बहुत दिनों बाद देस में -सुरेंद्रनाथ तिवारी
"क्या हुआ? एकदम आनन-फानन में गाँव जाने का डिसीजन ले लिया?" मेरे मित्र डॉ. दास ने पूछा।"हाँ, डॉ. साहब, कुछ बात ही ऐसी है, इस बार २००४ में ७-८ मार्च की होली है और इस बार केवल गाँव ही जाना है, वह भी बस होली के लिए।"
यह निर्णय सचमुच ही केवल गाँव में होली बिताने के लिए लिया गया था। इतने दिनों अमेरिका में रहने के बाद ऐसे लिए गए अचानक निर्णय पागलपन ही हैं, इसलिए दास साहब के इस प्रश्न से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। योजना थी, जहाज़ से बनारस और फिर बनारस से ट्रेन से गाँव। मेरा गाँव चंपारण जिले के सेमरा स्टेशन के पास है। बनारस से ट्रेन से गाँव जाने का एक बड़ा फ़ायदा यह था कि यह पूरा रास्ता भोजपुरी-भाषी इलाके के बीच से होकर जाता है, और बहुत दिनों बाद यह इच्छा थी देखने की कि फागुन में यह इलाका सचमुच कितना सुंदर लगता है।
किशोरावस्था तक कई प्रयोजनों से मैं पूरे इलाके में घूम चुका था, एक बार फिर इच्छा थी उस सौंदर्य को निहारने की, ख़ास कर फागुन में। बनारस से उत्तर की तरफ़ गोरखपुर होते हुए अगर नेपाल की सीमा तक जाएँ और वहाँ से पूरब मुड़कर सीतामढ़ी, और फिर दक्षिण की तरफ़ मुजफ्फरपुर, वैशाली, फिर गंडकी का किनारा पकड़े पश्चिम में छपरा होते हुए, सोन नदी के साथ-साथ डिहरी-आन-सोन और फिर पश्चिम मुड़कर भभुआ के पहाड़ और कर्मनाशा पार कर बनारस के दक्षिण तक जो क्षेत्र बनता है, वह क्षेत्र मोटे तौर पर भोजपुरी-भाषी क्षेत्र कहा जाता हैं। भाषा एक होने के कारण दो प्रदेशों में होते हुए भी सांस्कृतिक एकता है।
इस प्रदेश ने महात्मा गांधी का पहला सत्याग्रह देखा था। इसने, भारत को पहला राष्ट्रपति (जीरादेई, सीवान के डा. राजेंद्र प्रसाद) और एक प्रधानमंत्री, बलिया के चंद्रशेखर, दिया है। यह इलाका लोकनायक जयप्रकाश का जन्मस्थल-कर्मस्थल है। संपूर्ण क्रांति का उद्घोष इसी मिट्टी से हुआ था। सासाराम के जगजीवन राम और रामसुभग सिंह नेहरू मंत्रीमंडल में मंत्री थे। अगर बनारस की साहित्यिक विभूतियों, जैसे प्रसाद जी, प्रेमचंद आदि छोड़ भी दें तो भी यह क्षेत्र हिंदी साहित्य का सारस्वत-संघ है। सर्वश्री रामबृक्ष बेनीपुरी, शिवपूजन सहाय, रामदयाल पांडेय, विवेकी राय, गोपालसिंह नेपाली, मनोरंजन प्रसाद सिंह, लोहा सिंह आदि इसी इलाके की देन हैं। राष्ट्रकवि दिनकर जी की कई सशक्त कविताएँ सासाराम में लिखी गईं थीं, जब वे यहाँ की शिक्षा-विभाग में थे।
इस क्षेत्र की एक दूसरी विशेषता यह है कि यहाँ के ही लोग गिरमिटिया मजदूरों के रूप में, ज़्यादा तादाद में, अंग्रेज़ों द्वारा फिजी, गयाना, मारिशस, ट्रिनीडाड आदि देशों में ले जाए गए थे। इसके कारण रहे होंगे, लोगों की सरलता और अशिक्षा, बेहद परिश्रम करने की शक्ति तथा गन्ना उपजाने का अनुभव।
गंगा जी के अलावा गंडक, सरयू, घाघरा, कर्मनाशा और कई छोटी सरिताओं से वलयित यह क्षेत्र समतल और बहुत ही उपजाऊ है। और इस उपजाऊ-पने के कारण मसुरी-खेसारी-मटर-अरहर जैसे दालों के फूलों से लेकर पूरे वर्ष कभी न कभी उडहल-बागनबेलिया-गुलाब-सेमर-गुलदाउदादी-गेंदा-जूही-रजनीगंधा आदि खिले मिल जाते हैं, बड़ी तादाद में, और सरसों-तीसी तथा सूरजमुखी का कहना ही क्या, जैसे किसी ने प्रकृति को पीली लाल चूनर पहना रखी हो। ऐसी प्राकृतिक संपदा से परिवेष्टित जीवन अगर अल्हड़ हो तो आश्चर्य क्या और यही अल्हड़ता भोजपुरी अंचल की विशेषता है।
बनारस में रात में अपने प्रिय मित्र प्रमोद जी के पास रहना था। शाम को भगवान विश्वनाथ जी के दर्शन कर निकलते ही भारी भीड़-भाड़ में देखा तो एक विक्षिप्त आदमी रास्ते में गा रहा था, शायद रंग और अबीर की दर्जनों दुकानों को देखकर :
"संउसे सहरिया रंग से भरी,
केकरा माथे ढ़ारूँ अबीर,
होकेकरा माथे ढ़ारूँ अबीर?"
यानी सारा शहर तो रंग से भरा है, किसके माथे अबीर ढ़ारूँ?
बनारस में लिच्छवी एक्सप्रेस लेट आई। बसंत के आगमन का आभास तो हमें पहले ही हो गया था- जब बनारस के म्युनिसिपल-पार्क में गदराई बागनबेलिया के रंग-बिरंगे फूलों के ऊपर सेमर का एक मात्र पेड़ अपनी लाल टेसुओं की पगड़ी बाँधे हँस रहा था। जैसे-जैसे ट्रेन पूरब की ओर बढ़ती गई, फागुन की धूप गुनगुनी आँच में सर्दी तपने लगी थी, हल्के कुहासे के पार, सरसों के खेतों की पीली चादर पर बिछी ओस, किरणों की ऊष्मा से पिघल रही थी, एक नए दिन की अगवानी में फ़ागुन का एक नया दिन घीरे-घीरे जग रहा था। ट्रेन के सामने से गुज़रते एक रेलवे-क्वार्टर में उड़हुल और जूही के पेड़ भी किरणों का स्पर्श पा अपने उनींदे फूलों को जगा रहे थे, और मुझे दिनकर जी की एक कविता याद आ रही थी,
मैं शिशिर शीर्णा चली, अब जाग री मधुमास-आली।
वर्ष की कविता सुनाने कूकते पिक मौन भोले,
स्पर्श कर द्रुत बौरने को आम्र आकुल, बाँह खोले,
पंथ में कोरकवती जूही खड़ी ले नम्र डाली।
मैं शिशिर शीर्णा चली, अब जाग री मधुमास-आली।
मेरी ट्रेन एक छोटे स्टेशन पर रुकी। सुबह की खुमारी ओस की तरह किरणों की आँच से उड़ रही थी, सामने की एक छोटी अमराई में 'भोली पिकी' आम के नए किसलयों में छिपी 'वर्ष की कविता' सुनाने को अकुला रही थी -- फागुन में खोया था।
छपरा पहुँचते-पहुँचते फागुन की वह गुनगुनी धूप जवान हो गई थी।अब हम सोनपुर में रुके हैं। सोनपुर में गंगा-गंडक के संगम पर पुराना और विशाल पुल है। यह गज-ग्राह की कहानी वाला स्थल है, जहाँ भगवान गज को ग्राह से बचाने आए थे। आज भी यहाँ का मेला, कुंभ के बाद शायद भारत का सबसे बड़ा मेला है। मैं ट्रेन की खिड़की से नीचे झाँकता हूँ - - गंगा से मिलने जा रही गंडकी के पश्चिमी किनारे पर दो लड़के अपनी भैसों को पानी पिला रहे हैं, नहला रहे हैं, मैं उनकी बातें तो नहीं सुन सकता पर एक लड़के की भंगिमा से लगता है वह हाथ उठाए होली या बिरहा गा रहा है। एक नाविक अपनी बाँस की पतवार थामे मस्त हो गा रहा है। गीत तो हर जगह जीवित है, बस गाने वाला चाहिए।
मेरी ट्रेन वैशाली जनपद में प्रवेश कर रही हैं, वैशाली - - संसार का पहला गणतंत्र, भगवान महावीर का जन्मस्थल, भगवान बुद्ध का विहार, सुंदरी आम्रपाली का जन्मस्थल, उसकी प्रणय-स्थली मुझे अपनी कविता की पंक्तियाँ याद आ रही हैं,
इन कुंजों में खेल खेलकर बड़ी हुई होगी अंबाली,
उसके अल्हड़पन से गुंजित अब भी उसकी डाली डाली।
आम्रपाली के प्रथम प्यार की साक्षी उसके गलियाँ आँगन,
उस अल्हड़ नूपुर की धुन को अब भी ढूँढ़ रही वैशाली।
बचपन में पढ़ी श्री रामवृक्ष बेनीपुरी की 'आम्रपाली' याद आती है, उतनी सुंदर आम्रपाली सचमुच किसी की नहीं - रचयिता अगर माटी में सन जाए तो रचना अद्वितीय होती है, बेनीपुरी जी स्वयं वैशाली के थे, आम्रपाली वैशाली की थी। हाजीपुर पहुँचते-पहुँचते रेलवे लाइन की दोनों तरफ़ खास कर गंगा जी की तरफ़ छोटे केले के पेड़ों का अतुल भंडार। गंगा जी तक फैला यह विस्तृत क्षेत्र ऐसे केलों के लिए भारत-प्रसिद्ध है।
हाजीपुर स्टेशन पर पंजाब से लौटते मजदूरों की कई टोलियाँ दीखती हैं जो होली में घर जा रही हैं। बिहार के बहुत से मजदूर बिहार की दु:स्थिति के कारण बाहर मजदूरी करने को मजबूर हैं। टोलियों में चर्चा के विषय दो हैं, 'अबकी गाँव में फगुआ कैसे होई' और 'तोहरा किहा फगुआ कहिया बा?' फगुआ याने होली। इस पर मुझे याद आता है कि इस बार होली के बारे में यह विवाद है कि वह सात मार्च को है या आठ मार्च को। मैं स्टेशन पर खड़े किसी युवक से पूछता हूँ, "कहिया बा फगुआ? सात के कि आठ के?"उसका तपाक उत्तर है, "जहिया मन करे, हमनी त दूनू दिन मनाईब।" यानी जिस दिन आपका दिल चाहे। हम लोग तो दोनों दिन मनाएँगे। और वह कृशकाय युवक ज़ोर से ठठाकर हँसता है।नवयुवकों से इसी उत्तर की आशा करनी चाहिए। उनके लिए तो फगुआ हर रोज़ है।
गाँव पहुँचकर इस बात की प्रबल इच्छा थी कि पिता जी के साथ में सरेह घूम आऊँ। सरेह यानी वह भूमि जिस पर लोग बसते न हो, जो कृषि मात्र के लिए है। सुबह तड़के उठकर हम सरेह चले, ओस अभी भी रबी की फ़सलों पर ऊँघ रही थी, मटर, बकला, आलू के नन्हें फूलों पर किरणें खेलने लगी थीं, गेहूँ अब फूटने लगा था। पहले गेहूँ के पौधे छोटे होते थे, अब वे बड़े दीखते हैं, शायद गेहूँ की दूसरी प्रजाति है। हम कई सरेह घूमते रहे। अब तो कई दशक हो गए, पर जिन खेतों में हमने मसूर बोया था, गेहूँ काटा था, उनके बोझे बनाए थे, उन बोझों को उठाकर खलिहान लाया था, आषाढ़ में जिन गन्ने के खेतों में हमने तीतर और पंडुक मारे थे, गन्ने चुराकर खाए थे, सब यथावत आँखों के सामने चित्र की तरह घूमने लगे थे। मुझे याद आ रहे थे, सिरिसिया सरेह में अगहन में धान काटने के बाद खेतों में धान के अकेले खूँट और उन्हें देखकर श्री रामदयाल पांडेय जी की कविता जो उन्होंने कटे खेतों को देखकर लिखी थी -
उजड़ दयार या चमन कहूँ?ओ बसुंधरे!
इस परिवर्तन को,निधन कहूँ या सृजन कहूँ?
टोरांटो से अमेरिका जाते वक्त रास्ते में मकई के विशाल खेतों में पड़े, कटे खूँटों को देखकर, वह कविता अब भी मन में गूँजती है।हम घर लौटे तो दुपहरिया हो चुकी थी, कुछ किशोर लड़के मेरे दरवाज़े पर खड़े थे,"सम्मत में आइएगा न, पंडी जी?" याने रात में जो संवत जलता है, उसमें मुझे शरीक होना है। रात में कोई बारह बजे मेरे भाई साहब मुझे जगाते हैं, "भइया, लड़के आए हैं सम्मत जलाने के लिए। जाइएगा?"
मैं आधा ऊँघता जाने को उद्यत होता हूँ। सम्मत गाँव के छोर पर जलता है। वहाँ जाते-जाते मेरी नींद समाप्त हो जाती है। ढोलक की आवाज़ तेज़ होती जा रही है, जैसे लोगों को उठाकर बुला रही हो। कुछ लड़के होरी गा रहे हैं, ज़्यादा इस फिक्र में हैं कि सम्मत की लपटें दूसरे गाँव से ऊँची कैसे हो, इस प्रयत्न में बहुत सी चीज़ें आग की भेंट चढ़ती हैं, कभी-कभी उन पड़ोसियों की खाट-कुर्सी भी जिनसे इन अल्हड़ किशोरों की दुश्मनी हो। मैं अलग-थलग-सा हूँ, सोच नहीं पा रहा कैसे शरीक होऊँ, पर ढोलक की आवाज़ बुला रही है म़ैं भी अगल-बगल फैले, बटोरे गए झाड़-फूस को आग में झोंकता हूँ, पुराना वर्ष जल रहा है, कल नया वर्ष आएगा।
दूसरे दिन, कोई दस बजे होंगे। किशोरों का एक झुंड, धूल-कीचड़ से सजा, गाँव की पगडंडी पर हुड़दंग करता घूम रहा है। परंपरा यह है कि सुबह-सुबह धूल-कीचड़ से होली खेलकर, दोपहर में नहाकर रंग खेला जाए, फिर शाम को अबीर लगाकर हर दरवाज़े पर घूमके फगुआ गाया जाए। पर फगुआ और भांग की मस्ती में यह क्रम पूरी तरह बिसरा दिया जाता है। ये किशोर अपनी पूरी मस्ती में हैं, कुछ ने अवश्य पी भी रखी है, एक दूसरे पर धूल उछालते, ये गाँव के पुराने कुएँ पर स्र्कते हैं, फिर आगे बढ़ जाते हैं। कुएँ पर दो महिलाएँ पानी भर रही हैं, एक अधेड़ पुरुष बाल्टी से पानी निकाल नहा रहे हैं। एक लड़का अपनी भर्राई-लड़खड़ाती आवाज़ में गाने लगता है,
आ हो भौजी,
तोरा नइहरवा कुआँरी बहिनिया भौजी,
कह त गवना करा के ले आईं।
दूसरा खिलखिलाकर हँसता है, उससे कहता है, "आरे बेकूफ, कुँआरी ना, कटारी, कटारी। गाने भी नहीं आता है।" और वह अपने बेसुरे स्वर में शुरू हो जाता है,"तोरा नइहरबा कटारी बहिनिया भौजी"
बाकी लड़के खिलखिलाते हैं और उनका समवेत स्वर गूँजता है :"आय हाय, कटारी बहिनियाँ। क्या गाना बनाया है।"मैं कटारी शब्द का हिंदी-अनुवाद सोचता हूँ, भावनाओं का अनुवाद नहीं होता। कटारी का मतलब हिंदी में शायद हो तीखे नाक-नक्श वाली।कुएँ वाली औरतें कुछ हंसती, शर्माती हैं, पुस्र्ष अपनी भद्रता में कहते हैं, "ये लड़के बिगड़ गए हैं।"मैं सोचता हूँ, बसंत आ गया है।दो बजने को आए हैं, दुपहरिया ढ़लने लगी हैं। मेरे दालान वाले चबूतरे पर कुछ लोग जमा हो गए हैं। मैं उनसे बातें करने में मशगूल हूँ, तब तक रंगों की एक पूरी बाल्टी मेरे दालान में खिड़की के पीछे से आकर बिख़र जाती है। चौकी, हमारे कपड़े, नीचे का कच्चा फ़र्श, सभी रंगों से भीग जाते हैं। यह अचानक हुआ हैं, मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, दरवाज़े के भीतर धोबी जाति की गाँव की एक अधेड़ महिला, जो मेरी भाभी लगती हैं, खड़ी खिलखिला रही हैं। साथ बैठे कुछ मित्र नाराज़ होते हैं, कुछ खुश। मुझे हँसी आती है। मस्ती में कह बैठता हूँ,"आई ना बाहरा, भीतरी का लुकाइल बानी? तनी हमहूँ त देखौं कि केतना निमन लाग तानीं।" यानी, बाहर आइए न, भीतरी क्या छुप रही हैं, ज़रा हम भी तो आपको ठीक से देखें कि आप कितनी खूबसूरत लग रही हैं।
वे भी चुहल में कम नहीं हैं।"मन बात भीतरी आँई, तब नू निमन से देखब।" यानी, मन है तो भीतर आइए, तब न ठीक से देख पाइएगा। लोग खिलखिलाते हैं।
कई किशोरियाँ रंग की बाल्टी लिए, रंगों से सनी, बांस की पिचकारियाँ भरे, मेरे आँगन में चली जा रही हैं। अंत:पुर में स्त्रियों की खनखनाहट मुखर हो गई है, रंगों की छप-छप, पिचकारियों का शोर कुछ-कुछ सुनाई देता है। मैं सोचता हूँ, मेरा आँगन लाल-लाल हो गया होगा, तभी मेरे गांव के मोहन भैया कहते हैं, "हमरो घरे बोलाहट बा, फगुआ खेले खातिर, बहुत दिन से अइबे ना कइनी हैं रउआ। मेरी पत्नी ने भी बुला रखा है फगुआ खेलने के लिए, आप बहुत दिनों से गाँव आए ही नहीं।"
मैं कहता हूँ, "ओ! जाइल ज़रूरी बा? अब त सब लोग गावे खातिर आवे लागल बा।" यानी जाना ज़रूरी है क्या, अब तो सब लोग गाने के लिए जमने लगे हैं, देर हो जाएगी।"नाहीं, तुरते चलीं, चल आवल जाई, जले लोग आइहें।" जल्दी चलिए, जब तक लोग आएँगे, हम लोग चले आएँगे।
मेरे छोटे भाई बाल्टी में रंग लाते हैं और बाँस की पिचकारी। मैं कुछ घर छोड़ मोहन भैया के घर पहुँचता हूँ। उनकी बिटिया, जिसकी शादी उन्होंने पिछले साल की थी, अपने नैहर आई है। वह आगे बढ़कर मेरा पाँव छूती है, मैं आशीर्वाद देता हूँ 'खुश रह।' मोहन भैया की पत्नी अपने कमरे में अंदर लजाती खड़ी है, घंूघट काढ़े। कोई दस वर्षों से मैंने उन्हें नहीं देखा है, मोहन सिंह ने कोई पैंतीस साल पहले कलकत्ते के जूट मिल में मजदूर की नौकरी कर ली थी तब से उसी नौकरी में रहे, कभी-कभी गाँव आते।
मोहन भैया मौन तोड़ते हैं, भोजपुरी मिश्रित हिंदी में,"अब क्या लजाती हैं, सुरेंदर जी आए हैं नू, बहुत रंग लगाने को कहती थीं, अब लगाइए ना।"
भाभी का मौन टूटता है, लज्जा मुखर होकर पिचकारी में बदल जाती हैं, और मैं सराबोर हो जाता हूँ, रंगों में। रंग तो मुझे भी लगाना है म़ैं सारी बाल्टी उठाकर उनपर उझल देता हूँ। उनका बदन सिहरता है। साड़ी भींग जाती है।उनकी बिटिया हम अधेड़ लोगों की यह रास-लीला देख हँसती है,"ठीक कइनी ह चाचा, कहिया से कहत रहली ह कि रउआ आइब त अबकी फगुआ ज़रूर खेलब।" यानी, चाचा आपने ठीक किया, कब से कह रहीं थीं कि आप आइएगा तो फगुआ ज़रूर खेलेंगी।
और उसके बाद कई घर, अधेड़-बूढ़ी होती भाभियाँ, रास्ते में मिली रंगों से भरी लड़कों, लड़कियों की टोली ग़लियों की धूल रंगों से भर गई हैं, हर आँगन में, दालान में माटी रंग गई है। मुझे बनारस का वह विक्षिप्त आदमी याद आता है, उसका वह गीत :संऊसे सहरिया रंग से भरीं।
मोहन भैया के दालान से परंपरागत रूप से होली शुरू होती है। वहाँ जमघट होने लगी है। तासा, ढ़ोलक, झाल और मजीरे की आवाज़ें आने लगी हैं।लोगों की, किशोर, युवा, अल्हड़, बूढ़े, सबकी लरजती आवाज़ फगुनी बयार पर चढ़कर वातावरण में तैर रही है। मेरे दालान में आकर वह टोली जमा हुई हैं। मेरे पिताजी अबीर की थाल आँगन से मँगवाते हैं, सबो को अबीर लगता है, मैं थोड़ी अबीर पिता जी को लगा, उनके चरण छूता हूँ।
ढोलक, झाल के स्वर धीरे-धीरे उपर उठ रहे हैं, एक लड़का शुरू करता है :"शिव बबा, रउरी लाल धजा, देखि हुलसे ला हमरो शरीर आहो शिव बबा।"यह भगवान शंकर की प्रार्थना है, शुभ काम ईश्वर की प्रार्थना से ही शुरू होता है, हे शिव बाबा, आपकी लाल ध्वजा देख मेरा शरीर हुलस रहा है। एक समवेत स्वर उठता है:
"हो हो शिव, आ हो शिव।
आ हो शिव बबा,
रउरी लाल धजा देखि हुलसे ला हमरो शरीर,
हो देखि हुलसे ला हमरो शरीर
आ हो लाला हुलसे ला हमरो शरीर..."
गीत की रफ़्तार तेज होती जा रही है और आवाज़ ऊँची ढोल, तासे की आवाज़ों में सभी झूम रहे हैं, तासा वाला लड़का खड़ा होकर नाचने लगा है, तासा ज़ोर-ज़ोर से पीट रहा है। सभी लोग घुटनों पर खड़े हो, उसकी तरफ़ मुख़ातिब हो, हाथ भाँजकर गा रहे हैं :
"रउरी लाल धजा, रउरी लाल धजा, देखि हुलसे ला हमरो शरीर..."
लगता है एक तरह का नशा छाया है सबों पर। ऊपर उठते, नीचे उतरते स्वर, ज़ोर-ज़ोर से, झाल, मजीरे की आवाज़ें, तासा पीटने की आवाज़ और फिर समापन।
दूसरे गीत से पहले, जगत भैया सबों को डाँटते हुए कहते हैं, "ए, तासा ठीक से नइखे उठत," यानी तासा की आवाज़ सही तरीके से ज़ोर से ऊपर नहीं उठ रही है। मुझे याद आता है, बचपन में जगत सिंह और भृगुनाथ सिंह दो भाई फगुआ गाने के लिए प्रसिद्ध थे, उनके बिना फगुआ पूरा नहीं होता था, उसी तरह कैलाश काका और कपिलदेव भैया। अब कोई नहीं रहे। केवल लखदेव काका हैं, कोई पचासी के आसपास के अवश्य होंगे, लाठी टेकते आ रहे हैं, इस उम्र में भी फगुआ के ढोल की पुकार वे अनसुनी नहीं कर पाए। मैं उन्हें सादर पकड़ कर दालान की सीढ़ियों पर चढाता हूँ, वे कहते हैं, "गोड़ लागीले महराजी।" यानी पंडित जी प्रणाम। मैं संकुचित हूँ, सोचता हूँ, मैं उन्हें क्या आशीर्वाद दूँ, मैं कहता हूँ, "काहाँ रह गइनी ह? हमनी राह देखत रहनी ह?" वे मेरे पिता जी के पास जाकर दीवार से सटकर बैठ जाते हैं।
जगत भैया फिर कहते हैं, तासा ठीक से नहीं बज रहा है, अब मेरे हाथों में वह शक्ति नहीं है, कोई अच्छा बजाने वाला नहीं है क्या? भोला हजरा, जो जाति से दुसाध हैं और मेरे बचपन के मित्र हैं, दीनानाथ सिंह की और मुखातिब होकर कहते हैं, "का हो दीनानाथ, बेइजती करईब?" उनका कहना है कि दीनानाथ, तुम हम लोगों की बेइज्जति करवाओगे क्या, अरे तासा सँभालो, और ज़रा फगुआ जमाओ। दीनानाथ आगे आते हैं, तीस पैंतीस के आसपास के युवा, और उनके तासा की आवाज़ और नेतृत्व पर पूरी टोली झूमने लगती है। दर्जनों गीतों पर दीनानाथ हम सबों का नेतृत्व कर रहे हैं, शुरुआत सबों की बैठकर होती है, पर जब स्वर उठने लगता है तो कोई भी बैठा नहीं रह पाता, समापन खड़े होकर ही होता है। दीनानाथ स्वर उठाते हैं:
घरहीं कोशिला मैया करेली सगुनवा,
बने बने राम जी का बीतेला फगुनवा।
यानी माँ कौशल्या इधर घर में सगुन करवा रही हैं कि रामचंद्र कब आएँगे और उधर श्री राम बन-बन में अपना फागुन व्यतीत करने को विवश हैं।
मुझे याद है, यह मेरी माँ का प्रिय फगुआ था। जब मैं सेना में था और कभी होली में घर नहीं जा पाता था तो वह अवश्य गाती थी।ऐसे ही कितने गीत, भक्ति के, रास के, जीवन के, कछ बानगी देखें :"हाथ लिए बेलपत्र के दौरा,मन से महादेव पूजेली गौरा"यानी हाथ में बेलपत्र की टोकरी लिए, गौरा-पार्वती महादेव शिव की पूजा मन से कर रही हैं।
राम खेले होरी, लछुमन खेले होरी,
लंका में राजा रावण खेले होरी,
अजोधा में भाई भरत खेले होरी।
हंसेला जनकपुर के लोग सभी
होलइका राम धनुष कैसे तुरिहें?
यानी जनकपुर के सभी लोग हँस रहे हैं कि राम तो अभी बच्चे हैं, धनुष कैसे तोड़ पाएँगे?
राधे घोर ना अबीर,
राधे घोर ना अबीर,
मंड़वा में अइलें कन्हइया।
यानी राधा, अबीर घोलो न, कन्हैया मंडप में आ गए हैं।
उठ सइयाँ लीख पांती,
भेज नइहरवा,
झूमक मोरा छूटे हो हो कोहबरवा।
यानी सइयाँ (पति के लिए भोजपुरी संबोधन), मेरे नैहर एक पत्र लिख दो, मेरा झूमक कोहबर वाले कमरे में छूट गया है। (झूमक, यानी कान की बाली और कोहबर उस कमरे को कहते हैं जहाँ शादी के बाद पति-पत्नी एक दूसरे से पहली बार मिलते हैं।)
नथिया में गुँजवा, लगा द सइयाँ हो,
मोरा नइहरवा अनारी सोनार-वा।
यानी सइयाँ मेरी नथिया में तुम्ही उसकी गूँज लगा दो, यानी कस दो, मेरे नैहर का सोनार अनाड़ी है।
और ऐसे दर्जनों गीत, भक्ति के, रास-रंग के!
चैत का पहला दिन, साल का पहला दिन, इसी भक्ति और रास-रंग में बीत गया है, हम दरवाज़े घूम कर फगुआ गाते रहे हैं, फगुआ अपनी भरी जवानी पर है, रात भी।अब रात भी काफी हो चुकी है। मेरा बदन अब काफी थक चुका है, मैं लौटता हूँ, लड़के अभी भी मस्त हैं।
दूसरे दिन मुझे लौटना है पटना। सुबह ही, कुछ मित्रों के आग्रह पर मुझे अपने विधायक जी से मिलने जाना पड़ा। पिछले साल की बाढ़ से बड़ी तबाही हुई है। गन्ने का उद्योग, जो मेरे इलाके के लोगों के लिए एकमात्र आधार था नगद पैसों का, पूरी तरह ठप है। बिहार की अराजकता अपनी चरम सीमा पर है। हमारे विधायक वर्तमान सरकार में मंत्री भी हैं, अत: उनसे मिलना, मिलकर इन समस्याओं का निदान निकालना ज़्यादा सार्थक हो, यही मित्रों की आशा है। मुझे ऐसी कोई आशा नहीं है, पर प्रयत्न आवश्यक है।
हम मंत्री जी के घर पहुँचते हैं, छपवा चौक। रास्ता पक्की सड़क होकर ही है, जिसपर रक्सौल-काठमांडू-भैंसालोटन जाने वाला पूरा ट्रैफिक दिनरात दौड़ता है। सुबह में रास्ते में देखता हूँ, मेरे गाँव की कच्ची सड़क जहाँ पक्की सड़क से मिलती है, वहाँ देवी का एक छोटा मंदिर है। पर चूँकि ट्रैफिक बहुत है, सड़क की दोनों तरफ़ कई दुकानें उग आई हैं। दुकानों में अलग-अलग रंगों के अबीर के ढेर बिक रहे हैं, रंगों का मेला, सुबह की धूप में चमक रहा है। 'छपवा और मेरे गाँव के बीच दो और गाँव हैं, दोनों गाँवों में सड़क की काली पीठ पर बरन-बरन के रंगों का कोलाज, घरों के बीच सड़क पूरी तरह रंगों से भरी पड़ी है। रात में खूब फगुआ हुआ होगा।
हम मंत्री जी के घर के बरामदे में इंतज़ार करते हैं। मंत्री जी तैयार हो रहे हैं। थोड़ी देर के बाद मंत्री जी खादी के नए धुले सफ़ेद धोती-कुर्ते में बरामदे में आते हैं। हमारी बातचीत होती है, बाढ़ के पानी की निकासी के प्रयत्नों, गन्ने के लिए विदेशी निवेश आदि पर कोई आधे घंटे बातचीत होती है। मुझे मंत्री जी की मिलनसारिता, आम लोगों की उन तक पहुँच, समस्याओं के बारे में उनके कुछ मूल विचार अच्छे लगते हैं।
तभी सामने कोई एक दर्जन लोग बाल्टी में रंग लिए आते हैं, कुछ रंगों से भीगे कपड़ों में हैं, कुछ की नंगी पीठ पर ही रंग बिखरे पड़े हैं। मंत्री जी भाँप जाते हैं कि ये लोग रंग खेलने आए हैं, लोगों से मिन्नत करते हुए कहते हैं, उन्हें आज ही पटना जाना है, अत: वे पूरी तरह तैयार होकर जाने के लिए निकले हैं, कृपया उन्हें रंग न लगाया जाए। अपने इस विनय में वे मुझे भी ढाल के रूप में प्रयोग करते हैं, "आ हई पंडी जी अमेरिका से आइल बानी, ई लोग उहाँ रंग-वोंग ना खेले। रहे दीं सभे, काल्ह फगुआ हो गइल नू।" यानी, देखिए, ये पंडित जी अमेरिका से आए हैं, ये लोग वहाँ रंग-वंग नहीं खेलते हैं। आप लोग रहने दीजिए, अरे कल फगुआ हो गया न।"
लेकिन उनकी यह दलील, उनकी मिन्नत कोई सुनने वाला नहीं है। एक आदमी, आधी फटी बनियान पहने, रंगों से ढँके चेहरे पर लाल अबीर लगाए, सामने आते हैं, कहते हैं,
"मंत्री जी आज अमिरका ना, सर्गा से केहू आवे, फगुआ त खेलहीं के बा।
आ रउआ पटना चल जायेब, अबहीं त बेरा बा।"
उनकी बात मुझे अच्छी लगती हैं, मंत्री जी आज अमेरिका ही नहीं, स्वर्ग से भी कोई आए, फगुआ तो खेलना ही है। और आप पटना चले जाइएगा, अभी तो पूरा दिन पड़ा है।
और हम पर बाल्टियाँ उझल दी जाती हैं आज कोई मंत्री नहीं, कोई मजदूर नहीं। फगुआ के रंग से सबों को नहाना है, 'संउसे सहर' को। मंत्री जी खाने का आग्रह करते हैं, "पूआ बनल बा पंडी जी, मगावतानी।" यानी पूआ बना है, मँगवाता हूँ। ह़मारी परंपरा है होली के दिन पुआ खाने की। मैं नकार जाता हूँ, लौटना है। मेरी लौटती यात्रा है, पटना से दिल्ली का जहाज़, चैत का झक-झक दिन, दाहिनी तरफ़ गंगा जी दीखती हैं, सोन पार करने के बाद, कोइलवर पुल के उस तरफ़ आरा जिला आएगा अपनी अक्खड़ता तथा स्वतंत्रता-सेनानी बाबू कुँअर सिंह के लिए प्रसिद्ध, उनकी वीरता की प्रशंसा में लोग होली गाते हैं,
"बाबू कुँअर सिंग तेगवा वहादुर,
बंगला में उड़ेला अबीर,
आ हो लाला बंगला में उड़ेला अबीर।"
मैं गुनगुनाता, गुनता चुपचाप बैठा हूँ, सोचता अभी बनारस आएगा, मुझे याद आता है श्री विश्वनाथ गली का वह विक्षिप्त आदमी और उसका फगुआ संउसे सहरिया रंग से भरी
कहाँ जा रहा हूँ मैं यह रंग-भरा शहर छोड़कर -
रंजन ऋतुराज सिंह , नॉएडा
4 comments:
बहुत बढिया मुखिया जी. तिवारी जी को बधाई दिजियेगा. होली के साथ साथ फ़ागुन का विवरण बहुत सुन्दर है.
e hamesha ke tarah ultimate...ye sab padh ke aur bambai jane ka man badal raha hai...ghar se dooor...really...kise ne kaha hai kise cheez ke ahmiyat tabhi samjh mein aati hai jab wo door ho jati hai
ati sundar...ati sundar....
Namaste Mukhiyajee,
Bahut hi sunder si yeh rachna thi ...Man ko lubha gayee hamesha ki tarah..
lekin aapse ek shikayat hai.....Aapki blogs kafi dinon ke viram ke baad aa rahi hai...To kucch dinon ke khalipan lagta hai..
Mujhe pataa hai....Aise anmol moti laane ke liye thoda waqt chahiye ...
Lekin ..Hamari khatir ....Please lessen this gap..
pranam !
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