सन् १९८४ मे मेरे मन की बात कागज़ पर उतर आई थी .आज अचानक, न जाने क्यों ब्लॉग पर उतरने को बेताब दिखी . पर मैंने इसे ब्लॉग पर उतारा नही चढाया है .
कुछ तार मेरे मन के उलझे हुए है /
कुछ सार इस बात के सुलझे हुए हैं //
रोशनी मिली तो उठाई न नज़र /
अब तो सारे चिराग बुझे हुए हैं //
कुछ तार मेरे मन के .........
दुखाया है बड़ी बेरहमी से तेरा दिल /
एहसास इस बात के अब मुझे हुए है //
कुछ तार मेरे मन के .........
किस कदर दूं उस जख्म पे मरहम /
जो जख्म मेरे घात के तुझे हुए है //
कुछ तार मेरे मन के .........
6 comments:
रोशनी मिली तो उठाई न नज़र /
अब तो सारे चिराग बुझे हुए हैं //
--बहुत उम्दा.
वाह!! बहुत सुन्दर. पढ कर दिल खुश हो गया. आप के अन्दर का कलाकार धीरे धीरे बाहर आ रहा है.
आप कविता भी लिखते हैं ? १९८४ की प्रेम कथा या कुछ और ?
Yeh 1984 ki prem katha nahi, 2008 ki gatha hai...
I loved this post.
Have a nice day
रोशनी मिली तो उठाई न नज़र /
अब तो सारे चिराग बुझे हुए हैं //
bahut badhiya....
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