Sunday, July 25, 2010

मेरा गाँव - मेरा देस- "फैशन" - भाग नौ

अभी हाल में ही एक 'धनी व्यापारी' दोस्त के साथ एक पांच सितारा होटल में आयोजित फैशन शो में गया था - भारत के एक मशहूर 'फैशन डिजाइनर'' को बात ही बात में मैंने 'दर्जी' बोल दिया और मामला बढ़ गया - क्योंकि उसने बहुत पी रखी थी - हुआ हंगामा और मै चुपके से दोस्त की बड़ी लंबी गाड़ी में जा बैठा :)

खैर चलिए - फैशन की बात करते हैं ! बचपन की बात है - रेडीमेड का जमाना नहीं था ! मुजफ्फरपुर के मोतीझील के बंका मार्केट में पिता जी के स्कूल ज़माने के एक दोस्त हुआ करते थे - जो कुछ वो सील दिया करते - हम लोग पहन लेते ! वो जमाना  "बेलबॉटम" का था ! "मामा-चाचा" टाईप आइटम  'बेलबॉटम' पहनते थे ! नीचे 'मोहरी' में चेन लगा हुआ ! ऐसा लगता की सड़क सफाई के लिए बना है !  कुत्ता के कान की तरह वाला शर्ट का "कॉलर" और छींटदार कपड़ा - "बॉबी प्रिंट" ! बेलबॉटम उनीसेक्स था - महिलाएं भी पहनती थी - "नीतू सिंह" टाईप !

फैशन की समझ "नौवीं" कक्षा में आया - तब के साल में दो बार "कपड़ा" जरुर खरीदा जाता था - "होली और छठ" में ! कंकडबाग में एक दूकान होता था - सुशवी ! वहाँ आया हुआ था - "स्टोन वाश" - मै पुरे पटना में पहला आदमी हूँगा जिसने "स्टोन वाश" ख़रीदा होगा :) घर आया तो बाबु जी बोले " ऐसा कपडा पहनोगे तो कुत्ता भौंकने लगेगा " !

तभी के समय फैशन आया था - मिथुन चक्रवर्ती स्टाईल 'बिना कलम का बाल " और फूल पैंट में आगे कोई पौकट नहीं ! एक चाचा थे - जो "बीरगंज" से "हारा का जींस" खरीद लाते - मै भी एक बार उनके साथ लटक कर 'बीरगंज' जा पहुंचा और पहली बार विदेशी जींस पहनी !

+ २ में गया तो "क़यामत से क़यामत" तक आयी ! उस वक्त एक लहर आया ' काला पैंट और पीला शर्ट " का ! जिसको देखो वही पहन रखा है ! मैंने कभी नहीं पहना ! फिर आया "बैगी पैंट " का जमाना ! कंकडबाग वाला "सुशवी" दूकान वाला तब तक मुझे पहचान लिया था - और फिर एक बार उसने मुझे 'बैगी' थमा दिया ! मुझे चेक बैगी पैंट में देख पिता जी के एक दोस्त बोले  "क्या तुमने अपने बाबु जी का पैंट पहन रखा है  ? " बड़ी हंसी आयी थी :)

सफारी सूट बहुत पोपुलर होता था - यह ड्रेस बैंक अधिकारिओं के लिए डिजाईन किया गया था - पर यह शादी विवाह में बहुत पोपुलर हो गया - जो शादी में "सूट" नहीं सिलवा पाता वो 'सफारी सूट" जरुर सिलवाता - और धीरे - धीरे सफारी का पैंट की जगह 'लूंगी' ले लेता था :) बड़ा ही बेजोड कम्बिनेशन था ;) स्सफारी सूट और हाथ में एक ८ इंच का कला बैग - भर मुह पान - पतली मुछ ;)
तभी के समय मैंने कुछ जबरदस्त 'कॉटन' के बहुत सारे  ढीले शर्ट ख़रीदे थे ! टाईट जींस - खूब ढीला - स्टार्च डाल के आयरन किया हुआ - शर्ट और बी एन कॉलेज के सामने से खरीदा हुआ बीस रुपईया में 'गॉगल्स' - साथ में दोस्त का माँगा हुआ 'इंड सुजुकी' ! ऐसा लगता था की 'पटना के असली राजकुमार' हम लोग ही हैं - अब बड़ी हंसी आती है ;) वैसे मेरी साईकिल भी बड़ी डिजाईनदार होती थी !

स्नातक में गया तो वहाँ भी फैशन जारी रहा - पर मैंने कभी भी अपने जूता में घोडा का नाल नहीं डलवाया ;) कभी हाई हील जूता या खूब नुखिला जूता नहीं पहना ! पर मित्र मंडली में ऐसे लोगों की कमी नहीं थी :) बंगलौर के 'विअर हॉउस' के सेल्समैन भी पहचानने लगे थे :) एक खासियत थी - फैशन के वावजूद - ड्रेस का सोबरनेस कभी नहीं गया ! स्नातक के दौरान ही ' एरो और लुईस फिल्लिप ' टेस्ट लगा जो आज तक कायम है ! १० साल से 'विल्स' पसंदीदा है ! अपने कपड़ों को बड़े ही सहेज कर रखता हूँ - मौका मिले तो खुद हाथों से धोता हूँ और आयरन भी करता हूँ :)

"यूँ ही कुछ कुछ लिख दिया हूँ - ज्यादा गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है "

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Friday, June 11, 2010

मेरा गाँव - मेरा देस - भाग आठ

आखिरकार वो कैसी घड़ी रही होगी - जब मोहनदास करमचंद गाँधी - सूट बूट में - चमड़े की सूटकेस और अंग्रेजों की चाबुक ! बैरिस्टर साहब की जिंदगी बदल गयी ! उस वक्त 'ब्लॉग' नहीं होता था - वरना वो अपनी बेइज्जती 'ब्लॉग' पर उतार शांत हो जाते ! खैर ...

क्षेत्रीयता क्या है ? जिंदगी की कुछ घटनाएँ याद हैं ! बात करीब १९८० की रही होगी ! मेरे गाँव में रेलवे स्टेशन नहीं था तो बाबा ने तत्कालीन सांसद स्व० नगीना राय को पत्र लिखा ! उन्होंने ने मदद किया और ५-६ साल में रेलवे विभाग ने एक 'हॉल्ट स्टेशन' पारित कर दिया ! पूरा गाँव खुश था ! पर एक दिक्कत आ गयी - बगल के गाँव वाले उस स्टेशन का नाम अपने गाँव पर रखना चाहते थे - जब यह नहीं हो पाया तो वहाँ के सब से बड़े आदमी ने कुछ 'पैरवी' लगा कर अपने दादा - परदादा के नाम पर 'स्टेशन' का नाम रख दिया ! दोनों गाँव में "आग लग गयी" ! जिनके नाम ये स्टेशन रखा गया - वो भी हमारी जाति के थे - पर यहाँ 'क्षेत्रवाद' उभर कर आ गया ! बाबा चुप थे ! आँखें नाच रही थी ! स्टेशन का उदघाटन का दिन आ गया ! 'तनाव' चरम सीमा पर थी ! उनलोगों ने किसी बड़े आदमी को बुला रखा था - उदघाटन के लिए ! और हमारा गाँव इस जीद पर अडा था की - स्टेशन का 'उदघाटन' मेरे बाबा ही करेंगे ! खैर , पहली ट्रेन रुकी और बाबा की उपस्थिती में स्टेशन चालू हुआ ! उस गाँव के लोग जो हमारी जाति ही नहीं एक गोत्र के भी थे - उनसे 'नेवता - पेहानी' काफी दिन तक बंद रहा !

कहाँ गया 'जातिवाद' ???

दूसरी घटना याद है ! मेरे गाँव में एक बहुत बड़ा "पोखर" है ! पूर्वजों ने उसको एक ब्राह्मण को दान दे दिया था ! वो ब्राह्मण नाव्ल्द हो गए ! उनके मरने के बाद उनकी पत्नी अपनी मायके रहने लगी ! बगल के गाँव में एक आदमी 'ठिकेदारी' से बहुत पैसा कमाया और उस विधवा से जमीन अपने नाम करवा लिया ! क्योंकि , वो पोखर करीब २०-२५ एकड़ में था सो मछली उत्पादन और आय का बहुत श्रोत हो सकता था ! पर एक दिक्कत थी - ब्राह्मण के नहीं रहने के हालत में - वो पोखर धार्मिक कामो में प्रयोग होने लगा और माल मवेशी को नहाने धुलाने में ! हिंदू वहाँ 'छट पूजा' करते थे ! पोखर के पछिम दिशा में बाबा ने मुसलमानों को बुला उनसे चंदा दिलवा - एक छोटी मस्जिद भी बनवा दी ! 'दान' दी हुई चीज़ थी - सो परिवार में किसी को कभी कोई लालच नहीं हुआ - अब वो पुरे गाँव का हो गया था ! पर , ठेकेदार एक दिन मछली मारने पहुंचा ! 'मेरा पूरा गाँव' हल्ला बोल दिया ! कागज़ी तौर पर वो मजबूत था - पर गांव को ये मंजूर नहीं था ! कोर्ट - कचहरी शुरू हुआ ! गाँव के हर घर पर उसकी आमदनी के अनुसार चंदा बाँध दिया गया ! सभी मंजूर कर लिए ! और ये 'मुकदमा' हारते - जीतते अंततः "पोखर" सार्वजनिक घोषित हुआ !

मैंने समाजशास्त्र किसी किताब में नहीं पढ़ी है ! १९८७ के बाद शायद की कोई किताब इन विषयों की पढ़ी हो ! पर , समाज के साथ रहा हूँ - पला बढ़ा हूँ , सो जो महसूस करता हूँ - लिखता हूँ !

मनोविज्ञान को भी नहीं पढ़ा ! पर इसी छोटी उम्र में हजारों लोगों से मिल चूका हूँ ! लोग किस किस अवस्था में कैसे सोचते हैं - पता है ! 

मैंने पहले भी कहा है - मंगल ग्रह पर कोई भी आदमी 'पृथ्वी' का अपना लगेगा ! अमरीका में बैठा 'पाकिस्तानी' करीबी लगेगा ! बंगलौर में 'यू पी ' वाला भाई लगेगा ! दिल्ली में 'बिहार के किसी भी जिले' का कोई भी अपना लगेगा ! बिहार में अपना जिला वाला प्यारा लगेगा ! अपने जिला में अपना गाँव वाला सब से नजदीकी होगा ! अपने गाँव में अपना घर वाला सब से निकट का महसूस होगा ! और परिवार के अंदर - अपनी बीवी - बाल बच्चों के हित में सोचूंगा और बीवी से झगडते वक्त - अपनी दलील पर कायम रहूँगा :)

इन्ही शब्दों के साथ ....

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Sunday, June 6, 2010

मेरा गांव - मेरा देस - ( सिनेमा - सिलेमा ) भाग सात

अभी अभी 'प्रकाश झा' की "राजनीति" देख लौटा हूँ ! शाम को फेसबुक पर बैठ - इस कोठी का चाऊर उस कोठी कर रहा था - तब तक एक मित्र ने फोन कर दिया की - 'सिनेमा चलना है - फिर क्या था :) झटपट जींस चढ़ाया - एक सफ़ेद टी पहना और चल दिया - घर के बिलकुल पास में ही 'शिप्रा मॉल' है ! खैर , मनोज वाजपेयी बेहतरीन दिखे ! ज्यादा क्या लिखूं ? बहुत लोग हैं - लिखने वाले ! चलिए आपको अपने युग में ले चलता हूँ :)

हलकी याद 'एक फूल दो माली' की है ! पर उस ज़माने में 'मध्यम वर्ग' फिल्म्ची होता था ! मुजफ्फरपुर में उस ज़माने में 'राजा हरिश्चंद्र' लगा था - बड़े बाबा को छोड़ हम सभी गए थे ! इस सिनेमा का प्रभाव और बाबु जी के डान्ट ने मुझे 'झूठ' बोलना छुडवा दिया :) बात १९७९ की रही होगी ! मुजफ्फरपुर में एक बहुत बड़ा सिनेमा हॉल बना था - " जवाहर पिक्चर पैलेश" - उसमे एक साथ - दो सिनेमा हौल होते थे - जवाहर डिलक्स और जवाहर मिनी - किसी बड़े व्यापारी ' राम उदार झा जी' का था ! उस सिनेमा हॉल की - पहली पिक्चर थी - " दुनिया मेरी जेब में " :) इंटरवल में जब 'ठंडा' बेचने वाला 'ओपनर' से सभी बोतलों पर आवाज़ निकलता था - मन ललच जाता था :) एक चाचा की शादी हुई थी - हर सफ्ताह सिनेमा का प्रोग्राम बनता था - बाबु जी के कई ममेरे - फुफेरे भाई बहन भी वहीँ साथ में रहते थे ! किसी को साइकील से दौड़ा दिया जाता था - टिकट कटा कर रखना ! सुबह में ही मोहल्ले के रिक्शा वाले को बोल दिया जाता और वो सिनेमा शुरू होने के एक घंटा पहले रिक्शा लगा देता था - माँ - फुआ - चाची लोग रिक्शा पर और हम बाबु जी के 'लैम्ब्रेटा' पर :)
सिनेमा खत्म होने के बाद - मन भारी हो जाता - कई सिनेमा तो सो कर ही निकाल दिए ! बाहर आते ही - सिनेमा के गाना का 'किताब' मिलता था !
एक दूर के फूफा जी होते थे - उनका टेंट हॉउस होता था - सो उनको सिनेमा हॉल वाले 'पास' देते थे ! धीरे - धीरे बाबु जी सिनेमा कम जाने लगे और हम सभी मुफ्त का 'पास' का आनंद उठाने लगे ! मेरा एक पसंदीदा स्वेटर होता था - 'मुकद्दर का सिकंदर' देखते वक्त 'हॉल' में ही छूट गया ! क्रांति आयी थी - ओफ्फ्फ ...कितना भीड़ था ..'शेखर टॉकिज' में ! ९ बजे वाला शो ११ बजे शुरू हुआ ! रात दो बजे हम सभी लौटे थे ! कभी कभी इतवार को "एक टिकट में दो शो" का भी ओफ्फर आता था ! हम ये अवसर कभी नहीं पा सके :(  उस वक्त की कई सिनेमा याद है - त्रिशूल , एक दूजे के लिए , दोस्ताना , जुदाई , लव स्टोरी और मालूम नहीं कितने !

एक दिक्कत और थी ! गाँव से कोई भी आता - वो शाम को गायब हो जाता - बाद में पता चलता की वो 'सिलेमा' देखने गया था :) एक दो सिनेमा ऐसे लोगों के साथ पर्दा के सबसे पास वाले सीट पर भी बैठ कर देखा है ! ब्लैक में टिकट लेना कभी शर्म तो कभी शान हुआ करती थी :) हमारे यहाँ "डी सी , बी सी , फर्स्ट क्लास , सेकंड और थर्ड क्लास होता था !

पटना आया तो - "उमा सिनेमा " के ठीक पीछे "नाना जी" का घर था ! रात में मामू जान लोग के साथ - शो मार दिया करता ! फिर कंकरबाग आया तो - "वैशाली" ! कई पुराने सिनेमा "वैशाली" में देखा - आरज़ू , दिल ही तो है और मालूम नहीं कितने और :) 

नौवीं में चला गया - दोस्तों ने जोर दिया - अमित जी का 'गिरफ्तार' आ रहा है - टिकट का इंतज़ाम हो जायेगा - चलना है ! किसी तरह "माँ" को मनाया - माँ ने बाबु जी को मनाया फिर बाबु जी ने माँ को हाँ कहा - माँ ने मुझे हाँ कहा तब जा कर 'मै' बड़ा हुआ और दोस्तों के साथ 'सिनेमा' देखा :)

टी वी भी आ चूका था ! सिनेमा की जरुरत भी कम हो गयी थी ! + २ में गया तो दोस्तों के साथ - एक ही स्कूटर पर पांच लोग सवार होकर 'मोना' का मोर्निंग शो देखने गए थे ! एक ने सिगरेट जला ली - कश पर कश दिए जा रहा था - मुझे बार बार अपने पिछडेपन का एहसास होता :(  खैर इसी बीच आ गए -"आमिर खान" साहब और "सलमान खान" - "क़यामत से क़यामत" करीब ८ बार तो जरुर देखी होगी ! ३-४ बार .."मैंने प्यार किया" ! इन दोनों सिनेमा का कैसेट भी खरीदाया ! अब के दौर में - वी सी आर - आने लगा ! वी सी आर - दहेज का प्रमुख आइटम हो गया ! "विडियो कोच" की इज्ज़त और डिमांड बढ़ गयी !

स्नातक में गया तो .. :) हर परीक्षा के तुरंत बाद पूरा का पूरा बैच 'सिनेमा हौल' में ! जिन दोस्तों की गर्ल फ्रेंड होती - वो हमें चिढाने के लिए  जरुर आते :(  सड़ा - गला किसी भी तरह का सिनेमा - पूरा हॉल 'धुंआ' से भर जाता ! आमिर - सलमान - शाहरुख को देखते देखते स्नातक गुजर गया ! कभी कभी मेस के टेबल पर ही सिनेमा का प्लान बन जाता :) दोस्तों के कमरे में 'बॉलीवुड' के पोस्टर लगने लगे ! 'फिल्म फेयर , मूवी ' सिनेब्लित्ज़ , स्टार डस्ट् और मालूम नहीं क्या क्या ...जैकी चान की आदत भी अभी ही लगी थी ! सिनेमा के गाने के कैसेट आदान - प्रदान होने लगे :)

बंगलौर में नौकरी करता था - इतवार को 'तेलगु - तमिल' कोई भी सिनेमा देख लेता ! वहाँ का पब्लिक सही है - एकदम मस्त ! संतोष सिनेमा हौल सब से प्रिये था ! एक शायद 'अभिनव' भी था !

नॉएडा आया तो २ साल तक कोई सिनेमा 'हौल' में नहीं देखा ! मल्टीप्लेक्स के दामों को सुन हिम्मत नहीं होती ! एक सम्बन्धी आये - फिल्म्ची थे - जिद पर अड् गए - जाना पड़ा :( ..फिर तो ....शुरुआत हो ही गयी :)  अब तो ऐसे जगह पर रह रहा हूँ ..जहाँ आधा किलोमीटर के अंदर ३-४ मल्टीप्लेक्स हैं - यहाँ नहीं तो वहाँ ..कहीं न कहीं टिकट तो मिल ही जायेगा !


मालूम नहीं क्या क्या लिख दिया :) पढ़ लीजिए ..कुछ यादें आपकी भी हों तो कम्मेंट दे दीजिए ..अभी फुर्सत है ..तो ब्लॉग छप रहा है ! :)






रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Thursday, June 3, 2010

मेरा गाँव - मेरा देस ( राजनीति ) - भाग छह

प्रकाश झा साहब की फिलिम 'राजनीति' रिलीज होने वाली है ! सन १९८४-८५ में उनकी 'दामुल' दूरदर्शन पर देखी थी ! एक सांस में देख लिया था :)  उनकी लगभग सभी फिल्मे देख चूका हूँ ! 'राजनीति' भी देख लूँगा :) मै 'फिलिम्ची' नहीं हूँ - सिनेमा देखते वक्त 'निर्देशक' की भूमिका में खुद को पाता हूँ तो और भी दिक्कत होती है :(  इसलिए सिनेमा और टी वी के रिपोर्टस को लगभग कोशिश करता हूँ - ना देखूं !

खैर , एक पोस्ट में आप सभी ने पढ़ा होगा - कैसे मै पहली दफा 'श्रीमती गाँधी' को रांची में देखा ! तब से उनका मै फैन हो गया :) १९७७ का चुनाव याद नहीं है पर उनका चुनाव चिन्ह 'गाय और बछड़ा' के बैच कई सालों ताक मेरे 'दराज' में मेरे खिलौने के पार्ट हुआ करते थे ! सन १९८० के आम चुनाव के वक्त मै मुजफ्फरपुर में हुआ करता था - 'राजनीति' खून में थी ! कॉंग्रेस जेहन में थी ! मुजफ्फरपुर के सब से बड़े व्यापारी 'श्री रजनी रंजन साहू' कॉंग्रेस के उम्मीदवार हुआ करते थे ! बड़े दादा जी से जिद  किया तो कॉंग्रेस के कुछ झंडे घर' के छत पर टांग दिए गए :) इंदिरा गाँधी से प्रभावित होकर - मैंने भी अपनी एक 'वानर सेना' बना ली थी ! :) मोहल्ले के ही सभी थे ! जॉर्ज साहब भी चुनाव लड़ रहे थे ! जॉर्ज साहब एक चुनावी सभा को संबोधित करने वाले थे - हम सभी ने प्लान बनाया की वहाँ हम पत्थर फेंकेंगे :) खैर , अब याद आती है तो बहुत हंसी भी छूटती है :) मोहल्ले के कुछ लोगों ने 'जॉर्ज साहब' के पक्ष में एक छोटा सा प्रदर्शन टाईप का करने वाले थे - मुझे जब पता चला - मै बेचैन हो गया था - बड़े बाबा के पास गया और रोने लगा :) शाम को वो प्रदर्शन हमारे घर के सामने से ही होकर जाने वाला था - मै शाम को ही तीर धनुष लेकर उनको रोकने को तैयार था :) मेरी 'वानर सेना' गायब थी - राजनीति का पहला सबक :)

वोट कैसे गिराते हैं - नहीं पता था ! बाबु जी और बड़े बाबा - चाचा सभी लोग पास के ही एक महिला कॉलेज जो की मतदान केंद्र हुआ करता था - वहाँ जाने वाले थे - जिद पर अड् गया - बाबु जी के लैम्ब्रेटा पर पहले से ही जा कर बैठ गया :) वहाँ गया - तब तक एक 'जीप' आई और उससे एक दूसरी पार्टी के उम्मीदवार उतरे - बाबु जी ने मुझे इशारा किया की "प्रणाम' करो !मैंने नहीं किया ! बाद में पता चला की वो वहाँ से लगातार चार बार जीत चुके और 'लंगट सिंह' के पौत्र 'दिग्विजय' बाबु थे और हमारी जाति के ही थे - शायद मेरे घर वालों ने उनको ही वोट दिया था - रात भर नींद नहीं आयी - विश्वास टूट चूका था - राजनीति का दूसरा सबक :)

सन १९८० के विधानसभा चुनाव के समय 'गांव' पर था ! बाबा को टिकट मिलने की खबर 'अखबार' में छप चुकी थी - ऐसा ही कुछ उनके साथ १९६२ में भी हुआ था पर वहाँ के तत्कालीन सांसद 'श्री नगीना राय' ऐसा नहीं चाहते थे सो अंतिम समय में 'टिकट' कट गया ! हम सभी बहुत दुखी थी - डॉक्टर जगनाथ मिश्र गाँव पर आये - और कुछ बड़ी चीज़ का वादा कर के गए :) बाबा कॉंग्रेस के थे - कॉंग्रेस ने बहुत ही कमज़ोर कैंडिडेट को उतरा था - बेवकूफ जैसा था - हर सुबह अपनी जीप लेकर हमारे दरवाजे आ जाता था ! हम और हमारे बाबा दिन भर कॉंग्रेस की जीप में घुमते :) पर , अचानक मुझे पता चला की बाबा ने उनदिनो बिहार के समाजवादी नेता 'श्री कपिल देव बाबु ' को चिठ्ठी भेज कर अपने एक आदमी को 'जनता पार्टी' का टिकट दिलवा दिया था ! 'कपिल देव बाबु सम्बन्धी लगते थे ! चुनाव के ठीक पहले अचानक बाबा सक्रिए हो गए - उनके सारे लोग - उस 'अपने आदमी' के लिए काम करने लगे :) पर जीप अभी भी वही 'कॉंग्रेस' की थी ! घर में झंडे 'कॉंग्रेस'   के ही लगे थे ! खैर , न तो कॉंग्रेस जीता और न ही वो अपना 'आदमी' - राजनीति का तीसरा सबक बहुत महत्वपूर्ण हो गया !

फरवरी १९८४ में दिल्ली आया था ! राज्यभर के कॉंग्रेसी आये थे ! मै भी बाबा के साथ 'लटक' गया ! दिल्ली का पहला दौरा था ! २६ , महादेव रोड पर नगीना राय के डेरा पर रुके थे ! हर शाम - पालिका बाज़ार घूमने जाता था ! जिस दिन इंदिरा गाँधी से मिलने जाना था - उसके ठीक एक दिन पहले मैंने 'पालिका बाज़ार' से एक 'कैमरा खरीदा' - अगले दिन मैंने अपनी जिंदगी की पहली तस्वीर श्री मति गाँधी का लिया - सफ़ेद अम्बैस्डर में सवार ! सर पर पल्लू ! कॉंग्रेस के कई दिगज्जों के रूबरू ! ढेर सारे 'आशीर्वाद' समेटा !

१६ अक्टूबर १९८४ , श्रीमती गाँधी से अंतिम मुलाकात ! सत्येन्द्र बाबु उर्फ छोटे सरकार का कॉंग्रेस में वापसी का दिन ! श्री कृष्ण मेमोरियल में ठीक उनके सामने बैठा हुआ - मै :) बिहार के सभी कॉंग्रेसी दिग्गज के बीच में - मै एक टीनएजर कॉंग्रेसी :) ताकत का एहसास होता था ! स्कूल में गप्प देने के ढेर सारे मसाले मेरे पास हुआ करते थे ! पर मेरे मसाले में मेरे किसी दोस्त को 'इंटरेस्ट' नहीं होता था ! :(  अब कोई मुझसे 'राजनीति' पर कुछ पूछता है य बहस करता है - मै सिर्फ मुस्कुराता हूँ !

इंदिरा गाँधी का क़त्ल हो गया ! चुनाव हुए ! हमारी वार्षिक परीक्षा खत्म हो चुकी थी - बाबा ने अपने बौडी-गार्ड को मुझे गोपालगंज बुलाने के लिए - पटना भेजा था ! बाबु जी 'दांत' पीसते रह गए और मै - चुनाव के मजे लेने के लिए 'पटना' से फरार हो गया ! :) नगीना राय के खिलाफ उनके ही शागिर्द 'काली पाण्डेय' चुनाव लड़ रहे थे - राजनीति का यह अजीब सबक था - अवसरवादिता का ! चुनाव प्रचार में ३०-४० गाडिओं का काफिला - हर गाड़ी में - ढेर सारे - रायफल - बन्दूक ! चुनाव का दिन - अजीब सा टेंशन ! नगीना राय बुरी तरह हार गए ! कुख्यात 'काली पाण्डेय' जीत गया !

धीरे धीरे राजनीति में हम अस्तित्व खोते गए ....

..........जो कुछ बचा ...लालू ने कुचल - मसल दिया ! थोड़ी सी जो दम अभी सांस गिन रही थी - उस पर 'नीतिश कुमार' ने अंतिम वार कर दिया है ! जान छटपटा रही है ....कोई आस पास भी नहीं है ..जो इस जाती हुयी जान को चुल्लू भर पानी पीला दे ............!

पर 'राजनीति' तो खून में है - अभी हमारा 'अंतिम वार' बाकी है - इन्ही उम्मीदों के साथ ...

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Wednesday, June 2, 2010

मेरा गाँव - मेरा देस ( लगन 'टाईट' बा ) - भाग - पांच

एक जमाना था - लड़का ने 'मैट्रिक' का फॉर्म नहीं भरा की 'बरतुहार' ( अगुआ - शादी विवाह वाले , लडकी वाले ) आना शुरू कर देते थे ! गाँव या टोला में एकता है तो जल्द 'शादी' ठीक हो जाती वर्ना ..लड़का बी ए फेल भी कर जाता और शादी नहीं हो पाती थी ! इन दिनों 'बियाह-कटवा' भी सक्रिय भूमिका में आ जाते हैं ! जब तक वो 'बरतुहार' को आपके दरवाजा से भगा नहीं देते ..उनको चैन नहीं आता है ! तरह तरह के 'बियाह कटवा' .... जैसे एन बारात लगने के समय हल्ला कर दिया या चुपके से 'लडकी वाले' को बोल दिया की ..'लड़का तो ......' अब हुआ हंगामा ...' हंगामा खड़ा कर के वो गायब :) या फिर जब दरवाजे पर 'लडकी वाले ' आये हुए हैं तो ..कुछ ऐसा बोल देना की ..'लडकी वाले ' के मन में कुछ शंका आ जाए ! ऐसे 'बियाह कटवा ' गाँव - मोहल्ला - टोला के बाज़ार पर बैठे मिल जाते हैं - जैसे कोई 'बर्तुहार' गाँव - मोहल्ला में घुसा नहीं की उसके पीछे पीछे चल देना ! होशियार 'लडका वाला ' लगन के पहले इस 'बियाह कटवा' को 'सेट' कर के रखता है ताकि वो कुछ कम नुक्सान कर पाए !



खैर , बियाह तय हो गया - अब बात आयी - लेन - देन की , यहाँ भी कुछ कुशल कारीगर होते हैं - आपकी 'कीमत' से बहुत कम में आपका 'माल' बिकवा देंगे :( और खैनी ठोकते आपका ही नमक खा कर - मुस्कुराते चल देंगे ! ऐसे लोगों के दबाब से बचने के लिए - लड़का वाला बंद कमरा में 'कीमत' तय करने लगा वरना वो एक जमाना था तब जब समाज के बड़े बुजुर्ग के बीच में सब कुछ तय होता था ! अच्छे लोग - तिलक - दहेज का पूरा का पूरा लडकी को 'सोना' के रूप में 'मडवा' ( मंडप) पर चढा देते थे - अब 'बैंक' में रख सूद खाते हैं !



अब लडका वाला तिलक - दहेज और अपनी हैशियत के मुताबिक 'ढोल बाजा' आर्तन - बर्तन , कपड़ा - लत्ता ' खरीदने की तैयारी शुरू कर देता है ...अब फिर से कुछ 'आईटम' लोग आपके पीछे लग जायेंगे ! आपका 'बजट' पांच हज़ार का ही तो वो उसको पन्द्रह हज़ार का करवा देंगे - अब 'बेटा' का बियाह है - लोक - लज्जा की बात है - आप बस थूक घोंटते नज़र आयेंगे ! पब्लिक समझेगा की 'फलना बाबु ' तो तिलक लेकर धनिक हो गए - जबकि सच्चाई यह है की - आपकी जमा पूंजी भी 'इज्ज़त ' के चक्कर में लग जाती है !

अब बारात कैसे जायेगा - आप मन ही मन 'बस' का सोच रहे होंगे - आपके शुभ चिन्तक आपको इज्ज़त का हवाला देकर १०-२० कार ठीक करवा देंगे - कार जीप भी ठीक करने वो ही जायेंगे - "सट्टा बैना" भी वही लिखेंगे - जब आप कुछ कम भाडा की बात करेंगे - तो आपके शुभचिंतक बोलेंगे की - अरे ..लईका के बियाह है ...कोई नहीं .फिर से एक बार थूक घोंट लीजिए ! :)

बारात में 'नाच - पार्टी' कैसा जायेगा ? इसका टेंशन एक खास किस्म के लोगों को रहता है - उनको सब डीटेल पता रहता है की ..कहाँ का कौन सा 'नाच' कैसा है ? वैसे लोगों को खबर जाता है - वो बहुत आराम से दोपहर का खाना खाते हुए ..लूंगी में धीरे धीरे टहलते ...खैनी ठोकते ..आयेंगे ! अब वो डिमांड करेंगे ..अलग से गाड़ी घोडा का ..भाई ..नाच ठीक करने जाना है :) कोई मजाक थोड़े ही है :)

फलदान में - तिलक में - कैसा 'कुक' आएगा ? यह एक अलग किस्म का टेंशन है - कोई सलाह देगा - दोनों कुक अलग अलग होना चाहिए - कोई कहेगा - मुजफ्फरपुर से आएगा - 'फलना बाबू ' के बेटा के बियाह में 'बनारस से ही नाच और कुक' दोनों आया था - अब वो जैसे ही 'फलाना बाबु ' का नाम लिया नहीं की आप भरपूर टेंशन में नज़र आ जायेंगे - बेटा का बियाह और इज्ज़त - जो न करवाए !

अब चलिए ..गहना पर ! घर की महिलायें 'जीने' नहीं देंगी ! अक्सर यहाँ एकता देखा जाता है - आप मन ही मन ५० भर सोना चढाने को सोच रहे होंगे - तब तक कोई बोलेगी - मेरे बियाह में '२०० भर' सोना चढा था - अब देखिये - यहीं पर आपका बजट चार गुना हो गया ! कोई कहेगी - मुजफ्फरपुर का 'सोनार' सब ठग है - अमकी 'पटना ' से खरीदायेगा - अब हुआ टेंशन - पूरा 'बटालियन' पटना जायेगा ! १०० भर सोना के साथ साथ ५-१० नकली अशर्फी - गिन्नी खरीद लेगी सब ! एक सुबह से शाम तक ..सोनार इनको '३ बोतल ' कोका कोला पीला के ..२-४ लाख का सोना बेच देता है और दूकान के सामने 'बलेरो' जीप में बैठा मरद का ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ रहता है !

बनारसी साड़ी का भी एक अलग टेंशन है - मालूम नहीं वो 'लडकी' फिर कब इतना भरी साड़ी दुबारा कब पहनेगी :( कोई कहेगा १०१ साड़ी जायेगा ...फिर बजट हिलेगा डूलेगा ! फिर टेंशन होगा - अटैची - सूटकेस का ! सब खर्च हो गया - पर ये सूटकेस आर्मी कैंटीन से ही आएगा :)

कैसा लगा ? बताएँगे :)

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Tuesday, June 1, 2010

मेरा दिल - मेरा बचपन - मेरी जवानी ( भाग - चार )

रांची याद आ गया ! 'नाना जी ' उन दिनों वहाँ 'जिला & सत्र न्यायधीश' हुआ करते थे ! 'डोरंडा' के पास - नेपाल हॉउस में वो रहते थे ! घर में बड़ा ही 'इंटेलेक्चुअल' माहौल था ! सब के आँखों पर चश्मा और सभी के पास वकालत की डिग्री :) हर शाम दिल्ली वाला 'टाइम्स ऑफ इंडिया' सुतरी में लपेटा हुआ आता था ! तब तक मै दोपहर की एक नींद मार चूका होता और अखबार की तरफ टूट पडता था ! आर के लक्ष्मण की कार्टून और इंदिरा गाँधी - शायद उन दिनों 'श्रीमति गाँधी ' रांची आने वाली थीं - मैंने 'नानी' से काफी जिद की - तो 'नाना जी' मुझे पैदल ही श्रीमती गाँधी को दिखने में रोड तक ले गए थे !  यह वक्त था ..१९७६ का ! नाना जी रिटायर हो गए - रांची के अशोक नगर में उन्होंने ने घर बनाया - फिर से दुबारा  हम लोग रांची गए !

ननिहाल में अपने पीढ़ी में सब से बड़ा मै ही था - सभी मामा और मौसी लोग मेरे हर एक जिद को पूरा करने को बेताब ! शायद एक रात मैंने एक जिद कर दी और एक मामू जान ठीक उसी वक्त साइकील से मेरे जिद को पूरा करने के चक्कर में अपना घुटना तुडवा लिए :( हॉस्पिटल में भर्ती हो गए - मै हर रोज एक दूर दराज के मामू के साथ 'बुल्लेट' पर बैठ कर हॉस्पिटल जाता था - बुल्लेट वाले शायद वन पदाधिकारी थे - अब सुना हूँ - बहुत पैसा कमाए हैं - :) हॉस्पिटल में उन दिनों मरीजों को काफी कुछ मिलता था - मामू जान जो मेरे कारण ही घुटना तुडवा चुके थे - मेरे लिए हर रोज हॉस्पिटल से मिले 'सेब' रखते थे ! मुझे सोफ्टी का बहुत शौक था - दूसरे 'हीरो टाईप' मामू जान लोग हर शाम मुझे अशोक नगर से 'फिरायालाल' तक पैदल ले जाते :( मै भी एक सोफ्टी के चक्कर में उनके पीछे 'लटक' जाता था ! बाबु जी नाना जी की बड़ी इज्जत करते थे - जब वो 'रांची' आते ..नाना जी से बहुत कम बोलते थे ! नाना जी 'माँ' को बहुत मानते थे ! बहुत ! नाना जी को सभी घर में 'दादा जी' कहते थे - वो घर में खादी का कुरता - धोती और खडाऊं पहनते थे ! मौसी - मामू लोग के पास एक कैमरा होता था - जिसमे जब कभी भी 'इंदु' फिल्म्स डाला जाता - सब से ज्यादा मेरी ही तस्वीर खींची जाती थी :)

हर शाम 'सौफ्टी' खिलाने के पीछे एक राज हुआ करता था - मामू लोग कभी कभी सिगरेट भी पीते थे - यह बात मै जान चूका था - किसी और को पता नहीं चले - के कारण बेचारे 'मामू जान लोगों ' को मेरी हर बात माननी पडती थी !

नाना जी के घर के ठीक सामने कुछ दूरी पर - अन्धों का एक स्कूल होता था - मै वहाँ जाया करता था - घंटो उनके पास बैठता था ! फिर उदास हो कर वापस लौट आता ! उसमे से कई मेरे दोस्त भी बन गए थे - मालूम नहीं अब वो लोग कहाँ हैं ?

मौसी को नौकरी लगी थी - वहीँ पास में 'ईटकी' नाम के जगह में ! मौसी और मेरे बाबु जी दोनों ने एक ही कॉलेज से स्नातक किया था - जब दोनों मिलते - खूब बहस होती ! एक खासियत थी - नाना जी के यहाँ सब अंग्रेज़ी में ही 'बहस' करने वाले होते थे - हम दोनों बाप बेटा को एक दूसरे का मुह ही ताकते :) खैर , बाबू जी तो बहुत कम ही बार रांची आये ! मुझे याद है - बाबु जी 'स्नाकोत्तर प्रवेश परीक्षा' देने रांची आये थे और मौसी - मामा लोग मेरा 'जन्मदिन' मनाये थे ! केक कटा था :) हम लोग ये 'केक और अंग्रेज़ी' से बहुत दूर रहने वाले परिवार से आते थे :)

१९७९ के जनवरी में चाचा आये थे - हम लोगों को मुजफ्फरपुर ले जाने ! मै दुखी था - नाना - नानी - मामा - मौसी सभी उदास थे ! नानी ने मेरे पॉकेट न जाने कितने पैसों से भर दिया था - रास्ता में सब ..चाचा ने ले लिया था :(

कई वर्ष बाद मेरी दादी ने बताया की ...जज साहब मेरे अपने नाना नहीं हैं ..मेरे नाना के बड़े भाई हैं ...मन बेचैन हो गया था ..मेरे नाना की हत्या को उनके खेतों की रखवाली करने वाले और उनके ही जाति के लोगों ने कर दी थी ..जब मेरी माँ मात्र '४-५' साल की थीं और मेरी नानी की मृत्यु मेरे जनम के ठीक बाद हो गयी  ! कई दिनों तक मै यह जान बेचैन रहता था ... पर वो असीम प्यार कैसे भूल पाता ! पर 'माँ' से या किसी से आज तक नहीं पूछा की ' मेरे नाना ' की हत्या कैसे हुयी ..हिम्मत नहीं हुयी !

अब बहुत कुछ बिखड़ गया ...सब अलग अलग हो गए ...मेरे साथ तो बस कुछ यादें ही रह गयी हैं ..!

हाँ ...लिखना है ..बहुत कुछ !!


रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Saturday, May 29, 2010

मेरा गाँव - मेरा देस - ( मेरा पटना ) - भाग ३

सातवीं की परीक्षा 'जिला स्कूल - मुजफ्फरपुर ' से पास कर लिया ! परबाबा से लेकर मुझ तक हम चार पीढ़ी इस स्कूल में पढ़ लिए :) गौरव की बात है , न ! वार्षिक परीक्षा चल रही थी - तभी बाबु जी का ट्रांसफर 'मुजफ्फरपुर' से 'पटना' हो गया ! नाना जी , बड़े बाबा के पास आये थे - मै खेल रहा था - बड़े बाबा से पूछा - नाना जी क्यों जल्द आ कर चले गए - बड़े बाबा ने पूछा - वो इजाजत लेने आये थे - मैंने पूछा - कैसी इजाजत ? , बड़े बाबा बोले - जब तक तुम्हारे 'पिता जी ' अपनी गृहस्थी' पटना में बसा नहीं लेते - तब तक हम सभी 'ननिहाल वाले पटना डेरा में रह सकते हैं' !

पटना हम पहले भी जाते थे ! पटना होकर ही ननिहाल जाना होता था ! गंगा बिहार को दो भाग में बांटती है ! हम 'गंगा पार' के थे - ये अक्सर विवाद का विषय होता - कौन 'गंगा पार का :) इधर वाले के लिए हम 'गंगा पार' वाले - उधर वाले के लिए 'मगध' गंगा पार :) खैर !

हम स्टीमर से पटना आते थे ! महेन्द्रू घाट पर उतर कर 'रिक्शा' से 'कदम कुआं' जाना - बड़ा ही आनंददायक होता था ! गाँधी मैदान के चारो तरफ से घुमते - रिजर्व बैंक का बिल्डिंग - सब कुछ बड़ा बडा लगता था ! 'हम लोग एक छोटे शहर पर उत्तर बिहार की राजधानी 'मुजफ्फरपुर' से पटना आते थे - तो ये पटना हम लोगों के लिए किसी 'विदेश' से कम नहीं होता ! 

माँ - बाबु जी और छोटी बहन सब पटना आ गए - नाना जी के डेरा में ! बड़ी कोठी पर बड़ी संकरी गली !  बाबा को लाल बत्ती वाली 'अम्बैस्डर' मिली थी - संकरी गली के कारण वो अपने 'ठस' से समधियाना तक गाड़ी में पहुँच नहीं पाते - थोडा दुःख मुझे भी होता ! एक महीने बाद मै भी पटना आ गया था !

पटना आने पर मेरी मुलाकात हुई - इंडिया टूडे से ! मामा लोग दिल्ली में 'कुछ' पढते थे वो पटना आते तो हाथ में 'इंडिया टूडे' होती ! फिर शाम को 'दिल्ली' वाला टाइम्स ऑफ इंडिया ! खैर , पटना लौटने पर सब से बड़ी दिक्कत हुई - मेरे किसी स्कूल में अड्मिशन की ! बाबु जी तो खुद बहुत अनजान थे - नाना जी ने बोला - मै कोशिश करता हूँ - बाबु जी को ऐसा लगा की कोई लौटरी लग गयी - मालूम नहीं 'नाना जी ' ने कहाँ कहाँ और किस - किस से 'चिठ्ठी ' लिखवाई और मेरा एक स्कूल में अड्मिशन हो गया ! मोहल्ले के कई दोस्त साथ साथ स्कूल जाने लगे - रास्ते भर 'कपिल देव वस्  गावस्कर ' बहस होते जाती ! रास्ता में जन संपर्क विभाग का एक कार्यालय होता था - मै वहाँ कुछ देर रुक - हिंदी अखबार पढता था - दोस्त मुझ से चीढ़ते थे :) पटना आ कर - पहली दफा ऐसा लगा - हम जैसे बहुत लोग हैं और हमारी 'अवकात' कुछ नहीं है - ये एक एहसास ऐसा था - जो काफी दिन तक मुझे परेशान किया करता था - कोई भाव देने को तैयार नहीं और हम बिना भाव जीने के आदी नहीं थे :)

नाना जी के यहाँ बिना लहसुन - प्याज वाला खाना बनता और हम दोनों 'बाप बेटा ' पक्के मांसाहारी :) कितने दिन तक बर्दास्त करते - एक शाम बाबु जी ने मुझे अपने पास बुलाया और बोला - जल्द तैयार हो जाओ - एक मित्र के यहाँ जाना है - मै कुछ बोलता तब ताक वो बोले - हम और तुम जायेंगे सिर्फ - घर में कोई कुछ पूछे तो बोल देना - पापा के दोस्त के यहाँ जाना है ! बाबु जी ने रिक्शा लिया और हम दोनों चल पड़े - रिक्शा एक साधारण से 'होटल' ( रेस्टोरेंट) के सामने रुका - हम आ चुके थे - पटना के मशहूर 'महंगू होटल' में ! दोनों 'बाप - बेटा' जी भर खाए - सब कुछ ! 'गोली - बगेरी - मटन दो पयज़ा ' और न जाने क्या क्या :) मै बहुत खुश था ! खुशी बर्दास्त नहीं हुई - एक दो मामू जान को बता ही दिया - फिर वो सभी बाबु जी से मजाक शुरू कर दिए !

नाना जी के यहाँ कुल छह महीने ही रहे ! बाबु जी बड़े ही 'स्वाभिमानी' हैं - हर रोज शाम मकान खोजने निकल पड़ते !  मुजफ्फरपुर में बाबु जी काफी बढ़िया प्रैक्टिस हो चुकी थी और पटना एक मुश्किल शहर था ! पर बाबू जी प्रयास में लगे थे ! कंकडबाग के 'डॉक्टर कॉलोनी' में डेरा मिल गया - हम सभी बड़े खुश थे !

....जारी है ....





रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Thursday, April 22, 2010

मेरा गाँव - मेरा देस - भाग 'दो' ( शादी विवाह )

बचपन के दिन याद आ गए ! घर - परिवार - ननिहाल में शादी होता था - हम सभी पन्द्रह दिन पहले ही गांव पहुँच जाते थे ! पहला रस्म होता था - 'फलदान' - लडकी वाले कुछ फल इत्यादी लेकर 'वर' के घर जाते थे ! बहुत दिनों तक - बहुत ही कम लोग आते थे - पर धीरे - धीरे यह एक स्टेटस सिम्बल बन गया - लडकी वाले १०० -५० की संख्या में आने लगे ! गांव भर से चौकी , जाजिम , तकिया , तोशक मांगा कर 'दालान' में बिछा दिया जाता था ! मेरे खुद के परिवार  में - मुझे याद है - खुद का 'टेंट हॉउस' वाला सभी सामान होता था ! कई जोड़े 'पेट्रोमैक्स' , टेंट , बड़ी बड़ी दरियां , शामियाना - पर दिक्कत होती थी - चौकी की सो गांव से चौकी आता था और चौकी के नीचे य बगल में 'आलता' से उस चौकी के मलिक का नाम लिखा जाता था ! समय पर लाना और समय पर पहुंचवा देना किसी एक खास मुंशी मैनेजर की जिम्मेदारी होती थी ! मुंशी - मैनेजर के आभाव में गांव घर के कोई चाचा या बाबा !

जैसा 'वर' का हैशियत वैसा 'लडकी वाला' सुबह होते होते लडकी वाले पहुँच जाते ! हम बच्चे बार बार 'दालान' में झाँक कर देखते और 'दालान' की खबर 'आँगन' तक पहुंचाते थे ! ड्राम में 'शरबत घोला जाता था ! हम बच्चे 'ड्राम' के आगे पीछे ! दोपहर में गरम गरम 'गम्कऊआ भात' पात में बैठ कर खाना और आलू का अंचार , पापड़ - तिलौडी और ना जाने क्या क्या ! लडकी का भाई 'फलदान' देता था - उस ज़माने में 'लडकी' को दिखा कर शादी नहीं होती थी सो अब लडकी कैसी है यह अंदाजा उसके 'भाई' को देख लगाया जाता था ! आँगन से खबर आती - जरा 'लडकी' के भाई को अंदर भेज दो -  माँ - फुआ - दादी टाईप लोगों को जिज्ञासा होती थी !

शाम को मुक्त आकाश में खूब सुन्दर तरीके से 'दरवाजा ( दुआर) ' को सजाया जाता ! ५-६ कम ऊँची चौकी को सजा उसके ऊपर सफ़ेद जाजिम और चारों तरफ पुरे गाँव से मंगाई हुई 'कुर्सीयां' ! मामा , फूफा टाईप लोग परेशान कर देते थे - एक ने पान माँगा तो दूसरे को भी चाहिए - किसी को काला - पीला तो किसी को सिर्फ 'पंजुम' , किसी को सिर्फ कत्था तो किसी को सिर्फ चुना वाला पान ! जब तक 'पन्हेरी' नहीं आ जाता - हम बच्चों को की 'वाट' लगी रहती थी !

गांव के बड़े बुजुर्ग धीरे धीरे माथा में मुरेठा बंधे हुए लाठी के सहारे आते और उनकी हैशियत के मुताबिक उनको जगह मिलती थी ! होने वाले 'सम्बंधिओं' से परिचय शुरू होता ! फिर , 'आँगन से सिल्क के कुरता या शेरवानी ' में 'वर' आता ! साथ में 'हजाम' होता था - जिसका काम था - 'वर' का ख्याल रखना - जूता खोलना , हाथ पकड़ के बैठना इत्यादी इत्यादी ! दोनों तरफ के पंडीत जी बैठ जाते - उनमे आपस में कुछ नोक - झोंक भी होती थी जिसको गांव के कोई बाबा - चाचा टाईप आईटम सुलझा देते ! इस वक्त 'लडकी वालों ' के बिच कुछ खुसुर फुसुर भी होती थी - 'वर' की लम्बाई - चेहरा मोहरा इत्यादी को लेकर !

फिर 'फलदान' का प्रोसेस शुरू होता और कुछ मर मिठाई - अर्बत - शरबत भी चालू हो जाता ! फलदान होते ही 'हवाई फायीरिंग' भी कभी कभार देखने को मिला - जब लडके और लडकी वाले आपस में तन गए - मेरा यह मानना है की फलदान होते ही सामाजिक तौर पर दोनों परिवार बराबर के हो गए - तिलक - दहेज की बात अब इसके बाद नहीं होती !

फलदान में लडकी वाला अपनी हैशियत के हिसाब से लडके को देता था ! कुछ कपड़ा या कुछ दर्जन 'गिन्नी- अशर्फी' !

फिर , दोनों पक्ष दालान में बैठ कर आगे का कार्यक्रम बनाते ! तिलक में कितने लोग आयेंगे - बरात कब पहुचेगी - विदाई कब होगा - किसको किसको दोनों तरफ से 'कपड़ा' जायेगा ! तब तक शाम हो जाती ....

और हम बच्चे .."पेट्रोमैक्स' के इर्द - गिर्द गोला बना के बैठ जाते - उसको जलने वाला भी एक व्यक्ति विशेष होता - जो हम बच्चों को बड़ा ही 'हाई - फाई' लगता ! :)

क्रमशः


रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Tuesday, April 20, 2010

मेरा गांव - मेरा देस - भाग - एक !! ( परिवार )

मंगलवार को थोडा कम काम होता है - सो 'समय' मिल जाता है ! सुबह सुबह एक दोस्त को फोन किया - वो मुझे अपना दोस्त नहीं मानता पर मै मानता हूँ - गाँव वाला जो हूँ ! बातों ही बातों में 'गांव' की बात आ गयी और नॉएडा में बैठे बैठे अपना 'गांव' याद आ गया !

समझ नहीं आ रहा - कहाँ से शुरू करूँ ! कुछ अमिट छाप हैं - कुछ यादें हैं -

बचपन याद आ रहा है - बाबा ( दादा जी ) का वो बड़ा सा कांसा वाला- 'लोटा' ! सुबह सुबह वो एक लोटा पानी पीते थे - इनार का ! तब तक 'माँ' उनके और दीदी ( दादी ) के लिए 'चाय' बना देती थीं ! लकड़ी का चूल्हा होता था ! बाबा चाय पीने के बाद खुद से पान बनाते - पंजुम और रत्ना छाप जर्दा खा के - खेतों के तरफ निकल पड़ते थे ! सारे खेतों से घुमते हुए वो करीब एक दो घंटे में लौटते ! तब तक मै उनकी बिछावन पर सोया रहता ! बड़ी अच्छी खुशबू आती थी - जर्दा की ! बाबा के लौटते - लौटते दरवाजे पर एक भीड़ जमा हो जाती थी ! कोई साईकिल से तो कोई 'राजदूत मोटर साईकिल' से ! कुर्सियां सज जाती थी ! ढेर सारे 'नौकर - चाकर' मुंशी मैनेजर' होते थे ! खपडा वाला मकान होता था - अब भी है ! और एक दालान ! दालान में बड़ी बड़ी आरामदेह कुर्सियां और इंदिरा गाँधी का एक बड़ा सा फोटो !

मेरे पर दादा जी बहुत ही  'दूरदर्शी' थे ! १९२७ में कोल्कता विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद अंग्रेजों की पुलिस वाली  नौकरी ठुकराने के बाद वो 'मुजफ्फरपुर शहर' में बस गए - वहाँ उन्होंने ने अपने ननिहाल वालों से 'ज़मींदारी' खरीदी और अपने इलाके के सभी विद्यार्थिओं को अपने खर्चे पर पढाना - लिखाना शुरू किया ! मुजफ्फरपुर के रईसों के साथ उठाना - बैठना और फिर गांधीवादी होना साथ ही साथ घर परिवार के बहुत कुछ करना ! शायद कुछ दिनों तक वो 'मुख्तार' भी रहे ! सो , बिहार में हमारा दो जगह घर हो गया ! सारण और मुजफ्फरपुर ! सारण में 'गांव' और मुजफ्फरपुर में शहर ! परदादा जी को समय की पहचान थी ! मुजफ्फरपुर के केंद्र 'कल्याणी चौक' पर भी उन्होंने कुछ ज़मीन जायदाद खरीदी और एक 'विशाल स्टोर' भी खोला ! जमींदारी खरीदने के अलावा उस ज़माने में हमारा 'परिवार' बिहार के बड़े बड़े जमींदारों को क़र्ज़ पर पैसे भी देता था ! परदादा जी और परदादी जी का एक ही दिन 'टी वी' के कारण 1943 में मृत्यु हो गयी ! परिवार में एक 'यु टर्न' आ गया ! परदादा जी जिस तेज़ी से आगे बढ़ रहे थे - शायद हम अपनी बिरादरी में बिहार में प्रथम परिवार होते ! उनका एक सपना था - मेरे बाबा को 'कलक्टर' बनाने का ! मेरे बाबा 'मुजफ्फरपुर जिला स्कूल' के सब से तेज विद्यार्थी थे ! 'लाट साहब' ( गवर्नर) के हाथों उनको अपने स्कूल के सब से तेज विद्यार्थी का ख़िताब मिल चूका था ! परदादा की मृत्यु के समय वो नौवीं कक्षा में थे ! परदादा के बड़े भाई को कोई संतान नहीं थी सो मेरे बाबा अपने चाचा जी के साथ 'गांव' ( सारण  ) लौट आये ! और मेरे बड़े दादा जी 'मुजफ्फरपुर शहर' में ही रह गए ! परिवार में विभाजन नहीं हुआ था पर शहर की सैकड़ों एकड़ जमीन मेरे परदादा की अर्जित की हुई थी सो वो ज़मीन सम्मलित परिवार के लोगों में १९४९ में बंट गयी ! पर 'मालिकाना' मेरे दादा दोनों भाईओं की ही रही ! परिवार के अन्य लोगों को वो 'मुफ्त' में मिली थी सो उन्हें भी उस ज़मीन जायदाद की ज्यादा चिंता नहीं थी ! बड़े दादा जी बड़े ही आराम से 'मुजफ्फरपुर' में अपनी जिंदगी गुजारी ! परिवार में शांती थी - शहर की ज़मीन - अपने चचेरे भाईओं में बांटने में मेरे दादा जी लोगों को थोड़ा भी कष्ट नहीं हुआ ! बाबा दोनों भाई बहुत कम उम्र में छोटे मोटे ज़मीदार बन गए ! मेरे बाबा 'गांव' में और बड़े बाबा - शहर में ! प्रख्यात पत्रकार 'नलिनी सिंह' के ससुर 'सर सी पी एन सिन्हा' का मुजफ्फरपुर घर भी हमारी जमींदारी में आता था ! रहते लोग 'शहर' में थे पर रहन - सहन 'गांव वाली ही रही ' ! मुजफ्फरपुर का जिला स्कूल 'खानदानी स्कूल' हुआ करता था ! हम चार पीढ़ी उस स्कूल  में पढ़ चुके हैं - इसका मुझे गर्व है !

हमारे कई या लगभग बहुत सारे सम्बन्धी हम से भी ज्यादा 'धनिक' थे ! पर , उनके रहन सहन और हमारे रहन सहन में बहुत का अंतर था ! वो , पैसों को दांत से पकडते थे और हम 'आराम' से रहते थे - 'इज्जत' बहुत बड़ी चीज़ होती थी ! सम्मलित परिवार और ज़मींदारी का बंटवारा १९४९ में हुआ और इतनी शांती से हुआ की किसी को कानो कानो तक खबर नहीं पहुंची !  कई चीज़ नहीं बंटे - जिसमे एक था - हाथी और हथ्सार , कई बगीचे और फुलवारियां ! लालू के आने तक हम उसी अंदाज़ में जीते रहे ! समय बदलता रहा - 'हम इज्जत को ढोते रहे' !

मेरे बाबा 'गांव' लौटने के बाद १९४६ में कॉंग्रेस के मेंबर बन गए ! जिला स्तर से राज्य स्तर तक मेंबरशिप और महत्वपूर्ण जगह मिलती गयी ! पर गृहक्षेत्र से कॉंग्रेस ने कभी 'टिकट' नहीं दिया ! बाबा  जिंदगी भर 'कॉंग्रेस' का झोला और झंडा ढोते रहे  - इसका मलाल मुझे आज तक है और रहेगा ! एक बार 'लालू के एक काबिना मंत्री ' ने मुझ से कहा - 'तुम्हारे बाबा जिदगी भर कॉंग्रेस का झोला उठाया - क्या मिला ? हमको देखो - हमने राजनीति तुम्हारे बाबा से सीखी और अब काबिना मंत्री बन गए ! अब मै उस काबिना मंत्री को क्या कहता - की राजनीति हमारी शौक हुआ करती है - पेशा नहीं !

बाबा के चाचा जी ही घर के अभिभावक थे ! बड़े ज़मींदारों को क़र्ज़ देने का सिलसिला जारी था ! अँगरेज़ १९४० के बाद धीरे धीरे वापस लौटने लगे थे ! अंग्रेजों की सैकड़ो एकड़ में कोठिया होती थी ! मेरे परिवार के लोगों ने भी २ कोठीओं का सौदा कर लिया - एक में एक हज़ार एकड़ ज़मीन और एक में ४०० एकड़ ! पैसे देने के लिए - बोरा में पैसा दाल के 'हाथी' पर लाद दिया गया ! अब घर में एक भी पैसा नहीं बचा था - घर के किसी सदस्य ने बोला - अगर कोई बड़ा ज़मीदार आएगा और पैसे मांगेगा - तो हम क्या बोलेंगे ? "इज्जत , चला जायेगा " ! 'इज्जत बचाने के चक्कर में अंग्रेजों की कोठियां नहीं खरीद पाए " ! एक भी खरीद लिए होते तो - शायद 'चम्पारण और सारण' के सब से धनिक 'भूमिहारों' में गिनती होती !

ज़मींदार थे ! ज़मीन का टैक्स वसूलते थे ! यह एक प्रकार का 'ठिकेदारी' था ! विशुध्द ज़मींदार होने कारण खुद के नाम ज़मीन बहुत ही कम था !  १९५८ में ज़मींदारी प्रथा खत्म हो गयी ! अचानक से परिवार में दिक्कते आ गयीं ! ज़मीन बहुत कम था - बहुत ही कम ! जो सगे सम्बन्धी कल तक - धनी होने के वावजूद सर उठा कर बात नहीं करते थे - अब वो अचानक से बड़े लगने लगे ! कष्ट का दौर शुरू हो गया ! घर की लड़किओं की शादी 'पहाड़' लगने लगी !

अब बस एक ही उपाय रह गया - बच्चों को शिक्षा दो और बढ़िया 'नौकरी' में भेजो ..

क्रमशः ...


रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Wednesday, March 31, 2010

अब 'मंगला' पढ़ेगा !!

गांव याद आ गया ! बचपन में कुछ दिनों के लिए गांव के स्कूल में पढ़ा था ! 'मंगला' नाम था उसका ! मेरे परिवार के लिए माल मवेशी को खिलाने- पिलाने वाले 'फिरंगी' का बेटा ! 'फिरंगी' बहुत गोरे थे इस लिए उनका नाम 'फिरंगी' रखा गया होगा ! हर सुबह दस बजे 'मंगला' अपने घर से मेरे घर आता और हम लोग स्कूल जाते ! और भी कई विद्यार्थी थे ! शादी-शुदा शिक्षिका को हम लोग 'देवी जी ' कहते थे और कुंवारी शिक्षक को 'बहिन जी ' ! 'तिवारी जी माट साहब' , 'सिंह जी माट साहब ' और ना जाने कितने लोग ! कुछ पास के गाँव के रहने वाले तो कोई काफी दूर के रहने वाले ! 'सिंह साहब ' हम लोगों के दालान में ही रहते थे ! शनिवार को वो अपने गाँव चले जाते - साइकील से !

मालूम नहीं कब मै शहर चला आया ! पर , हर छुट्टी में गांव आना - जाना लगा रहा ! कुछ दिनों बाद - गाँव गया तो 'मंगला' को देखा ! वो मेरे घर में बगल वाले मेरे बगीचे में काम कर रहा था ! मै आँगन से उसे देख दौड पड़ा ! उसके हाथ में 'खुरपी' और 'टोकरी' थी ! मैंने बोला - चल , खेलने ! उसका सर नीचा था - खुरपी चलाते चलाते हुए बोला - नहीं , काम करना है ! मैंने - धीरे से बोला - स्कूल जाते हो ?

वोह चुप था !

धीरे - धीरे 'मंगला' के हाथों में खुरपी की जगह 'कुदाल ' ने ले ली ! २ साल पहले गाँव गया तो 'मंगला ' मिला - उसको बोला - चल , दिल्ली - नौकरी दिलवा दूँगा - किसी आफिस में ! वो हँसने लगा - बोला - हम अनपढ़ को कौन नौकरी देगा ! मन दुखी हो गया ! सोचा , अगर 'मंगला' थोडा भी पढ़ा होता तो मेरे साथ दिल्ली में ही रहता - जिंदगी थोड़ी और बेहतर होती !

( यह वर्णन सच्ची है ! भावना में बहने के कारण - पूरी तरह विस्तार से बहुत कुछ नहीं लिख पाया )

आज सुना कल पहली अप्रैल से भारत सरकार ६ से १४ साल के बच्चों के लिए 'शिक्षा' को मौलिक अधिकार बना रही है ! बहुत खुशी हुई ! काबिल कपिल सिब्बल 'शिक्षा' में बहुत परिवर्तन कर रहे हैं - इसका असर क्या होगा ? मुझे नहीं पता ! पर उनकी सोच में इमानदारी है - जिसकी क़द्र होनी चाहिए !

शायद , यह एक बहुत बड़ा कारण है की - मै बिहार में पदस्थापित पुलिस अधिकारी 'श्री अभय आनंद' का एक बहुत ही बड़ा समर्थक हूँ !


रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Thursday, March 11, 2010

बिहार सरकार का विज्ञापन !

मै हर रात १० बजे ईटीवी –बिहार समाचार देखता हूँ फिर अगर मूड हुआ तो १०३० बजे रात ‘महुआ चैनल’ ! कल रात भी देखा – अचानक से ‘महुआ चैनल’ पर नीतीश कुमार नज़र आये वो भी ‘इकोनोमिक टाईम्स अवार्ड’ समारोह में ! पहले तो बढ़िया लगा ! फिर मै चौंका – अरे ये तो ‘विज्ञापन’ है ! सोचा १-२ मिनट तक चलेगा – पर वो १५ मिनट तक चला ! खुशी ज्यादा देर तक नहीं रही ! अब मुझे यह नहीं पता की यह ‘विज्ञापन’ किसने दिया – नीतीश के ‘फैन’ बढ़ रहे हैं – सो सोचा शायद कोई अमीर ‘फेसबुक’ वाला नीतीश कुमार के लिए यह प्रचार कर रहा होगा ! यही सोच मै सो गया ! पर , यह बात कुछ हजम नहीं कर पाया !



शायद , यह विज्ञापन ‘बिहार सरकार’ की तरफ से दिखाया जा रहा होगा ! अगर ऐसा है तो – यह बिलकुल ही गलत है ! बिहार एक गरीब प्रदेश है जहाँ की जनता अपना पेट काट कर ‘टैक्स’ जमा कराती है अगर जनता के खून –पसीना की कमाई को इस तरह ‘व्यक्ति-विशेष’ के इमेज सुधार के रूप में दिखाया जायेगा तो बहुत ही गलत होगा ! दिखाना ही था तो नीतिश कुमार की जगह ‘बिहार की चमकती सड़कें और उन सडकों पर साइकील से स्कूल जाती हमारी बहने और बेटिओं’ को दिखाते तो शायद यह एक बढ़िया सन्देश जाता !

इस तरह के कई करोड के ‘विज्ञापन’ ‘मीडिया’ की झोली में जा चुके हैं – शायद यही एक वजह है – इस साल ‘मीडिया’ ने सब से ज्यादा पुरस्कार ‘नीतीश कुमार ‘ को  दिए हैं ! यहीं से शुरू होता है – लोकतंत्र पर मिल जुल कर ‘कब्ज़ा’ करने की साजिश !




एन डी टी वी के वरिष्ठ पत्रकार ‘रवीश कुमार’ लिखते हैं - पटना में जिस भी पत्रकार से मिला,सबने यही कहा कि ख़िलाफ़ ख़बर लिखियेगा तो नीतीश जी विज्ञापन रोक देते हैं। अगर उनके साथ रहिये तो सरकारी विज्ञापनों का पेमेंट जल्दी मिल जाता है। सरकार विरोधी मामूली ख़बरों पर भी दिल्ली से अख़बारों के बड़े संपादकों और प्रबंधकों को सीएम के सामने पेश होना पड़ा है। पंद्रह साल के जंगल राज को खतम करने में पत्रकारों की संघर्षपूर्ण भूमिका रही थी। नीतीश को नहीं भूलना चाहिए। अभिव्यक्ति की आज़ादी का ही लाभ था कि उनकी सरकार बन पाई। समझना मुश्किल है कि जिस सीएम को जनता सम्मान करती है,लोग उसके काम की सराहना करते हैं, मीडिया भी गुणगान करती है, उसे एकाध खिलाफ सी लगने वाली खबरों से घबराहट कैसी? कोई अच्छा काम करे तो जयजयकार होनी भी चाहिए लेकिन आलोचना की जगह तब भी बनती है जब बिहार में कोई स्वर्णयुग आ जाएगा। पटना के पत्रकार कभी इतने कमज़ोर नहीं लगे।

एक दूसरे पत्रकार दबी जुबान कहते हैं – गुजरात में विकास है पर वहाँ दंगे हुए , बिहार में विकास हो रहा है लेकिन यहाँ जाति के नाम पर ‘प्रतिभा’ का क़त्ल किया जा रहा है ! सभी प्रमुख पदों पर एक य दो जाति के ही लोग बैठे हैं ! उसका इशारा साफ़ साफ़ था !

घमंड का ही अगला रूप ‘अहंकार’ होता है और भगवान का भोजन ‘मनुष्य’ का अहंकार है ! नीतीश कुमार भी एक मनुष्य ही हैं – भगवान नहीं !



रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Saturday, February 13, 2010

कौन बोलेगा की हम ‘बिकाऊ’ हैं

ऐसी टकसाल नहीं जो मुझे खरीद सके : नीतीश

हुज़ूर , कौन बोलेगा की हम ‘बिकाऊ’ हैं ? हुज़ूर कुछ बातें साफ़ साफ़ हैं –



‘उत्पाद एंड मध निषेध’ विभाग के मंत्री हैं – जमशेद शरीफ !

जमशेद शरीफ खुद बहुत बड़े व्यापारी हैं – ईमानदार भी हैं !

‘छः महीना से जमशेद जी, मुख्यमंत्री से मिलना चाह रहे थे “

किसी तरह १४ जनवरी को अपना लंबा खत – मुख्यमंत्री को पहुंचा दिए !

फलस्वरूप , २० जनवरी को उस विभाग की सचिव ‘ विजयलक्ष्मी’ का ट्रांसफर किया गया !

विजयलक्ष्मी जी के पति – नीतीश के सहायक हैं !

दोनों पति – पत्नी आई ए एस हैं !





जमशेद जी को मंत्रिपद से हटाना बहुत मुश्किल होगा – उसके दो कारण है – जमशेद जी भी को कोई टकसाल खरीद नहीं सकता ! और वो अल्पसंख्यक वर्ग से आते हैं – जिसके वोट की जरुरत नीतीश जी को है ! उनको सिर्फ अपने जिद से हटाना – अल्पसंख्यक वर्ग में एक गलत सन्देश जायेगा और जनता भी पूछेगी – किसी ईमानदार मंत्री से खुद को ईमानदार का दावा ठोकने वाले मुख्यमंत्री को इतनी ‘जलन’ क्यों ?



दैनिक जागरण के लिए सरकार के दरवाजे बंद हो चुके हैं – इसके मालिक ने भी ठान ली है ! सरकार का इतना असर है की – किसी भी दूसरे ‘अखबार’ ने इस खबर पर कुछ नहीं लिखा है –



शराब का ठेका जिस किसी भी व्यक्ति विशेष को दिया गया है – वो ‘दरबार’ का सब से करीबी है और अत्यंत पिछड़ा प्रकोष्ठ का अध्यक्ष भी है !


नीतीश भाग्यशाली हैं और ईमानदार भी हैं ! पर मेरे ईमानदार होने का कतई मतलब यह नहीं है की – मेरे परिवार के बाकी सदस्य भी ईमानदार होंगे ! अगर सब कुछ साफ़ है फिर – ‘जांच’ से परहेज क्यों ?
ज्यादा समाचार के लिए आप यहाँ पढ़ सकते हैं – क्लिक कीजिए !











रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Thursday, February 4, 2010

भ्रष्टाचार की जरूरत !

अपूर्व शेखर जी हमसे बहस कर रहे थे – समाज में ‘क्रिमनल’ की कितनी जरुरत है ! वो दलील पर दलील दिए जा रहे थे – खास कर बिहार के सन्दर्भ में ! बढ़िया लगा !



‘क्रिमिनल’ और ‘भ्रष्टाचार’ दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं! चलिए पहले गौर फरमाते हैं – ‘भ्रष्टाचार’ कितना जरुरी है ! बात २००४ की रही होगी – अचानक पटना जाने की जरुरत आ पडी ! सुबह सुबह , नॉएडा के रेलवे टिकट काउंटर पर गया तो भीड़ देख ‘माथा’ घूम गया ! होली का टाइम था ! किसी तरह – ‘पूछ-ताछ’ वाले काउंटर पर पहुंचा – धीरे से बोला – पटना जाना है  एकदम गाय की तरह मुह लटकाए हुए ! काउंटर वाला बोला – ‘हो जायेगा’ ! हम बोले आज के गाड़ी का ! ‘हो जायेगा’ - ‘गौहाटी राजधानी चलेगा ! हम बोले – चलेगा नहीं – दौडेगा ! टिकट मिल गया ! वैसे वहाँ ‘नो रूम’ दिखा रहा था ! बहुत इमरजेंसी था ! अगर ‘भ्रष्टाचार’ नहीं होता – तो हम सपरिवार – दो छोटे छोटे बच्चों के साथ कैसे पटना जाते ! उस ज़माने में – पैसा होते हुए भी मन से ‘हवाई जहाज’ की यात्रा का अवकात नहीं था !



आप सभी के जिंदगी में ऐसे कई अवसर आये हुए होंगे जहाँ ‘भ्रष्टाचार’ के कारण आपको सहूलियत हुयी होगी और आप मन ही मन ‘भ्रष्ट’ अधिकारिओं को दुआ दिए होंगे ! बिहार में ट्रांसफर – पोस्टिंग बड़े बड़े लोगों का एक व्यवसाय है ! अगर यहाँ ‘ भ्रष्टाचार’ ना हो तो – कई चाचा – मामा –लोग प्रतिभा रहते हुए भी ‘झुमरी तिलैया’ जैसे जगहों में जिंदगी गुजार दें ! ‘भष्टाचार’ के कारण ही कई प्रतिभावान लोग राजधानी का मुह देख लेते हैं ! ‘ट्रांसफर-पोस्टिंग’ के समय बिलकुल ही कॉर्पोरेट की तरह ‘भ्रष्टाचारी’ काम करने लगते हैं – एक बड़ा आदमी सौ-पचास का ठीक लेता है फिर खुद वो अपने अंदर डीलर की नियुक्ति करता है और ये डीलर जरुरतमंद और प्रतिभावान ‘अधिकारिओं-इंजिनियर इत्यादीओं को खोज उनसे दाम तय कर के – उनका काम करवाता है ! कई डिपार्टमेंट में देखा गया है की ‘दाम’ में कोई मोल भाव नहीं होता ! दुकानों की तरह – ‘मोल भाव कर हमें लज्जित न करें ‘ !

मेरा यह भरपूर मानना है की – अगर ‘भ्रष्टाचार’ न हो तो – को ‘बाबू’ आपकी फाईल कई वर्षों तक न देखे ! वो तो ‘भ्रष्टाचार’ ही है की आपका कोई रुका काम जल्द से जल्द हो जाता है ! ऐसे लोग ओवर टाईम काम करते हैं – घरों को दफ्तर बना – आपकी जिंदगी महफूज करते हैं !



भ्रष्टाचार के कारण सरकार बनती है – कई बार गिरने से बचती है – देश में ऐसे ‘भ्रष्टाचार’ के कारण ‘राजनितिक स्थिरता आती है जिसका लाभ समाज का हर वर्ग उठता है ! वर्ना आदमी अपने पावर के गुनाम में – न जाने क्या कर बैठे ! वो तो ‘भ्रष्टाचार’ ही जो उसको कुछ काम करने पर मजबूर कर देता है !

 


भ्रष्टाचार से सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढती है ! बाल बच्चों की अच्छी शादी बियाह हो जाती हैं – वरना भूखे नंगे ईमानदार की बेटी से कौन नौजवान बियाह करेगा ?



विशेष , आप लोग भी अपनी प्रतिक्रिया दें ....!




रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Wednesday, February 3, 2010

बिहार बदल रहा है !

    बिहार बदल रहा है ! सड़कें चौड़ी हो गयी हैं ! स्कूल में शिक्षक आ गए ! अस्पताल में डाक्टर ! और क्या चाहिए ! चारों तरफ बिहार के राजा ' नीतीश कुमार ' जी की जयकार हो रही है - पर वो आदमी खुद को समाज का सेवक बताता है ! यही तो बड़प्पन है ! बड़प्पन ऐसा की - रिक्शा पर चढ़ कर वो मनपसंदीदा सिनेमा जाते हैं - सामान्य स्तर के रेस्तरां में डोसा खाते हैं - कभी पानी में तो कभी गाँव में कैबिनेट की बैठक बुलवाते हैं ! गरीब गुरुबा की सोचते हैं - महिलाओं की सोचते हैं ! बिहार को 'भ्रष्टाचार' विहीन बनाने का प्रण लिया है ! अब कोई ट्रांसफर पोस्टिंग पैसा के लेन देन से नहीं होगा ! भ्रष्ट अधिकारिओं के बंगलों में स्कूल खुलेगा ! जय हो ! जय हो ! लोग कहते हैं - जो काम पिछले १५-२० साल में नहीं हुआ - वो राजा बाबू ने ३-४ साल में कर दिखाया है ! जनता - जनार्दन को और क्या चाहिए !

राजस्व में इजाफा हुआ है ! गली - मोहल्ला में 'पाउच' बड़े ही सुलभता से मिलने लगा है ! अब आप 'बिहारी' नहीं हैं तो पाउच का अर्थ हम कैसे समझाएं ? इंडिया टुडे का यह समाचार पढ़ लीजिये - क्लिक करें
 
अगर आप बिहारी पत्रकार हैं - कुछ नुक्ता चीनी कर रहे हैं - जिससे ' बिहार' की गलत छवी पेश हो रही है - तो तुरंत आपको कोई दरबारी 'टोक' देगा - कृपया , दुष्प्रचार ना करें ! अगर फिर भी आप नहीं माने - तो बहुत सारा उपाय है !
 
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Monday, February 1, 2010

राजा शयन-कक्ष में आराम हेतु चले गए हैं !

'मेहताना' की आवाज़ मजदूरों ने बुलंद कर दी है ! आपको यहाँ तक ठेल कर लाने वाले - अब , पसीने की कीमत मांग रहे हैं ! आपको ठेल कर गद्दी तक पहुँचाने वाले - आपके चवन्नी और अथ्ठंनी से खुश नहीं हैं - आपके जैसे जिद्दी को ठेलना आसान नहीं था ! आप अकड़ में ही बैठे रहते थे ! रास्ता मुश्किल था - फिर भी आपको ठेल -ठाल के यहाँ तक पहुंचा diya ! पर जब आप अपना 'बटुआ' खोलने लगे तो - 'अशर्फी' और 'गिन्नी' अपने परिवार में बाँट दिए ! वो मजदूर आपके लिए अछूत बन गए ! पसीने से तर-बतर 'थोडा' स्वार्थ में लथ-पथ मजदूर अब आपको 'बेईमान' लगने लगे हैं ! आप भी होशिआर हैं - पहाडी पर खुद को ठेल्वाते वक़्त - कितना प्रलोभन दिया था - बस 'गद्दी' तक पहुँचने दो ! तुम मजदूरों पर 'अशर्फी' लुटाऊँगा ! 'कोहिनूर ' को तेरे ताज पहनाऊँगा ! १५ साल से भूखे गरीब - मजदूर - लालच में आ गए ! फटेहाल वस्त्रों को न देख - 'कोहिनूर' की कल्पना करने लगे ! काश ! काश - एक बार समझ जाते - ये भी बेईमान निकलेगा ! 'अशर्फी' अपने परिवार के नंगों और लंगड़ों को देगा ! पर , अब तो चिडिया चुग गयी खेत !



राज दरबार लगा है ! हुज़ूर , कुछ मजदूर महल के आगे चिल्ला रहे हैं - 'मेहताना' मांग रहे हैं ! राजा मृदुभाषी हैं ! सुना है अब वो 'गदरा' गए हैं ! बोले - अरे भाई , रोज तो चवन्नी दे रहा था ! क्या इससे पेट नहीं भरा ? हुज़ूर , वो अशर्फी की मांग कर रहे हैं ! राजा बोले - बेवकूफ हैं - क्या किसी ने पराये को अशर्फी दिया है ? दरबारी - जय कार करने लगे ! मजदूरों की आवाज़ खो गयी !



राजा शयन-कक्ष में आराम हेतु चले गए हैं ! दरबारी आज का अशर्फी गिनने में लग गए !

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Friday, January 29, 2010

नितीश को बैसाखी की जरुरत नहीं रही ...

"आईडिया सेलुलर" का एक प्रचार आया था ..जिसमे 'भूमिहार और कुर्मी' की लड़ाई दिखाई गयी थी ! एन डी टी वी - इंडिया ने एक छोटी रिपोर्ट भी बनाई थी ! 'आईडिया' के श्रीवास्तव जी बहुत खुश होकर रविश को बता रहे थे - कितना 'क्रिएटिव' प्रचार है ! अब यह सच्चाई हो गयी है ! सत्ता में भागीदारी को लेकर लड़ाई तेज़ है ! पर यह लड़ाई सिर्फ 'भूमिहारों' तक ही सीमित नहीं है -  नितीश के खिलाफ  कायस्थो  के महनायक शोट गन सिन्हा प्रथम दिन से ही 'मोर्चा' खोले हुए हैं ! ब्राह्मणों ने काफी पहले से शंख नाद शुरू कर दिया था ! बहुत मामूली वोट से हारने के बाद कल तक संसद में नितीश की आवाज़ बुलंद करने वाले 'प्रभुनाथ' की आवाज़ उनकी जाति में 'धिक्कार' के रूप में गूँज रही है ! 'ललन' को किनारा कर - 'नितीश' ऐसे खुश हैं जैसे - किसी लंगड़े ने बिना "बैसाखी" चलना शुरू कर दिया हो ! पर शिवानन्द को यह आशा है की बिहार की 'राजनीती' में बिना बैसाखी बैठा तो जा सकता है पर 'दौड़ा' नहीं जा सकता !



जात की राजनीति बिहार , भारत या विश्व के लिए नया नहीं है ! ये होता आया है और किसी न किसी रूप में यह हमेशा रहेगा ! नितीश से खुश देश की राजधानी में बैठे - पत्रकार लोग विकास की दुहाई दे रहे हैं ! देना भी चाहिए ! कुछ भी गलत नहीं है ! लेकिन क्या १५ साल तक बिहारी बेवकूफ बने रहे - लालू-रबरी को गद्दी पर बैठा कर ! मेरा ऐसा मानना नहीं है ! लालू ने कभी विकास की बात नहीं की - और उन्होंने 'विकास' के नाम पर कभी वोट नहीं माँगा ! उन्होंने हमेशा दबे कुचले की बात की और एक नया सामाजिक समीकरण बनाया - "माई" का ! इसमे ऐसा फेवोकोल लगा की वो १५ साल तक वो हिले दुले नहीं ! 'सवर्ण' की हमेशा खिलाफ करने वाले - नितीश कुमार जब १९९४ में 'कुर्मी' महारैली में गरज रहे थे - तो मुझे याद है - डर से पटना के सभी सवर्ण घर अन्दर से बंद कर लिए गए थे ! सरकार के नाच के नीचे - दहशत का वातावरण ! पूरा पटना में लाउड-स्पीकर लगा था ! नए बिहार में यह सब से पहला जातिगत आधार का 'महारैली' था ! नितीश स्वाभिमानी हैं ! अड़े रहे - सवर्ण से खुद को दूर किये रहे ! सवर्णों  के पास कोई उपाय नहीं रहने के कारन - वोह धीरे धीरे भाजपा में घुसने लगे - या फिर निर्दलिये उम्मीदवार ! १९९५ और २००० के चुनाव में नितीश बिना सवर्ण ही लालू से लड़े ! फायदा लालू को मिलाता रहा ! पर 'मुख्यमंत्री' बनाने की चाहत में - २००० में वो १४ सवर्ण निर्दलिये विधायकों की बदौलत ७ दिन के लिए मुख्यमंत्री बने ! इन विधायकों का नेतृतव कर रहे थे - 'मोकामा' से भारी मतों से जीते हुए - महा बाहुबली - "श्री सूरज सिंह " उर्फ़ "सूरजभान" ! कब कोई यह कैसे कह दे की - सूरज सिंह का मनोबल किसने और क्यों बढाया !



पर नितीश अड़े रहे ! सवर्ण से नजदीकी उन्हें किसी कीमत पर मंजूर नहीं थी ! फ़रवरी २००५ में हुए चुनाव का फायदा 'पासवान' ने उठाया ! पर सरकार किसी की नहीं बन सकी ! वो घड़ी कितनी मनहूस रही होगी - जब नितीश बुझे मन से 'पासवान' की पार्टी में शामिल 'सवर्णों' को अपने दल में मिलाने की दल की सहमती पर मुहर लगाई होगी ! कीमत तय हो गया था ! 'सत्ता' में भागीदारी ! 'लल्लन' दल प्रमुख बने ! 'प्रभुनाथ' को कुछ इलाके दे दिए गए - जहाँ सिर्फ और सिर्फ उनके कहेनुसार ही कुछ भी होता था ! नितीश पर दबाब बन रहा था ! लालू की तरह - नालंदा के कुर्मी - खुद को सरकारी जात के रूप में देखना चाह रहे थे ! घर सबको प्यारा होता है और परिवार और ज्यादा ! अब निशाने पर थे - प्रभुनाथ और ललन के प्यादे ! राजनीति की शतरंज चालू हो गयी - एक - एक कर सभी प्यादे गिरने लगे ! लोकसभा में नितीश सभी जगह पर जीत गए - रुढी और प्रभुनाथ जीता हुआ चुनाव हार गए ! छपरा में नितीश ने बड़े भाई की लाज बचा - एक तीर से कई निशाने किये ! मुंगेर में भी वही होने वाला था - पर नितीश वहां कमज़ोर हो गए ! ललन जीत कर भी चुनाव हार गए ! ...






क्रमशः..
 
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Thursday, January 28, 2010

नितीश कुमार दूध के धुले हैं - बाकी सब चोर !!!

नितीश कुमार ने नया कानून लाया है ! बढ़िया है ! पर मेरे भी कुछ सवाल हैं - हुज़ूर , आपके पहले तीन साल में सिर्फ और सिर्फ आपका एक डिपार्टमेंट करीब १०० करोड़ का प्रचार अखबारों में करता है ! अगर पांच साल का हिसाब जोड़ा जाये तो यह आंकड़ा करीब २०० करोड़ तक पहुँच जायेगा ! बढ़िया है - आपके काम का प्रचार तो होना ही चाहिए ! जी यह डिपार्टमेंट आपके खासमखास अधिकारी चलाते हैं जो खुद एक बहुत बड़े नेता के दामाद हैं और उनके बड़े भाई 'दिल्ली' में एक बहुत बड़े अखबार समूह में संपादक ! इस डिपार्टमेंट का काम है आपके काम काज को जनता तक पहुँचाना ! २०० करोड़ खर्च दिए गए ! जी , किसी राजा राजवाडा ने यह पैसा दान में नहीं दिया था - शायद यह पैसा हम जनता के खून पसीना की कमाई का है ! तभी तो आप भ्रष्ट अधिकारिओं के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं ! २०० करोड़ में करीब २०० बेहतरीन स्कूल खोले जा सकते थे - पर आपके काम - काज का प्रचार भी तो करना जरुरी था !


हुज़ूर , ऐसा कहा जाता है की आपके शासन काल में जिला के कलक्टर और पुलिस कप्तान जब तब बदल दिए गए ! क्या आप यह दावा कर सकते हैं के इस तरह के तबादला बिना किसी लेन देन या जातिगत दुराग्रह के बिना किया गया ! पटना के कई 'मलाईदार' जगहों पर सिर्फ और सिर्फ एक ही जाति और क्षेत्र से आते हैं ! क्या यह सही नहीं है की - आपका एक पुलिस कप्तान जब तक पटना में रहा - खुलेआम कुछ ख़ास जातिओं को गाली देता फिरता था ! क्या ब्राह्मण , राजपूत , भूमिहार में जनम लेना अपराध है ? अगर यह है तो कृपया कोई ऐसा कानून लायें - जिससे इनका जात बदला जा सके !

क्या यह सही नहीं है की आप 'बटाईदार' कानून लाने को बेताब हैं - फिलहाल के लिए यह ठन्डे बसते में दाल दिए हैं - पर जैसे ही आप अगला चुनाव जीतेंगे - यह ठंडा बस्ता से गरम बस्ता में आ जायेगा ! यह कानून बहुत जरुरी है - पर क्या यह आपके गृह जिले में भी लागू होगा ! वहां मत कीजिएगा - वरना हर बार की भांति आप अपने जिले में भी चुनाव हार सकते हैं ! अब राजा हारने के लिए थोड़े ही राजा बना है ?

क्या यह सही नहीं की - पटना जिला के एक ख़ास इलाके में एक ख़ास जाति के जमीन कौड़ी के दाम सरकार ने हजारों एकड़ के रूप में ख़रीदा है - आज ये किसान खुश हैं - लेकिन ये पैसा जैसे ही ख़त्म होगा - ये अस्तित्व विहीन हो जायेंगे - जड़ विहीन भी ! आपने पुनपुन और फतुहा के इलाकों के ज़मीन का अधिग्रहण इसलिए नहीं किया क्योंकि वहां आपके जाति के लोगों की जनसँख्या ज्यादा है !

क्या यह सही नहीं है की एक राष्ट्रीय राजमार्ग का रास्ता सिर्फ और सिर्फ इसलिए बदल गया की आपका घर और आपका कुछ जमीन भी अधिग्रहण हो रहा था ! और करीब चालीस किलोमीटर तक 'सवर्ण' जातिओं के जमीन के दाम बढ़ रहे थे ! या फिर उनके रोजगार के अवसर ! सिर्फ चालीस किलोमीटर के चक्कर में आप ने राष्ट्रीय राजमार्ग का १०० साल पुराना इतिहास और भूगोल बदल दिया !
 
क्रमशः
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Thursday, January 7, 2010

रविश कुमार


 हिंदी इलेक्ट्रोनिक मीडिया रिपोर्टिंग में दो नाम हैं - जो बेमिसाल है - कमाल खान और रविश कुमार ! बहुत पहले की बात है - इनका कोई रिपोर्ट देखा और अपने एक स्कूल के सिनिअर से पूछा - भैया , ये बिहारी लगता है ! वो बोले - हाँ बिहारी है और वैशाली में ही रहता है ! तब से आँखें रविश कुमार को खोजने लगी ! हर रिपोर्ट मै देखने लगा - पाकिस्तान यात्रा , पंजाब के स्कूल की दास्ताँ और इसरो की चाँद यात्रा तो दिल को छू गयी ! मै काफी दिनों से "ब्लॉग दुनिया " में था ! पर , कभी ख्याल ही नहीं आया की - रविश कुमार भी ब्लॉग लिख सकते हैं ! एक दिन खोजा और रविश कुमार का "क़स्बा" मिल गया - जो नयी सड़क पर बना था ! एक ही सांस में सब कुछ पढ़ गया ! बहुत ही बढ़िया लगा था ! अब मै हर रोज उनके "क़स्बा" पर जाने लगा - साथ में और भी कई दोस्त जाने लगे ! अति सुन्दर लिखते हैं ! पर , वो भी एक मानव है - उनकी भी अपनी खुद की एक सोच होगी - जो उनके कार्य से अलग होगी ! यह मैंने कभी नहीं सोचा और उनके एक लेख पर हुयी बहस - हिंदुस्तान दैनिक के पहले पृष्ठ की खबर बन गयी ! दुःख हुआ - बहुत ही ज्यादा ! यहाँ - मुझे अपनी "ताकत" का यह्सास हुआ !आम आदमी कितना कमज़ोर होता है ! 
 खैर , समय बलवान होता है - सम्बन्ध थोडा सुधरे - उनके "क़स्बा" के बिना चैन कहाँ ! "खुशामद" और "पैसा" सबको अच्छा लगता है ! शायद मै मीडिया का नहीं हूँ और न ही एन ड़ी टी वी में नौकरी की लालसा है सो कभी कभी उनके "क़स्बा" में कड़वी बातें कर देता हूँ - जो उनको बिलकुल ही पसंद नहीं आती होगी ! पर , मेरी भी मजबूरी है ! हम दोनों ने शायद एक ही वर्ष में मैट्रिक पास किया है ! हम उम्र हैं - वो "ख़ास" हैं ...मै " आम" रह गया ! वो कभी कलक्टर का परीक्षा नहीं दिए और मैंने कभी आई आई टी की नहीं ! वोह कहते हैं - मैंने भी आई आई टी की परीक्षा नहीं दी - परीक्षा वाले दिन दरवाजा बंद कर के सो गए ! शायद प्रतिस्पर्धा से घबराते हैं ! तभी तो कई साल से एक ही जगह लटके हुए हैं ! :)
अब वो एंकरिंग करते हैं ! रिपोर्टिग के बेताज बादशाह थे ! कंपनी ने एंकरिंग में धकेल दिया ! शुरुआत उतनी अच्छी नहीं रही ! पर , सुना है अब वो रंग - बिरंगे स्वेटर में अपनी हम उम्र महिलाओं में लोक-प्रिये हो रहे हैं ! कई दिन हो गए - टी वी नहीं देखा ! शायद अगले महीने से देखूं ! सम्संग का एल ई ड़ी वाला टी वी लेने के बाद !


रविश फेसबुक पर भी लोकप्रिय हैं ! कुछ ही दिनों में उनके २००० दोस्त हो जायेंगे ! वो कुछ भी लिख देते हैं - कम्मेंट्स की वर्षा हो जाती है ! मेरे गाँव के इमली के पेड़ के नजदीक वाला भूत भी इतना लोकप्रिय नहीं हुआ होगा !


रविश कुमार , बिहार के "मझऊआ " कहे जाने वाले जिला - पूर्वी चंपारण के शिव मंदिर के लिए महशूर "अरेराज" के पास के रहने वाले हैं ! वो अपने पिता से बहुत करीब थे - उनके ब्लॉग पर कई जगह उन्होंने अपने पिता की चर्चा की है ! पटना के बेहतरीन अंग्रेज़ी स्कूल - लोयला से पढ़े लिखे हैं ! सब से बड़ी खासियत यह है की वो - रीअक्टिव नहीं हैं - मध्यम वर्ग से आते हैं - सो मध्यम वर्ग की रहन - सहन और सोच पर पकड़ है और यह उनके लेखनी में नज़र आता है ! शालीनता और सोच से वो अपने उम्र से काफी आगे हैं ! पत्नी शिक्षिका हैं और एक प्यारी बेटी भी है !


मै हमेशा ही उनके किसी स्पेशल रिपोर्ट की आशा में लगा रहता हूँ - नहीं मिलाने पर ...यू टिउब पर उनको देखता हूँ !
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Monday, October 26, 2009

अब डाकिया चिठ्ठी नहीं लाता !

अब चिठ्ठी नहीं आती ! कॉलेज में था - बाबा का चिठ्ठी आता था , माँ और बहन का भी आता था ! चिठ्ठी मिलते ही - कई बार पढ़ता था - घर से दूर था ! फिर चिठ्ठी को तकिया के नीचे या सिरहाने के नीचे रख देता - फिर कभी मौका मिलता तो दुबारा पढ़ लेता ! बाबू जी को चिठ्ठी लिखने की आदत नहीं थी सो वो केवल पैसा ही भेजते थे ! किसी दिन डाकिये ने अगर किसी दोस्त का चिठ्ठी हमें पकडा देता तो हम दोस्त को खोज उसको चिठ्ठी सौंप देते ! बड़ा ही सकून मिलता !




मुझे चिठ्ठी लिखने की आदत हो गयी थी - लम्बा लम्बा और भावनात्मक ! बाबा , दादी , माँ - बाबू जी , बहन सब को लिखा करता था ! और फिर कई सप्ताह तक चिठ्ठी का इंतज़ार ! धीरे धीरे चिठ्ठी की जगह बाबू जी के द्वारा भेजे हुए "ड्राफ्ट" का इंतज़ार होने लगा ! और फोन भी थोडा सस्ता होने लगा ! अब धीरे धीरे बाबू जी को फ़ोन करने लगा - END MONEY - SEND MONEY !



कभी प्रेम पत्र नहीं लिखा - आज तक अफ़सोस है ! पर शादी ठीक होने के बाद - पत्नी को पत्र लिखा - जिन्दगी की कल्पना थी - अब हकीकत कितना दूर है !
 
अब ईमेल आता है - अनजान लोगों का ! जिनसे कभी मिला नहीं - कभी जाना नहीं - जबरदस्ती का एक रिश्ता - जिसमे खुशबू नहीं , कोई इंतज़ार नहीं ! फ़ोन पर कई बार दिल की बात नहीं कह पाते हैं लोग फिर क्यों न चिठ्ठी का सहारा लिया जाए !

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Friday, October 23, 2009

आज खरना है - कल्ह सँझिया अरग !!!

आज खरना है - शाम को खरना का प्रसाद खाने अपने मित्र अभय के घर जाऊँगा ! मदर डेयरी के दुकान में सब्जी नहीं आ रहा है - किराना वाला होम डेलिवरी नहीं कर रहा है - कहता है - सभी वर्कर बिहार चले गए हैं ! मुझे लगता है - अब "छठ पूजा" को राष्ट्रिये अवकाश घोषित कर देना चाहिए ! संजय निरुपम हर साल की तरह इस साल भी मुंबई में पूजा मना रहे हैं ! पटना के अखबार छठ पूजा के समाचार और तैयारियां की खबरों से रंगे पड़े हैं ! पढ़ कर अछ्छा लगता है ! दिल्ली वाले अखबार भी ! न्यूज़ चैनल में बहुत बिहारी भरे पड़े हैं - सो सभी कुछ न कुछ समाचार या रिपोर्ट जरुर डालेंगे ! आज टाइम्स ऑफ़ इंडिया में कुछ खबर छपा है - एक सांस में पढ़ डाला - ऐसा लगा - यही अपना है - बाकी सब पराया !




दादी पूजा करती थी ! अब मेरे घर में कोई नहीं करता है ! लेकिन छठ पूजा एकदम से खून में समाया हुआ है ! गाँव , पटना याद आने लगता है और मै भावुक हो जाता हूँ ! हम बिहारी मजदूर होते हैं - एक यही पर्व है जिसमे हम सभी अपने मिटटी को याद कर मिटटी की सुगंध पाने के लिए गाँव जाते हैं ! मालूम नहीं कब मै मजदूर से एलिट बन गया और गाँव जाना बंद हो गया - पर खून को कैसे बदल दूँ ??



बड़ा ही महातम का पर्व है - बच्चों को अपने संस्कृति और सभ्यता से वाकिफ कराने को तत्पर रहता हूँ - डर लगा रहता है -



आज नीतिश भी अपने किसी "नालंदा" वासी मित्र के यहाँ प्रसाद खाने जायेंगे !

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Thursday, July 30, 2009

दलाली - एक राष्ट्रिये पेशा !

पटना याद आ गया ! वहां एक बस स्टेशन होता था - हार्डिंग पार्क ! हम लोग रिक्शा से वहां तक पहुंचते - अभी रिक्शा रुका भी नहीं की "दलाल" चारों तरफ से घेर लेते थे ! कोई "डोलची" उठा लिया तो किसी ने रिक्शा वाला का हाथ पकड़ लिया और किसी ने धकेल के किसी बस में चढा दिया ! "लेडिज" सीट खाली होता - वहां बैठा देता और चटक से टिकट भी काट लेता ! फिर कोई "लेडिज" आती तो हमें सीट से उठा भी देता ! जिंदगी में कई अवसर ऐसे आयेंगे जहाँ आप खुद को "दलालों" के हाथ मजबूर पाएंगे ! दिल्ली का मशहूर पेशा "दलाली" है ! कहते हैं - यहाँ के "दलाल" इतने मजबूत हैं की आपको मंत्री तक बनवा सकते हैं ! ( मुझे विश्वास नहीं होता ) पर बड़े अधिकारी के इर्द गिर्द आपको दलाल जरुर मिल जायेंगे ! इनके अपने फायदे भी हैं - सही "दलाल" मिल गया तो आपका "काम" आसानी से हो सकता है ! ड्राइविंग लाइसेंस बनाने से लेकर हवाई जहाज का टिकट तक - सब कुछ दलाल के हाथों में है ! दिल्ली के स्कूल में एडमिशन में दलालों की बड़ी भूमिका है ! दिल्ली में मकान या फ्लैट आप बिना DALAL के मदद से नहीं ले सकते ! अब तो कई बड़े और इज्जतदार लोग भी "दलाली" के पेशा में आ गए हैं ! मेहनत कम और कमाई ज्यादा !

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Tuesday, July 21, 2009

१० बजिया स्कूल और नौकरी !

सुबह सुबह "झड़प" शुरू हो जाता है ! ६ बजे से ही चिल्ल पों , आधा नींद में रहते हैं - श्रीमती जी का श्लोक शुरू   ! बच्चा लोग को स्कूल के लिए तैयार करो - अभी एक का टाई नहीं मिला रहा है  तो दूसरे का बेल्ट खो गया :( मतलब की अजीब हाल रहता है  ! बस्ता चेक करो - लंच देखो ! नहाओ - धुलाओ , फिर बस पर् चढाओ - चार बार बस में झाँक के देखो बच्चा लोग बढ़िया से बैठ गया है की नहीं  ! सकून  से किसी दिन 'अखबार' नहीं पढ़ पाते हैं ! ऊपर से रोज पत्नी का श्लोक - अखबार नहीं पढते हैं तो इतना सारा अखबार क्यों लेते हैं - मजबूरन रोज रात सोने के पहले सभी अखबार को पढ़ना पड़ता है ! आजकल नया ताना शुरू है - इतना रात तक फेसबुक पर् आप क्या करते हैं ..अब हमको इस् वक्त सिर्फ मुस्कुराना है ..वर्ना 'बम्ब' किसी दिन फटा फिर ..लैपटॉप चौथे मंजिल से सीधे निचे नज़र आएगा ! हा हा हा ...
बच्चा लोग को स्कूल बस में चढाओ के आओ तो खुद भी तैयार होना है - उम्र हो गयी - रोज शेविंग करो फिर आठ बजे तक तैयार भी होना है - जब तक हम तैयार होकर ब्रेकफास्ट टेबल पर् बैठ नहीं गए - तब तक 'झिक झिक' ! सड़ा - गला जो मिल गया चुप चाप खा लीजिए ! 


हम लोग १० बजिया स्कूल में पढ़ते थे ! सुबह आराम से उठा - नास्ता वैगरह किया और चटाई / चौकी पर पालथी मार के - २ दूना २ हिसाब बनाया ! आराम से 'हर - हर गंगे' कहते हुए नहाये ! तब तक 'कूकर' वाला गरम गरम भात तैयार हो गया ! आराम से पालथी मार् के खाये - बाबु जी के साथ - वो उधर निकले - हम इधर साइकिल पर् पैडल / या अधिकतर दिन पैदल ! रास्ता भर - राष्ट्रपति से लेकर गावस्कर - कपिलदेव का डिस्कशन ! राजेन्द्र नगर 'गुमटी' को पार किये ! कहीं कोई मदारी मिल गया तो थोडा देर उसको देखे - कहीं कोई ठेला पर् 'ताश' का जुआ दिखा रहा तो उसको देखे - फिर 'वैशाली' सिनेमा हौल को निहारते - पहुँच गए 'स्कूल' ! भर दम पढ़े - गप्प किये - खेले फिर शाम चार बजे वापस ! चार बजे - फटा हुआ ग्लव्स / टूटा हुआ बैट लेकर खेल के मैदान में ! नौवा - दसमा में गए तो शाम को 'मोहल्ला' में घूम 'छत - बालकोनी' भी देखने लगे ! :) फिर शाम को सात बजे से नौ बजे तक बाकी का सब्जेक्ट या फिर कोई चाचा - मामा टाइप आईटम आया हुआ हो तो उसका गप्प सुनना ! पौने नौ बजे उधर टीवी / रेडियो पर् समाचार शुरू हुआ - इधर जोर से भूख लगा - किचेन में जाकर खडा हुए ! रोटी दूध खाए फिर सूत गए ! 



पटना में दस बजिया नौकरी भी मस्त होता है ! दस बजे आराम से खा कर - वेस्पा स्कूटर से निकल जाईये ! रास्ता में दो खिल्ली पान खाईये और चार खिल्ली पैक करवा लीजिए - टकधूम - टकधूम करते ओफ्फिस !  अब तो बाबु जी पटना के मशहूर एक प्रोफेशनल कॉलेज में पिछले नौ साल से एच ओ डी हैं - मैंने पूछा - बाबु जी , जो लोग लेट आते हैं या जल्द जाते हैं - उनको कैसे इजाजत मिल जाती है - बाबु जी बोले - कुछ नहीं - जैसे वो डिपार्टमेंट में घुसा - मेरे सूट की बडाई करने लगेगा - हम समझ जाते हैं - आज ये लेट आया है या फिर जल्दी भागेगा ! बिहार सरकार का दस बजिया नौकरी मस्त है - आप इसी नौकरी में बेटा के परीक्षा के बाद 'कॉपी' के पैरवी कर सकते हैं - सगे सम्बन्धी के बाल बच्चा के बियाह का  बरतुहारी  कर सकते हैं  - ये सब यहाँ 'मेट्रो' में पोस्स्बिल नहीं है - जमाना हो गया - किसी का 'बारात' गए हुए - सारे सगे सम्बन्धी से लगभग दुश्मनी हो चुकी है - मालूम नहीं कौन आएगा ..मेरे बाल बच्चा के बियाह में ! :(

खैर ..मेट्रो में बियाह - शादी में ज्यादा हेडक नहीं है - किराया पर् 'मामा - फूफा' लोग मिल जाते हैं ! कुछ साल पहले प्रगति मैदान में एक बियाह में गए - बहुत देर तक बारात नहीं लगा तो मैंने पूछा - क्या हुआ भाई - पता चला - 'फूफा-मामा' के लिये जिस टेंट हाउस वाला को बोला गया था ..उसका मोबाईल स्विच ओफ्फ है और किराया पर् बढ़िया 'मामा-फूफा' लाने के लिये पैसा एडवांश में दे दिया गया था - थोड़ी देर बाद - एक बढ़िया फोर्ड कार में मामा - फूफा आये - धीरे से बोला 'एक दूसरी बारात' अटैंड कर रहा था - पटना का सुल्तानगंज का बैंड बाजा वाला सब याद आ गया - एक लगन में तीन बारात वो सब अटैंड करता था - वही हाल मेट्रो में 'मामा-फूफा' लोग का है  ! ये एकदम सच घटना है ! हम उस पूरी रात सो नहीं सके - लगा जैसे अब मेरे 'अस्तित्व' पर् डाका पड़ने को है !

और क्या लिखूं ..परेशान हूँ ..!


रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Monday, May 18, 2009

ले लीजिये न , प्लीज !!!

ले लीजिये न , प्लीज !!!
लालू जी : ये मैडम , प्लीज , ले लीजिये न हमारा समर्थन ! देखिये न , हम तीनो भाई लोग एकदम लाईन में खडा हैं ! रात से खाना नहीं खाए हैं - एकदम भूखे हमर पेट फूल के ढोलक हो गया है ! आप समर्थन ले लीजिये गा ता हम कुछ खायेंगे पीयेंगे ! ए , रघुवंश बाबु , जगातानंद बाबु , ए उमाशंकर जी - आप लोग कहे नहीं अपना जात भाई - दिघ्घी राजा को कुछ समझाते हैं ! का दो का दो - कलह से बकर बकर बोले जा रहे हैं ! कहिये ना - लालू जी अब हम तीनो लोग के नेता हैं ! ए अमर भाई - का ई आप इगो धर लिए हैं - जाईये , दिघ्घी रहा के गोर धरिये ! "राजा ता राजा ही नु रहेगा " ! जब हम मैडम का गोर धर सकते हैं ता आप को कहे लाज लगता है ! बुरबक - राजमहल से खाली हाथ लौटेगा ?
दिघ्घी राजा : हा हा हा हा !
मुलायम : ये तो पुरे रावन की तरह हंस रहे हैं !
लालू : ( मुलायम के कान में ) : एकदम आप उत्तर प्रदेश के पक्का अहीर रह गए ! देखिये 5 साल हम दिल्ली में रह कर कितना बदल गए ! आप लोग एकदम से मेरा चांस डूबा दीजिए गा !
मुलायम : लालू जी , आप बहुत फालतू बोलते हैं - इस कारन से ही आपके यहाँ हम सम्बन्ध नहीं किये !
दिघ्घी राजा : अरे आप लोग लड़िये नहीं ! सब बात मैडम के ड्राइंग रूम तक जा रहा है ! अच्चा ये बताएं - आप दो तो नज़र आ रहे हैं - तीसरा कौन है - लाइन में ?
लालू : ए हो , ए हो देवेगौडा भाई ? किधर गए ? धत् , ई जतरा पहर - चाय पीने चले गए का ? बेटा जो न करावे ?:( राजा जी , ई अपना देवेगौडा भाई भी हैं - तीन थो साथ में हैं ! ई भी कर्नाटका के अहीर हैं !
मुलायम : अमर जी , किधर गए ? अरे भाई , जयाप्रदा कहीं भागी नहीं जा रही है - इधर - राजा साहेब से बात फाइनल कीजिए और मैडम से टाइम ले लीजिये , मिलाने का ! ( लालू जी को ड्राप भी किया जा सकता है - कान में )
लालू : हमको सब सुनायी देता है ! राजा बाबु - ई ड्राइंगरूम में मैडम इतना देर से किस से फ़ोन पर बात कररही हैं ?
दिघ्घी राजा : हा हा हा हा हा हा हा हा ! कोई है , आपके प्रदेश से !

Tuesday, May 5, 2009

हमारी बहने और बेटियाँ

कल शाम से ही न्यूज़ चॅनल पर शुभ्रा सक्सेना , शरणदीप कौर और किरण कौशल के चर्चे शुरू हो गए ! आखिर हो भी न , क्यों ? भारत में मध्यम वर्ग के लिए बना बेहतरीन नौकरी "आई ० ए ० यस ०" की परीक्षा में इन तीनो ने प्रथम , द्वितीये और तीसरा स्थान प्राप्त किया है !
दोपहर में भोजन करने गया तो रजत शर्मा वाले न्यूज़ चैनल पर इनके बारे में थोडा डिटेल से दिखाया जा रहा था ! बेटी और बीबी दोनों ध्यान से देख और सुन रहे थे और मै कनखियों से !
कुछ दिन पहले मेरे एक दोस्त ने कहा था - "किसी भी समाज के स्तर को जानना है तो उस समाज में औरत की क्या स्थिति है - वो पता करो " ! कहने का मतलब - किसी भी परिवार , गाँव , जात , शहर , राज्य या देश की सही मायने में उन्नत्ती पता करना चाहते हैं तो हमें यह देखना होगा की - वहां की औरत को कितना सम्मान और अधिकार मिला है !
बचपन दिन याद आ गया - जहाँ कहीं भी अपने अधिकार के लिए कोई महिला पाई गयी - उसको इंदिरा गाँधी की संज्ञान दे दी गयी ! दूर से ही लोग उसे इंदिरा गाँधी बोलने लगते थे ! अब कोई भी इन महिलाओं को इंदिरा गाँधी नहीं कहता - या यूँ कहिये - स्वीकार कर लिया है !
किसी परिवार में किसी महिला का राज चलता था तो उसे "पेटीकोट" राज कहते थे - अब ऐसे शब्द सुनायी नहीं देते हैं - सिवाय भारतीये जनता पार्टी के नेतागण के मुह के अलावा !
अब "इंदिरा गाँधी " और "पेटीकोट राज " की जगह - इंदिरा नूयी , कल्पना चावला और अब शुभ्रा सक्सेना जैसी महिलाओं ने ले लिया है ! लेकिन इस परिवर्तन को आने में काफी वक़्त लग गया ! और अभी बहुत कुछ बाकी है !
आर्थीक रूप से अगडा पंजाब में सब से ज्यादा "भ्रूण" हत्या होती है - यह या इस तरह का समाज कभी भी सही अगड़ा का पहचान नहीं हो सकता ! इससे लाख गुना बेहतर बिहार के गाँव का वोह गरीब है - जिसके यहाँ कन्या पूजा का प्रचलन है !
हमारे हिन्दू समाज में कन्या को हमेशा देवी का अवतार माना गया है - मसलन - शादी के समय - सिन्दूर दान के ठीक पहले - कन्या - वर के दाहिने तरफ बैठती है - मतलब वोह पुजनिये और आदरनिए है !
कुछ लोग समाज में बढ़ते तलाक़ को महिलाओं की प्रगती से जोड़ कर देखते हैं - मै ऐसा नहीं मानता - महिला तो मानसिक रूप से आगे बढ़ गयी - लेकिन में पुरुष अभी भी वहीँ है - फिर खुद अपने पैरों पर खडी महिला - कब तक अत्याचार सहेगी ?
अब अपनी सोच में बदलाव लायें - और बहन - बेटी को समोचित स्थान दें - अभी भी समय है -
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

श्रीमती शुभ्रा सक्सेना इंदिरापुरम में ही रह कर पुरे भारत में सर्वोच्य स्थान प्राप्त किया - उनका प्रारंभिक पढाई - लिखाई - बोकारो के इर्द गिर्द हुयी - जो इनके प्रेरणा श्रोत हैं - और आशा है - वोह भारत की ग्रामीण परिवेश को भली भांती समझते हुए - समाज कल्याण में खुद को समर्पित करेंगी !

Friday, April 24, 2009

देश का बीमा कैसे होगा ?


देश का बीमा कैसे होगा ? किसके हाथ देश सुरक्षित रहेगा ? इतिहास कहता है - किस किस ने लूटा ! जिस जिस ने नहीं लूटा - वोह इतिहास के पन्नों से गायब हो गया ! गाँधी जी , राजेन बाबु , तिलक इत्यादी को अब कौन पढ़ना और अपनाना चाहता है ?
विनोद दुआ मेरे सब से पसंदीदा पत्रकार है ! सन १९८४ से उनको देखता आया हूँ - जब उनकी और कोट वाले प्रणय रोंय दोनों का कद लगभग बराबर होता था ! अब प्रणय रोंय के लिए विनोद दुआ एक बेहतर इमानदार ढंग से काम करते हैं !
विनोद दुआ के कल वाले प्रोग्राम में अपूर्वानंद जी आये थे - कुछ ४-५ वाक्य ही बोल पाए की समय ख़तम हो गया - जो कुछ वो बोले - बहुत सही बोले - नेता अब जनता से दूर हो गए हैं - भारतीय जनता पार्टी और खानदानी कौंग्रेस को छोड़ किसी के पास देश के लिए नीति नहीं है - बाकी के क्षेत्रीय दल बस "सियार" की भूमिका में शेर के शिकार में अपना ज्यादा से ज्यादा हिस्सा मात्र की खोज में हैं , कोई दलगत नीति नहीं है !
अब इस हाल में देश का कौन सोचेगा ? देश को एक रखने में धर्म का बहुत बड़ा रोल है ! देश का विभाजन १९४७ में धरम के आधार पर हुआ क्योंकि एक ख़ास जगह हिन्दू और मुस्लिम का जमावाडा हो गया था ! अब ऐसा लगभग नहीं है - हिन्दू मुस्लिम दोनों देश के हर प्रान्त और हर गाँव में हैं - और यही डोर देश को बंधे रखे हुयी हैं और भारतीय जनता पार्टी को भी अपनी रणनीति बदलने से मजबूर कर दी !
विकास ही हर वक़्त मुद्दा नहीं होता है - ऐसा होता तो "दलालों" से भरपूर पिछली सरकार सन २००४ में नहीं हारती ! विकास का सही मायने में अर्थ चमकता दिल्ली और बंगलुरु नहीं है - जहाँ वहां एक भाई - बड़ी गाडी में घूम रहा है और दूसरा भाई खेतों में भूखा मर रहा है ! इस मामले में सानिया गाँधी बधाई के पात्र हैं !
संजय शर्मा भैया कहते हैं - हम भारतीय भावुक होते हैं - बस , इंतज़ार है - प्रियंका गाँधी के राजनीती के मैदान में कूदने का - फिर देखियेगा ! उनका इशारा बिलकुल ही साफ़ था की कैसे फूंक फूंक के , देश को एक रखने के लिए सानिया गाँधी अपने बच्चों में परिपक्वता ला रही हैं और सही समय का इंतज़ार कररही हैं !
वोह आगे कहते हैं - क्या अडवाणी अगर प्रधान मंत्री नहीं बन पाए तो भारतीय जनता पार्टी का क्या होगा ? क्या नरेन्द्र मोदी जैसे कट्टर हिन्दू पुरे देश को स्वीकार होंगे ? क्या राजनाथ सिंह जैसे लोग बुध्दिमान अरुण जेटली को स्वीकार होंगे ? अगर आडवानी प्रधानमंत्री नहीं बन पाए तो ??? भारतीय जनता पार्टी का क्या होगा ?
देश के सुरख्सित बीमा के लिए - कौंग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों का जिन्दा रहना बेहद जरूरी है - ताकी - देश को क्षेत्रीय "सियारों" से बचाया जा सके !
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Thursday, April 23, 2009

रेलगाडी का अपहरण

रेलगाडी का अपहरण ! मतलब की सुन के माथा चकरा गया ! आदमी का , हवाई जहाज का पनिया जहाज का , ई सब का अपहरण सुने थे - रेलगाडी के अपहरण का आईडिया जिसके पास आया था - उसको पुरस्कार मिलाना चाहिए !
बच्चा थे त चरी सुने थे , फिर डकैती कैसे होता है सुने और देखे भी ! हम लोग का बाल बच्चा सब त जनम से ही आतंकवाद , नकसलवाद सुन रहा है ! बाबु , जमाना अडवांस हो गया है !
अब कुछ दिन में सुनियेगा की पटना का अपहरण हो गया :( एक पत्रकार बोला , बबुआ लालू जी त १५ साल से पूरा बिहार का ही अपहरण किये हुए थे ! वाह ! भाई वाह ! तले दुसर पत्रकार बोला की - महाराज ई नेता सब त पूरा देश का ही अपहरण कर लिया है ! हो गया शुरू - बहस !
ई सब लोगिक सुन के लगा की रेलगाडी का अपहरण त कुछ नहीं है :( सब कोई लुटने पर लगा हुआ -लगता है बहुत कुछ हाथ से फिसल गया ! दुःख हुआ - टेंशन में नींद आ गया !
सुबह नींद खुला त सुने की शर्मा जी का गाडी चोरी हो गया ! वाइफ बोली की - बीमा से पैसा उनको मिल जायेगा - आप जाईये और कुछ लूट कर लाईये तब घर में कुछ चूल्हा चौकी जलेगा !
बेटा सब बात चित सुन रहा था - हंसने लगा - और गाने लगा -
यह देश है वीर लुटेरों का ,
ड़कैतों का
इस देश का यारों
क्या कहना ?

Wednesday, April 22, 2009

मुसलमानों को भी जीने दो !!

अजीब तमाशा है ! बिहार के चुनाव में मुसलमानों को पेर कर रख दिया है ! नेता और मीडिया ने उनके रातों को नींद ख़राब कर दी है ! क्या किसी का गुनाह सिर्फ इसलिए हैं की वोह मुस्लमान में जनम ले लिया ? क्यों नहीं हम भी उनको अपनी तरह मानते हैं ? कितना थूक का घूँट उनको पीने पर मजबूर करेंगे !
मई ऐसा इसलिए महसूस कर रहा हूँ की ऐसा मेरी जाती के साथ भी पत्रकार और बाकी के नेता करते आ रहे हैं - वैशाली से रघुवंश बाबु खडा है - कोई पत्रकार उनकी जाती नहीं लिखेगा लेकिन उनके खिलाफ लड़ रहे - मुन्ना शुक्ल को भूमिहार बाहुबली जरुर बोला और लिखा जायेगा ! अजीब तमाशा है - भाई ? रविश जैसे पत्रकार भी खुलेआम हमला बोल देते हैं !
ऐसा लगता है की बाहुबली भूमिहारों का और नचनिया बजनिया - कायस्थों का प्रयाय्वाची शब्द बन गए हों ! वैसा ही तो मुसलमानों को भी लगता होगा ! क्या उनका वोट सिर्फ लालू-मुलायम को सता की गाडी तक पहुचने के लिए है ? क्या वोह कभी इस देश के मुख्या धरा में शामिल नहीं होंगे ? क्या हमेशा उनको वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं समझा जायेगा ?
क्यों नहीं जीने देते उनको - क्यों नहीं उनको बच्चों को यह महसूस करने देते हो की वोह भी एक भारतीये हैं ? क्या गुनाह किया है उन्होंने ?

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Tuesday, April 21, 2009

चुनाव और लगन !!

बिहार में चुनाव और लगन दोनों का जोर है ! छपरा जिला के लौंडा के नाच और पटना के चुनाव - दोनों में कोई फरक नहीं नज़र आता है - मुझे ! अजीब हाल है - पढ़ा लिखा , नौकरी पेशा वाला जात को बस "नचनिया - बजनिया " ही अपना नेता नज़र आता है ! ये चुनाव नहीं जिद है ! दुःख होता है - चुनाव को जिद की तरह लड़ा जाता है !
बचपन का दिन याद है - चुनाव में "खड़ा" कैसे हुआ जाता है - समझ में नहीं आता था - फिर लोग चुनाव में "बैठ" कैसे जाता है ? कौंग्रेस और इंदिरा गाँधी पसंदीदा थी ! अब कभी कभी टी वी वाला सब इंदिरा गाँधी का विजुअल दिखता है तो बचपन याद आ जाता है !
चौधरी चरण सिंह ने एक बार कहा था - देश का प्रधान मंत्री - वही बन सकता है - जो दिल्ली में रहेगा ! बाबु जी हमको दिल्ली भेज दिए ! यहाँ त अजब का हिसाब किताब है - कोई नेता १००-२०० करोड़ से कम का अवकात ही नहीं रखता है ! कल रविश भाई का स्पेशल रिपोर्ट देख रहा था - मंत्र मुग्ध हो गया - रविश भाई पसंदीदा हैं - लेकिन अंत में जब वोह बिहार और अपनी जात का दरद - अपनी लेखनी में लिखते हैं तो दुःख होता है - ऊंचाई के साथ साथ आपको बहुत कुछ छोड़ना होता है ! खैर !
पहला चरण के बाद - लालू जी को पसीना आ गया फिर क्या रातों रात , कल तक उनका जूठा खाने वाले पत्रकार भी बदल गए ! नीतिश भी वैसे पत्रकारों को आँख तरेर दिया ! अब मरता दलाल - क्या न करता :(
लेकिन प्रधान मंत्री कौन बनेगा ? देवेगौडा जैसा प्रधानमंत्री बनाने से अच्छा है की साल भर के अन्दर दूसरा चुनाव ! सवाल और भी हैं ? अडवानी बाबा का क्या होगा ? उनका पार्टी का क्या होगा ? कुकुर के भांती सब लडेगा ! डूब जायेगा ! और भारतीय राजनीती को सियार सब खा जायेगा !


रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Saturday, April 4, 2009

चुनाव स्पेशल : - देश का दुर्भाग्य !


चुनाव स्पेशल : देश का दुर्भाग्य !
मालूम नहीं कब और कैसे धीरे धीरे क्षेत्रीय राजनितिक दल दिल्ली की कुर्सी अपने अपने हाथों से हिलाने लगे और कुर्सी दिन बा दिन कमज़ोर होती गयी ! वाजपयी जी तो आंध्र के चन्द्र बाबु नायडू के शिकार बने तो मन मोहन के चारों तरफ लालू - मुलायम और पासवान जैसे लोग थे !
हम वोटर भी अजीब हैं ! लोकसभा का चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़ता देखना चाहते हैं ! साडी धोती की गठ जोड़ की तरह वोट देते हैं ! जात पात में पूरा देश बटा हुआ है ! कोई भी अछूता नहीं है ! अगर कोई खुद को कहता है की मई इस तरह के जात पात से अलग हूँ - तो वोह सफ़ेद झूठ बोलता है ! भले ही वोह ब्राहमणों के द्वारा चलाया जा रहा इंफोसिस में काम कर रहा हो या किसी न्यूज़ चैनल का खुख्यत या विख्यात पत्रकार !
बिहार में नीतिश कुमार ने ब्राह्मणों को टिकट नहीं दिया - अब देखिये - इसका दर्द रविश जैसे पत्रकार पर भी पड़ने लगा ! भले वोह मुह से नहीं करह रहे हों लेकिन दर्द तो चेहरा पर नज़र आ ही जाता है - जैसे मुहब्बत को आप छुपा नहीं सकते !
कौंग्रेस भी अजीब है - बिहार में भूंजा की तरह टिकट को बांटा है ! कभी कभी लालू की बी टीम की तरह नज़र आता है ! कहीं वोट कटवा तो कहीं परंपरा को ढ़ोने की तरह !
कुछ भी हो - हमें वोट राष्ट्रीय दलों को ही देना चाहिए ! विधान सभा चुनाव में क्षेत्रीय दल ठीक हैं लेकिन लोकसभा चुनाव में क्षेत्रीय दल को वोट देने का मतलब - आने वाले समय में देश को बांटना है !
मेरी बात से कई लोग सहमत होंगे और कई नहीं भी ! आशीष मिश्र जो अमेरिका में रहते हैं - कहते हैं - अमेरिका में रह कर मै जात पात से ज्यादा उस सरकार को देखना पसंद करूँगा जो राज्य या देश की इकोनोमी को दिशा और गती प्रदान करे - भले वोह लालू हों या नीतिश या राहुल बाबा !
वहीँ अजीत जो अमेरिका में हैं - जो बिहार के सभी पत्रकारों से हमेशा संपर्क में रहते हैं - कहते हैं - अगर मै चुनाव लडूं - तो मुझे मेरे घर वाले भी वोट नहीं देंगे ! समाज सेवा करने के और भी विकल्प हैं !
बंगुलुरु के रहने वाले श्री सर्वेश उपाध्द्याय कहते हैं - एक साफ़ सुथरी छवी वाले उम्मीदवार और राजनितिक दल ही देश को सही दिशा में ले जा सकता है ! क्षेत्रीय दल को आगे बढ़ने में राष्ट्रीय दलों की ही भूमिका रही है ! राष्ट्रीय दलों की मुध्धा विहीन राजनीती और अडवानी जैसे कमज़ोर नेतृत्व का फल है - क्षेत्रीय दल !
अब आप क्या कहते हैं ?

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Tuesday, February 24, 2009

अमिताभ और जया बच्चन से एक सवाल !


अमिताभ और जया बच्चन से एक सवाल !
जया जी का एक बयान आया है ! स्लाम्डाग विदेशी फ़िल्म है - भारत में इतना शोर क्यों हैं ? बात में दम है ! अमिताभ जी सन १९८४ में एक चुनाव लड़े थे - अलाहाबाद से लोकसभा चुनाव ! पर उनके जितने की खुशी में "मुजफ्फरपुर" में मिठाई बटी थी ! वोह भी खासकर एक जाती विशेष के द्वारा ! पटना में भी बटी थी ! इसमे कोई अजीब बात नही है ! हम हर कोई कहीं न कही एक दुसरे से जुड़े हैं ! मेरी पहचान मेरे घर में "रंजन" व्यक्ति विशेष से है ! घर से बहार मेरी पहचान मेरे परिवार से जुडी है ! दुसरे गाँव में मै फलाना गाँव का कहलाता हूँ ! दिल्ली में बिहारी कहलाता हूँ और बंगलुरु और मुंबई में उत्तर भारतीय ! वहीँ अमरीका में एक एशियन और मंगल ग्रह पर एक पृथ्वी वासी ! और जब अमेरिका में कोई भारतीय मिलेगा तब हम उसका जात नही पूछेंगे जैसा की हम बिहार में कोई बिहारी मिले तो ऐसा कर सकते हैं ! अगर मुजफ्फरपुर के कायस्थ जाती के लोग अमिताभ की १९८४ की अल्लाहबाद की जीत में अपनी खुशी खोज सकते हैं फिर हम सब भारतीय "रहमान , गुलज़ार और पुत्तोकोटी " में अपनी जीत क्यों नही ?
ठीक उसी तरह यह सिनेमा को बनाया तो विदेशी लोग हैं - लेकिन इस सिनेमा में कई कलाकार या सभी सभी के कलाकार भारतीय हैं संगीत भारतीये हैं और अधिकतर तकनिकी लोग भारतीये हैं ! रहमान साहब और बोब्बी जिंदल में फरक है ! रहमान साहब विशुध्ध भारतीय हैं और हम सबको उनको नाज़ है ! वैसे उन्होंने ने कई सिनेमा में बहुत ही बढ़िया संगीत दिया है !
हर कलाकार और तकनिकी लोग अपने आप में सम्पूर्ण हैं - यह सौभाग्य है की सब को एक ऐसे छत के नीचे काम करने का अवसर मिला - जहाँ से एक राह निकली और "ऑस्कर" ..."ऑस्कर" और नई पीढी को प्रेरणा !
जहाँ तक गरीबी को दिखने से लोगों को ऐतराज है फ़िर तो हमारे अधिकतर सिनेमा गरीबी और भ्रष्टाचार के इर्द गिर्द ही घुमते हैं !
चलिए गुलज़ार साहब के गीत से इस लेख को समाप्त करते हैं -
"आपकी आंखों में कुछ महके हुए से राज हैं ...आप से भी ख़ूबसूरत आपके अंदाज़ हैं ....."
और सुभास घई की सलाह "जय हो " शब्द को इस गीत से जोड़ना सचमुच कमाल हो गया !
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Saturday, February 21, 2009

श्री नीतिश कुमार की विकास यात्रा समाप्त हुयी !

दालान पर हुए सर्वे से पता चलता है की करीब ५८ % जनता मानती है की श्री नीतिश कुमार की विकास यात्रा "एक अछ्छी पहल " है ! वहीँ १७ % जनता मानती है की यह आने वाले लोकसभा की तयारी और जनता की नब्ज़ जानने की एक कोशिश है ! कुछ लोग इसे बकवास भी मानते हैं क्योंकि नीतिश अपने विकास यात्रा में काफी लाव लस्कर के साथ गए ! जैसे श्री नीतिश कुमार को अप्रवासी भारतीयों का सम्मलेन एक "पिकनिक" लगता है है ठीक उसी तरह कई लोग इस विकास यात्रा को एक नए राजा की अपने चमचों ke साथ मनाई गयी पिकनिक भी लगाती है ! वैसे कोसी का कहर राजनितिक दलों पर टूटना अभी बाकी है ! चुनाव नजदीक है ! बेचैनी चारों तरफ़ है !
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Friday, February 13, 2009

पप्पू न बने - वोट दें !


हमारे प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री नीतिश कुमार आज कल "विकास यात्रा" पर हैं - राष्ट्रीय मीडिया ने ज्यादा तरजीह नही दी ! नीतिश कुमार के साथ साथ मुझे भी काफी दुःख है - ! चलिए , कोई बात नही ! "दालान " ब्लॉग पर नीतिश कुमार की "विकास यात्रा" पर अपने वोट डालें ! वोटिंग मशीन इस पोस्ट के ठीक दाहिने तरफ़ है !

याद रहे !- पप्पू वोट नही देता !

कहीं आप पप्पू तो नही ?


रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Thursday, February 12, 2009

"चलनी हंसली सूप के - तोरा में बड़ा छेद "

"चोरी किया रे ! क्रेजी किया रे ! " कितना अछ्छा लगता है ! एकदम झकास ! ऋतिक रौशन और ऐश्वर्य राय जब चोरी करें तो हम ताली बजाते हैं ! बाबा , ये हैं टी वी पत्रकारिता के बेताज बादशाह ! हर एक टी वी पत्रकारों की चाहत - काश इस चॅनल में नौकरी मिल जाती ! ज्यादा नही , कल के इनके दो प्रमुख रिपोर्ट की चर्चा करें !
एक शाम ८.३० में आता है - विषय था - " भारत में मनोरोग" ! देखा बहुत अछ्छा लगा ! मजा आ गया ! लगा की कितना अच्छा प्रोग्राम बनाते हैं - ये लोग ! तभी तो बिना टीआरपी के भी ये चॅनल सब से अच्छा है ! थोड़ी देर बाद सुबह की बासी अखबार उठाया ! अरे ये क्या ? "भारत में मनोरोग " तो टाईम्स ऑफ़ इंडिया ne सुबह तड़के ही छाप दिया ! धत् तेरे की - मै बेवजह बासी समाचार पर ताली पीट रहा था !
अब चलिए - इनके दुसरे प्रोग्राम पर ! एंकर हैं - भोजपुरी मिक्स बिहारी टोन में हिन्दी बोलने वाले ! वैसे इनकी बोली और घबराहट में बहुत सुधार हुआ है ! रिपोर्ट का विषय था - " कोला वार" ! बहुत बढ़िया प्रस्तुति ! मजा आ गया ! अपने मनपसंदीदा एंकर को देख मन प्रफुल्लित हो गया ! बेटा को बोला - देखो , ये भी अपने गाँव तरफ़ के ही हैं ! बहुत पैसा मिलता है ! बड़ा गाडी है ! बहुत बड़े सोसाइटी के टॉप पेंट हाउस में रहते हैं ! और मेरी तरह ये भी "ब्लॉग" लिखते हैं ! बेटा भी मन ही मन सोचा होगा की उसके बाबु जी भी 'बड़े लोग" के बारे में कुछ जानते हैं ! प्रोग्राम ख़त्म हुआ और मै फ़िर एक बार अखबार की तरफ़ मुडा ! धत् तेरे की - यह प्रोग्राम तो सुबह की बासी इकनॉमिक टाईम्स के पहले पन्ने पर छापा "कोला वार " की हु बहु कॉपी है !

घर से लंच कर के अभी अभी लौटा हूँ - वहां समाचार चल रहा था और कुछ बेहतर एन डी टी वी - इंडिया देख रहा था - दोपहर के समाचार में "बापू के चश्मे की नीलामी " का रिपोर्ट चल रहा था ! यह रिपोर्ट आज के टाईम्स ऑफ़ इंडिया के पहले पन्ने पर छपा है !


क्या यही आपकी अवकात है ?


रंजन ऋतुराज सिंह !

Thursday, February 5, 2009

कुछ सफ़ेद बाल !

जिंदगी इतनी व्यस्त हो गयी कि समय कैसे गुजर गया पता ही नही चला ! पिछले हफ्ता बालों को रंगने की कोशिश की ! ९ वर्षीय बेटा हंसने लगा ! मुझे भी अपना बचपन याद आ गया - बाबु जी पहली दफा बालों को सलून से रंग के आए थे और मंद मंद मुस्कुरा रहे थे - सच पूछिये तो उस वक्त मुझे अच्छा नही लगा था ! मन ही मन कहा था - बाबु जी को ऐसा नही करना चाहिए था ! पत्नी का जोर था सो मैंने भी बालों को रंग लिया ! कान के आस पास के बाल थोड़े उजले नज़र आ रहे थे - कई बार तो दिल को तसल्ली  दिया कि आइना झूठ बोल रहा है ! पर बकरे कि अम्मा कब तक खैर मनाती ! जब भी आईने अपने सफ़ेद को बालों को देखता और सोचता अभी तो बहुत कुछ करना बाकी है ! कई शौक तो अभी छूछे ही हैं ! दिल अभी भी जवान है ! यूँ कहिये तो दिल अभी भी २४ वर्ष का ही है ! कई सालों से दिल कि उम्र बढ़ी ही नही ! पर शरीर ने तो अजब कि रफ़्तार पकड़ ली है ! दुःख होता है - भगवान् के नियम पर ! ऐसा नही होना चाहिए ! दिल और शरीर दोनों कि रफ़्तार एक होनी चाहिए ! हर वक्त कुछ सिखने का मौका मिलता है - अछ्छा लगता है ! सोचता हूँ - अगली बार गलती नही करूँगा ! पर , अब ऐसा लगता है कि अब अवसर नही आयेंगे ! जो हो गया सो गया ! यह सोच घबरा जाता हूँ ! अपने कई सपने और उम्मीदों को अपने बच्चों में देखने लगता हूँ ! शायद , बाबु जी भी यही सोचते थे ! कुछ लोग कहते हैं - बच्चों को आजाद कर दीजिए , उनको अपनी जिंदगी जीने दीजिए ! ऐसा कैसे हो सकता है ? मेरे कई सपने अभी अधूरे हैं - इनको कौन पुरा करेगा ? अपना खून ही , न ! क्या गुनाह है अगर अपने सपने को अपने खून कि नज़र से देखना चाहता हूँ ? बच्चे भी तो मेरे अपने ही हैं , न ! और सपने भी मेरे ही हैं !

@RR