कॉलेज के लिये निकलते वक्त हर रोज देर हो जाती है ! आज भी हुआ ! नहा कर सीधे पूजा घर में चला जाता हूँ ! वहाँ गया तो देखा की - सब कुछ सजा हुआ है - 'दही - तील - तिलकुट , गुड़ , चिउरा' ! तुलसी चौरा से तुलसीदल को निकाल कर सभी पर् डाला ! पत्नी ने झट पट 'टपरवेयर' के लंच बॉक्स में चुरा दही सब्जी गुड़ तिलकुट डाला !
हर पर्व की तरह बचपन याद आ गया ! पहले 'गीजर' नहीं होता था - होता भी होगा तो हम जैसों के यहाँ नहीं था ! बडका 'तसला' में पानी चुल्हा पर् चढ जाता था ! गरम हुआ तो - बाल्टी में डाला , नहाया फिर बडका "फुलहा" कटोरा में दही चिउरा ! अनुपात इस प्रकार होता था - सबसे कम चिउरा , उससे ज्यादा दही और फिर सबसे ज्यादा चीनी :)) , छोटका कटोरी में 'आलू दम का सब्जी - गोभी और - मटर' या फिर 'मिर्च का अंचार' :))
गाँव में रहता था तो - 'ईनार' का पानी गर्म - वहीँ बडका पीढा पर् - बाबा के साथ नहाना ! फिर कांपते हुए अपने से बड़ी औकात वाली 'खादी के गमछा' को लपेट हाथों को सीने से लगा - कापते हुए आँगन में जाना ! फिर कुछ नया कपड़ा पहन - बाबा का इंतज़ार करना ! फिर बाबा के साथ - दही - चिउरा इत्यादी !!
हम तीन पट्टीदार होते थे ! सबके यहाँ से 'चावल - दाल - हल्दी और आलू' आ जाता था ! परबाबा जो तब तक अंधे हो चुके थे - उनसे सभी सामान को 'छुआया' जाता था - फिर घर का कोई मुंशी मैनेजर दरवाजे पर् चौकी लगा के बैठ जाता - दिन भर ..मालूम नहीं कहाँ कहाँ से लोग आते ...करीब दो तीन हज़ार ..सबको एक बड़ा गिलास चावल , एक मुठ्ठी दाल , दो हल्दी का टुकड़ा और एक चुटकी नमक और दो तीन आलू .....मै भी कभी कभी वहीँ कुर्सी लगा के बैठ जाता था ! अच्छा लगता था ! यह सिर्फ मेरे घर में नहीं था ....गाँव के हर बाबु लोग के दरवाजे पर् यही हाल होता था !
दिन भर लाई और लटाई का चक्कर होता ....:))
मेरे ससुराल के परिवार में एक बहुत अच्छी परंपरा थी - इस दिन वो सभी लोग अपने सभी दोस्त - सम्बन्धी को 'दही' भेज्वाते हैं....वहाँ दो तीन पहले से करीब सौ दो सौ किलो दही जमता है ...फिर वो सभी दही 'पटना' पहुंचा ....और सभी दोस्त महीम सगे सम्बन्धी के घर पहुंचाया जाता था ! दो तीन साल पहले तक - जब तक सास जिन्दा थीं यह परंपरा चलते रहा ! अब का नहीं पता ....कई लोग तो अपने घर 'दही' जम्वाते तक नहीं थे - की 'फलाना बाबु' के यहाँ से आएगा ही - एक बड़ा 'नदिया दही' :)) 1996 में मेरे ससुर जी आज के ही दिन एक नदिया दही - बेसन की मिठाई और अपनी बेटी का टीपण ( जन्म कुंडली ) मुझे दिए थे ....हर साल आज के दिन वो पल याद आता है ....
माँ के एक ही मामा जी थे - गया जिला के ! हर साल वो सिर्फ एक बार आते थे - मकर संक्रांती के दिन ! तिलकुट लेकर और बासमती चिउरा ! कुछ देर रुकते फिर चले जाते !
कल रात देखा - सोसाईटी में - पंजाबी लोग बहुत जोरदार ढंग से 'लोहडी' मना रहे थे .....
आप सभी को मकर संक्रांती की शुभकामनाएं .....
5 comments:
Gr8 Ranjanji. Enjoyed reading your Makarshankranti post. Keep going,all the very best. You have great ability to attract and bind the readers.
रंजनजी! आप भावविह्वल बहुत कर देते हैं अपने संस्मरणों से| इतना बर्दाश्त करना कभी कभी मुश्किल हो जाता है| ऐसा लगता है जैसे बचपन की पूरी फिल्म आँखों के सामने प्रोजेक्टर पर चल रही है| आपको भी मकर-संक्रांति की बहुत बहुत शुभकामनायें|
- नीरज सिन्हा
पंजाबी लोग पे बात आते आते रुक गयी रंजन जी ...समझ मी आ रहा है....:) वैसे हर बार के जैसा ये लेख भी पढ़ के बहुत मज़ा आया, बहुत सारी बाते याद आई...बाबा के साथ एनर पैर नाहन...इत्यादी इत्यादी...खाई...अगला पोस्ट कब लिखियेगा भाई?
इस मकर संक्रांति का अलग ही स्वाद बन गया आपकी यह पोस्ट पढ़ कर. आपको http://akaltara.blogspot.com/2010/10/blog-post_18.html पर आमंत्रित करना चाहता हूं.
आप भले ही नहीं आए हों अपने अपार्टमेंट में हुए लोहड़ी के मौके पर. लेकिन उसमें पंजाबी कम बाहर के लोग ज्यादा थे.अब पर्व किसी खास समाज या इलाके का होकर नहीं रह गया है.
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