Friday, June 11, 2010

मेरा गाँव - मेरा देस - भाग आठ

आखिरकार वो कैसी घड़ी रही होगी - जब मोहनदास करमचंद गाँधी - सूट बूट में - चमड़े की सूटकेस और अंग्रेजों की चाबुक ! बैरिस्टर साहब की जिंदगी बदल गयी ! उस वक्त 'ब्लॉग' नहीं होता था - वरना वो अपनी बेइज्जती 'ब्लॉग' पर उतार शांत हो जाते ! खैर ...

क्षेत्रीयता क्या है ? जिंदगी की कुछ घटनाएँ याद हैं ! बात करीब १९८० की रही होगी ! मेरे गाँव में रेलवे स्टेशन नहीं था तो बाबा ने तत्कालीन सांसद स्व० नगीना राय को पत्र लिखा ! उन्होंने ने मदद किया और ५-६ साल में रेलवे विभाग ने एक 'हॉल्ट स्टेशन' पारित कर दिया ! पूरा गाँव खुश था ! पर एक दिक्कत आ गयी - बगल के गाँव वाले उस स्टेशन का नाम अपने गाँव पर रखना चाहते थे - जब यह नहीं हो पाया तो वहाँ के सब से बड़े आदमी ने कुछ 'पैरवी' लगा कर अपने दादा - परदादा के नाम पर 'स्टेशन' का नाम रख दिया ! दोनों गाँव में "आग लग गयी" ! जिनके नाम ये स्टेशन रखा गया - वो भी हमारी जाति के थे - पर यहाँ 'क्षेत्रवाद' उभर कर आ गया ! बाबा चुप थे ! आँखें नाच रही थी ! स्टेशन का उदघाटन का दिन आ गया ! 'तनाव' चरम सीमा पर थी ! उनलोगों ने किसी बड़े आदमी को बुला रखा था - उदघाटन के लिए ! और हमारा गाँव इस जीद पर अडा था की - स्टेशन का 'उदघाटन' मेरे बाबा ही करेंगे ! खैर , पहली ट्रेन रुकी और बाबा की उपस्थिती में स्टेशन चालू हुआ ! उस गाँव के लोग जो हमारी जाति ही नहीं एक गोत्र के भी थे - उनसे 'नेवता - पेहानी' काफी दिन तक बंद रहा !

कहाँ गया 'जातिवाद' ???

दूसरी घटना याद है ! मेरे गाँव में एक बहुत बड़ा "पोखर" है ! पूर्वजों ने उसको एक ब्राह्मण को दान दे दिया था ! वो ब्राह्मण नाव्ल्द हो गए ! उनके मरने के बाद उनकी पत्नी अपनी मायके रहने लगी ! बगल के गाँव में एक आदमी 'ठिकेदारी' से बहुत पैसा कमाया और उस विधवा से जमीन अपने नाम करवा लिया ! क्योंकि , वो पोखर करीब २०-२५ एकड़ में था सो मछली उत्पादन और आय का बहुत श्रोत हो सकता था ! पर एक दिक्कत थी - ब्राह्मण के नहीं रहने के हालत में - वो पोखर धार्मिक कामो में प्रयोग होने लगा और माल मवेशी को नहाने धुलाने में ! हिंदू वहाँ 'छट पूजा' करते थे ! पोखर के पछिम दिशा में बाबा ने मुसलमानों को बुला उनसे चंदा दिलवा - एक छोटी मस्जिद भी बनवा दी ! 'दान' दी हुई चीज़ थी - सो परिवार में किसी को कभी कोई लालच नहीं हुआ - अब वो पुरे गाँव का हो गया था ! पर , ठेकेदार एक दिन मछली मारने पहुंचा ! 'मेरा पूरा गाँव' हल्ला बोल दिया ! कागज़ी तौर पर वो मजबूत था - पर गांव को ये मंजूर नहीं था ! कोर्ट - कचहरी शुरू हुआ ! गाँव के हर घर पर उसकी आमदनी के अनुसार चंदा बाँध दिया गया ! सभी मंजूर कर लिए ! और ये 'मुकदमा' हारते - जीतते अंततः "पोखर" सार्वजनिक घोषित हुआ !

मैंने समाजशास्त्र किसी किताब में नहीं पढ़ी है ! १९८७ के बाद शायद की कोई किताब इन विषयों की पढ़ी हो ! पर , समाज के साथ रहा हूँ - पला बढ़ा हूँ , सो जो महसूस करता हूँ - लिखता हूँ !

मनोविज्ञान को भी नहीं पढ़ा ! पर इसी छोटी उम्र में हजारों लोगों से मिल चूका हूँ ! लोग किस किस अवस्था में कैसे सोचते हैं - पता है ! 

मैंने पहले भी कहा है - मंगल ग्रह पर कोई भी आदमी 'पृथ्वी' का अपना लगेगा ! अमरीका में बैठा 'पाकिस्तानी' करीबी लगेगा ! बंगलौर में 'यू पी ' वाला भाई लगेगा ! दिल्ली में 'बिहार के किसी भी जिले' का कोई भी अपना लगेगा ! बिहार में अपना जिला वाला प्यारा लगेगा ! अपने जिला में अपना गाँव वाला सब से नजदीकी होगा ! अपने गाँव में अपना घर वाला सब से निकट का महसूस होगा ! और परिवार के अंदर - अपनी बीवी - बाल बच्चों के हित में सोचूंगा और बीवी से झगडते वक्त - अपनी दलील पर कायम रहूँगा :)

इन्ही शब्दों के साथ ....

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Sunday, June 6, 2010

मेरा गांव - मेरा देस - ( सिनेमा - सिलेमा ) भाग सात

अभी अभी 'प्रकाश झा' की "राजनीति" देख लौटा हूँ ! शाम को फेसबुक पर बैठ - इस कोठी का चाऊर उस कोठी कर रहा था - तब तक एक मित्र ने फोन कर दिया की - 'सिनेमा चलना है - फिर क्या था :) झटपट जींस चढ़ाया - एक सफ़ेद टी पहना और चल दिया - घर के बिलकुल पास में ही 'शिप्रा मॉल' है ! खैर , मनोज वाजपेयी बेहतरीन दिखे ! ज्यादा क्या लिखूं ? बहुत लोग हैं - लिखने वाले ! चलिए आपको अपने युग में ले चलता हूँ :)

हलकी याद 'एक फूल दो माली' की है ! पर उस ज़माने में 'मध्यम वर्ग' फिल्म्ची होता था ! मुजफ्फरपुर में उस ज़माने में 'राजा हरिश्चंद्र' लगा था - बड़े बाबा को छोड़ हम सभी गए थे ! इस सिनेमा का प्रभाव और बाबु जी के डान्ट ने मुझे 'झूठ' बोलना छुडवा दिया :) बात १९७९ की रही होगी ! मुजफ्फरपुर में एक बहुत बड़ा सिनेमा हॉल बना था - " जवाहर पिक्चर पैलेश" - उसमे एक साथ - दो सिनेमा हौल होते थे - जवाहर डिलक्स और जवाहर मिनी - किसी बड़े व्यापारी ' राम उदार झा जी' का था ! उस सिनेमा हॉल की - पहली पिक्चर थी - " दुनिया मेरी जेब में " :) इंटरवल में जब 'ठंडा' बेचने वाला 'ओपनर' से सभी बोतलों पर आवाज़ निकलता था - मन ललच जाता था :) एक चाचा की शादी हुई थी - हर सफ्ताह सिनेमा का प्रोग्राम बनता था - बाबु जी के कई ममेरे - फुफेरे भाई बहन भी वहीँ साथ में रहते थे ! किसी को साइकील से दौड़ा दिया जाता था - टिकट कटा कर रखना ! सुबह में ही मोहल्ले के रिक्शा वाले को बोल दिया जाता और वो सिनेमा शुरू होने के एक घंटा पहले रिक्शा लगा देता था - माँ - फुआ - चाची लोग रिक्शा पर और हम बाबु जी के 'लैम्ब्रेटा' पर :)
सिनेमा खत्म होने के बाद - मन भारी हो जाता - कई सिनेमा तो सो कर ही निकाल दिए ! बाहर आते ही - सिनेमा के गाना का 'किताब' मिलता था !
एक दूर के फूफा जी होते थे - उनका टेंट हॉउस होता था - सो उनको सिनेमा हॉल वाले 'पास' देते थे ! धीरे - धीरे बाबु जी सिनेमा कम जाने लगे और हम सभी मुफ्त का 'पास' का आनंद उठाने लगे ! मेरा एक पसंदीदा स्वेटर होता था - 'मुकद्दर का सिकंदर' देखते वक्त 'हॉल' में ही छूट गया ! क्रांति आयी थी - ओफ्फ्फ ...कितना भीड़ था ..'शेखर टॉकिज' में ! ९ बजे वाला शो ११ बजे शुरू हुआ ! रात दो बजे हम सभी लौटे थे ! कभी कभी इतवार को "एक टिकट में दो शो" का भी ओफ्फर आता था ! हम ये अवसर कभी नहीं पा सके :(  उस वक्त की कई सिनेमा याद है - त्रिशूल , एक दूजे के लिए , दोस्ताना , जुदाई , लव स्टोरी और मालूम नहीं कितने !

एक दिक्कत और थी ! गाँव से कोई भी आता - वो शाम को गायब हो जाता - बाद में पता चलता की वो 'सिलेमा' देखने गया था :) एक दो सिनेमा ऐसे लोगों के साथ पर्दा के सबसे पास वाले सीट पर भी बैठ कर देखा है ! ब्लैक में टिकट लेना कभी शर्म तो कभी शान हुआ करती थी :) हमारे यहाँ "डी सी , बी सी , फर्स्ट क्लास , सेकंड और थर्ड क्लास होता था !

पटना आया तो - "उमा सिनेमा " के ठीक पीछे "नाना जी" का घर था ! रात में मामू जान लोग के साथ - शो मार दिया करता ! फिर कंकरबाग आया तो - "वैशाली" ! कई पुराने सिनेमा "वैशाली" में देखा - आरज़ू , दिल ही तो है और मालूम नहीं कितने और :) 

नौवीं में चला गया - दोस्तों ने जोर दिया - अमित जी का 'गिरफ्तार' आ रहा है - टिकट का इंतज़ाम हो जायेगा - चलना है ! किसी तरह "माँ" को मनाया - माँ ने बाबु जी को मनाया फिर बाबु जी ने माँ को हाँ कहा - माँ ने मुझे हाँ कहा तब जा कर 'मै' बड़ा हुआ और दोस्तों के साथ 'सिनेमा' देखा :)

टी वी भी आ चूका था ! सिनेमा की जरुरत भी कम हो गयी थी ! + २ में गया तो दोस्तों के साथ - एक ही स्कूटर पर पांच लोग सवार होकर 'मोना' का मोर्निंग शो देखने गए थे ! एक ने सिगरेट जला ली - कश पर कश दिए जा रहा था - मुझे बार बार अपने पिछडेपन का एहसास होता :(  खैर इसी बीच आ गए -"आमिर खान" साहब और "सलमान खान" - "क़यामत से क़यामत" करीब ८ बार तो जरुर देखी होगी ! ३-४ बार .."मैंने प्यार किया" ! इन दोनों सिनेमा का कैसेट भी खरीदाया ! अब के दौर में - वी सी आर - आने लगा ! वी सी आर - दहेज का प्रमुख आइटम हो गया ! "विडियो कोच" की इज्ज़त और डिमांड बढ़ गयी !

स्नातक में गया तो .. :) हर परीक्षा के तुरंत बाद पूरा का पूरा बैच 'सिनेमा हौल' में ! जिन दोस्तों की गर्ल फ्रेंड होती - वो हमें चिढाने के लिए  जरुर आते :(  सड़ा - गला किसी भी तरह का सिनेमा - पूरा हॉल 'धुंआ' से भर जाता ! आमिर - सलमान - शाहरुख को देखते देखते स्नातक गुजर गया ! कभी कभी मेस के टेबल पर ही सिनेमा का प्लान बन जाता :) दोस्तों के कमरे में 'बॉलीवुड' के पोस्टर लगने लगे ! 'फिल्म फेयर , मूवी ' सिनेब्लित्ज़ , स्टार डस्ट् और मालूम नहीं क्या क्या ...जैकी चान की आदत भी अभी ही लगी थी ! सिनेमा के गाने के कैसेट आदान - प्रदान होने लगे :)

बंगलौर में नौकरी करता था - इतवार को 'तेलगु - तमिल' कोई भी सिनेमा देख लेता ! वहाँ का पब्लिक सही है - एकदम मस्त ! संतोष सिनेमा हौल सब से प्रिये था ! एक शायद 'अभिनव' भी था !

नॉएडा आया तो २ साल तक कोई सिनेमा 'हौल' में नहीं देखा ! मल्टीप्लेक्स के दामों को सुन हिम्मत नहीं होती ! एक सम्बन्धी आये - फिल्म्ची थे - जिद पर अड् गए - जाना पड़ा :( ..फिर तो ....शुरुआत हो ही गयी :)  अब तो ऐसे जगह पर रह रहा हूँ ..जहाँ आधा किलोमीटर के अंदर ३-४ मल्टीप्लेक्स हैं - यहाँ नहीं तो वहाँ ..कहीं न कहीं टिकट तो मिल ही जायेगा !


मालूम नहीं क्या क्या लिख दिया :) पढ़ लीजिए ..कुछ यादें आपकी भी हों तो कम्मेंट दे दीजिए ..अभी फुर्सत है ..तो ब्लॉग छप रहा है ! :)






रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Thursday, June 3, 2010

मेरा गाँव - मेरा देस ( राजनीति ) - भाग छह

प्रकाश झा साहब की फिलिम 'राजनीति' रिलीज होने वाली है ! सन १९८४-८५ में उनकी 'दामुल' दूरदर्शन पर देखी थी ! एक सांस में देख लिया था :)  उनकी लगभग सभी फिल्मे देख चूका हूँ ! 'राजनीति' भी देख लूँगा :) मै 'फिलिम्ची' नहीं हूँ - सिनेमा देखते वक्त 'निर्देशक' की भूमिका में खुद को पाता हूँ तो और भी दिक्कत होती है :(  इसलिए सिनेमा और टी वी के रिपोर्टस को लगभग कोशिश करता हूँ - ना देखूं !

खैर , एक पोस्ट में आप सभी ने पढ़ा होगा - कैसे मै पहली दफा 'श्रीमती गाँधी' को रांची में देखा ! तब से उनका मै फैन हो गया :) १९७७ का चुनाव याद नहीं है पर उनका चुनाव चिन्ह 'गाय और बछड़ा' के बैच कई सालों ताक मेरे 'दराज' में मेरे खिलौने के पार्ट हुआ करते थे ! सन १९८० के आम चुनाव के वक्त मै मुजफ्फरपुर में हुआ करता था - 'राजनीति' खून में थी ! कॉंग्रेस जेहन में थी ! मुजफ्फरपुर के सब से बड़े व्यापारी 'श्री रजनी रंजन साहू' कॉंग्रेस के उम्मीदवार हुआ करते थे ! बड़े दादा जी से जिद  किया तो कॉंग्रेस के कुछ झंडे घर' के छत पर टांग दिए गए :) इंदिरा गाँधी से प्रभावित होकर - मैंने भी अपनी एक 'वानर सेना' बना ली थी ! :) मोहल्ले के ही सभी थे ! जॉर्ज साहब भी चुनाव लड़ रहे थे ! जॉर्ज साहब एक चुनावी सभा को संबोधित करने वाले थे - हम सभी ने प्लान बनाया की वहाँ हम पत्थर फेंकेंगे :) खैर , अब याद आती है तो बहुत हंसी भी छूटती है :) मोहल्ले के कुछ लोगों ने 'जॉर्ज साहब' के पक्ष में एक छोटा सा प्रदर्शन टाईप का करने वाले थे - मुझे जब पता चला - मै बेचैन हो गया था - बड़े बाबा के पास गया और रोने लगा :) शाम को वो प्रदर्शन हमारे घर के सामने से ही होकर जाने वाला था - मै शाम को ही तीर धनुष लेकर उनको रोकने को तैयार था :) मेरी 'वानर सेना' गायब थी - राजनीति का पहला सबक :)

वोट कैसे गिराते हैं - नहीं पता था ! बाबु जी और बड़े बाबा - चाचा सभी लोग पास के ही एक महिला कॉलेज जो की मतदान केंद्र हुआ करता था - वहाँ जाने वाले थे - जिद पर अड् गया - बाबु जी के लैम्ब्रेटा पर पहले से ही जा कर बैठ गया :) वहाँ गया - तब तक एक 'जीप' आई और उससे एक दूसरी पार्टी के उम्मीदवार उतरे - बाबु जी ने मुझे इशारा किया की "प्रणाम' करो !मैंने नहीं किया ! बाद में पता चला की वो वहाँ से लगातार चार बार जीत चुके और 'लंगट सिंह' के पौत्र 'दिग्विजय' बाबु थे और हमारी जाति के ही थे - शायद मेरे घर वालों ने उनको ही वोट दिया था - रात भर नींद नहीं आयी - विश्वास टूट चूका था - राजनीति का दूसरा सबक :)

सन १९८० के विधानसभा चुनाव के समय 'गांव' पर था ! बाबा को टिकट मिलने की खबर 'अखबार' में छप चुकी थी - ऐसा ही कुछ उनके साथ १९६२ में भी हुआ था पर वहाँ के तत्कालीन सांसद 'श्री नगीना राय' ऐसा नहीं चाहते थे सो अंतिम समय में 'टिकट' कट गया ! हम सभी बहुत दुखी थी - डॉक्टर जगनाथ मिश्र गाँव पर आये - और कुछ बड़ी चीज़ का वादा कर के गए :) बाबा कॉंग्रेस के थे - कॉंग्रेस ने बहुत ही कमज़ोर कैंडिडेट को उतरा था - बेवकूफ जैसा था - हर सुबह अपनी जीप लेकर हमारे दरवाजे आ जाता था ! हम और हमारे बाबा दिन भर कॉंग्रेस की जीप में घुमते :) पर , अचानक मुझे पता चला की बाबा ने उनदिनो बिहार के समाजवादी नेता 'श्री कपिल देव बाबु ' को चिठ्ठी भेज कर अपने एक आदमी को 'जनता पार्टी' का टिकट दिलवा दिया था ! 'कपिल देव बाबु सम्बन्धी लगते थे ! चुनाव के ठीक पहले अचानक बाबा सक्रिए हो गए - उनके सारे लोग - उस 'अपने आदमी' के लिए काम करने लगे :) पर जीप अभी भी वही 'कॉंग्रेस' की थी ! घर में झंडे 'कॉंग्रेस'   के ही लगे थे ! खैर , न तो कॉंग्रेस जीता और न ही वो अपना 'आदमी' - राजनीति का तीसरा सबक बहुत महत्वपूर्ण हो गया !

फरवरी १९८४ में दिल्ली आया था ! राज्यभर के कॉंग्रेसी आये थे ! मै भी बाबा के साथ 'लटक' गया ! दिल्ली का पहला दौरा था ! २६ , महादेव रोड पर नगीना राय के डेरा पर रुके थे ! हर शाम - पालिका बाज़ार घूमने जाता था ! जिस दिन इंदिरा गाँधी से मिलने जाना था - उसके ठीक एक दिन पहले मैंने 'पालिका बाज़ार' से एक 'कैमरा खरीदा' - अगले दिन मैंने अपनी जिंदगी की पहली तस्वीर श्री मति गाँधी का लिया - सफ़ेद अम्बैस्डर में सवार ! सर पर पल्लू ! कॉंग्रेस के कई दिगज्जों के रूबरू ! ढेर सारे 'आशीर्वाद' समेटा !

१६ अक्टूबर १९८४ , श्रीमती गाँधी से अंतिम मुलाकात ! सत्येन्द्र बाबु उर्फ छोटे सरकार का कॉंग्रेस में वापसी का दिन ! श्री कृष्ण मेमोरियल में ठीक उनके सामने बैठा हुआ - मै :) बिहार के सभी कॉंग्रेसी दिग्गज के बीच में - मै एक टीनएजर कॉंग्रेसी :) ताकत का एहसास होता था ! स्कूल में गप्प देने के ढेर सारे मसाले मेरे पास हुआ करते थे ! पर मेरे मसाले में मेरे किसी दोस्त को 'इंटरेस्ट' नहीं होता था ! :(  अब कोई मुझसे 'राजनीति' पर कुछ पूछता है य बहस करता है - मै सिर्फ मुस्कुराता हूँ !

इंदिरा गाँधी का क़त्ल हो गया ! चुनाव हुए ! हमारी वार्षिक परीक्षा खत्म हो चुकी थी - बाबा ने अपने बौडी-गार्ड को मुझे गोपालगंज बुलाने के लिए - पटना भेजा था ! बाबु जी 'दांत' पीसते रह गए और मै - चुनाव के मजे लेने के लिए 'पटना' से फरार हो गया ! :) नगीना राय के खिलाफ उनके ही शागिर्द 'काली पाण्डेय' चुनाव लड़ रहे थे - राजनीति का यह अजीब सबक था - अवसरवादिता का ! चुनाव प्रचार में ३०-४० गाडिओं का काफिला - हर गाड़ी में - ढेर सारे - रायफल - बन्दूक ! चुनाव का दिन - अजीब सा टेंशन ! नगीना राय बुरी तरह हार गए ! कुख्यात 'काली पाण्डेय' जीत गया !

धीरे धीरे राजनीति में हम अस्तित्व खोते गए ....

..........जो कुछ बचा ...लालू ने कुचल - मसल दिया ! थोड़ी सी जो दम अभी सांस गिन रही थी - उस पर 'नीतिश कुमार' ने अंतिम वार कर दिया है ! जान छटपटा रही है ....कोई आस पास भी नहीं है ..जो इस जाती हुयी जान को चुल्लू भर पानी पीला दे ............!

पर 'राजनीति' तो खून में है - अभी हमारा 'अंतिम वार' बाकी है - इन्ही उम्मीदों के साथ ...

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Wednesday, June 2, 2010

मेरा गाँव - मेरा देस ( लगन 'टाईट' बा ) - भाग - पांच

एक जमाना था - लड़का ने 'मैट्रिक' का फॉर्म नहीं भरा की 'बरतुहार' ( अगुआ - शादी विवाह वाले , लडकी वाले ) आना शुरू कर देते थे ! गाँव या टोला में एकता है तो जल्द 'शादी' ठीक हो जाती वर्ना ..लड़का बी ए फेल भी कर जाता और शादी नहीं हो पाती थी ! इन दिनों 'बियाह-कटवा' भी सक्रिय भूमिका में आ जाते हैं ! जब तक वो 'बरतुहार' को आपके दरवाजा से भगा नहीं देते ..उनको चैन नहीं आता है ! तरह तरह के 'बियाह कटवा' .... जैसे एन बारात लगने के समय हल्ला कर दिया या चुपके से 'लडकी वाले' को बोल दिया की ..'लड़का तो ......' अब हुआ हंगामा ...' हंगामा खड़ा कर के वो गायब :) या फिर जब दरवाजे पर 'लडकी वाले ' आये हुए हैं तो ..कुछ ऐसा बोल देना की ..'लडकी वाले ' के मन में कुछ शंका आ जाए ! ऐसे 'बियाह कटवा ' गाँव - मोहल्ला - टोला के बाज़ार पर बैठे मिल जाते हैं - जैसे कोई 'बर्तुहार' गाँव - मोहल्ला में घुसा नहीं की उसके पीछे पीछे चल देना ! होशियार 'लडका वाला ' लगन के पहले इस 'बियाह कटवा' को 'सेट' कर के रखता है ताकि वो कुछ कम नुक्सान कर पाए !



खैर , बियाह तय हो गया - अब बात आयी - लेन - देन की , यहाँ भी कुछ कुशल कारीगर होते हैं - आपकी 'कीमत' से बहुत कम में आपका 'माल' बिकवा देंगे :( और खैनी ठोकते आपका ही नमक खा कर - मुस्कुराते चल देंगे ! ऐसे लोगों के दबाब से बचने के लिए - लड़का वाला बंद कमरा में 'कीमत' तय करने लगा वरना वो एक जमाना था तब जब समाज के बड़े बुजुर्ग के बीच में सब कुछ तय होता था ! अच्छे लोग - तिलक - दहेज का पूरा का पूरा लडकी को 'सोना' के रूप में 'मडवा' ( मंडप) पर चढा देते थे - अब 'बैंक' में रख सूद खाते हैं !



अब लडका वाला तिलक - दहेज और अपनी हैशियत के मुताबिक 'ढोल बाजा' आर्तन - बर्तन , कपड़ा - लत्ता ' खरीदने की तैयारी शुरू कर देता है ...अब फिर से कुछ 'आईटम' लोग आपके पीछे लग जायेंगे ! आपका 'बजट' पांच हज़ार का ही तो वो उसको पन्द्रह हज़ार का करवा देंगे - अब 'बेटा' का बियाह है - लोक - लज्जा की बात है - आप बस थूक घोंटते नज़र आयेंगे ! पब्लिक समझेगा की 'फलना बाबु ' तो तिलक लेकर धनिक हो गए - जबकि सच्चाई यह है की - आपकी जमा पूंजी भी 'इज्ज़त ' के चक्कर में लग जाती है !

अब बारात कैसे जायेगा - आप मन ही मन 'बस' का सोच रहे होंगे - आपके शुभ चिन्तक आपको इज्ज़त का हवाला देकर १०-२० कार ठीक करवा देंगे - कार जीप भी ठीक करने वो ही जायेंगे - "सट्टा बैना" भी वही लिखेंगे - जब आप कुछ कम भाडा की बात करेंगे - तो आपके शुभचिंतक बोलेंगे की - अरे ..लईका के बियाह है ...कोई नहीं .फिर से एक बार थूक घोंट लीजिए ! :)

बारात में 'नाच - पार्टी' कैसा जायेगा ? इसका टेंशन एक खास किस्म के लोगों को रहता है - उनको सब डीटेल पता रहता है की ..कहाँ का कौन सा 'नाच' कैसा है ? वैसे लोगों को खबर जाता है - वो बहुत आराम से दोपहर का खाना खाते हुए ..लूंगी में धीरे धीरे टहलते ...खैनी ठोकते ..आयेंगे ! अब वो डिमांड करेंगे ..अलग से गाड़ी घोडा का ..भाई ..नाच ठीक करने जाना है :) कोई मजाक थोड़े ही है :)

फलदान में - तिलक में - कैसा 'कुक' आएगा ? यह एक अलग किस्म का टेंशन है - कोई सलाह देगा - दोनों कुक अलग अलग होना चाहिए - कोई कहेगा - मुजफ्फरपुर से आएगा - 'फलना बाबू ' के बेटा के बियाह में 'बनारस से ही नाच और कुक' दोनों आया था - अब वो जैसे ही 'फलाना बाबु ' का नाम लिया नहीं की आप भरपूर टेंशन में नज़र आ जायेंगे - बेटा का बियाह और इज्ज़त - जो न करवाए !

अब चलिए ..गहना पर ! घर की महिलायें 'जीने' नहीं देंगी ! अक्सर यहाँ एकता देखा जाता है - आप मन ही मन ५० भर सोना चढाने को सोच रहे होंगे - तब तक कोई बोलेगी - मेरे बियाह में '२०० भर' सोना चढा था - अब देखिये - यहीं पर आपका बजट चार गुना हो गया ! कोई कहेगी - मुजफ्फरपुर का 'सोनार' सब ठग है - अमकी 'पटना ' से खरीदायेगा - अब हुआ टेंशन - पूरा 'बटालियन' पटना जायेगा ! १०० भर सोना के साथ साथ ५-१० नकली अशर्फी - गिन्नी खरीद लेगी सब ! एक सुबह से शाम तक ..सोनार इनको '३ बोतल ' कोका कोला पीला के ..२-४ लाख का सोना बेच देता है और दूकान के सामने 'बलेरो' जीप में बैठा मरद का ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ रहता है !

बनारसी साड़ी का भी एक अलग टेंशन है - मालूम नहीं वो 'लडकी' फिर कब इतना भरी साड़ी दुबारा कब पहनेगी :( कोई कहेगा १०१ साड़ी जायेगा ...फिर बजट हिलेगा डूलेगा ! फिर टेंशन होगा - अटैची - सूटकेस का ! सब खर्च हो गया - पर ये सूटकेस आर्मी कैंटीन से ही आएगा :)

कैसा लगा ? बताएँगे :)

रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Tuesday, June 1, 2010

मेरा दिल - मेरा बचपन - मेरी जवानी ( भाग - चार )

रांची याद आ गया ! 'नाना जी ' उन दिनों वहाँ 'जिला & सत्र न्यायधीश' हुआ करते थे ! 'डोरंडा' के पास - नेपाल हॉउस में वो रहते थे ! घर में बड़ा ही 'इंटेलेक्चुअल' माहौल था ! सब के आँखों पर चश्मा और सभी के पास वकालत की डिग्री :) हर शाम दिल्ली वाला 'टाइम्स ऑफ इंडिया' सुतरी में लपेटा हुआ आता था ! तब तक मै दोपहर की एक नींद मार चूका होता और अखबार की तरफ टूट पडता था ! आर के लक्ष्मण की कार्टून और इंदिरा गाँधी - शायद उन दिनों 'श्रीमति गाँधी ' रांची आने वाली थीं - मैंने 'नानी' से काफी जिद की - तो 'नाना जी' मुझे पैदल ही श्रीमती गाँधी को दिखने में रोड तक ले गए थे !  यह वक्त था ..१९७६ का ! नाना जी रिटायर हो गए - रांची के अशोक नगर में उन्होंने ने घर बनाया - फिर से दुबारा  हम लोग रांची गए !

ननिहाल में अपने पीढ़ी में सब से बड़ा मै ही था - सभी मामा और मौसी लोग मेरे हर एक जिद को पूरा करने को बेताब ! शायद एक रात मैंने एक जिद कर दी और एक मामू जान ठीक उसी वक्त साइकील से मेरे जिद को पूरा करने के चक्कर में अपना घुटना तुडवा लिए :( हॉस्पिटल में भर्ती हो गए - मै हर रोज एक दूर दराज के मामू के साथ 'बुल्लेट' पर बैठ कर हॉस्पिटल जाता था - बुल्लेट वाले शायद वन पदाधिकारी थे - अब सुना हूँ - बहुत पैसा कमाए हैं - :) हॉस्पिटल में उन दिनों मरीजों को काफी कुछ मिलता था - मामू जान जो मेरे कारण ही घुटना तुडवा चुके थे - मेरे लिए हर रोज हॉस्पिटल से मिले 'सेब' रखते थे ! मुझे सोफ्टी का बहुत शौक था - दूसरे 'हीरो टाईप' मामू जान लोग हर शाम मुझे अशोक नगर से 'फिरायालाल' तक पैदल ले जाते :( मै भी एक सोफ्टी के चक्कर में उनके पीछे 'लटक' जाता था ! बाबु जी नाना जी की बड़ी इज्जत करते थे - जब वो 'रांची' आते ..नाना जी से बहुत कम बोलते थे ! नाना जी 'माँ' को बहुत मानते थे ! बहुत ! नाना जी को सभी घर में 'दादा जी' कहते थे - वो घर में खादी का कुरता - धोती और खडाऊं पहनते थे ! मौसी - मामू लोग के पास एक कैमरा होता था - जिसमे जब कभी भी 'इंदु' फिल्म्स डाला जाता - सब से ज्यादा मेरी ही तस्वीर खींची जाती थी :)

हर शाम 'सौफ्टी' खिलाने के पीछे एक राज हुआ करता था - मामू लोग कभी कभी सिगरेट भी पीते थे - यह बात मै जान चूका था - किसी और को पता नहीं चले - के कारण बेचारे 'मामू जान लोगों ' को मेरी हर बात माननी पडती थी !

नाना जी के घर के ठीक सामने कुछ दूरी पर - अन्धों का एक स्कूल होता था - मै वहाँ जाया करता था - घंटो उनके पास बैठता था ! फिर उदास हो कर वापस लौट आता ! उसमे से कई मेरे दोस्त भी बन गए थे - मालूम नहीं अब वो लोग कहाँ हैं ?

मौसी को नौकरी लगी थी - वहीँ पास में 'ईटकी' नाम के जगह में ! मौसी और मेरे बाबु जी दोनों ने एक ही कॉलेज से स्नातक किया था - जब दोनों मिलते - खूब बहस होती ! एक खासियत थी - नाना जी के यहाँ सब अंग्रेज़ी में ही 'बहस' करने वाले होते थे - हम दोनों बाप बेटा को एक दूसरे का मुह ही ताकते :) खैर , बाबू जी तो बहुत कम ही बार रांची आये ! मुझे याद है - बाबु जी 'स्नाकोत्तर प्रवेश परीक्षा' देने रांची आये थे और मौसी - मामा लोग मेरा 'जन्मदिन' मनाये थे ! केक कटा था :) हम लोग ये 'केक और अंग्रेज़ी' से बहुत दूर रहने वाले परिवार से आते थे :)

१९७९ के जनवरी में चाचा आये थे - हम लोगों को मुजफ्फरपुर ले जाने ! मै दुखी था - नाना - नानी - मामा - मौसी सभी उदास थे ! नानी ने मेरे पॉकेट न जाने कितने पैसों से भर दिया था - रास्ता में सब ..चाचा ने ले लिया था :(

कई वर्ष बाद मेरी दादी ने बताया की ...जज साहब मेरे अपने नाना नहीं हैं ..मेरे नाना के बड़े भाई हैं ...मन बेचैन हो गया था ..मेरे नाना की हत्या को उनके खेतों की रखवाली करने वाले और उनके ही जाति के लोगों ने कर दी थी ..जब मेरी माँ मात्र '४-५' साल की थीं और मेरी नानी की मृत्यु मेरे जनम के ठीक बाद हो गयी  ! कई दिनों तक मै यह जान बेचैन रहता था ... पर वो असीम प्यार कैसे भूल पाता ! पर 'माँ' से या किसी से आज तक नहीं पूछा की ' मेरे नाना ' की हत्या कैसे हुयी ..हिम्मत नहीं हुयी !

अब बहुत कुछ बिखड़ गया ...सब अलग अलग हो गए ...मेरे साथ तो बस कुछ यादें ही रह गयी हैं ..!

हाँ ...लिखना है ..बहुत कुछ !!


रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !