Monday, November 8, 2010

मेरा गाँव - मेरा देस - मेरा छठ

कल से ही अखबार में 'छठ पूजा' को लेकर हो रही तैयारी के बारे में समाचार आने लगे ! आज तो दिल्ली वाला 'हिंदुस्तान दैनिक' फूल एक पेज लिखा है ! कल दोपहर बाद देखा - फेसबुक पर् शैलेन्द्र सर ने एक गीत अपने वाल पर् लगाया था - शारदा सिन्हा जी का ! गीत सुनते सुनते रोआं खडा हो गया और आँख भर आयी !

"छठी मैया ...छठी मैया....." ..............

क्या लिखूं ? अपना वतन याद आ रहा है ! अपना गाँव - शहर - अपने लोग ! क्या खोया - क्या पाया ..इसका हिसाब तो बाद में होगा ! ये चमक - ये दमक - ये धन - ये दौलत - ये रोब - ये अकड - ये घमंड ..कभी कभी ये सब फीका लगता है ! खैर ...

दशहरा के बाद ही 'कैलेण्डर' में 'चिन्हा' लगा दिया जाता था - कहिया गाँव जाना है ! हमारे गाँव में एक बहुत खूबसूरत परंपरा थी - दशहरा से लेकर दीपावली के बीच 'नाटक' खेला जाता था ! कभी पहले पहुंचा तो ..नाटक में भाग ले लेता था ! अब कुछ नहीं होता - अब हर घर में टी वी है ! मेरे घर में एक परंपरा है - हर होली और छठ में परिवार के सभी लोगों के लिये 'कपड़ा' खरीदने का पैसा - बाबा देते हैं - आज उनकी उम्र करीब चौरासी साल हो गयी - फिर भी इस बार दशहरा में उनसे मिला तो 'छठ' के नाम पर् वो बच्चों और पत्नी के कपडे के लिये कुछ पैसा - मां को दिए - फिर मां ने हमारी पत्नी को दीं ! :) पैसा से ज्यादा 'आशीर्वाद' होता है !

बचपन में ये पैसा से हमलोग का कपड़ा खरीदाता था ! रेडीमेड का जमाना नहीं था ! मा बाबु जी के साथ रिक्शा से जाना - कपड़ा खरीदना - फिर उसको 'फेरने' जाना ;-) 'फेरते' वक्त बाबु जी नहीं जाते - खैर ..कपडा खरीदा गया ! दीपावली भी मन गया ! मुजफ्फरपुर में रहते थे - एक दिन पहले रिक्शा वाले को बोल दिया जाता की - सुबह सुबह ३ बजे आ जाना ! उस रात ..माँ रात भर कपडा को सूटकेस में डालती ! हल्का ठण्ड भी होता था सो स्वेटर वैगरह !

सुबह सुबह रिक्शा आ जाता ! सूटकेस रखा जाता ! एक रिक्शा पर् माँ और बहन और एक पर् बाबु जी और हम ! पैर को सूटकेस के ऊपर लटका के ! बाबु जी के गला में मफलर और एक हाफ स्वेटर ! चार बजे एक बस - रेलवे स्टेशन के सामने से खुलता था ! ठीक उसी वक्त एक ट्रेन 'कलकत्ता' से आता - हम लोग जब तक पहुंचते बस भर चूका होता ! सिवान के बच्चा बाबु का बस होता था - कंडक्टर - खलासी - ड्राईवर जान पहचान का सो सीट का इंतजाम हो जाता ! अब इमेजीन कीजिए - पूरा बस 'कलकतिया' सब से भरा हुआ ! "चुकुमुकू" कर के सीट पर् बैठ कर बीडी ! भर माथा 'कियो-कारपीन' तेल ! एक झोला और झोला में तरह तरह का साबुन :) और पाकीट में 'गोल वाला चुनौटी' ;-) खिडकी खोल के हवा खाता :)

गाँव से कुछ दूर पर् ही एक जगह था - वहाँ हम लोग उतरते ! माँ को चाय पीने का मूड होता ! तब तक बाबु जी देख रहे होते ही गाँव से कोई आया है की नहीं ! पता चलता की 'टमटम' आया हुआ है ! माँ और बहन टमटम पर् ..पूरा टमटम साडी से सजाया हुआ ! 'कनिया' :) हम और बाबु जी हाथी पर् ! हम लोग निकल पड़ते ..! वो लहलहाते खेत ! रास्ता भर हम बाबु जी को तंग करते जाते - ये खेत किसका है ? इसमे क्या लगा है ?

गाँव में घुसते ही - बाबु जी हाथी से उतर जाते और पैदल ही ! जो बड़ा बुजुर्ग मिलता - उसको प्रणाम करते - अपने बचपन के साथीओं से मिलते जुलते ! तब तक हम दरवाजे पर् पहुँच जाते ! बाबा को देख जो खुशी मिलती उस खुशी को बयान नहीं कर सकता ! वो खादी के हाफ गंजी में होते - सीसम वाला कुर्सी पर् - आस पास ढेर सारे लोग ! उनको प्रणाम करता और कूदते फांदते आँगन में ..दीदी( दादी)  के पास ! आँगन में लकड़ी वाला चूल्हा - उस चूल्हे से आलूदम की खुशबू ! आज तक वैसा आलूदम खाने को नहीं मिला :(  दरवाजे पर् कांसा वाला लोटा में पानी और आम का पल्लो लेकर कोई खडा होता ..माँ के लिये ! फिर 'भंसा घर' में जा कर 'कूल देवी' को प्रणाम करना ! इतने देर में हम 'दरवाजा - आँगन' दो तीन बार कर चुके होते ! ढेर सारे 'गोतिया' के भाई बहन - कोई रांची से - कोई मोतिहारी से - कोई बोकारो से ! कौन कब आया और कितने 'पड़ाके' साथ लाया :-) तब तक पता चलता की 'पड़ाका' वाला झोला तो मुजफ्फरपुर / पटना में ही छूट गया ! उस वक्त मन करता की 'भोंकार' पार कर रोयें ! गोतिया के भाई - बहन के सामने सारा इज्जत धुल जाता ! माँ को तुरंत खड़ी खोटी सुनाता ! दीदी ( दादी ) को ये बात पता चलता - फिर वो बाबा को खबर होता ! बाबा किसी होशियार 'साईकील' वाले को बुलाते - उसको कुछ पैसा देते की पास वाले 'बाज़ार' से पड़ाका ले आओ :)

दोपहर में हम बच्चों का डीयुटी होता की पूजा के परसाद के लिये जो गेहूं सुख रहा है उसकी रखवाली करो के कोई कौआ नहीं आये ! हम बच्चे एक डंडा लेकर खडा होते ! बड़ा वाला खटिया पर् गेहूं पसरा हुआ रहता ...फिर शाम को कोई नौकर उसको आटा चक्की लेकर जाता ! कभी कभी हम भी साथ हो जाते ! बिजली नहीं होता था ! आटा चक्की से एक विशेष तरह का आवाज़ आता ! वो मुझे बहुत अच्छा लगता था !

दादी छठ पूजा करती ! पहले बाबु जी भी करते थे ! आस पास सभी घरों में होता था ! नहा खा के दिन बड़ा शुद्ध भोजन बनता ! खरना के दिन का परसाद सभी आँगन में घूम घूम के खाना ! छठ वाले दिन - संझीया अरग वाले दिन - जल्दी जल्दी तैयार हो कर 'पोखर' के पास पहुँचाना ! बहुत साल तक माँ नहीं जाती - फिर वो जाने लगीं ! वो सीन याद आ रहा है और आँखें भींग रही हैं ! १५ - २० एकड़ का पोखर और उसके चारों तरफ लोग ! रास्ता भर छठ के गीत गाते जाती महिलायें ! भर माथा सिन्दूर ! नाक से लेकर मांग तक ! पूरा गाँव आज के दिन - घाट पर् ! क्या बड़ा - क्या छोटा - क्या अमीर - क्या गरीब ! गजब सा नज़ारा ! पोखर के पास वाले खेत में हम बच्चे ..पड़ाका में बिजी ..तब तक कोई आता और कहता ..'अरग दीआता'  ...पड़ाका को वहीँ जैसे तैसे रखकर दादी के पास ..वो "सूर्य" को प्रणाम कर रही हैं ....आस पास पूरा परिवार ...क्या कहूँ इस दृश्य के बारे में ....बस कीबोर्ड पर् जो समझ में आ रहा है ..लिखते जा रहा हूँ ....

हमारे यहाँ 'कोसी' बंधाता है - आँगन में ! उस शाम जैसी शाम पुर साल नहीं आती ! बड़ा ही सुन्दर 'कोसी' ! चारों तरफ ईख और बीच में मिट्टी का हाथी उसके ऊपर दीया ...! घर के पुरुष कोसी बांधते ..हम भी पुरुष में काउंट होते :)  बड़े बड़े पीतल के परात में परसाद ! वहाँ छठ मैया से आशीर्वाद माँगा जाता - हम भी कुछ माँगते थे :) फिर दादी को प्रणाम करना !

अब यहाँ एक राऊंड फिर से दरवाजा पर् 'पड़ाका' ! पूरा गाँव हील जाता ;-) दादी कम्बल पर् सोती सो उनके बड़े वाले पलंग पर् जल्द ही नींद आ जाती ...सुबह सुबह ..माँ जगा देती ....कपड़ा बदलो ....पेट्रोमैक्स जलाया जाता ...कई लोग "लुकारी" भी बनाते ! कई पेट्रोमैक्स के बीच में हम लोग फिर से पोखर के पास निकल पड़ते ! दादी खाली पैर जाती थी ! पूरा गाँव ..नहर के किनारे ....  एक कतार में ......पंडीत जी की खोजाई होती ..'बनारस वाला पत्रा' देख कर वो बताते ...सूरज भगवान कब उगेंगे ....उसके १० -१५ मिनट पहले ही दादी पोखर के किनारे पानी के खडा होकर 'सूर्य' भगवान को ध्यानमग्न करती ! अरग दिआता !

पूजा खत्म हो चूका होता ! पोखर से दरवाजे लौटते वक्त ...तरह तरह का परसाद खाने को मिलता ! किसी का देसी घी में तो किसी का 'तीसी के तेल ' का :) फिर दरवाजे पर् आ कर 'गन्ना चूसना' :)) फिर हम दादी के साथ बैठ कर खाते - पीढा पर् !

अब दिल धक् धक् करना शुरू कर देता ..बाबु जी को देखकर डर लगता ..मालूम नहीं कब वो बोल दें ...मुजफ्फरपुर / पटना वापस लौटना है :( बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती ...माँ को देखता ...वो धीरे धीरे 'टंगना' से सिर्फ हम लोगों के ही कपडे चुन चुन कर एक जगह रख रही होतीं ....ऐसा लगता ..अब दिल बाहर आ जायेगा ....तब तक देखता ..टमटम सजा खडा है ..पता चलता की 'मोतीहारी' वाले बाबा का परिवार वापस जा रहा है ...सब गोतिया - पटीदार के भाई बहन हम ऐसे मिलते जैसे ..मालूम नहीं अब कब मिलेंगे ....बाबा के पास दौर कर जाता ..काश वो एक फरमान जारी कर दें ...एक दिन और रुकने का ....बाबा ने फरमान जारी कर दिया और हम लोग एक दिन और रुक गए :))

अगले दिन ...जागते ही देखता की ..बाबू जी 'पैंट शर्ट 'में :( मायूस होकर हम भी ! माँ का खोइंछा भराता..कुल देवी को प्रणाम ..दादी के आँखें भरी ..माँ की ...दादी - बाबा आशीर्वाद में कुछ रुपये ..पॉकेट में छुपा कर रख लेता :)

फिर होली का इंतज़ार .....

-----------
मालूम नहीं ..क्या लिखा ..कैसा लिखा ..बस बिना संपादन ..एक सांस में लिख दिया ....कम्मेंट जरुर देंगे !


छठ का गीत !!





रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !

52 comments:

Unknown said...

Wonderful description of festival time in rural Bihar.
Ashok

Unknown said...

bhai ab aur kya likne ko bacha hai
sachitra chitran to kar diya hai

agar koi yahan chath mana raha hai
to bataiyega
prasad pane ke liye pahuchne ka prayas karenge

Unknown said...

Mukhiya jee. Sahi me aankh me aansoon aa gaya.

Thoda bahut ghuma fira ke..sabki kahani ek hi hai.

Divyanshu said...

kabhi kabhi ye lagta hai hi yug badal gaya...
I used to have same experience going to Munger..

Priyanka manjari said...

as usual..its a heart-touching writing and I always loved reading almost all of such experiences of yours.......

Shankar said...

छठ पूजा की यादें हम सभी के मन में छुपी होती है रंजन भैया| ईश्वर के प्रति श्रद्धा और अपनापन का इस से बड़ा त्यौहार मेरे ख्याल से कोई नहीं है|

मेरी भी माँ छठ करती थी, लेकिन पिछले कई सालों से अस्वस्थ थी इसलिए छठ नहीं कर रही थी, अब तो माँ के साथ साथ छठ की यादें भी चली गयी थी, आपने उन यादों के फिर से ताजा करके रुला दिया|

संजय शर्मा said...

एक बेहतरीन लेख ! हर पहलू को छूता हुआ ,आके दिल पर पसर गया .
एक साँस में लिखा गया लेख एक ही सांस में पढ़ा भी गया .

महेन्‍द्र वर्मा said...

परम्पराओं के बारे में पढ़कर खुशी हुई...इन्हें सुरक्षित रखना हमारा दायित्व है।

Satish Chandra Satyarthi said...

आप तो सेंटी कर दिए....
देश से बाहर पहली बार हूँ छठ में..
दिवाली, दशहरा तो उतना पता नहीं चलता..
पर छठ..........................
बस अभी घर फोन करना पडेगा...

honesty project democracy said...

सुन्दर भावनात्मक अभिव्यक्ति....छठ मैया की महिमा निराली है ....

IF i Were said...

touching!..especially, the last para where mother pulls up kid's clothes to pack it back...
Yun ehsaas hota hai ki hum es bheed bhad mei sab bhool gaye...chod aaye wo sari masumiyat apne piche itni door jehan wapas kabhi laut nahi sakte...ab hai toh bus ye shehar jiski shor ne humme behra bana diya hai. humme apni hi aawaz sunai nahi deti, andhe ho gaye hum. kuch bhi yaad nahi ab..koi asar nahi hota hum pe un chaath k geeton ka ab, insaan se pathar bana diya humme es shehar ne. kuch bhi yaad nahi ab....

Excellent writing. you got all the skill to fictionalize reality n vice versa. I agree to PK sir, you must try your hand with newspapers.

Divya said...

Ranjan jee bat to aap bilkul sahi bole rahe hain.Aur jab bat se dil se nikalti hai to koi sampadan ki jarurat nahin hoti hai.

Ab to Bihar chore hue 10 saal ho gaya lekin jab bhi gaon desh ki taraf jate hain to ek ajeeb si feeling hoti hai jisko shabdon mein batana bahut hi kathin kam hai.

Lekin kya karen ab majburi hai naukri bhi kerni hai aur ghar bhi jana hai aab dono mein balance to bana ker chalna parega.

Kabhi milne ka karyakram banaye.mil ker khushi hogi mujhe bhi aur shayad aapko bhi :-)

सुमीत के झा (Sumit K Jha) said...

bhaiya aapka blog pad kar lagta hai jaise apne baare me pad raha hu...bahut maarmik likhte hai aap....bahut saalo ke baad is baar chath par ghar ja raha hu...11 ki ticket hai...din bhar bus bachpan ki yaad aati hai....pata nahi kyo ghar se itne dur baitha hu....anjaan sehar ko apna banane me laga hu...aur apne maati ko bhulta ja raha hu...likhte rahe.....

राजीव रंजन श्रीवास्‍तव said...

बहुत नॉस्टैल्जिक वर्णन किया है आपने। जिंदगी का रील रिवाइंड हो के अतीत में पहुंच गया है। दौरा उठा के घाट पर नंगे पैर ले जाना... पानी में उख गाड़ना... मां को अरग दिलवाना... छठ का याद आते कलेजा में हूक उठने लगता है। कोशिश करते हैं कि दिल्‍ली में छठ देखें, लेकिन दूर से उ आनंद नहीं आता है, जो उसमें तन-मन-धन से शामिल होके आता है। छठ का गीत सुनते आंख डबडबा जाता है। कहां से कहां आ गए। सोचते हैं- हम क्‍या थे, क्‍या हो गए और क्‍या होंगे अभी।

JUPICON said...

मेरे गाँव की याद आ गयी. अभी भी दिवाली से छठ तक मेला लगता है, नाटक होता है. और अभी भी वो विशेष आवाज (भुक-भुक) वाली मिल. बिजली तो है पर् रहती कहाँ है. सो मिल अभी भी डीजल पर. वाह हर चीज जीवंत हो उठी. कमाल लिखते हो यार रंजन ....

sumitkumarsingh said...

Ranjan Jee, bachpan me Premchand ki POOS KI RAAT padhi thi. Padhte samay ..Garmi ke mausam me bhi poos ke raath ki thand kanpa jaati thi. This waisa hin kuch aapke CHHAT ke utsav ke baare me padhte samay laga. Aisa laga mano Riksha pe rakhe suitcase pe mera paon tanga tha...aur wapas aate samay meri manobhavna vyakt ki ho. Bohot bohot dhanyawad aur aapke kalam ki taarif karta hun. Iss saal ke Chhat ki pavitrata badha di apni. Dinanath maharaj se sabhi Bihari bhai/behan aur pure deshwasi ke shubh ki prarthana karta hun. Thank you very much.Holi ke intejaar me- Sumit

Unknown said...

Believe me, aap ne ghar ki yaad dila di..allmost kuch aisa hi hamare ghar mein bhi hua karta tha.. Mein kab se intijaar kar rahi hoon ki bas ekbaar woh chath phir se mnaane ko mil jata bt ab ye possible nahi hai kyonki ab sab bade ho gaye hai aur dooriyan bhi badh gayi hai....thanxxxx a lot....bahut hin badiya....

Anonymous said...

जिंदगी का रील रिवाइंड हो के अतीत में पहुंच गया है

jayant said...

प्रवासी बिहारियों की पीड़ा साफ़ झलकती है |

प्रवीण पाण्डेय said...

रोचकता से पूर्ण संस्मरण।

Dr Diwakar Tejaswi said...

Simply God gifted expression. parhte hue ekdum kho jate hain. ek saans me poora parh jate hain.
Dr Diwakar Tejaswi

Hawa Hawai said...

You took me 30-40 yrs back..Totaly nostalgic.. Kahan gaye wo din.. Aaj ke iss television yug wale darshak shayad iska marm samajh nahi paayen !! Phir bhi Chatt ki mahima badhati jaa rahi hai.. Aaj Mumbai , Delhi jaise sheron mein bhi Chatt ka arg bhavya hota jaa raha hai..

Hawa Hawai said...

You took me 30-40 yrs back..Totaly nostalgic.. Kahan gaye wo din.. Aaj ke iss television yug wale darshak shayad iska marm samajh nahi paayen !! Phir bhi Chatt ki mahima badhati jaa rahi hai.. Aaj Mumbai , Delhi jaise shehron mein Chatt ka arg bhavya hota jaa raha hai..

Manoj Naiyadih Batia said...

Nostalgic feeling during reading.But an introspection is required by all readers that what we have done for improvement of our home place and its inhabitants.

Ranjan Kumar said...

Ranjan Ji,

It seems all your lines are matching with my life in Bihar. Very touchy and emotional description. Pls keep it up and may god bless u always.

Regards,

Ranjan Kumar
Indirapuram
Handphone # : 9911083343

Unknown said...

mujhe laga tha ki shayad ye sirf meri feeling hai ki chatha ki yaad se aakhon se aansoo apne aap aane lagte hain .par ab yakin ho gaya ki is pavitra puja ka aisa prbhaw hai ki ham main se koi bhi bina ise yaad kiye nahin reh sakta hai aur harek ki feeling ek jiasee hai.bhaut achcha aur marmik chitran kiya hai aapne.

Unknown said...

Ranjan sir,

Aap apne is blog par kewal apni nahi balki har ek bihawasi ki kahani likhte hain.

Aankh mein aansoon aa gaye padh ke..laga jaise ateet bikul jeevant ho gaya ho

pankaj said...

Ye pehla saal hai jab mere ghar par kisi karan se chhat nahi hua aur main ghar bhia nahi gaya. Par ye chey(Six) din maine kaise bitaye hai ye main hi janta hoon. lekin mujhe subah wale arag main jaane ka mauka mil hi gaya. Mere ghar se thori door hi ek chhat ghat hai aur main apne office se sidha chhat ghat hi pahunch gaya subah wale arah ke liye. wahan pahunchane ke baad mujhe wahi ehsas hua jo mere ghar par hota tha.

mujhe parsad to mil gaya par woh thekuya wala parsad nahi mila. aap main se kisi ke yahan agar chhat hota ho to batayiga hum parsad ke liye aane ki kosis karenge.

Amit said...

Very touching. Seems like Kahani Ghar Ghar Ki. I m sure whoever has the roots there will feel emotional. Jaane Kaha Gaye Wo Din... Bheer me kho gaye..

Mayank Mishra said...

ब तक पता चलता की 'पड़ाका' वाला झोला तो मुजफ्फरपुर / पटना में ही छूट गया ! उस वक्त मन करता की 'भोंकार' पार कर रोयें ..
Excellent..kya likhte hai aap..

आशीष अंकुर said...

अब का कहे सर! पूरा नोस्टेलजिया गए हम त...
सच में शीर्षक पढ़ कर ही सिहरन आ गयी... और "भोकार पार के रोने वाली बात..." क्या बोलूँ...
बहुत अच्छा लगा दालान में कुछ समय बिता कर... अब जब भी मन करेगा यहीं आकार सुस्ता लूँगा... :)

sushil said...

sahi me bhaiya..un dino ki baat hi kuch aur thi..aapka lekh sari yaad taja kar diya...wo Shyampur bus stand ki chaii, Chatth ghat ki lukari...aur dosto ke saath ghuurra(bonfire) baithana aur usake aas pas baithe-baithe ghurra me chupake se patakha dal kar nikal lena....:-)

Arun sathi said...

सरजी लाइव है!
घर से दूर इस संवेदना को बचाए रखिए। जबतक यह जिंदा है हम जिंदा है!

खैर मैं तो गांव में रहकर अभी यही सब कर रहा हूं। कल ही सारे परिवार का कपड़ा बगैरह खरीदा है। मिटटी के चुल्ले के लिए मिटटी लाया है। पत्नी और बच्चे सब उठकर गांव के सड़कों की सफाई में जुटे हैं। कार्तिक के हेलते ही।
जय छठ मइया।

Nishant said...

Bhai itna acha likha ki sala man me tarawat aa gaya aur aank me nami

Unknown said...

Sir,i nva cried before like dis n missed ma family n ma village like dis!! i hav joined dis blog few days only,u wont blv m reading ur all articles from last 10 hours n its now 03:30 am,being as a software engg in pune i can feel da pain...hatss off to u !!! may god bless u

Kumar Vineet said...

mere saath bhi same same hota hai..

Unknown said...

Sir mere pas word nahi hai ki mai is bhawna ko byan kar saku. sch me apne dil ko chu liya. Bhot man karta hai wapas jane ka bt ye one way line hai ek bar nikal gaye to wapas nhi ja sakte.

Unknown said...

हाहा जी लिया फिर से एक बार उस दौर को :)

anita said...

Aapne bachpan yaad dila diya.Maan ko chu gaya.Bahut hi accha likha hai aapne.

राजेश सिंह said...

Sulerb

Unknown said...

Rula diye maharaj. Kya varnan hai..atisundar.

Unknown said...

अरे भईया हम भी मोतिहारी से है...बहुत ही सुन्दर वर्णन....बचपन को ताजा कर दिया...बहुत बहुत धन्यवाद....

Unknown said...

मैं एक सिख परिवार से हूं व बिहार ही मेरी जन्म तथा कर्म भूमि है। बचपन से ही छठ मेरे व मेरे परिवार के लिये उतना ही पवित्र पर्व है, जितना किसी सनातन बिहारी के लिए। बिहार में अब छठ को धर्म के बंधनों से नहीं बांधा जा सकता। यहां का कोई शख्स इस महापर्व से खुद को विलग नहीं कर सकता। कटिहार के मेरे गांव में सिख घरों में गुंजायमान छठ गीत किसी आगंतुक को भले ही अचरज में डाले, लेकिन यह एक सामान्य सी बात है। बहरहाल आपकी लेखनी ने खुद को अपनी विरासत से जोड़े रखने का मजबूत संबल प्रदान किया,इसके लिये धन्यवाद।

Unknown said...

मैं एक सिख परिवार से हूं व बिहार ही मेरी जन्म तथा कर्म भूमि है। बचपन से ही छठ मेरे व मेरे परिवार के लिये उतना ही पवित्र पर्व है, जितना किसी सनातन बिहारी के लिए। बिहार में अब छठ को धर्म के बंधनों से नहीं बांधा जा सकता। यहां का कोई शख्स इस महापर्व से खुद को विलग नहीं कर सकता। कटिहार के मेरे गांव में सिख घरों में गुंजायमान छठ गीत किसी आगंतुक को भले ही अचरज में डाले, लेकिन यहां यह एक सामान्य सी बात है। बहरहाल आपकी लेखनी ने खुद को अपनी विरासत से जोड़े रखने का मजबूत संबल प्रदान किया,इसके लिये धन्यवाद।

सूरज said...

एसा लगा मेरा बचपन फिर जी लिया

subhash said...

ईश्वर के प्रति श्रद्धा और अपनापन का इस से बड़ा त्यौहार मेरे ख्याल से कोई नहीं है|

मोहित कुमार said...

महाराज आप ता रुलाईये दिए. जिन्दगी का पाहिला छठ है जिसमे हम अपने गाँव नहीं है. बाकी माँ को पारण के दिन कपरा बैग में कसते देख कर रोआं सीहर जाता था.छठी मैया का किरपा हमनी पर बनी रहे और का चाहिए जी.

Rajiv Dubey said...

क्या लिखूं??
मैंने अपने गांव का छठ कभी नहीं देखा,आज तक।
बचपन से कलकत्ता का छठ ही देख रहा हूं।
लेकिन विश्वास कीजिए, छठ कहीं मनाया जाए- गांव या शहर, उसकी निष्ठा-पवित्रता और महत्व में कमी नहीं आती।
मेरी मा व्रत रखती हैं।
बस यकीन मनिए,आपका यह वर्णन पढ़ कर मेरी आत्मा मेरे गांव के "पूरनका पोखरा" पर पहुंच गई थी।
मन इतना भावुक हो गया है कि,गला भर गया है और पलके भीगी जा रही है।
नमन है आपकी लेखनी को।

Vivek Rai said...

Heart touching.. Still pondering in the retrospect

Manmeet said...

हम 2000 में पैदा हुए, लेकिन आज अस्सी-नब्बे वाला दशक देख लिए। 🙏 वाह 👌

zafarAalam said...

बहुत खूब छट की बहुत बहुत मुबारक बाद

Rajeev said...

Bahut hi badhiya likhe hain aap. Har saal chhath ke samay mei main dalaan jaroorat visit karta hoo just to read this . Gaon mein chhatth ke din subah Se hum bachcha log ghat pe kaam par lag jaate the saaf safai mein. Aaj saalo baad phir Se ja rahe hain ghat saaf karne. Jagah badal gaya hai, gaon ke pokhra ka jagah America ke cary town ke boat house ne le liya hain but emotions wahi hain.