Sunday, June 6, 2010

मेरा गांव - मेरा देस - ( सिनेमा - सिलेमा ) भाग सात

अभी अभी 'प्रकाश झा' की "राजनीति" देख लौटा हूँ ! शाम को फेसबुक पर बैठ - इस कोठी का चाऊर उस कोठी कर रहा था - तब तक एक मित्र ने फोन कर दिया की - 'सिनेमा चलना है - फिर क्या था :) झटपट जींस चढ़ाया - एक सफ़ेद टी पहना और चल दिया - घर के बिलकुल पास में ही 'शिप्रा मॉल' है ! खैर , मनोज वाजपेयी बेहतरीन दिखे ! ज्यादा क्या लिखूं ? बहुत लोग हैं - लिखने वाले ! चलिए आपको अपने युग में ले चलता हूँ :)

हलकी याद 'एक फूल दो माली' की है ! पर उस ज़माने में 'मध्यम वर्ग' फिल्म्ची होता था ! मुजफ्फरपुर में उस ज़माने में 'राजा हरिश्चंद्र' लगा था - बड़े बाबा को छोड़ हम सभी गए थे ! इस सिनेमा का प्रभाव और बाबु जी के डान्ट ने मुझे 'झूठ' बोलना छुडवा दिया :) बात १९७९ की रही होगी ! मुजफ्फरपुर में एक बहुत बड़ा सिनेमा हॉल बना था - " जवाहर पिक्चर पैलेश" - उसमे एक साथ - दो सिनेमा हौल होते थे - जवाहर डिलक्स और जवाहर मिनी - किसी बड़े व्यापारी ' राम उदार झा जी' का था ! उस सिनेमा हॉल की - पहली पिक्चर थी - " दुनिया मेरी जेब में " :) इंटरवल में जब 'ठंडा' बेचने वाला 'ओपनर' से सभी बोतलों पर आवाज़ निकलता था - मन ललच जाता था :) एक चाचा की शादी हुई थी - हर सफ्ताह सिनेमा का प्रोग्राम बनता था - बाबु जी के कई ममेरे - फुफेरे भाई बहन भी वहीँ साथ में रहते थे ! किसी को साइकील से दौड़ा दिया जाता था - टिकट कटा कर रखना ! सुबह में ही मोहल्ले के रिक्शा वाले को बोल दिया जाता और वो सिनेमा शुरू होने के एक घंटा पहले रिक्शा लगा देता था - माँ - फुआ - चाची लोग रिक्शा पर और हम बाबु जी के 'लैम्ब्रेटा' पर :)
सिनेमा खत्म होने के बाद - मन भारी हो जाता - कई सिनेमा तो सो कर ही निकाल दिए ! बाहर आते ही - सिनेमा के गाना का 'किताब' मिलता था !
एक दूर के फूफा जी होते थे - उनका टेंट हॉउस होता था - सो उनको सिनेमा हॉल वाले 'पास' देते थे ! धीरे - धीरे बाबु जी सिनेमा कम जाने लगे और हम सभी मुफ्त का 'पास' का आनंद उठाने लगे ! मेरा एक पसंदीदा स्वेटर होता था - 'मुकद्दर का सिकंदर' देखते वक्त 'हॉल' में ही छूट गया ! क्रांति आयी थी - ओफ्फ्फ ...कितना भीड़ था ..'शेखर टॉकिज' में ! ९ बजे वाला शो ११ बजे शुरू हुआ ! रात दो बजे हम सभी लौटे थे ! कभी कभी इतवार को "एक टिकट में दो शो" का भी ओफ्फर आता था ! हम ये अवसर कभी नहीं पा सके :(  उस वक्त की कई सिनेमा याद है - त्रिशूल , एक दूजे के लिए , दोस्ताना , जुदाई , लव स्टोरी और मालूम नहीं कितने !

एक दिक्कत और थी ! गाँव से कोई भी आता - वो शाम को गायब हो जाता - बाद में पता चलता की वो 'सिलेमा' देखने गया था :) एक दो सिनेमा ऐसे लोगों के साथ पर्दा के सबसे पास वाले सीट पर भी बैठ कर देखा है ! ब्लैक में टिकट लेना कभी शर्म तो कभी शान हुआ करती थी :) हमारे यहाँ "डी सी , बी सी , फर्स्ट क्लास , सेकंड और थर्ड क्लास होता था !

पटना आया तो - "उमा सिनेमा " के ठीक पीछे "नाना जी" का घर था ! रात में मामू जान लोग के साथ - शो मार दिया करता ! फिर कंकरबाग आया तो - "वैशाली" ! कई पुराने सिनेमा "वैशाली" में देखा - आरज़ू , दिल ही तो है और मालूम नहीं कितने और :) 

नौवीं में चला गया - दोस्तों ने जोर दिया - अमित जी का 'गिरफ्तार' आ रहा है - टिकट का इंतज़ाम हो जायेगा - चलना है ! किसी तरह "माँ" को मनाया - माँ ने बाबु जी को मनाया फिर बाबु जी ने माँ को हाँ कहा - माँ ने मुझे हाँ कहा तब जा कर 'मै' बड़ा हुआ और दोस्तों के साथ 'सिनेमा' देखा :)

टी वी भी आ चूका था ! सिनेमा की जरुरत भी कम हो गयी थी ! + २ में गया तो दोस्तों के साथ - एक ही स्कूटर पर पांच लोग सवार होकर 'मोना' का मोर्निंग शो देखने गए थे ! एक ने सिगरेट जला ली - कश पर कश दिए जा रहा था - मुझे बार बार अपने पिछडेपन का एहसास होता :(  खैर इसी बीच आ गए -"आमिर खान" साहब और "सलमान खान" - "क़यामत से क़यामत" करीब ८ बार तो जरुर देखी होगी ! ३-४ बार .."मैंने प्यार किया" ! इन दोनों सिनेमा का कैसेट भी खरीदाया ! अब के दौर में - वी सी आर - आने लगा ! वी सी आर - दहेज का प्रमुख आइटम हो गया ! "विडियो कोच" की इज्ज़त और डिमांड बढ़ गयी !

स्नातक में गया तो .. :) हर परीक्षा के तुरंत बाद पूरा का पूरा बैच 'सिनेमा हौल' में ! जिन दोस्तों की गर्ल फ्रेंड होती - वो हमें चिढाने के लिए  जरुर आते :(  सड़ा - गला किसी भी तरह का सिनेमा - पूरा हॉल 'धुंआ' से भर जाता ! आमिर - सलमान - शाहरुख को देखते देखते स्नातक गुजर गया ! कभी कभी मेस के टेबल पर ही सिनेमा का प्लान बन जाता :) दोस्तों के कमरे में 'बॉलीवुड' के पोस्टर लगने लगे ! 'फिल्म फेयर , मूवी ' सिनेब्लित्ज़ , स्टार डस्ट् और मालूम नहीं क्या क्या ...जैकी चान की आदत भी अभी ही लगी थी ! सिनेमा के गाने के कैसेट आदान - प्रदान होने लगे :)

बंगलौर में नौकरी करता था - इतवार को 'तेलगु - तमिल' कोई भी सिनेमा देख लेता ! वहाँ का पब्लिक सही है - एकदम मस्त ! संतोष सिनेमा हौल सब से प्रिये था ! एक शायद 'अभिनव' भी था !

नॉएडा आया तो २ साल तक कोई सिनेमा 'हौल' में नहीं देखा ! मल्टीप्लेक्स के दामों को सुन हिम्मत नहीं होती ! एक सम्बन्धी आये - फिल्म्ची थे - जिद पर अड् गए - जाना पड़ा :( ..फिर तो ....शुरुआत हो ही गयी :)  अब तो ऐसे जगह पर रह रहा हूँ ..जहाँ आधा किलोमीटर के अंदर ३-४ मल्टीप्लेक्स हैं - यहाँ नहीं तो वहाँ ..कहीं न कहीं टिकट तो मिल ही जायेगा !


मालूम नहीं क्या क्या लिख दिया :) पढ़ लीजिए ..कुछ यादें आपकी भी हों तो कम्मेंट दे दीजिए ..अभी फुर्सत है ..तो ब्लॉग छप रहा है ! :)






रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

10 comments:

Satish Chandra Satyarthi said...

बढ़िया लगा, रंजन भाई....
मौज में पढ़ गए... पता ही नहीं चला की कोइ ब्लॉग पोस्ट पढ़ रहे हैं.. लगा बतिया रहे हैं.....
भाषा में जो ठेठ बिहारीपन है वो नोस्टल्जिया देता है.... एक बात हम भी शेयर करते हैं... जब हाई-स्कूल के टाइम में बिहारशरीफ में रहा करते थे तब एक शौक चढ़ा था सिनेमा की सेंचुरी बनाने का. शर्त लग गयी थी दोस्तों में.....
शर्त जीतने के चक्कर में अंतिम दिनों में एक दिन में ४-४ शो भी देखे गए.. परदे पर क्या चल रहा होता था पता नहीं... नींद आ जाती थी.... दो शतक पूरे हुए थे तीन साल में... अब सोचता हूँ तो पागलपन लगता है.. सोचता हूँ इतनी मेहनत पढाई में कर लेता तो आज कहीं और होता... पर फिर सोचता हूँ जिन मित्रों ने उस समय पढाई की उन्होंने ही कौन से तीर चला लिए ;) हाहाहा....

बड़े भैया आज भी अगर ये बातें पढ़ लें तो खाल खींच लें.... थैंक गाड.. गाँव में अभी इन्टरनेट नहीं पहुंचा.... :)

अपूर्व said...

आपने सिलेमा के बहाने वक्त की उस धड़कती नब्ज पर हाथ रख दिया है जो अपनी बदलती रफ़्तार मे पिछले ३०-३५ सालों का इतिहास समेटे हुए है...बहुत खूब!

Udan Tashtari said...

सही यात्रा कराई..मुज्जफरपुर से नोयडा तक की..चलचित्र की तरह चलता रहा संस्मरण. बढ़िया!

Sarvesh said...

बहुत बढ़िया संस्मरण श्री रंजन जी. उम्मीद है इसका अगला अंक में कुछ और मिलेगा.

Unknown said...

हम भी कॉलेज बंक कर के बहुते फिलिम देखे है सर पटना में !!!! आपने तो याद ताज़ा कर दीया उन दिनों का !!!!!!

Unknown said...

bahut badiya laga pad k, school time pe hum log b ek din mei 3 3 show maar dete the ashok, regent mei.

Unknown said...

उस दौर की बाते हीं कुछ खाश होता था, वो भी उस दौर मे जिस दौर मे बहुत सारे प्रतिबन्ध होते थे, आप ने तोए सब के दुखती राग पैर हाथ रख दिए है सर जी सब अपने पुराबे दिन मे चलेजायेंगे

डॉ .अनुराग said...

हॉस्टल वालो के लिए सिनेमा एक संजीवनी बूटी है ......ख़ुशी का रिचार्ज कूपन .अमूमन रात के शो से पहले किसी होटल का खाना ....हमारे यहाँ अंग्रेजी फिल्मो को देखने का क्रेज था .हिंदी फिल्मे अमूमन गर्ल फ्रेंडो के साथ देखी जाती थी

Raj said...

apka lekh bahut achha laga..

MANOJ SRIVASTAVA said...

गजब का फ्लो है आपके लेखन में...एकदम स्वाभाविक....अच्छा लगा