Thursday, November 6, 2014

सोच .....


लिखने से पहले ..मै यह मान के चल रहा हूँ ...मेरी तरह आप भी किसी स्कूल - कॉलेज में पढ़े होंगे - जैसी आपकी चाह और मेरिट या परिस्थिती ! अब जरा अपने उस 'क्लास रूम' को याद कीजिए - चालीस से लेकर सौ तक का झुण्ड - कुछ सीनियर / जूनियर को भी याद कर लीजिये ! "एक क्लासरूम में लगभग एक ही मेरिट के विद्यार्थी - पर सबका मकसद अलग अलग ..:)) " 
किसी को पढने में मन लगता है तो वह अपने मन लगाने के लिए पढ़ रहा है - किसी के खानदान में सभी पढ़े लिखे हैं - इसलिए वो पढने आ गया - नहीं पढ़ेगा तो लोग क्या कहेंगे - किसी को पढ़ लिख के नौकरी पकड़ना है - इसलिए वो पढ़ रहा है - कोई अपने परिवार का प्रथम जो ग्रेज्युएट होने जा रहा - इसलिए वो भी है - किसी को टॉप करना है तो वो प्रथम बेंच पर बैठा हुआ है - कोई ज्ञान के लिए पढ़ रहा है - भले पास करे या फेल -कोई मेरी तरह भी-नहीं पढ़ेगा तो बढ़िया कुल खानदान में बियाह नहीं होगा टाईप  
मेरिट एक - वातावरण एक - बस मकसद / सोच अलग अलग - पुरी ज़िंदगी की दिशा और दशा ही बदल गयी - वही पढ़ाई पढ़ के कोई कम्युनिस्ट का नेता बन गया तो कोई टाटा संस में वाईस प्रेसिडेंट ( विनोद मिश्र और गोपालकृष्णन दोनों आईआईटी - खड़गपुर से सत्तर के दसक में साथ साथ पढ़े ) ! कई बार वो मकसद / सोच जिन्दगी के बीच राह में बदल भी जाती है ! एक बहुत ही करीबी मित्र से यूँ ही गप्प हो रही थी - बहुत ही बढ़िया कूल खानदान का और विश्वस्तरीय स्कूल कॉलेज से पढ़ाई - कहने लगा 'शौक' के लिए पढ़ा - पढ़ते वक़्त कभी लगा ही नहीं - पैसा भी कमाना लक्ष्य है - जिस प्रथम दिन नौकरी के लिए जाना था - बाथरूम में फूट - फूट कर रोया ! 
अपने जीवन की एक छोटे हिस्से की बात बताता हूँ - बंगलौर में नौकरी करता था - यह पता था - आज नहीं तो कल वापस लौटना है - और जब लौटना ही है - फिर क्यों न वह ज़िंदगी जी लो - जो शायद पटना में नहीं मिले - सुबह कंपनी - दोपहर कर्नाटका सेक्रेटेरियेट में भोजन - शाम एमजी रोड - और वीकएंड सुबह इंडियन कॉफ़ी हॉउस में डोसा ..जी भर जिया ...आज से 18-19 साल पहले - जितनी मेरी क्षमता उससे बड़ी ज़िंदगी मैंने जी - उस हद तक जी की अब कोई प्यास नहीं ! मकसद ही अलग था ! दिल्ली गया - पिता जी का दबाब - फिर से नौकरी करो - जब वहां गया - एक ही महिना में खुद के लिए फ़्लैट खोजने लगा - बीआईटी - मेसरा की बढ़िया नौकरी छोड़ दी - लगा वापस रांची चला गया - दिल्ली या आसपास अपना फ़्लैट नहीं हो पायेगा - चाईल्ड साइकोलोजी - बड़े लोगों का महानगर में अपना फ़्लैट होता है ! जिस साल रजिस्ट्री करवाया - दिल्ली से आधा मोहभंग - और जिस दिन लोन चुकता किया - पूरा मोहभंग - मकसद ही अलग था - कभी किसी को यह नहीं बताया - मै नॉएडा के एक बेहतरीन कॉलेज में प्रोफ़ेसर हूँ - मकसद प्रोफ़ेसर बनना था ही नहीं ! 
कौन गलत है और कौन सही है - कहना मुश्किल है ! दरअसल हम इतनी छोटी दुनिया से आते हैं और अपने हाथ में एक सामाजिक स्केल लेकर बैठ जाते हैं और उसी स्केल से हर किसी को नापने लगते हैं ..
उसी पद पर बैठ - लालू / राबडी ने सामाजिक न्याय का रथ चलाया - उसी पद पर बैठ नितीश विकास की बात सोचे - उसी पद पर बैठ वर्तमान मुख्यमंत्री अलग बात कह रहे हैं - सबका मकसद अलग अलग - कल कोई और आएगा - उसका मकसद अलग होगा ! 
और यह मकसद - उसके आंतरिक व्यक्तित्व से निकलता है ...:)) 

मुझे ऐसा लगता है - ज़िंदगी या किसी भी अन्य चीज़ के लिए 'सोच' के तीन आधार है - १) ईश्वरीय देन २) परिवेश / खून ३) वर्तमान - अब इन तीनो में जो कुछ आपके उस सोच पर हावी होगा - वैसे ही आपके एक्शन या प्लान होंगे ! 
यह ईश्वरीय देन है जिसके कारण एक ही परिवेश / एक ही कोख से जन्मे / एक ही वर्तमान में जी रहे 
दो लोग ज़िंदगी के प्रती अलग अलग सोच रखते हैं या अपना मकसद बनाते हैं ! हर एक इंसान को ईश्वर एक अलग सोच देकर इस धरती पर भेजता है ! उस सोच को आप बदल नहीं सकते - अगर आपको लगता है - आपकी कोई एक ख़ास सोच गलत है - फिर उसको बदलने के लिए बहुत ही कठोर साधना की जरुरत होती है - जिसे हम मन का निर्मलता भी कह सकते हैं ! जैसे अलग अलग जानवर अपनी अलग अलग विशेषता के लिए जाने जाते हैं - ठीक वैसे ही इंसान भी है - अब ईश्वर ने आपकी सोच भेड़िया वाला बना के भेजा है फिर आप शेर की तरह वर्ताव नहीं कर सकते - ईश्वर ने आपका दिल चूहा वाला दिया है - फिर आप हमेशा एक डर में जियेंगे - यह कोई समाज या परिवेश नहीं बदल सकता है - यह इंसान अपनी असीम 'विल पावर' से बदल सकता है - इसी तरह सकरात्मक सोच भी होते हैं - जिसका फायदा इंसान अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक उठाता है ! 
दूसरा महत्वपूर्ण है - परिवेश - आप किस परिवेश में पले बढे हैं - मेरी बड़ी दादी कहती हैं - आदमी कहीं भी चला जाए - जहाँ का जन्मा होता है वह उसके साथ हमेशा रहता है ! मेरे एक दोस्त है - काफी वर्षों से बाहर ही सेटल है - बचपन का नहीं पर बचपन जैसा ही है - जब कभी पटना आएगा - मै फोन करूंगा - मुलाक़ात होगी ? उधर से जबाब - गाँव जा रहा हूँ - बेटी को बकरी / देसी गाय का दर्शन करवाना है - उसके पिता भी भारत सरकार से रिटायर है - किताबों के जबरदस्त शौक़ीन - घर में ट्रंक के ट्रंक किताब - एक दिन पूछा - तुम्हारे ..पापा का क्या हाल है ...दोस्त का जबाब आया ...गाँव गए हुए हैं ..तोडी / सरसों तुडवाने ...:)) अब सोचिये ...एक इंसान प्रिंस स्टाईल जीवन ...खेतों में घुसा हुआ - यह परिवेश ..खून का असर है ...मै जिस समाज से आता हूँ - वहां का लड़का हारवार्ड में भी टॉप करके - अगर बिहार आया तो वो एक नज़र अपने खेतों को जरुर देखना चाहेगा - अगर नहीं देख पाया तो उसका हिसाब किताब जरुर लेना चाहेगा ...:)) 
जीवन के सोच को लेकर - परिवेश का बहुत महत्व है - कई बार मै उस तरह के इंसान से बहुत नजदीक हो जाता हूँ - जिसका परिवेश / लालन पालन मुझ जैसा हुआ हो - जिसको हम 'बेसिक क्लास' कहते हैं - आप कहीं भी चले जाएँ - आपका बेसिक क्लास क्या है - वही क्लास आपके संबंधों को मधुर या ज़िंदा रखेगा और इस बेसिक क्लास का आपके वर्तमान वैभव से / वर्तमान कठिनाई इत्यादी से कुछ नहीं लेना देना होता है ! 
एक और अनालौजी देना चाहूंगा - मै जब नॉएडा में पढ़ाने लगा तो देखा एक क्लास में तीन तरह के विद्यार्थी हैं - प्रथम जो दिल्ली या आस पास के हैं - दूसरी या तीसरी पीढी दिल्ली में सेटल है - दुसरे लखनऊ या आस पास बड़े शहर से हैं और तीसरे जो पूर्वी हैं ! अब तीनो ग्रुप एक ही क्लास - एक ही शिक्षक - एक ही सिलेबस - पर तीनो ग्रुप का जीवन के लिए अलग अलग गोल ! पहला ग्रुप - सेकेण्ड ईयर से ही अमरीका / यूरोप के बेहतरीन कॉलेज में पीजी में एडमिशन के लिए तैयारी - लखनऊ या आस पास बड़े शहर वाले - किसी मल्टीनेशनल में किसी तरह से नौकरी हो जाए - मिल गया - शर्ट का दो बटन खोल कैपस में घूम रहा ! तीसरा पूर्वी वाला - पब्लिक सेक्टर / सरकारी नौकरी के लिए बेचैन - हर बार समझाया - यार ..मेरिट है ...फुल स्कॉलरशिप मिल जायेगी - जीआरआई दो - अब वो ऐसे परिवेश से आते थे - उनकी हिम्मत नहीं हो पाती - अब अगर उनको कैम्पस में किसी मल्टीनेशनल में नौकरी मिल गयी - वो उदास है - क्यों भाई ..क्यों उदास हो ...पिता जी को क्या बोलेंगे ...नौकरी सरकारी थोड़े न है ...हा हा हा हां ....:)) 
आपका परिवेश ...आपका जड़ ..आपकी सोच को किस हद तक प्रभावित करता है ...कभी सोचियेगा . 

मैंने बहुत पहले दालान ब्लॉग पर लिखा था - आखिर वो कैसी घड़ी रही होगी - जब एक बैरिस्टर 'मोहन दास करम चंद् गांधी' को "महात्मा गांधी" बनने को मजबूर किया ! ट्रेन से सामान फेंकने की घटना तो न जाने कितने और अश्वेत के साथ भी हुई होगी - पर सब के सब तो महात्मा गांधी नहीं बन पाए ! 
वाल्मीकि / गौतम बुद्ध / गैलेलियो / अरिस्टो / प्लेटो / महात्मा गांधी और वो सभी जो काल की सीमा तोड़ अपनी पहचान बना सके - सबके के उस वर्तमान जीवन में कोई न कोई ऐसी घटना जरुर हुई जो उनकी पुरी दिशा बदल दी ! पर असल सवाल यह उठता है - ऐसी घटना तो बहुतों के जीवन में भी होता आया होगा या है - सब तो वो नहीं बन पाते ! 
अब अगर मै एक आधी रात उठ - सत्य की तलाश में - घर छोड़ निकल जाऊं - क्या मै भी गौतम बुद्ध बन सकता हूँ ? ...:)) क्या मै भी हजारों साल तक ज़िंदा रह सकता हूँ ?...:)) 
फिर वो क्या चीज़ है ..जो इनको महान बनाया ! इस बात पर एक मित्र से बात किया - उसने कहा जो मेरा भी मानना है - जिज्ञासा ! आपके अन्दर कितनी जिज्ञासा है और वो कैसी जिज्ञासा है ! सेब तो किसी के भी माथे पर गिर सकता है - पर वो सेब नीचे ही क्यों गिरा - यह एक जिज्ञासा न्यूटन को अमर कर दिया ! ट्रेन से सामान कितनो का फेंका गया - पर ऐसा क्यों - महात्मा गांधी बना दिया ! हर कोई पाप करता है - अपने परिवार के भरण पोषण के लिए - कोई अंगुलीमाल डाकू से ऋषी नहीं बन पाया ! 
कोई एक घटना - मामूली ही - इतने जोर से अन्दर धक्का देती है - जैसे ज्ञान का फव्वारा खुल पड़ता है - पर याद रहे - जैसे - एक बंद पाईप से पानी बह रहा है - और आप उस पाईप को कहीं से छेद कर दे या काट दें - फव्वारा वहीँ से खुल जाएगा - शर्त है ...उस पाईप के अन्दर पानी बहता होना चाहिए .....:)) 
हाँ ...जिसके अन्दर वो जिज्ञासा शुरू से होती है ...उसी को कोई घटना ...उसकी समझ खोल सकती है ...अगर जिज्ञासा नहीं है ...फिर बड़ी से बड़ी घटना भी जीवन के छोटे से रहस्य को खोल नहीं सकती ...
थैंक्स ....:))) 
~ रंजन ऋतुराज

@RR