Thursday, April 22, 2010

मेरा गाँव - मेरा देस - भाग 'दो' ( शादी विवाह )

बचपन के दिन याद आ गए ! घर - परिवार - ननिहाल में शादी होता था - हम सभी पन्द्रह दिन पहले ही गांव पहुँच जाते थे ! पहला रस्म होता था - 'फलदान' - लडकी वाले कुछ फल इत्यादी लेकर 'वर' के घर जाते थे ! बहुत दिनों तक - बहुत ही कम लोग आते थे - पर धीरे - धीरे यह एक स्टेटस सिम्बल बन गया - लडकी वाले १०० -५० की संख्या में आने लगे ! गांव भर से चौकी , जाजिम , तकिया , तोशक मांगा कर 'दालान' में बिछा दिया जाता था ! मेरे खुद के परिवार  में - मुझे याद है - खुद का 'टेंट हॉउस' वाला सभी सामान होता था ! कई जोड़े 'पेट्रोमैक्स' , टेंट , बड़ी बड़ी दरियां , शामियाना - पर दिक्कत होती थी - चौकी की सो गांव से चौकी आता था और चौकी के नीचे य बगल में 'आलता' से उस चौकी के मलिक का नाम लिखा जाता था ! समय पर लाना और समय पर पहुंचवा देना किसी एक खास मुंशी मैनेजर की जिम्मेदारी होती थी ! मुंशी - मैनेजर के आभाव में गांव घर के कोई चाचा या बाबा !

जैसा 'वर' का हैशियत वैसा 'लडकी वाला' सुबह होते होते लडकी वाले पहुँच जाते ! हम बच्चे बार बार 'दालान' में झाँक कर देखते और 'दालान' की खबर 'आँगन' तक पहुंचाते थे ! ड्राम में 'शरबत घोला जाता था ! हम बच्चे 'ड्राम' के आगे पीछे ! दोपहर में गरम गरम 'गम्कऊआ भात' पात में बैठ कर खाना और आलू का अंचार , पापड़ - तिलौडी और ना जाने क्या क्या ! लडकी का भाई 'फलदान' देता था - उस ज़माने में 'लडकी' को दिखा कर शादी नहीं होती थी सो अब लडकी कैसी है यह अंदाजा उसके 'भाई' को देख लगाया जाता था ! आँगन से खबर आती - जरा 'लडकी' के भाई को अंदर भेज दो -  माँ - फुआ - दादी टाईप लोगों को जिज्ञासा होती थी !

शाम को मुक्त आकाश में खूब सुन्दर तरीके से 'दरवाजा ( दुआर) ' को सजाया जाता ! ५-६ कम ऊँची चौकी को सजा उसके ऊपर सफ़ेद जाजिम और चारों तरफ पुरे गाँव से मंगाई हुई 'कुर्सीयां' ! मामा , फूफा टाईप लोग परेशान कर देते थे - एक ने पान माँगा तो दूसरे को भी चाहिए - किसी को काला - पीला तो किसी को सिर्फ 'पंजुम' , किसी को सिर्फ कत्था तो किसी को सिर्फ चुना वाला पान ! जब तक 'पन्हेरी' नहीं आ जाता - हम बच्चों को की 'वाट' लगी रहती थी !

गांव के बड़े बुजुर्ग धीरे धीरे माथा में मुरेठा बंधे हुए लाठी के सहारे आते और उनकी हैशियत के मुताबिक उनको जगह मिलती थी ! होने वाले 'सम्बंधिओं' से परिचय शुरू होता ! फिर , 'आँगन से सिल्क के कुरता या शेरवानी ' में 'वर' आता ! साथ में 'हजाम' होता था - जिसका काम था - 'वर' का ख्याल रखना - जूता खोलना , हाथ पकड़ के बैठना इत्यादी इत्यादी ! दोनों तरफ के पंडीत जी बैठ जाते - उनमे आपस में कुछ नोक - झोंक भी होती थी जिसको गांव के कोई बाबा - चाचा टाईप आईटम सुलझा देते ! इस वक्त 'लडकी वालों ' के बिच कुछ खुसुर फुसुर भी होती थी - 'वर' की लम्बाई - चेहरा मोहरा इत्यादी को लेकर !

फिर 'फलदान' का प्रोसेस शुरू होता और कुछ मर मिठाई - अर्बत - शरबत भी चालू हो जाता ! फलदान होते ही 'हवाई फायीरिंग' भी कभी कभार देखने को मिला - जब लडके और लडकी वाले आपस में तन गए - मेरा यह मानना है की फलदान होते ही सामाजिक तौर पर दोनों परिवार बराबर के हो गए - तिलक - दहेज की बात अब इसके बाद नहीं होती !

फलदान में लडकी वाला अपनी हैशियत के हिसाब से लडके को देता था ! कुछ कपड़ा या कुछ दर्जन 'गिन्नी- अशर्फी' !

फिर , दोनों पक्ष दालान में बैठ कर आगे का कार्यक्रम बनाते ! तिलक में कितने लोग आयेंगे - बरात कब पहुचेगी - विदाई कब होगा - किसको किसको दोनों तरफ से 'कपड़ा' जायेगा ! तब तक शाम हो जाती ....

और हम बच्चे .."पेट्रोमैक्स' के इर्द - गिर्द गोला बना के बैठ जाते - उसको जलने वाला भी एक व्यक्ति विशेष होता - जो हम बच्चों को बड़ा ही 'हाई - फाई' लगता ! :)

क्रमशः


रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

Tuesday, April 20, 2010

मेरा गांव - मेरा देस - भाग - एक !! ( परिवार )

मंगलवार को थोडा कम काम होता है - सो 'समय' मिल जाता है ! सुबह सुबह एक दोस्त को फोन किया - वो मुझे अपना दोस्त नहीं मानता पर मै मानता हूँ - गाँव वाला जो हूँ ! बातों ही बातों में 'गांव' की बात आ गयी और नॉएडा में बैठे बैठे अपना 'गांव' याद आ गया !

समझ नहीं आ रहा - कहाँ से शुरू करूँ ! कुछ अमिट छाप हैं - कुछ यादें हैं -

बचपन याद आ रहा है - बाबा ( दादा जी ) का वो बड़ा सा कांसा वाला- 'लोटा' ! सुबह सुबह वो एक लोटा पानी पीते थे - इनार का ! तब तक 'माँ' उनके और दीदी ( दादी ) के लिए 'चाय' बना देती थीं ! लकड़ी का चूल्हा होता था ! बाबा चाय पीने के बाद खुद से पान बनाते - पंजुम और रत्ना छाप जर्दा खा के - खेतों के तरफ निकल पड़ते थे ! सारे खेतों से घुमते हुए वो करीब एक दो घंटे में लौटते ! तब तक मै उनकी बिछावन पर सोया रहता ! बड़ी अच्छी खुशबू आती थी - जर्दा की ! बाबा के लौटते - लौटते दरवाजे पर एक भीड़ जमा हो जाती थी ! कोई साईकिल से तो कोई 'राजदूत मोटर साईकिल' से ! कुर्सियां सज जाती थी ! ढेर सारे 'नौकर - चाकर' मुंशी मैनेजर' होते थे ! खपडा वाला मकान होता था - अब भी है ! और एक दालान ! दालान में बड़ी बड़ी आरामदेह कुर्सियां और इंदिरा गाँधी का एक बड़ा सा फोटो !

मेरे पर दादा जी बहुत ही  'दूरदर्शी' थे ! १९२७ में कोल्कता विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद अंग्रेजों की पुलिस वाली  नौकरी ठुकराने के बाद वो 'मुजफ्फरपुर शहर' में बस गए - वहाँ उन्होंने ने अपने ननिहाल वालों से 'ज़मींदारी' खरीदी और अपने इलाके के सभी विद्यार्थिओं को अपने खर्चे पर पढाना - लिखाना शुरू किया ! मुजफ्फरपुर के रईसों के साथ उठाना - बैठना और फिर गांधीवादी होना साथ ही साथ घर परिवार के बहुत कुछ करना ! शायद कुछ दिनों तक वो 'मुख्तार' भी रहे ! सो , बिहार में हमारा दो जगह घर हो गया ! सारण और मुजफ्फरपुर ! सारण में 'गांव' और मुजफ्फरपुर में शहर ! परदादा जी को समय की पहचान थी ! मुजफ्फरपुर के केंद्र 'कल्याणी चौक' पर भी उन्होंने कुछ ज़मीन जायदाद खरीदी और एक 'विशाल स्टोर' भी खोला ! जमींदारी खरीदने के अलावा उस ज़माने में हमारा 'परिवार' बिहार के बड़े बड़े जमींदारों को क़र्ज़ पर पैसे भी देता था ! परदादा जी और परदादी जी का एक ही दिन 'टी वी' के कारण 1943 में मृत्यु हो गयी ! परिवार में एक 'यु टर्न' आ गया ! परदादा जी जिस तेज़ी से आगे बढ़ रहे थे - शायद हम अपनी बिरादरी में बिहार में प्रथम परिवार होते ! उनका एक सपना था - मेरे बाबा को 'कलक्टर' बनाने का ! मेरे बाबा 'मुजफ्फरपुर जिला स्कूल' के सब से तेज विद्यार्थी थे ! 'लाट साहब' ( गवर्नर) के हाथों उनको अपने स्कूल के सब से तेज विद्यार्थी का ख़िताब मिल चूका था ! परदादा की मृत्यु के समय वो नौवीं कक्षा में थे ! परदादा के बड़े भाई को कोई संतान नहीं थी सो मेरे बाबा अपने चाचा जी के साथ 'गांव' ( सारण  ) लौट आये ! और मेरे बड़े दादा जी 'मुजफ्फरपुर शहर' में ही रह गए ! परिवार में विभाजन नहीं हुआ था पर शहर की सैकड़ों एकड़ जमीन मेरे परदादा की अर्जित की हुई थी सो वो ज़मीन सम्मलित परिवार के लोगों में १९४९ में बंट गयी ! पर 'मालिकाना' मेरे दादा दोनों भाईओं की ही रही ! परिवार के अन्य लोगों को वो 'मुफ्त' में मिली थी सो उन्हें भी उस ज़मीन जायदाद की ज्यादा चिंता नहीं थी ! बड़े दादा जी बड़े ही आराम से 'मुजफ्फरपुर' में अपनी जिंदगी गुजारी ! परिवार में शांती थी - शहर की ज़मीन - अपने चचेरे भाईओं में बांटने में मेरे दादा जी लोगों को थोड़ा भी कष्ट नहीं हुआ ! बाबा दोनों भाई बहुत कम उम्र में छोटे मोटे ज़मीदार बन गए ! मेरे बाबा 'गांव' में और बड़े बाबा - शहर में ! प्रख्यात पत्रकार 'नलिनी सिंह' के ससुर 'सर सी पी एन सिन्हा' का मुजफ्फरपुर घर भी हमारी जमींदारी में आता था ! रहते लोग 'शहर' में थे पर रहन - सहन 'गांव वाली ही रही ' ! मुजफ्फरपुर का जिला स्कूल 'खानदानी स्कूल' हुआ करता था ! हम चार पीढ़ी उस स्कूल  में पढ़ चुके हैं - इसका मुझे गर्व है !

हमारे कई या लगभग बहुत सारे सम्बन्धी हम से भी ज्यादा 'धनिक' थे ! पर , उनके रहन सहन और हमारे रहन सहन में बहुत का अंतर था ! वो , पैसों को दांत से पकडते थे और हम 'आराम' से रहते थे - 'इज्जत' बहुत बड़ी चीज़ होती थी ! सम्मलित परिवार और ज़मींदारी का बंटवारा १९४९ में हुआ और इतनी शांती से हुआ की किसी को कानो कानो तक खबर नहीं पहुंची !  कई चीज़ नहीं बंटे - जिसमे एक था - हाथी और हथ्सार , कई बगीचे और फुलवारियां ! लालू के आने तक हम उसी अंदाज़ में जीते रहे ! समय बदलता रहा - 'हम इज्जत को ढोते रहे' !

मेरे बाबा 'गांव' लौटने के बाद १९४६ में कॉंग्रेस के मेंबर बन गए ! जिला स्तर से राज्य स्तर तक मेंबरशिप और महत्वपूर्ण जगह मिलती गयी ! पर गृहक्षेत्र से कॉंग्रेस ने कभी 'टिकट' नहीं दिया ! बाबा  जिंदगी भर 'कॉंग्रेस' का झोला और झंडा ढोते रहे  - इसका मलाल मुझे आज तक है और रहेगा ! एक बार 'लालू के एक काबिना मंत्री ' ने मुझ से कहा - 'तुम्हारे बाबा जिदगी भर कॉंग्रेस का झोला उठाया - क्या मिला ? हमको देखो - हमने राजनीति तुम्हारे बाबा से सीखी और अब काबिना मंत्री बन गए ! अब मै उस काबिना मंत्री को क्या कहता - की राजनीति हमारी शौक हुआ करती है - पेशा नहीं !

बाबा के चाचा जी ही घर के अभिभावक थे ! बड़े ज़मींदारों को क़र्ज़ देने का सिलसिला जारी था ! अँगरेज़ १९४० के बाद धीरे धीरे वापस लौटने लगे थे ! अंग्रेजों की सैकड़ो एकड़ में कोठिया होती थी ! मेरे परिवार के लोगों ने भी २ कोठीओं का सौदा कर लिया - एक में एक हज़ार एकड़ ज़मीन और एक में ४०० एकड़ ! पैसे देने के लिए - बोरा में पैसा दाल के 'हाथी' पर लाद दिया गया ! अब घर में एक भी पैसा नहीं बचा था - घर के किसी सदस्य ने बोला - अगर कोई बड़ा ज़मीदार आएगा और पैसे मांगेगा - तो हम क्या बोलेंगे ? "इज्जत , चला जायेगा " ! 'इज्जत बचाने के चक्कर में अंग्रेजों की कोठियां नहीं खरीद पाए " ! एक भी खरीद लिए होते तो - शायद 'चम्पारण और सारण' के सब से धनिक 'भूमिहारों' में गिनती होती !

ज़मींदार थे ! ज़मीन का टैक्स वसूलते थे ! यह एक प्रकार का 'ठिकेदारी' था ! विशुध्द ज़मींदार होने कारण खुद के नाम ज़मीन बहुत ही कम था !  १९५८ में ज़मींदारी प्रथा खत्म हो गयी ! अचानक से परिवार में दिक्कते आ गयीं ! ज़मीन बहुत कम था - बहुत ही कम ! जो सगे सम्बन्धी कल तक - धनी होने के वावजूद सर उठा कर बात नहीं करते थे - अब वो अचानक से बड़े लगने लगे ! कष्ट का दौर शुरू हो गया ! घर की लड़किओं की शादी 'पहाड़' लगने लगी !

अब बस एक ही उपाय रह गया - बच्चों को शिक्षा दो और बढ़िया 'नौकरी' में भेजो ..

क्रमशः ...


रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !