"दिल्ली" गजब का जगह है ! यहाँ सर्दी भी जम के पड़ती है और गर्मी भी ! लेकिन पैसा के कारण गर्मी-सर्दी का फरक बहुत लोगों पर नही पङता है ! हम जैसे "पेट-भरुआ" लोग को बहुत ठंडा लगता है !
नवम्बर के आस पास ही सोनपुर मेला लगता था ! वहाँ हम लोग का एक टेंट गड़ता था ! गाँव के गोतिया - पट्टीदार , रिश्ते -नाते , हित कुटुम सभी लोग आते थे ! कोई मवेशी खरीदने आता था तो कोई "थियेटर" देखने ! वार्षिक परीक्षा देने के बाद हम भी पहुंच जाते थे ! बाबा पहले से पहुंचे होते थे ! " १९९० " के आस पास तक हाथी था ! हर साल खरीद बेच होता था ! यह एक तरह का बिजिनेस था ! कम दाम मे खरीदना और एक साल खिला पिला के ऊँचा दाम मे बेच देना ! इसका श्रेय हमारे महावत "अल्शेर मियां जी" को जाता था ! लोग कहते थे की वैसा महावत राजा राजवादा के पास भी नही होता था ! बाबा खुश हो कर १९८० मे उनको हमारे गाँव का मुखिया बना दिए थे ! अब वह नही रहे - मेरी तरह ही उनके बच्चे भी कहीं दूर , घर से मीलों दूर - अपनी रोजी रोटी कम रहे हैं !
हम लोग सुबह सुबह पटना से सोनपुर मेला पहुंच जाते थे ! वहाँ दुकान से पूरी - जिलेबी आता था ! या फिर railway कैंटीन से मस्त नास्ता ! फिर दिन भर घुमाना , कभी मीना बाज़ार तो कभी कृषि बाज़ार ! रात मे खंसी के मीट के साथ लिट्टी ! बडे बडे लोग टेंट मे आते थे ! "बच्चा बाबु " के परिवार का कोई आया तो उनका भरपूर स्वागत होता था ! "हवा-पानी " पुरा टाईट रहता था ! सर्कस से मद्रासी सब भी अपना हाथी लेकर आते थे ! केरल वाले भी होते थे ! वहाँ हाथी के दलाल भी होते थे ! किसी मद्रासी के हाथी के सामने खडा होजाते थे - कोई ग्राहक आया तो दलाल ने भोजपुरी / हिन्दी मे बोल दिया की - हाथी बिक चूका है ! बेचारा मद्रासी १५ दिन मे औने पौने दाम मे अपना हाथी बेच कर चला जाता था ! १९८० के दसक से पंजाब से जर्सी गाय भी आने लगी ! मेरे परिवार मे भी एक खरीदाया था - दूर दूर से लोग देखने आते थे !
अंतिम दफा मेला १९९७ मे गया था ! घर से कोई नही आया था ! लेकिन मैं हाथी बाज़ार के उस जगह गया जहाँ कभी हम लोग का पारिवारिक टेंट लगता था ! रुलाई आ गयी !
दिसम्बर मे हम लोग गाँव जाते थे - बड़ा दिन के छुट्टी मे ! दरवाजा पर " आग का घुर" लगता था ! हम सभी भाई लोग उस आग मे "अलुआ" को पका के खाते थे !
वक़्त कभी नही बदलता है ! वक़्त स्थिर है ! शान शौकत को बरकरार रखने के लिए - आपके पास ज़माने के हिसाब से "पैसा" होना बहुत जरुरी है !
जम के पैसा कमाइये और ऐश कीजिए !
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा
11 comments:
बहुतेक बात एके साथ कह गए. इतना जल्दी काहेला किए " जब waqt नही बदलता, स्थिर रहता है त . अल्शेर मिया का प्रमोशन अच्छा लगा .
मुखिया जी सबसे पहले तो बहुत बहुत शुक्रिया की आपने हिन्दी मे लिखना आसान तरीका बताया , बहुत बहुत शुक्रिया ,
मुखिया जी, " बहुत ठंडा हैं " पढ़कर बहुत ही मजा आया, सोनपुर के मेला के बारे मे मद्रासी के बारे मे पढ़कर बहूत हँसी आयी और कुछ लोगो की तारीफ किए जैसे अल्शेर मियां और bacha babu , बहुत अच्छा लगा !
मुखिया जी सबसे पहले तो बहुत बहुत शुक्रिया की आपने बहुत आसन तरीका बताया हिन्दी लिखने की , धन्यबाद ,
आपकी "बहुत ठंढा है " पढ़ा बहुत अच्छा लगा, इसमे बहुत सारी बातें लिखी है जो असल जिंदगी से मिलती जुलती है जैसा की कुछ ही दिनों पहले मेला घूमकर आये है, सबसे अच्छा बात मद्रासी के बारे मे पढ़कर बहुत हँसी आयी और अल्शेर मियां को मुखिया बनाकर , बहुत अच्छा लगा ऐसे ही लिखते रहे, शुक्रिया
मुखिया जी सबसे पहले तो बहुत बहुत शुक्रिया की आपने बहुत आसन तरीका बताया हिन्दी लिखने की , धन्यबाद ,
आपकी "बहुत ठंढा है " पढ़ा बहुत अच्छा लगा, इसमे बहुत सारी बातें लिखी है जो असल जिंदगी से मिलती जुलती है जैसा की कुछ ही दिनों पहले मेला घूमकर आये है, सबसे अच्छा बात मद्रासी के बारे मे पढ़कर बहुत हँसी आयी और अल्शेर मियां को मुखिया बनाकर , बहुत अच्छा लगा ऐसे ही लिखते रहे, शुक्रिया
मुखिया जी सबसे पहले तो बहुत बहुत शुक्रिया की आपने बहुत आसन तरीका बताया हिन्दी लिखने की , धन्यबाद ,
आपकी "बहुत ठंढा है " पढ़ा बहुत अच्छा लगा, इसमे बहुत सारी बातें लिखी है जो असल जिंदगी से मिलती जुलती है जैसा की कुछ ही दिनों पहले मेला घूमकर आये है, सबसे अच्छा बात मद्रासी के बारे मे पढ़कर बहुत हँसी आयी और अल्शेर मियां को मुखिया बनाकर , बहुत अच्छा लगा ऐसे ही लिखते रहे, शुक्रिया ..........................
वाह मुखिया जी, मन प्रसन्न हो गया !हाथी तो हम लोग भी रखते थे,शायद सुना होगा आपने !उज्जैन(दुरंधा )के नन्द किशोर सिंह ,बाबा थे हमारे.!बिल्कुल सब ऐसा ही होता था सोनपुर मेला मे!२००६ मे हाथी मर गया हमलोगों का,आप समझ सकते है घर वालो का दुःख ,अभी तलाश जारी है नए हाथी की !
Aashish
बहुत ही सुन्दर रंजन जी, पूरी कहानी मैं खुशी के साथ थोड़ा बहुत दुःख भी झलक रहा है काश आज भी वैसा ही होता जैसा पहले होता था नई पीड़ी क्यों वंचित हो रही है ? पर आज वक्त बदल गया है और वक्त के साथ सब कुछ.. वैसे आपने बहुत ही बढ़िया ढंग से सोनपुर मेला और आपके परिवार का उस मेले मैं शामिल होना बताया गया है इस लेख को पढ़ कर ऐसा लगने लगता हैं मानो उस समय मेले मैं हम भी हमारे परिवार के साथ शामिल होते थे !!
बहुत बढिया रंजन जी, पूरे लेख को पढ़ कर ये नहीं लगता की हम कभी उस मेले मैं नहीं गए, अपितु ये लगता हैं की आप ही की तरह हम भी हमारे परिवार के साथ उस मेले के एक हिस्से हुआ करते थे. आपके लेख से एक खुशी के साथ एक अनजाना सा दर्द भी झलक रहा है की अब वो बात नहीं जों पहले थी.. वक्त के साथ बहुत कुछ बदल जाने की पीड़ा भी कमसकम मुझे तो दिख ही रही है .. पर लिखा बहुत ही अच्छा है और पढते पढते अपने आपको उसी मेले मैं पाया और आपको आपके हाथी और महावत के साथ खड़े देखा..
अफ़सोस सोनपुर मेला हम त घूम ही नहीं पाए ...बहुत सारी पुरानी यादें ताजा हो गई ...!!.
१९८३ की बात है एक बार हम भाई बहनों ने छुप कर मेला घुमने का पलान बनाया ..क्योकि मेरे बड़े पापा को मेला जाना बिलकुल ही पसंद नहीं था !
...हमलोग छुप कर हाजीपुर से सोनपुर के लिए चल दिए ,जैसे ही सोनपुर पुल पार कर रहे थे ,तभी पीछे से चुलहाई (नौकर ) दौड़ते हुए आरहे थे ,हम लोग वही रुक गये ,तभी चुलहाई बोले ..चलू जल्दी बड़का मालिक के पता चल गेलक ह की अपने सब मेला घुमे जा रहली ह ...बस ! इतना सुनना था की हमलोग पुल पर से ही वापस घर आ गए ..और फिर कभी आज तक नहीं जा सके ..!! आपका आज ये लेख पढ़ कर फिर से वो सोनपुर मेला घुमने की तमंना जाग उठी ...!!!
Ranjan bhaiya Sonepur ka bhi mela suru hoe gaya hai.. sune hai badi raunak hai...
ise baar khassi ka meat aur litti ka kiya hoga?
meat and litti
bhai
kyo tarsate hai aisi bate likhkar
man lulua ke rah jata hai
dilli me to sala sab
bakra khilata hai
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