जिसकी चर्चा ऊपर की गई है, उसके आयाम काफी हद तक घट जायेंगे। कुछ ऐसे कष्ट भी हैं जो जन्म के समय नहीं होते परन्तु जीवन यात्रा के दौरान पर्यावरण और प्राणी के अनेक प्रकार के अहितकर विनिमय से उनकी उत्पत्ति हो जाती है। ये कष्ट साधारणतया शारीरिक एवं मानसिक हैं और इनके निवारण के लिये इस क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिकों ने स्टेम सेल टेक्नोलौजी का सहारा लेकर कुछ हद तक सफलता पा ली है। समाज अब आशान्वित है कि ऐसे कष्टों का जब भी जीवन के दौरान उभार होगा तो इस टेक्नोलौजी की सहायता से जन्म के दौरान भंडारण किये गये उनके स्टेम सेल की मदद से उसकी चिकित्सा भी हो पायेगी। ये चर्चा तो शारीरिक एवं मानसिक कष्टों की है जिससे कि प्राणी एवं उसका पर्यावरण काफी त्रस्त रहता है। कई ऐसी समस्यायें हैं जिनका जन्म अशिक्षा के माध्यम से हो जाता है। शिक्षा ही प्राणी एवं पर्यावरण के विनिमय को दशा एवं दिशा देती है। जब शिक्षा की बात चलती है तो सामान्यत: किताबें, स्कूल तथा शिक्षक की कल्पना अनायास होने लगती है। इस अवधारणा को अगर विस्तृत रूप से देखा जाय तो प्राणी के पर्यावरण में जो भी वस्तु निर्जीव अथवा सजीव हो जिसके साथ उसका किसी भी प्रकार का विनिमय का सीधा संबंध उसकी शिक्षा से होता है। यह भी सोचना गलत होगा कि इस पूरी प्रक्रिया में मात्र प्राणी ही शिक्षा ग्रहण कर रहा है। इस व्यवस्था को अगर गहराई से देखा जाय तो न केवल प्राणी बल्कि उसका पर्यावरण भी सीखता है। परस्पर सीखने की प्रक्रिया को ही ऊपर की चर्चा में प्राणी एवं पर्यावरण के विनिमय के रूप में अंकित की गई है। मानवजाति की सम्पूर्ण यात्रा को देखने का यह भी एक दृष्टिकोण है। इस रूप से अगर यात्रा का अवलोकन किया जाय तो प्राणी एवं पर्यावरण में परस्पर सीखने की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित बनाना ही शिक्षण माना जायेगा। कुछ विनिमय अहितकर होते हैं, जिन्हें शिक्षा के माध्यम से न्यूनीकृत किया जाता है। उसी प्रकार कुछ विनिमय अच्छे एवं श्रेयस्कर होते हैं जिन्हें शिक्षा के जरिये विस्तारित किया जाता है। शिक्षा ही ऐसी प्रक्रिया है, जिस विनिमय की बात हो रही है उसके सभी आयामों की जड़ में है। समस्या भौतिक हो या मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, सबों के निदान के लिए शिक्षा का ही सहारा लेना पड़ता है। जितनी भी प्रगति, चाहे जिस क्षेत्र में हुई तो उन सबों के पीछे शिक्षा का अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान है। जिन क्षेत्रों में ऐसा प्रतीत हो कि समुचित प्रगति नहीं हुई है तो उनके कारणों में प्रमुख स्थान अशिक्षा का पाया जाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मानवजाति और उसके पर्यावरण विकास के इतिहास में शिक्षा एक सबल धुरी की तरह उभरी है। प्रश्न यह उठता है कि शिक्षा और सुशिक्षा में अन्तर क्या है। मेरी अपनी धारणा है कि जब प्राणी अथवा उसके पर्यावरण में से किसी एक के द्वारा विनिमय की ऐसी प्रक्रियाओं को जन्म दिया जाय जिससे किसी एक को अल्पकालिक लाभ हो, तो वह शिक्षा सुशिक्षा नहीं मानी जायेगी। जब भी प्रक्रिया ऐसी बनती है जिससे दोनों पक्षों को दीर्घकालिक लाभ हो तो उस विनिमय प्रक्रिया को सुशिक्षा की संज्ञा दी जा सकती है। सामान्यत: यह पाया गया है कि प्राणी एवं पर्यावरण, दोनों में यह होड़ लगी रहती है कि एक-दूसरे की शक्तियों का गलत प्रयोग कर अपने लिए लाभ उठाया जाय। जो ऐसा करते हैं वे शिक्षा का हवाला देकर इसे सही ठहराने का दावा भी करते हैं। चूंकि यह लाभ अल्पकालिक होता है, अत: लम्बे अंतराल में इससे लाभ कम और घाटा अधिक हो जाता है। इसके विपरीत अगर सुशिक्षा की बात की जाय तो यह पाया जायेगा कि समय के बड़े पैमाने पर ऐसी प्रक्रियाएं पारस्परिक रूप से हितकर साबित होती है। सुशिक्षा का एक यह भी उद्देश्य होना चाहिए कि समय के साथ वैसी शिक्षा जिससे परस्पर लाभ न हो उसका Oास हो। अध्यात्मिक रूप से अगर इस पूरे मामले को देखा जाय तो जब तक प्राणी अपने को पर्यावरण से भिन्न मानता है और पर्यावरण को एक ऐसे शक्ति-स्रोत के रूप में देखता है जिससे वह अपने हित का विस्तार कर सके, तब तक जिस सुशिक्षा की बात की जा रही है वह निरर्थक होगी। प्राणी एवं पर्यावरण के बीच जब सीमाएं टूट जाती हैं तभी सुशिक्षा की अवधारणा विस्तृत रूप से परिलक्षित होने लगती हैं। यह सही है कि जिस सीमा की बात की गई है उसके टूटने के पूर्व उसके आकार का बड़ा होना आवश्यक है। मेरा यह मानना है कि अगर प्राणी निरन्तर प्रयास करे तो वह अपने व्यक्तित्व के साथ-साथ इस सीमा के आकार को भी बड़ा बना सकता है। यह प्रयास निश्चित रूप से एक साधना है। साधना के दौरान यह आभास मिलता है कि प्राणी के अन्दर पर्यावरण का एक बड़ा अंग समाहित हो गया है। ऐसा होने से दोनों के बीच परस्पर विरोध के आयाम घटते हैं। इस स्तर से आगे आने पर ऐसी भी अनुभूति होती है कि एक ऊंचाई के पश्चात प्राणी सूक्ष्म रूप बन कर किसी बहुत बड़ी आकृति (पर्यावरण से भी बड़ी) का एक अंग बन गया और उसमें इस हद तक समाविष्ट हो गया कि दोनों में कोई अन्तर ही न हो। शायद यह वह दशा होती है जब जिन सीमाओं को मिटाने की बात कही जा रही है वह यथार्थ में मिट जाती है। सुशिक्षा की नियति ही है कि वह प्राणी एवं पर्यावरण के बीच विनिमय को ú तक पहुंचाये। हम आज तक ऐसे मुकाम पर हैं, जहां पूरी व्यवस्था कई प्रकार की समस्याओं से ग्रसित हो गई है और कभी-कभी मानव भविष्य बुरी तरह विध्वंसकारी अंधकार के रूप में दिख पड़ता है। असाध्य बीमारियां, विश्व के कुछ भागों में असह्य भूखमरी, कुछ अन्य भागों में अलगाववाद/आतंकवाद आदि ऐसी समस्याएं हैं जो निरन्तर उत्तर ढूंढ रही हैं। मानव प्रयासों के बावजूद इनका उत्तर पूर्णतया नहीं पाया गया है। इस तात्कालिक विफलता से कई बार इतनी हतासा पैदा होती है कि चारो तरफ निराशा एवं अंधकार दिखने लगता है। मनुष्य जिन निराकरणों की तलाश में है उन सब का आधार सुशिक्षा है। सुशिक्षा के यंत्र के रूप में टेक्नोलाजी उभर कर आयी है और इसके माध्यम से कुछ समस्याओं का निदान निश्चित रूप से मिला है। उदाहरणस्वरूप संवाद प्रेषण की तकनीकों में व्यापक विस्तार होने से पूरे विश्व में सभी प्रकार के संवाद का आदान-प्रदान हो रहा है। इससे ज्ञान/जानकारी सहज रूप से उपलब्ध हो जा रही है। विनिमय इतना पारदर्शी एवं सहज हो गया है कि समस्त विश्व इसका लाभ उठा पा रहा है। अगर इतिहास में झांके तो ज्ञान मुट्ठी भर लोगों के बीच सिमट कर रह जाता था। उसका लाभ अन्य उठा नहीं पाते थे। ये मुट्ठी भर लोग अर्जित ज्ञान को अपनी व्यक्तिगत धरोहर के रूप में रखते थे। ऐसी शिक्षा निरर्थक थी। आज विश्व भर में संवाद प्रेषण की तकनीक से सुशिक्षा का विकास हुआ और प्राणी तथा पर्यावरण में पारस्परिक लाभदायक विनिमय से कई समस्याओं का निदान हो पाया। ऐसे कई दृष्टान्त सामने आये हैं जब विभिन्न देशों में कार्यरत चिकित्सकों ने एक-दूसरे से इस तकनीक के माध्यम से संपर्क कर असाध्य बीमारियों का इलाज ढूंढा है। यह सुशिक्षा का ज्वलंत उदाहरण है, जहां एक व्यक्ति अपने ज्ञान को इस तरह विस्तारित करता है, जिससे कि पूरी मानवजाति को उसका लाभ मिल सके।जिन समस्याओं के संबंध में बातें की गई हैं उनका निदान अगर आने वाले कुछ दशकों में सुशिक्षा के माध्यम से नहीं हो पाया तो संभवत: यह समाज विध्वंस एवं अंधकार में प्रविष्ट हो जायेगा। इसके विपरीत अगर सुशिक्षा के माध्यम से तकनीकी निदान हो पाया तो यह व्यवस्था कई गुणा अधिक त्वरण से भविष्य की ओर बढ़ जायेगी। आज मानव जाति के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह न केवल सुशिक्षा की कामना एवं प्रार्थना करे बल्कि ऐसा कोई भी कर्म न करें जिससे कि उसके रास्ते में कोई विघ्न उत्पन्न हो।


रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Saturday, December 29, 2007

तारे जमीन पर और भी हैं

आमिर खान द्वारा निर्देशित " तारे जमीन पर " पर देखा ! मेरी नज़र मे यह और "चक दे इंडिया " २००७ की कुछ कमाल के सिनेमा हैं ! यह संतोषजनक है की अब व्यावसायिक सिनेमा भी संदेश देने लगे हैं ! आमिर खान कमाल के एक्टर हैं और "तारे ज़मीन पर " से उन्होने यह भी दिखाया है की वह एक कुशल निर्देशक हैं ! वैसे आमिर खान ने सिनेमा के प्रचार मे भी काफी समय और बहुत कुछ "मीडिया" को दिया है !
आम आदमी की जिन्दगी से जुडी और बिना किसी लटके झटके के भी एक सफल सिनेमा दिखाया जा सकता है - तारे ज़मीन पर संवेदना से भरपूर सिनेमा है जिसमे पैसा वसूल के साथ साथ कई संदेश एक साथ नज़र आएंगे ! आपको अपने बच्चों के साथ साथ अपना बचपन भी नज़र आएगा ! आपके कई गुरुजन भी नज़र आएंगे ! और अगर आप थोडा भी संवेदनशील हैं तो रुमाल को साथ ले जाना नही भूलियेगा ! महिलाएं , बाल्टी भी ले जा सकती हैं ! मध्यमवर्ग के लिए यह सिनेमा देखना बहुत जरुरी है - क्योंकि आज़ादी के बाद यह वर्ग "शिक्षा" को सिर्फ और सिर्फ रोजगार के रुप मे देखता है - जिसके कारण समाज मे कई "साइड इफेक्ट" आ गया है ! और हमारे जीवन शैली , भाग दौड़ , पैसा- पैसा के खेल मे बच्चे काफी बुरी तरह से प्रभावित हैं ! महानगर तो और त्रशादी से गुजर रहा है - जिसके कारण अब " छोटे शहर " के बच्चों ने कमाल दिखाना शुरू कर दिया है !
आज के दौर मे "माँ" भी संवेदनशील है ! सिनेमा के साथ साथ सिनेमा हॉल मे भी मुझे यह नज़र आया ! मंहगे मोबाइल , कंधे पर लप टॉप और गला लटकता 'कम्पनी' का पट्टा होने के वावजूद लोग अपने बच्चों के साथ सिनेमा हॉल मे नज़र आये ! पटना से बिछुड़ने के बाद आज पहली दफा , सिनेमा खतम होने के बाद मैंने भी लप टॉप वालों के साथ जम कर ताली बजाया !
मल्टीप्लेक्स मे सिनेमा देखना काफी महंगा सौदा है - पर हम बच कैसे सकते हैं ? "मेट्रो समाज " के साथ भी तो चलना है ! :)
दिल्ली वालों के लिए खुशखबरी है की - वहाँ ये "टैक्स फ्री " है !

रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Thursday, December 27, 2007

बेनजीर की अंतिम बिदाई

( १९५३ - २००७ )
और आज बेनजीर भी चली गयीं ! अब वो खाक - ऐ - सुपुर्द हो जायेंगी ! कुछ तो वजह है - जब से पाकिस्तान का जनम हुआ - वहाँ कभी भी स्थिर सरकार नही रही और बहुत सारे राजनेता मारे गए !

हमे आज भी याद है १९९० का दौर जब उनका दुपट्टा और मुस्कान भारत मे भी काफी मशहूर हुआ था ! हम सभी उनको एक खानदानी और सभ्य महिला के रुप मे जानते थे ! उनके पिता भी काफी कड़क मिजाज थे और पाकिस्तान की राजनीती के शिकार हुए !

किसी भी राष्ट्र की तरक्की वहाँ की राजनीती स्थिरता मे है - यह बात अब पाकिस्तानी राजनेताओं को समझ लेनी चाहिऐ वरना २१ वी सदी की चाल मे वह कहीं अफगानिस्तान न बन जाएँ !
एक वीर महिला को हमारा अंतिम सलाम !

रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

लालू और मोदी

राजनेता किसी भी दल के हों - कोई भी विचारधारा हो - लेकिन यह सभी सिर्फ और सिर्फ अपने वोट बैंक के लिए ही 'नेतागिरी' करते हैं ! और इस वोट बैंक को इन नेताओं के लिए मजबूत करने मे दलाल की भूमिका "मीडिया" करता है !
मीडिया का लगातार प्रहार से कहीं न कहीं नरेन्द्र भाई दामोदर मोदी को जबरदस्त फायदा हुआ ! यह प्रयोग पहली दफा नही हुआ था - बिहार मे लालू के समर्थन मे मीडिया ऐसा "महिनी" खेल , खेल चूका है ! निर्दोष की बलि पर अपनी रोटी सेंकना - अघोरी हो गए हैं - ये सब !
क्या मीडिया को यह पता नही था की वह जितना विरोध मोदी का करेंगे मोदी उतना ही मजबूत होंगे ! बिहार मे क्या हुआ था ! जब तक लालू खुलेआम मंडल के बहाने सवर्ण को निशाना बना रहे थे और मीडिया आग उलग रही थी और लालू और मजबूत होते जा रहे थे ! फिर अचानक आप लल्लू के आगे नतमस्तक हो गए क्योंकि कई सवर्ण नेता लालू के साथ हो चले और बिहार के घोर जातिवाद के शिकार मीडिया के नए नायक बन गए - लालू !
क्या पटना मे बैठे पत्रकारों को यह नही पता है की अयोध्या के राम मंदिर के निर्माण मे जाने वाले "राम शिला" का पहला पूजन कौन और कहाँ करता है ! आप किसको बेवकूफ बनाते हैं ? चंद पैसा खा कर आप अपना जमीर बेचते हैं !
मुझे लालू और मोदी मे कोई भी फरक नज़र नही आता है ! जहाँ बिहार मे लालू ने सरकारी प्रायोजित कार्यक्रम मे भूमिहारों को मरवाया वहीं गुजरात मे मोदी ने दंगा करवाया ! लालू ने भी भूमिहारों को "कश्मीरी आतंकवादी" कहा ! सेनारी मे सहन्भुती के रुप मे जाने से मन कर दिया ! सं १९९२ मे बारा गाँव मे १०० के करीब भूमिहार मारे गए - पुरस्कार फलस्वरूप तत्कालीन पुलिस मुखिया के भाई को राज्यसभा भेज दिया गया !
देखिए , देश की जनता को बेवकूफ बनाना छोड़ दीजिए ! एक तरफ आप मोदी को समाचार पत्र और टेलीविजन मे गाली देते हैं और दूसरी तरफ मोदी के जितने का जश्न भी ! मुकेश भैया और सोनिया बेन के पैसा का लाज रखिये !

रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Monday, December 24, 2007

ई साल भी जा रहा है !

देखते देखते २००७ भी बीत गया ! अभी सोचने बैठा की इस साल मैंने क्या क्या किया ? सोचते सोचते ऐसा लगा की साल भर दालान मे खटिया पर बैठ कर सिर्फ सोचा ही हूँ ! सोचना भी एक कला है - हर कोई नही सोच सकता है ! गदहा - बैल को कभी किसी ने सोचते देखा है ?
चिंतन करना स्वाभाविक है ! मनुष्य मे जनम लिए हैं तो चिंतन करना जरुरी है ! लेकिन चिंतन करने मात्र से पेट नही भरता है ! लेकिन कर्म का मतलब भी यह नही की आप - हम गदहा - बैल बन जाएँ ! लेकिन युग ऐसा आ गया है की बिना गदहा - बैल बने हुए कोई गुजारा नही है !
अब क्या किया जाये ?
रुकिए , खटिया को थोडा झार दें ! बहुत खटमल हो गया है ! रात भर सुते नही देता है !
२२ दिसम्बर को दिन सबसे छोटा होता है - लेकिन इसको "बड़ा" दिन क्यों कहते हैं ?
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Thursday, December 20, 2007

दिनकर की सांस्कृतिक दृष्टि



इस वर्ष रामधारी सिंह दिनकर की जन्म शताब्दी है। आधुनिक हिंदी कविता में उनका विशिष्ट स्थान है। कुछ लोग उन्हे छायावादी काव्य का प्रतिलोम मानते है, किंतु इसमें किसी को संदेह नहीं है कि दिनकर ने हिंदी काव्य जगत को उस पर छाए छायावादी कल्पनाजन्य कुहासे से बाहर निकाल कर प्रवाहमयी, ओजस्विनी कविता की धारा से आप्लावित किया। गद्य के क्षेत्र में उनका लगभग 700 पृष्ठों का 'संस्कृति के चार अध्याय' ग्रंथ अपने आप में एक विशिष्ट रचना है। यह ग्रंथ उनके गहन अध्ययन और उसमें से निर्मित दृष्टि को स्पष्ट करने वाली रचना है। दिनकर ने संपूर्ण भारतीय इतिहास और सांस्कृतिक विकास को चार कालखंडों में विभाजित करके देखा। लेखक की मान्यता है कि भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रांतियां हुईं। पहली क्रांति आर्यो के भारत में आने और उनके आर्येतर जातियों से संपर्क में आने से हुई। आर्य और आर्येतर जातियों से मिलकर जिस समाज की रचना हुई वही आर्यों अथवा हिंदुओं का बुनियादी समाज बना और आर्य तथा आर्येतर संस्कृतियों के मिलन से जो संस्कृति उत्पन्न हुई वही इस देश की बुनियादी संस्कृति बनी। आर्य कहीं बाहर से इस देश में आए अथवा वे मूलरूप से यहीं के वासी थे, इस संबंध में लंबे समय से बहस होती आ रही है। इतिहासकारों का एक वर्ग मानता है कि आर्य मध्य एशिया, या उत्तरी धु्रव से भारत में आए। कुछ इतिहासकार मानते है कि आर्य इसी भूमि के निवासी थे। मैंने अनेक वर्ष पूर्व डा. संपूर्णानंद की लिखी एक पुस्तक पढ़ी थी-'आर्यो का आदि देश'। उनकी मान्यता थी कि आर्य मूल रूप से सप्त सिंधु प्रदेश के निवासी थे। सात नदियों का यह प्रदेश उत्तर में सिंधु नदी, बीच में पंजाब की पांच नदियों और उसके नीचे सरस्वती नदी से बनता है। इस दृष्टि से इस देश में एक बहुत संवेदनशील वर्ग भी है। आर्यो के बाहर से आने की थीसिस को वे पश्चिमी इतिहासकारों और उनसे प्रभावित कुछ भारतीय इतिहासकारों का षड्यंत्र मानते है।
दिनकर की मान्यता थी कि आर्य मध्य एशिया से आए थे। दिनकर ने आर्य और आर्येतर संस्कृतियों के मिलन की अपने ग्रंथ में व्यापक चर्चा की है। उनका कहना है कि सभ्यता यदि संस्कृति का आदिभौतिक पक्ष है तो भारत में इस पक्ष का अधिक विकास आर्यो ने किया है। इसी प्रकार भारतीय साहित्य के भीतर भावुकता की तरंग अधिकतर आर्य-स्वभाव के भावुक होने के कारण बढ़ी, किंतु भारतीय संस्कृति की कई कोमल विशिष्टताएं, जैसे अहिंसा, सहिष्णुता और वैराग्य-भावना द्रविड़ स्वभाव के प्रभाव से विकसित हुई हैं। वैदिक युग के आर्य मोक्ष के लिए चिंतित नहीं थे, न वे संसार को असार मानकर उससे भागना चाहते थे। उनकी प्रार्थना की ऋचाएं ऐसी है, जिनसे पस्त से-पस्त आदमियों के भीतर भी उमंग की लहर जाग सकती है। वर्ण-व्यवस्था के संबंध में उन्होंने लिखा है कि वर्ण का निर्धारण पहले व्यवसाय, स्वभाव, संस्कृति के आधार पर ही था। पीछे जातिवाद के प्रकट होने पर वर्ण का आधार भी जातिगत हो गया।
दिनकर के अनुसार दूसरी क्रांति तब हुई जब महावीर और गौतम बुद्ध ने स्थापित वैदिक धर्म या संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया। बुद्ध के समय और उनके ठीक पूर्व इस देश में वैरागियों और संन्यासियों की संख्या बहुत बढ़ गई थी। उन दिनों के समाज में प्राय: दो प्रकार के लोग थे। एक तो वे जो यज्ञ मात्र को ही इष्ट मानकर वैदिक धर्म का पालन करते थे, किंतु जो लोग इस धर्म से संतुष्ट नहीं होते थे वे संन्यासी हो जाते थे और हठयोग की क्रिया से देह-दंडन करने में सुख मानते थे। यज्ञों में दी जाने वाली पशु बलि की अधिकता से उत्पन्न विक्षोभ को जैन और बौद्ध धर्मो के रूप में वैदिक धर्म के विरुद्ध विद्रोह कहा जाता है। दोनों ही धर्म वेद की प्रामाणिकता को अस्वीकार करते है। दोनों का ही विश्वास है कि सृष्टि की रचना करने वाला कोई देवता नहीं है। आमतौर पर यह माना जाता है कि जैन और बौद्ध मत वेदों की मान्यता को स्वीकार नहीं करते थे, इसलिए वे नास्तिक थे, किंतु दिनकर ने इस मान्यता का खंडन किया है।
भारत में इस्लाम के आगमन, हिंदुओं से उसके संबंध, उसकी टकराहट और विग्रह का इतिहास एक हजार वर्ष से अधिक पुराना है। यह संपूर्ण प्रसंग भ्रांतियों और संवादहीन अवधारणाओं से भरा हुआ है। 'संस्कृति के चार अध्याय' में इस तीसरे अध्याय पर बड़े विस्तृत और अध्ययनपूर्ण ढंग से विचार किया गया है। दिनकर ने यह प्रश्न उठाया है कि कौन सी वह राह है जिस पर चलकर हिंदू मुसलमान के और मुसलमान हिंदू के अधिक समीप आ सकता है। दिनकर का कहना है कि गजनवी और गोरी के साथ जो इस्लाम भारत पहुंचा वह वही इस्लाम नहीं था जिसका आख्यान हजरत मुहम्मद और उनके शुरू के चार खलीफों ने किया था। लगभग दो सौ पृष्ठों में लेखक ने इस्लाम के आगमन, पृष्ठभूमि, इस देश की संस्कृति पर पड़े उसके प्रभाव समीक्षा की है।
इस ग्रंथ का बहुत महत्वपूर्ण चौथा अध्याय भारतीय संस्कृति और यूरोप के संबंध पर आधारित है। सबसे पहले पुर्तगाली भारत आए। फिर डच, फ्रांसीसी और अंग्रेज इस देश में व्यापार करने आए और उपनिवेश स्थापित करने लगे। धीरे-धीरे सारे देश पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। पश्चिमी संसार के संपर्क में आने के पश्चात भारत में किस प्रकार शिक्षा का विस्तार हुआ, इस पर भी इस अध्याय में चर्चा है। अंग्रेजों के साथ बने संपर्क ने इस देश की जनता में किस प्रकार आत्म-चेतना उत्पन्न की, किस प्रकार विभिन्न समुदायों में पुनर्जागृति की भावना उत्पन्न हुई, इसका विश्लेषण भी इस अध्याय में है। भारत की संस्कृति का मुख्य गुण उसका सामाजिक स्वरूप है। इसे समझने में दिनकर की यह कृति हमारी बहुत सहायता करती है। दिनकर की अनेक मान्यताओं से मतभेद हो सकता है, किंतु यह निश्चित है कि इस देश की सामाजिक संस्कृति को समझने के लिए यह बहुत सार्थक प्रयास था। [डा. महीप सिंह, लेखक जाने-माने साहित्यकार हैं]

रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Tuesday, December 11, 2007

बहुत ठंडा है !!!

"दिल्ली" गजब का जगह है ! यहाँ सर्दी भी जम के पड़ती है और गर्मी भी ! लेकिन पैसा के कारण गर्मी-सर्दी का फरक बहुत लोगों पर नही पङता है ! हम जैसे "पेट-भरुआ" लोग को बहुत ठंडा लगता है !
नवम्बर के आस पास ही सोनपुर मेला लगता था ! वहाँ हम लोग का एक टेंट गड़ता था ! गाँव के गोतिया - पट्टीदार , रिश्ते -नाते , हित कुटुम सभी लोग आते थे ! कोई मवेशी खरीदने आता था तो कोई "थियेटर" देखने ! वार्षिक परीक्षा देने के बाद हम भी पहुंच जाते थे ! बाबा पहले से पहुंचे होते थे ! " १९९० " के आस पास तक हाथी था ! हर साल खरीद बेच होता था ! यह एक तरह का बिजिनेस था ! कम दाम मे खरीदना और एक साल खिला पिला के ऊँचा दाम मे बेच देना ! इसका श्रेय हमारे महावत "अल्शेर मियां जी" को जाता था ! लोग कहते थे की वैसा महावत राजा राजवादा के पास भी नही होता था ! बाबा खुश हो कर १९८० मे उनको हमारे गाँव का मुखिया बना दिए थे ! अब वह नही रहे - मेरी तरह ही उनके बच्चे भी कहीं दूर , घर से मीलों दूर - अपनी रोजी रोटी कम रहे हैं !
हम लोग सुबह सुबह पटना से सोनपुर मेला पहुंच जाते थे ! वहाँ दुकान से पूरी - जिलेबी आता था ! या फिर railway कैंटीन से मस्त नास्ता ! फिर दिन भर घुमाना , कभी मीना बाज़ार तो कभी कृषि बाज़ार ! रात मे खंसी के मीट के साथ लिट्टी ! बडे बडे लोग टेंट मे आते थे ! "बच्चा बाबु " के परिवार का कोई आया तो उनका भरपूर स्वागत होता था ! "हवा-पानी " पुरा टाईट रहता था ! सर्कस से मद्रासी सब भी अपना हाथी लेकर आते थे ! केरल वाले भी होते थे ! वहाँ हाथी के दलाल भी होते थे ! किसी मद्रासी के हाथी के सामने खडा होजाते थे - कोई ग्राहक आया तो दलाल ने भोजपुरी / हिन्दी मे बोल दिया की - हाथी बिक चूका है ! बेचारा मद्रासी १५ दिन मे औने पौने दाम मे अपना हाथी बेच कर चला जाता था ! १९८० के दसक से पंजाब से जर्सी गाय भी आने लगी ! मेरे परिवार मे भी एक खरीदाया था - दूर दूर से लोग देखने आते थे !
अंतिम दफा मेला १९९७ मे गया था ! घर से कोई नही आया था ! लेकिन मैं हाथी बाज़ार के उस जगह गया जहाँ कभी हम लोग का पारिवारिक टेंट लगता था ! रुलाई आ गयी !
दिसम्बर मे हम लोग गाँव जाते थे - बड़ा दिन के छुट्टी मे ! दरवाजा पर " आग का घुर" लगता था ! हम सभी भाई लोग उस आग मे "अलुआ" को पका के खाते थे !
वक़्त कभी नही बदलता है ! वक़्त स्थिर है ! शान शौकत को बरकरार रखने के लिए - आपके पास ज़माने के हिसाब से "पैसा" होना बहुत जरुरी है !
जम के पैसा कमाइये और ऐश कीजिए !

रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Monday, November 19, 2007

ढोल बाजे !!!!

छठ पूजा के शुभ अवसर पर दिल्ली के बिहारिओं ने अपने लोक कलाकारों को बिहार से बुलवाया ! कई जगह इस तरह के कार्यक्रम हुए ! एक जगह पर मुझे जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ! "मगही" सांस्कृतिक मंच ने "मगध" से कई कलाकार बुलवाये ! आयोजन बहुत बड़ा तो नही था - लेकिन यह शुरुआत अपने आप मे प्रशंशिये हैं ! बिहार के मगध से आये इन कलाकारों को राष्ट्रिये राजधानी क्षेत्र मे एक अवसर देना - काबिले तारीफ है ! करीब ३० लोक कलाकारों को लाना और उनके कला को समान्नित करना ! "गौरवशाली बिहार" के संयोजक श्री संजय शर्मा और संजय साही कहते हैं - "घर तो छुट ही गया - हम अपनी संसकृति बचा लें - यही हमारी कोशिश रहेगी " !
इन लोगों ने आम्रपाली ग्रुप के मुखिया श्री अनिल शर्मा को आमंत्रित किया था - जो खुद मगध से आते हैं ! उन्होने ने कहा - "मैं हर वक़्त आपके साथ हूँ - घर से कोसों दूर अपने लोगों के बीच अपनी संसकृति और लोक गीत का आनद उठाना - अपने आप मे एक सौभाग्य है " !
सभ्यता और संसकृति हमारी पहचान है ! अभी हाल मे ही इंटरनेशनल एअरपोर्ट पर गया था - वहाँ एक जोडा को सिंगापुर से आते हुए देखा - पाया की वह दोनो अपनी मत्री-भाषा मे बातें कर रहे थे ! मुझे उनकी मीठी बोली "मैथली " बहुत अछ्छी लगी और मैंने टोक दिया - पता चला वह "मनागेमेंट कांसुल्तंत" है - और अमरीका से वाया सिंगापुर आ रहे हैं ! अमेरिका मे ही पढ़ाई लिखाई हुई है ! धन्य है वह माता पिता जिसने ऐसे संस्कार दिए जिसके कारन आपके निजी जिन्दगी पर दूसरों का लेप नही चढ़ सका !
कल देखा - मेरा बेटा भी बाथरूम मे एक भोजपुरी गाना गा रहा था !


रंजनऋतुराज सिंह , नॉएडा

Saturday, November 17, 2007

हे ! छठी मैया !



ऊपर वाले फोटो को सिएटल टाईम्स ने अमरीका मे प्रकाशित किया है ! यह हमारी श्रद्धा , बिस्वास , शुद्धता को बयां करता है ! खबरिया चैनल वालों ने भी कल कुछ खास प्रोग्राम भी दिखाया ! दोपहर मे जी न्यूज़ वालों का स्पेसल प्रोग्राम आ रहा था ! देखते देखते ही आंखों से आंसू आने लगे ! सहारा समय भी दिखाया !
एक खास चॅनल जिसको बिहार मे सिर्फ गूंडा तत्व ही नज़र आते हैं और उनके स्पेशल संपादक जो खुद बिहार के रहने वाले हैं और नीतिश काल मे वह बिहार नही गए हैं , ने छठ पूजा को भरपूर नज़र-अंदाज़ करने की कोशिश की !
खैर - सबकी अपनी अपनी श्रद्धा है ! अब वह दिन दूर नही है जब मन्हात्तन की गलियों मे बिहारी भाई - बहन अपने माथा पर "डाला" उठा कर , नंगे पाँव निकलेंगे !
एक पंजाबी अमेरिका जाता है - पुरा गाँव चला जता है !



रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Friday, November 16, 2007

आस्था व भक्ति का केन्द्र नोनार का सूर्य मंदिर

पीरो (भोजपुर)। पीरो अनुमंडल मुख्यालय से सटे आरा-सासाराम मुख्य मार्ग पर नोनार गांव स्थित प्राचीन सूर्य मंदिर क्षेत्र के लोगों के बीच आस्था एवं भक्ति का महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया है। प्रकृति के सुरम्य वातावरण में कोलाहल से दूर बसे इस सूर्य मंदिर का महत्व कार्तिक एवं चैती छठ के अवसर पर काफी बढ़ जाता है। इस दौरान यहां आसपास के गांवों के अतिरिक्त सीमावर्ती बक्सर एवं रोहतास जिले के श्रद्धालु लोग भी छठव्रत करने के लिए बड़ी संख्या में जुटते हैं। ग्रामीण बताते हैं कि इस सूर्य मंदिर का निर्माण दशकों पूर्व अयोध्यावासी महात्मा निराला बाबा की देखरेख में स्थानीय लोगों के सहयोग से कराया गया था। यहां मंदिर के गर्भ गृह में स्थापित संगमरमर की बनी भगवान भास्कर की प्रतिमा अपने आप में अद्वितीय है। वही मंदिर के समीप बाबन बीघा का पोखरा लोगों के बीच आकर्षण का केन्द्र होता है। बताया जाता है कि नोनार गांव के लोगों द्वारा दान में दी गयी जमीन पर खुदाई कर, इस विशाल पोखरा का निर्माण कराया गया है जबकि ग्रामीणों द्वारा चंदा में मिली राशि से पक्के घाटों का निर्माण हुआ है। लेागों के बीच ऐसी मान्यता है कि यहां आकर पूरे मनोयोग से छठ का व्रत करने वालों की हर मनोकामना पूरी होती है। कई नि:संतान दम्पतियों द्वारा यहां छठ करने के पश्चात उन्हें पुत्र रत्‍‌न की प्राप्ति होने से इस सूर्य मंदिर के प्रति लोगों की आस्था और बढ़ गयी है। यहां आने वाले छठ व्रतियों की सुविधा को ध्यान में रखकर सभी आवश्यक व्यवस्था नोनार गांव के लोगों द्वारा ही की जाती है। नोनार गांव निवासी बीरेन्द्र राय बताते हैं कि इस साल यहां छठव्रतियों के लिए पेयजल, चिकित्सा एवं प्रकाश व्यवस्था हेतु स्थानीय नवयुवकों द्वारा विशेष तैयारी की गयी है।


ranJan rituraJ sinh , NOIDA

Thursday, November 15, 2007

ऐतिहासिक धरोहरों को समेटे है देवचंदा का सूर्य मंदिर

बिहार की पावन पवित्र धरती पर एक से बढ़कर एक सूर्य मंदिर है पर तरारी प्रखंड के देव (चंदा) गांव का प्राचीन सूर्य मंदिर न केवल ार्मिक बल्कि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी काफी महत्वपूर्ण है। जिससे हजारों लोगों की आस्था जुड़ी है। ऐसे में यह मंदिर पूरे शाहाबाद प्रक्षेत्र सहित आसपास के इलाकों में लोगों के बीच प्रसिद्ध है। भोजपुर जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर दक्षिण कुरमुरी नहर लाइन के किनारे देव गांव में अवस्थित यह प्राचीन सूर्य मंदिर चौदहवीं शताब्दी में निर्मित बताया जाता है। हालांकि इसका लिखित ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है फिर भी मंदिर की बनावट एवं यहां स्थापित मूर्तियों के कलाकृति से यह अनुमान लगाया जाता है कि यह मंदिर सल्तनत काल में ही स्थापित किया गया है। ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण यह सूर्य मंदिर प्रशासनिक उपेक्षा के कारण इन ऐतिहासिक धरोहर की ओर आज तक पुरातत्ववेत्ताओं का ध्यान भी केन्द्रित नहीं हो पाया है। वर्तमान में मंदिर का अवशेष एक आयताकार ऊंचे टीले पर अवस्थित है जिसका क्षेत्रफल लगभग 35 डिसमिल भूमि पर फैला है। टीले के दक्षिणी सीमा पर प्रधान मंदिर अवस्थित है। सतह पर मंदिर की स्थिति लगभग 16 फीट लंबी एवं 16 फीट चौड़ी है। लगभग 30 फीट ऊंचे गुम्बज वाले इस मंदिर का द्वार परंपरानुसार पूरब की ओर है। गर्भ गृह के पश्चिमी दीवार से सटे पांच चबूतरे बने है जो सीमेंट से निर्मित एक सुंदर रथ से जुड़ा है। इस चमकीले रथ पर एक सारथी की आकृति बनी है। प्रधान मंदिर से सटे पूरब तरफ 30 फीट लंबा प्रांगण है जो यहां निर्मित सभा भवन का अवशेष बताया जाता है। यह विशाल प्रांगण ईट की दीवार से घिरा है। इस प्रांगण में दीवार के सहारे कई प्राचीन मूर्तियां टीकाकर रखी गयी है। बालू पत्थर से निर्मित ये मूर्तियां यहां समय-समय पर हुई खुदाई से प्राप्त हुई है। मूर्तियों की बनावट से इनकी प्राचीनता का एहसास होता है। देव गांव स्थित इस प्राचीन मंदिर के साथ कई आश्चर्यजनक तथ्य जुड़े है। मंदिर को बाहर से देखने पर ऐसा लगता है कि मंदिर के निर्माण में प्रयुक्त ईटे परस्पर एक-दूसरे पर बिना किसी जोड़ के रखा गया है जबकि बारीकी से निरीक्षण करने पर इसके अंदर सूर्खी चूना दिखाई पड़ता है। मंदिर के दीवार की इस तरह जुड़ाई तत्कालीन कारीगरों की काबिलियत को दर्शाती है। मंदिर के गर्भ गृह में वृत्ताकार ईट से निर्मित क्रमश: एक-दूसरे से छोटे परस्पर उभरे हुए 23 वृत्त है। बुजुर्गो के अनुसार प्राचीन मंदिर के दरवाजे के पास से ही एक भूमिगत रास्ता यहां से 300 मीटर दूर स्थित विशाल जलाशय तक जाता था, जो अब पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है। देव गांव तक पहुंचने के लिए कुरमुरी नहर लाइन के समानांतर बनी सड़क आज भी जर्जर स्थिति में है जिसे पर सफर करना दुष्कर कार्य प्रतीत होता है। सूर्य मंदिर के आसपास पेयजल, बिजली, धर्मशाला आदि की कोई व्यवस्था नहीं है जिससे यहां छठ करने के लिए आने वाले बाहरी लोगों को भारी परेशानी झेलनी पड़ती है। सिकरहटा पंचायत के मुखिया ऋषिदेव सिंह के अनुसार इस प्रसिद्ध तीर्थ स्थल को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने के लिए बिहार राज्य पर्यटन विभाग के निदेशक आनंद किशोर के पास सुझाव भेजा गया था लेकिन पर्यटन विभाग द्वारा इसकी अनदेखी किये जाने से अभी तक इसके कायाकल्प की संभावना तक दिखाई नहीं पड़ती है।



रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा