Tuesday, April 22, 2008

दिल मे छुपे बात और दर्द भी


शायद ऐसे कई दर्द और राज आपके दिल मे छुपे हों ! अमेरिका मे एक ऐसा ही मुहीम चल रहा है ! जहाँ लोग अपने घर मे बने हुए पोस्ट कार्ड से अपने दिल मे छुपे दर्द और कई बातों का इज़हार करते हैं ! ज्यादा के लिए आप http://postsecret.blogspot.com/ को देख सकते हैं !

रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Wednesday, April 9, 2008

भारतीयता कोई बिहार से सीखे !

नवभारत टाइम्स
सुधांशु रंजन लिखते हैं :-

महाराष्ट्र की घटनाओं से बिहार के लोगों को गहरी तकलीफ पहुंची है। कुछ अरसा पहले बिहार विधानमंडल के साझा सम्मेलन में कुछ विधायकों ने 'मराठी राज्यपाल वापस जाओ' के नारे लगाए। बिहार के लोगों की पीड़ा को समझा जा सकता है, लेकिन यह कार्रवाई बिहार की परंपरा और संस्कृति के अनुरूप नहीं थी। बिहार की अपनी खामियां हैं, लेकिन भारतीयता के पैमाने पर उसने जो मिसाल कायम की है, वह काबिलेतारीफ है। इस पर चलकर ही यह देश खुश रह सकता है। बिहार को कई बातों के लिए नीची नजर से देखा जाता है। उसकी गरीबी और पिछड़ेपन का मजाक उड़ाया जाता है। उसके जातिवाद को बुराई की मिसाल बताया जाता है। लेकिन सच यह भी है कि प्रांतवाद या क्षेत्रवाद के कीटाणु इस राज्य में कभी घुस नहीं पाए। बिहारी अस्मिता हमेशा राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ी रही। हजार बरसों तक पाटलिपुत्र इस भूभाग की राजधानी रहा और पाटलिपुत्र का इतिहास ही देश का इतिहास बन गया। राजा जनक, दानी कर्ण, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध, राजनयिक चाणक्य, सम्राट चंदगुप्त मौर्य, अजातशत्रु, अशोक महान, सेनापति पुष्यमित्र शुंग, दार्शनिक अश्वघोष, रसायन शास्त्र के जनक नागार्जुन, चिकित्सक जीवक और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट जैसे महापुरुष इस धरती पर हुए, जिनसे भारत को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली। इस परंपरा पर कौन गर्व नहीं करता? क्या इसे बिहारी परंपरा कहा जाएगा? भारतीय राष्ट्रवाद की परंपरा बिहार में आधुनिक समय में भी जारी रही। आजादी के बाद कोयले और लोहे पर मालभाड़ा समानीकरण की नीति को बिहार ने बिना किसी ऐतराज के स्वीकार कर लिया। इस कदम से बिहार की इकॉनमी की कमर टूट गई। समान खर्च पर लोहे और कोयले की दूसरों राज्यों तक ढुलाई की सुविधा का असर यह हुआ कि उद्योगों को बिहार आने की जरूरत नहीं पड़ी। वे दूसरे राज्यों में लगते गए। बिहार के संसाधन खुद उसके काम नहीं आए। गौरतलब है कि कॉटन के लिए यह नीति लागू नहीं की गई। एक और उदाहरण लीजिए। दिसंबर 1947 में बिहार विधानसभा में इस मुद्दे पर बहस चल रही थी कि दामोदर घाटी परियोजना में बिहार को शामिल होना चाहिए या नहीं। एक-एक कर कई सदस्यों ने कहा कि इस परियोजना से बाढ़ बचाव और बिजली उत्पादन का फायदा पूरा का पूरा बंगाल को मिलेगा, जबकि डूब और विस्थापन का खतरा बिहार को उठाना पड़ेगा। इस तर्क का जवाब सरकारी पक्ष के पास नहीं था। सिंचाई मंत्री को जवाब देना था, लेकिन उनकी जगह चीफ मिनिस्टर श्रीकृष्ण सिन्हा खड़े हुए। उन्होंने कहा, अभी 15 अगस्त को देश आजाद हुआ है, हम सबने अखंड भारत के प्रति वफादारी की कसम खाई है, लेकिन उसे हम इतनी जल्द भूल गए। अगर इस परियोजना से बंगाल के लोगों को फायदा पहुंच रहा है, तो क्या गलत है? वे भी उतने ही भारतीय हैं, जितने कि बिहार के लोग। बिहार ने अगर खुद को भारतीय अस्मिता के साथ एक न कर दिया होता, तो क्या वहां से इतनी बड़ी तादाद में गैर-बिहारी सांसद बनते? आजादी की लड़ाई के दौरान 1922 में परिषद के चुनाव लड़ने के मुद्दे पर कांग्रेस बंट गई थी। गया अधिवेशन में भाग लेने आए जयकर और नटराजन जैसे नेता जब अपने राज्यों से कांग्रेस कमिटी के प्रतिनिधि नहीं चुने जा सके, तो बाबू राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें बिहार से निर्वाचित कराया। यह सिलसिला चलता रहा। संविधान सभा में सरोजिनी नायडू बिहार से चुनी गईं। आजादी के बाद जे।बी। कृपलानी, मीनू मसानी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नान्डिस, रवींद्र वर्मा, मोहन सिंह ओबेरॉय आदि को बिहार ने अपना नुमाइंदा चुना। इंद्रकुमार गुजराल भी यहीं से राज्यसभा में पहुंचे।

क्या बिहार में प्रांतवाद इसलिए नहीं है कि उसका सारा ध्यान जातिवाद में लगा रहता है? कुछ लोग ऐसा तर्क दे सकते हैं, लेकिन ऐसा कहना बिहार के साथ अन्याय होगा। अखिल भारतीय सेवाओं के जो अफसर बिहार में तैनात हैं, वे मानते हैं कि उनके साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता। एक मायने में बाहरी होना उनके पक्ष में जाता है, क्योंकि वे जातिगत समीकरणों से अलग रह पाते हैं।

खुद महाराष्ट्र की परंपरा भी ओछे प्रांतवाद के खिलाफ है। यह राज्य समाज सुधारकों, संतों और समाजवादियों का गढ़ रहा है। बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे महान नेताओं ने राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाया। तिलक ने पूरे देश से धन इकट्ठा कर डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी की 1884 में स्थापना की। तब से आज तक सोसाइटी के पैम्फलेट के कवर पर यह साफ लिखा होता है कि जाति, धर्म, भाषा या प्रांत के नाम पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। सोसाइटी की स्थापना में उन्हें गोखले और गोपाल गणेश आगरकर का सक्रिय समर्थन मिला। महर्षि कर्वे जैसे शिक्षाविद् भी इससे जुडे़। पुणे का मशहूर फर्गुसन कॉलेज उसी सोसाइटी की देन है। गोखले ने ही गांधी से कहा था कि देश में कुछ करना चाहते हो तो देश को समझो और देश को समझना चाहते हो तो देश में घूमो। बहरहाल, ये मिसालें पेश करने का मकसद यह है कि हम क्षेत्रवाद और राष्ट्रवाद को समझें। याद कीजिए कि ब्रिटेन की प्राइम मिनिस्टर मार्गरेट थैचर और रूस के प्रेजिडेंट मिखाइल गोर्बाचेव ने भारत से सबक लेने को कहा था, जहां इतनी विभिन्नता के बीच लोग साथ-साथ रहते आए हैं। अब अगर हम इस बात को भूलकर राज्यों के बीच फर्क देखने लगें, तो भारत का क्या होगा? हमें भारतीय राष्ट्रवाद से अपने टूटते तारों को फिर जोड़ना होगा। इस देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद सदियों से रहा है, भले ही राजनीतिक राष्ट्रवाद हाल की बात हो। हमारे यहां सात नदियों को पूजने की परंपरा रही है। ये नदियां सारे देश में फैली थीं। शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों में पीठों की स्थापना की थी। आधुनिक समय में राजनीतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा पैदा हुई, जिसके तहत हमने आजादी की लड़ाई लड़ी। हमारी खुशकिस्मती है कि सांस्कृतिक और राजनीतिक भारत का नक्शा लगभग एक जैसा है। भाषाई आधार पर प्रांतों का गठन काफी बाद की घटना है, लेकिन हमने इसे इतना तूल दे दिया है कि यह हमारे राष्ट्रवाद पर भारी पड़ रही है। इस ट्रेंड से बाहर निकलने के लिए हमें क्या करना चाहिए, इस पर सभी को विचार करना होगा। ( लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं)


रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Tuesday, April 8, 2008

इस हमाम मे आप भी "नंगे" हो गए ! दुःख है !

मुझे यह नही पता नही था या इसका यह अहसास नही था की यह "ब्लॉग" की चर्चा मे पुरा देश लपेट मे आ जाएगा ! अखबार मे पहले पृष्ठ पर "जाति गत" गमले देख मैं स्तब्ध रह गया !
मैं शर्मिंदा हूँ अपने उन पाठकों से - अपने बचपन के दोस्तों से और अपने साथ वालों से की जति के जहर पर चर्चा ने सब के मुह को बेस्वाद किया ! हम सभी पत्रकार नही है - हमारी आवाज़ "हिंदुस्तान दैनिक" मे नही उठ सकती है - हमारे पीछे कोई राज नेता नही है ! और न ही हम सभी कोई दवा कम्पनी के "दलाल" हैं ! न ही किसी राजनेता के इशारे पर कर रहे हैं और न ही किसी "दवा कम्पनी " से उगाही का इरादा है !
दुःख सिर्फ़ यह हुआ की "दवा के व्यापार " को जति से जोड़ दिया गया ! ठीक कुछ महीनों पहले उक्त 'कथित पत्रकार' ने एक रिपोर्ट मे आईडिया कम्पनी के प्रचार को जोर शोर से दिखाया - वह वही प्रचार था जिसमे एक खास जति को लड़ते हुए दिखाया गया ! ये वही कथित पत्रकार है - जिनके रिपोर्ट से बाकी दुनिया जानी ! उसके पहले "कथित पत्रकार" ने उपन्यास लिखने के दौरान लगातार एक खास जाती को निशाना बनते चले गए ! उसी दौरान - बिहार के एक बाहुबली विधायक पर न्यूज़ रूम से लेकर कैमेरामन तक एक साजिश रची और फलस्वरूप खुलेआम न्यूज़ रूम से खास जाति को बाहुबली विधायक से जोड़ दिया गया ! किसी भी ब्रह्मण के लिए यह कितना कष्ट दायक होगा जब हम यहाँ दिल्ली मे बैठे - यह घोषित कर देन की बिहार के सबसे कुख्यात अपराधी "सतीश पण्डे" को पूरे ब्रह्मण समाज का आशीर्वाद प्राप्त है - यह सरासर अन्याय होगा ! जबकि पुरा बिहार जनता है की सतीश पण्डे एक खास जाति के खून के प्यासे हैं और वह जितने खुद कर चुके है - उसमे अधिकतर एक खास जाती के ही निर्दोष लोग हैं ! अगर "जातिये दुराग्रह " पर आधारित ऐसे आरोप भारत के प्रतिभाओं को गाली देना होगा ! देश मे आज भी कई एक से बढ़ कर एक प्रतिभावान "ब्रह्मण" हैं ! कहाँ भी जाता है - देश को तीन ब्रह्मण चला रहे हैं - तमिल ब्रह्मण , कश्मीरी ब्रह्मण और मैथिल ब्रह्मण ! क्योंकि इनसे तेज कोई जाति नही है ! पर सतीश पांडे जैसे अपराधी को भारत के समस्त ब्राहमणों से जोड़ कर देखना कितना उचित होगा ? ठीक उसी तरह किसी दवा व्यापारी को , किसी बाहुबली विधायक को या किसी पत्रकार को जाति की नज़रों से देखना किसी भी पढे लिखे इंसान को शोभा नही देता है !
आप बड़े हैं - आप आदरनिये हैं - आप समाज मे अपनी एक पहचान रखते हैं - आपको जातिगत निगाह से किसी ख़ास जाति को अपने तीर से लगातार निशाना बनाना शोभा नही देता ! इस तरह के हथकंडों से आपकी गरिमा नीचे गिरती है !

आज के दौर मे जाति कहीं से भी ना तो आपकी पहचान है और न ही मेरी ! हमारा ब्लॉग गाओं मे बैठा कोई नही पढ़ रहा है - जिसके बदौलत मुझे कोई राजनीती करनी है - और ना ही आपको - फ़िर यह जाति का जहर क्यों ? क्या आप डाक्टर के यहाँ जाति देख कर इलाज कराने जाते हैं ? क्या दवा कम्पनी की जात देख कर दवा खरीदते हैं ? या फ़िर आप नया इतिहास लिखेंगे ?
इस हमाम आप बिल्कुल नंगे खड़े हैं ! जातिये दुराग्रह छोडिये और उपन्यास लिखिए !
"बिहार" जैसे प्रान्त को सपूत की जरूरत है यह ना की अपनी माँ के फटे आँचल को दुनिए के सामने बेचने वालों की !
मैं उन सभी लोगों से क्षमा प्रार्थी हूँ जिन्हें मेरे लेख से दुःख हुआ होगा ! व्यक्तिगत हमलों के दौरान शायद हम सभी ने जातिये हमले भी किए होंगे - जिसका इरादा और सोच बिलकूल नही थी !
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा

Saturday, April 5, 2008

कम्बल ओढ़ के हम घी पी रहें है या पानी ?

मैं बिहार मे पैदा हुआ दिल्ली मे प्रगतिशील पत्रकार कहलाता हूँ . सर नेम को झटक कर जाति से अपने परहेज की मात्रा मापी जाने लायक बना लिया है . शुरू से ही दुबे ,चौबे, झा ,मिश्रा ,तिवारी ,त्रिपाठी , सिंह , शर्मा , चौहान जैसे सरनेम नेम से विलीन हो गुप्त आचरण मे समाहित हो , चाहता रहा .और मिलीमीटर से भी कोई मेरे ब्रह्मनत्व को माप न पाये इसके लिए मैं सरनेम पासवान, राम , बाल्मीकि, बैठा , प्रसाद ,मंडल, महतो आदि सरनेम नेम से न जुदा हो , इसका हिमायती रहा हूँ. खोज-खोजकर इनको दोस्त बनाता हूँ सो स्वाभाविक क्रिया के तहत साथ उठना बैठना खाना पीना सब चलता रहता है . इनकी आवाज़ उठाते रहने से ताली , खाली नही जाती.और अपनी धर्मनिरपेक्षता का क्या कहना ? हम तो अपने पत्रकारिता धर्म को भी ठेंगा दिखाते रहते हैं , क्या मजाल की इंसानियत का धर्म मेरे से नज़र मिलाये . ब्राह्मण और हिंदू होने के वावजूद मैंने जनेऊ से लेकर 'शिखा 'तक उखाड़ लेने का पक्षधर रहा . शंकर महादेव को "शंकर महादेवेन " से ज्यादा भाव कभी न दिया . अयोध्या के बानर सेना वाले सीताराम को ४ विदेशी कुत्ता पालनहार श्री सीताराम येचुरी से अधिक महत्व न देने का प्रमाण पत्र मेरी जेब मे ही रहता है . हिंदू पूजा पद्धति के ख़िलाफ़ समूचा देश मे, पर बंगाल के ज्योति बाबू की काली पूजा को मुस्लिम के नवाज के समकक्ष ही रखा .
मेरे टाइप के लोगों को "मोदी" मे "मद" और "बुद्धदेव" मे "मध"[शहद ] नज़र आता है .प्रगतिशीलता के नए मापदंड [-अपने "शील" को प्रगति देकर यानी चलायमान रख कर विरोधियों की प्रगति को येन केन प्रकारेण "सील" करना ] पर बिल्कुल खरा उतरने को आतुर एक पत्रकार ही तो हूँ . " रेड लेबल " के पत्रकार कहलाने के लिए क्या-क्या न किया कथित उच्चे कुल मे जन्म लेकर , अपने कुल सहित समस्त उच्चे कुल को गालियों और गोलियों से रौदता रहा रौदवाता रहा .इस तरह सामाजिक न्याय दिलाने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया .पत्रकार की कोई जाति नही होती ,धर्म नही होता उपर्युक्त बातों से साफ हो गया होगा . अब पत्रकारिता की कोई सीमा नही होती इसको भी साफ कर ही दूँ .मैं बिहारी बिहार से चला .मात्र १८-२० घंटे की यात्रा ने बिहार को भुला देने मे मेरी मदद की . दिल्ली से दूर तक देख पाने की शक्ति मिली . नक्शे पर समूचा हिंदुस्तान क्या चीन, रूस देखता रहा .चीनी रूसी लेखक के अलावा अपने टाईप के धर्मनिरपेक्ष के धर्म गुरुओं का किताब चाटते रहे .अध्ययनशील रहने की बीमारी से ग्रषित हो जाने के कारण आंखों की नजदीकी नजर जाती रही दुरी का विस्तार मेरी सीमा का विस्तार करता गया . बंगाल की करतूत हमे तबतक नही दिखाई देती जबतक की वहाँ कांग्रेस या भाजपा न आए . मोदी को देख सकता हूँ पर उसकी अच्छाई धुधला दिखता है , और उसकी बुराई थोड़ा सा भी दिखे तो परिमार्जन विद्या से पहाड़ मे परिणत कर देने मे ज्यादा टाइम नही लगाता . और बिहार का क्या जहाँ सांप्रदायिक ताकत से मिलकर सरकार चलाने वाला नीतिश को पहले सड़कछाप मुख्यमंत्री बता दिया गया है . बाढ़, सूखा ,अतिवृष्टि का दंश झेलता चार बीघे जमीन वाले को माओवादी के धमकी भरे पत्र को प्रेम-पत्र से ज्यादा कुछ मैं नही समझता . जातिवाद का जहर कम न पड़े इसका प्रयास हमे जारी रखना है अपनी खोजी पत्रकारिता के तहत .क्योंकि इधर मैंने देखा है उच्च जाति ने छुआछूत को छू भी नही रहा . पढे लिखे साफ सुथरे दलित ,अर्धदलित के साथ आम सवर्ण भी घुलनशील होता जा रहा है , ठीक मेरी तरह . ये सर्वाधिक चिंता का विषय है मेरी और मेरी विचारधाराओं के लिये . ख़ुद को मैंने कई बार मार कर खबरों का खुदा बनने की कोशिश की .गिनिए कितनी मौत मरा हूँ ,कितनी बार अपने आपको मिटाया हूँ . अपने सरनेम को मिटाया , अपनी जाति मिटाई , अपना हिंदू धर्म मिटाया , अपना प्रान्तवाद मिटाया . फ़िर ये कुछ सामंतवादी लोग मेरे धर्म और निरपेक्षता मे फासला कायम करना चाहते हैं .कितनी ग़लत बात है ? है कि नही ? अरे साहेब इसीलिय सलमा आगा के दुःख के बराबर मेरा भी दुःख है ."ख़ुद को भी हमने मिटा डाला मगर , फांसले जो दरमिया से रह गए ." खैर कम्बल ओढ़ के हम घी पी रहें है या पानी ? ये हमारे साथी को पता चलेगा तभिये न दुरी बढायेगा .अभिये से बुरबक की तरह तनावोचित बिहेवियर सर्वथा अनुचित है .

Friday, April 4, 2008

कमाल के हैं - "कमाल खान " !

प्रणव राय के न्यूज़ चैनल मे "कमाल खान " एक रिपोर्टर हैं - आप इनके रिपोर्टिंग को देखें - मंत्र - मुग्ध हो जायेंगे ! बिल्कुल सरल और साफ पानी की तरह ! एक दिशा मे बिना किसी विद्वेष और "दुराग्रह" के ! रमजान के महीने मे इन्होने मक्का - मदीना के बारे एक रिपोर्टिंग की ! शायद "वाह ! जनाब और लाजबाब " जैसे शब्द भी कम पड़ जायेंगे ! दुःख है की यह कोई "ब्लॉग" नही लिखते हैं और दिल्ली मे इनका कोई हितैषी भी नही है ! मैंने पूछा - आप दिल्ली क्यों नही आ जाते ! मुस्कुरा दिए ! मैं समझ गया - यहाँ कई "नाग" बैठे हैं - जो पल भर मे इनके "पत्रकार" जीवन को डस - सदा के लिए सुला देंगे ! "कमाल खान को सिर्फ़ उर्दू ही नही आती है - यह संस्कृत के श्लोक भी धारा प्रवाह बोलते हैं ! यह किसी पर दुराग्रह से प्रभावित कोई हमला नही करते हैं - पर अपने "कॉम" की सुंदर तस्वीर देने से जिझाकते भी नही हैं !
" कमाल , तुझे मेरा सलाम " !
इलेक्ट्रोनिक मीडिया इतनी गंदी और गुटबाजी की शिकार हो गयी है की कहना मुश्किल है की किसका चेहरा बेदाग है ! "पुण्य प्रसून" जैसे वक्ता को भी नही बख्शा जाता है ! कुछ लोग पत्रकारिता को बाप-दादा की जमींदारी समझ लिए हैं - जमींदारी छीन जाने के डर ने इनको आक्रामक बना दिया है - इनके आक्रमण के शिकार कई भले मानुष हो जाते हैं - वह बेचारे कुछ बोल नही पाते हैं - पिछले साल इलेक्ट्रोनिक मीडिया मी कई "चाल" चले गए - शायद आप सभी को पता ही होगा !
कभी कभी यह पत्रकार वर्ग ख़ुद को इतना मजबूत पता है की सता को गिराने का ठेका भी ले लेते हैं ! पिछले साल पटना के एक बाहुबली विधायक पर हमला और फ़िर उसकी पोल खोल ने जग जाहिर कर दिया की - दिल्ली के न्यूज़ रूम से लेकर पटना के कैमरा मन तक सभी के सभी इस गंदी राजनीती के हिस्सा थे ! अब ये उस प्रकरण पर कुछ भी नही बोलते !
एक अजीब सा वातावरण बना दिया जता है - पिछले साल राम नाथ गोएंका अवार्ड के असली विजेता और सही रूप मी पत्रकारिता का काम कर रहे लोगों की चर्चा किसी ने नही की - बल्की क्षेत्रिये पुरस्कार के विजेता को कंधे पर बैठा लिया गया - क्योंकी यह पत्रकार - दिल्ली मे बैठा अपने जाती के पत्रकारों का "अर्जुन" है !
इस अर्जुन- द्रोणाचार्य के गठजोड़ मे कई एकलव्य बरबाद कर दिए गए और किए जा रहे हैं ! यह अंतहीन "तमाशा" कब तक चलेगा - पता नही ! -

रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा