Friday, June 6, 2008

मेरे मन के तार !

सन् १९८४ मे मेरे मन की बात कागज़ पर उतर आई थी .आज अचानक, न जाने क्यों ब्लॉग पर उतरने को बेताब दिखी . पर मैंने इसे ब्लॉग पर उतारा नही चढाया है .
कुछ तार मेरे मन के उलझे हुए है /
कुछ सार इस बात के सुलझे हुए हैं //

रोशनी मिली तो उठाई न नज़र /
अब तो सारे चिराग बुझे हुए हैं //
कुछ तार मेरे मन के .........

दुखाया है बड़ी बेरहमी से तेरा दिल /
एहसास इस बात के अब मुझे हुए है //
कुछ तार मेरे मन के .........

किस कदर दूं उस जख्म पे मरहम /
जो जख्म मेरे घात के तुझे हुए है //
कुछ तार मेरे मन के .........

6 comments:

Udan Tashtari said...

रोशनी मिली तो उठाई न नज़र /
अब तो सारे चिराग बुझे हुए हैं //

--बहुत उम्दा.

Sarvesh said...

वाह!! बहुत सुन्दर. पढ कर दिल खुश हो गया. आप के अन्दर का कलाकार धीरे धीरे बाहर आ रहा है.

Ranjan said...

आप कविता भी लिखते हैं ? १९८४ की प्रेम कथा या कुछ और ?

Ram N Kumar said...

Yeh 1984 ki prem katha nahi, 2008 ki gatha hai...

david santos said...

I loved this post.
Have a nice day

डॉ .अनुराग said...

रोशनी मिली तो उठाई न नज़र /
अब तो सारे चिराग बुझे हुए हैं //
bahut badhiya....