Tuesday, April 20, 2010

मेरा गांव - मेरा देस - भाग - एक !! ( परिवार )

मंगलवार को थोडा कम काम होता है - सो 'समय' मिल जाता है ! सुबह सुबह एक दोस्त को फोन किया - वो मुझे अपना दोस्त नहीं मानता पर मै मानता हूँ - गाँव वाला जो हूँ ! बातों ही बातों में 'गांव' की बात आ गयी और नॉएडा में बैठे बैठे अपना 'गांव' याद आ गया !

समझ नहीं आ रहा - कहाँ से शुरू करूँ ! कुछ अमिट छाप हैं - कुछ यादें हैं -

बचपन याद आ रहा है - बाबा ( दादा जी ) का वो बड़ा सा कांसा वाला- 'लोटा' ! सुबह सुबह वो एक लोटा पानी पीते थे - इनार का ! तब तक 'माँ' उनके और दीदी ( दादी ) के लिए 'चाय' बना देती थीं ! लकड़ी का चूल्हा होता था ! बाबा चाय पीने के बाद खुद से पान बनाते - पंजुम और रत्ना छाप जर्दा खा के - खेतों के तरफ निकल पड़ते थे ! सारे खेतों से घुमते हुए वो करीब एक दो घंटे में लौटते ! तब तक मै उनकी बिछावन पर सोया रहता ! बड़ी अच्छी खुशबू आती थी - जर्दा की ! बाबा के लौटते - लौटते दरवाजे पर एक भीड़ जमा हो जाती थी ! कोई साईकिल से तो कोई 'राजदूत मोटर साईकिल' से ! कुर्सियां सज जाती थी ! ढेर सारे 'नौकर - चाकर' मुंशी मैनेजर' होते थे ! खपडा वाला मकान होता था - अब भी है ! और एक दालान ! दालान में बड़ी बड़ी आरामदेह कुर्सियां और इंदिरा गाँधी का एक बड़ा सा फोटो !

मेरे पर दादा जी बहुत ही  'दूरदर्शी' थे ! १९२७ में कोल्कता विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद अंग्रेजों की पुलिस वाली  नौकरी ठुकराने के बाद वो 'मुजफ्फरपुर शहर' में बस गए - वहाँ उन्होंने ने अपने ननिहाल वालों से 'ज़मींदारी' खरीदी और अपने इलाके के सभी विद्यार्थिओं को अपने खर्चे पर पढाना - लिखाना शुरू किया ! मुजफ्फरपुर के रईसों के साथ उठाना - बैठना और फिर गांधीवादी होना साथ ही साथ घर परिवार के बहुत कुछ करना ! शायद कुछ दिनों तक वो 'मुख्तार' भी रहे ! सो , बिहार में हमारा दो जगह घर हो गया ! सारण और मुजफ्फरपुर ! सारण में 'गांव' और मुजफ्फरपुर में शहर ! परदादा जी को समय की पहचान थी ! मुजफ्फरपुर के केंद्र 'कल्याणी चौक' पर भी उन्होंने कुछ ज़मीन जायदाद खरीदी और एक 'विशाल स्टोर' भी खोला ! जमींदारी खरीदने के अलावा उस ज़माने में हमारा 'परिवार' बिहार के बड़े बड़े जमींदारों को क़र्ज़ पर पैसे भी देता था ! परदादा जी और परदादी जी का एक ही दिन 'टी वी' के कारण 1943 में मृत्यु हो गयी ! परिवार में एक 'यु टर्न' आ गया ! परदादा जी जिस तेज़ी से आगे बढ़ रहे थे - शायद हम अपनी बिरादरी में बिहार में प्रथम परिवार होते ! उनका एक सपना था - मेरे बाबा को 'कलक्टर' बनाने का ! मेरे बाबा 'मुजफ्फरपुर जिला स्कूल' के सब से तेज विद्यार्थी थे ! 'लाट साहब' ( गवर्नर) के हाथों उनको अपने स्कूल के सब से तेज विद्यार्थी का ख़िताब मिल चूका था ! परदादा की मृत्यु के समय वो नौवीं कक्षा में थे ! परदादा के बड़े भाई को कोई संतान नहीं थी सो मेरे बाबा अपने चाचा जी के साथ 'गांव' ( सारण  ) लौट आये ! और मेरे बड़े दादा जी 'मुजफ्फरपुर शहर' में ही रह गए ! परिवार में विभाजन नहीं हुआ था पर शहर की सैकड़ों एकड़ जमीन मेरे परदादा की अर्जित की हुई थी सो वो ज़मीन सम्मलित परिवार के लोगों में १९४९ में बंट गयी ! पर 'मालिकाना' मेरे दादा दोनों भाईओं की ही रही ! परिवार के अन्य लोगों को वो 'मुफ्त' में मिली थी सो उन्हें भी उस ज़मीन जायदाद की ज्यादा चिंता नहीं थी ! बड़े दादा जी बड़े ही आराम से 'मुजफ्फरपुर' में अपनी जिंदगी गुजारी ! परिवार में शांती थी - शहर की ज़मीन - अपने चचेरे भाईओं में बांटने में मेरे दादा जी लोगों को थोड़ा भी कष्ट नहीं हुआ ! बाबा दोनों भाई बहुत कम उम्र में छोटे मोटे ज़मीदार बन गए ! मेरे बाबा 'गांव' में और बड़े बाबा - शहर में ! प्रख्यात पत्रकार 'नलिनी सिंह' के ससुर 'सर सी पी एन सिन्हा' का मुजफ्फरपुर घर भी हमारी जमींदारी में आता था ! रहते लोग 'शहर' में थे पर रहन - सहन 'गांव वाली ही रही ' ! मुजफ्फरपुर का जिला स्कूल 'खानदानी स्कूल' हुआ करता था ! हम चार पीढ़ी उस स्कूल  में पढ़ चुके हैं - इसका मुझे गर्व है !

हमारे कई या लगभग बहुत सारे सम्बन्धी हम से भी ज्यादा 'धनिक' थे ! पर , उनके रहन सहन और हमारे रहन सहन में बहुत का अंतर था ! वो , पैसों को दांत से पकडते थे और हम 'आराम' से रहते थे - 'इज्जत' बहुत बड़ी चीज़ होती थी ! सम्मलित परिवार और ज़मींदारी का बंटवारा १९४९ में हुआ और इतनी शांती से हुआ की किसी को कानो कानो तक खबर नहीं पहुंची !  कई चीज़ नहीं बंटे - जिसमे एक था - हाथी और हथ्सार , कई बगीचे और फुलवारियां ! लालू के आने तक हम उसी अंदाज़ में जीते रहे ! समय बदलता रहा - 'हम इज्जत को ढोते रहे' !

मेरे बाबा 'गांव' लौटने के बाद १९४६ में कॉंग्रेस के मेंबर बन गए ! जिला स्तर से राज्य स्तर तक मेंबरशिप और महत्वपूर्ण जगह मिलती गयी ! पर गृहक्षेत्र से कॉंग्रेस ने कभी 'टिकट' नहीं दिया ! बाबा  जिंदगी भर 'कॉंग्रेस' का झोला और झंडा ढोते रहे  - इसका मलाल मुझे आज तक है और रहेगा ! एक बार 'लालू के एक काबिना मंत्री ' ने मुझ से कहा - 'तुम्हारे बाबा जिदगी भर कॉंग्रेस का झोला उठाया - क्या मिला ? हमको देखो - हमने राजनीति तुम्हारे बाबा से सीखी और अब काबिना मंत्री बन गए ! अब मै उस काबिना मंत्री को क्या कहता - की राजनीति हमारी शौक हुआ करती है - पेशा नहीं !

बाबा के चाचा जी ही घर के अभिभावक थे ! बड़े ज़मींदारों को क़र्ज़ देने का सिलसिला जारी था ! अँगरेज़ १९४० के बाद धीरे धीरे वापस लौटने लगे थे ! अंग्रेजों की सैकड़ो एकड़ में कोठिया होती थी ! मेरे परिवार के लोगों ने भी २ कोठीओं का सौदा कर लिया - एक में एक हज़ार एकड़ ज़मीन और एक में ४०० एकड़ ! पैसे देने के लिए - बोरा में पैसा दाल के 'हाथी' पर लाद दिया गया ! अब घर में एक भी पैसा नहीं बचा था - घर के किसी सदस्य ने बोला - अगर कोई बड़ा ज़मीदार आएगा और पैसे मांगेगा - तो हम क्या बोलेंगे ? "इज्जत , चला जायेगा " ! 'इज्जत बचाने के चक्कर में अंग्रेजों की कोठियां नहीं खरीद पाए " ! एक भी खरीद लिए होते तो - शायद 'चम्पारण और सारण' के सब से धनिक 'भूमिहारों' में गिनती होती !

ज़मींदार थे ! ज़मीन का टैक्स वसूलते थे ! यह एक प्रकार का 'ठिकेदारी' था ! विशुध्द ज़मींदार होने कारण खुद के नाम ज़मीन बहुत ही कम था !  १९५८ में ज़मींदारी प्रथा खत्म हो गयी ! अचानक से परिवार में दिक्कते आ गयीं ! ज़मीन बहुत कम था - बहुत ही कम ! जो सगे सम्बन्धी कल तक - धनी होने के वावजूद सर उठा कर बात नहीं करते थे - अब वो अचानक से बड़े लगने लगे ! कष्ट का दौर शुरू हो गया ! घर की लड़किओं की शादी 'पहाड़' लगने लगी !

अब बस एक ही उपाय रह गया - बच्चों को शिक्षा दो और बढ़िया 'नौकरी' में भेजो ..

क्रमशः ...


रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

7 comments:

Fighter Jet said...

bahut rochak aur sajiw chitran!

J K Meena said...

Ranjan ji,

Your this blog post have refreshed so many of my memories about the days I spent in muzaffarpur in the 80s and early 90s. I am here in Canada for last 12 years but I was so fond of the lifestyle in Muzaffarpur. All those familiar spots - kalyani chawk, motijheel, Sariyaganj, Zila School, LS College etc. Occasionally getting treated at Deepak Hotel or Vaishali Sweets (in Motijheel before going to watch a picture at the nearby Shyam Talkies), Occassinally buying meetha paan near Santoshi Mata Mandir. Sometimes, a Massala Dosa at the Bharat Jalpan, Saraiyaganj. What a wonderful feeling I still have. I can fully understand how you feel. salute, for nice blog posting.

Jeetendra Kumar Singh
Vancouver, BC Canada

Jivitesh said...

Too good Sirjee..Aisa lagta hai ki ..I am living that life again...Perfect. These are some of the content I love most.

Want to meet you someday..Its been 4 years now since I left JSS and I have met with you. Wanna touch your feat and say my Pranam.

PD said...

देर से आया हूँ, मगर इकट्ठे ही चारों भाग पढ़ने को मिलेगा यह सोच कर खुश हो रहा हूँ..

Unknown said...

nice blog sir....quite deep

Arun sathi said...

एक ही सांस मे सब पड गया. लिखने का अंदाज बहुत खुब.....सच को रोचक बना दिया..

GAUTAM SINGH said...

@ranjan ji.in one of your blogs u have mentioned that you and lt.digvijay singh (grandson of babu langat singh) belong to the same caste i.e rajput.but here u state ur caste as bhumihar.sir,after reading ur highly appreciable descriptions of various aspects of our life.The way u retorted to the saheed bramheshwar ji 's assassination makes me a fan of urs.