बकरीद की शुभकामनाएं ...:))
अल्लाह को प्यारी है ..कुर्बानी !
कोई भी धर्म हमें यही कहता है ..हम ईश्वर से प्रेम करें ! और प्रेम ..बिना त्याग / समर्पण / कुर्बानी के सफल नहीं होता - चित्त चंचल है - कई तरह के विश्वासों और अविश्वासों के बीच चित्त अपनी चंचलता नहीं छोड़ता और चंचल चित्त से प्रेम कभी सफल नहीं होता - फिर कुर्बानी / त्याग / समर्पण हमें एक शांत चित्त की तरफ ले जाता है !
इंसान अपने आप में अतृप्त है ! वह भौतिक दुनिया का बेताज बादशाह है ! एक इंसान दुसरे इंसान को ही प्रेम करे और उससे ही प्रेम पाए - यही कामना उसके अन्दर होती है - पर यह आसान नहीं होता - गुलर के फूल की तरह या मृगमरीचिका ! इंसान इंसान से प्रेम करेगा ..उसकी चाहतें / अपेक्षायें बढेंगी ..फिर वो टूटेंगी - यह इंसान की प्रकृती है !
फिर ईश्वर आता है ...हमें जिस तरह से पाला पोषा गया है ...जो हमें सिखाया गया है ...वहां हम ईश्वर को सिर्फ प्रेम करते हैं ..उससे कोई अपेक्षा नहीं रख पाते ...सुख दुःख ..पाप पुण्य ..जो कुछ ईश्वर हमें देता है ...हम उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण कर लेते हैं ...शायद यही प्रेम है ! इंसान इंसान से कई शिकायतें रखता है ...ईश्वर से कभी कोई शिकायत नहीं रखता ..:)) जैसे एक माँ अपने बच्चे से ..कभी कोई शिकायत नहीं रखती ...वो बस प्रेम करती है ...!
पर क्या ...इंसान इस ईश्वरीय प्रेम से खुद को तृप्त कर पाता है ..? थोडा ..ध्यान से सोचियेगा ...
इंसान को इंसान से ही प्रेम चाहिए ...और जिद यही की ..उस प्रेम में उसे ईश्वरीय आनंद की अनुभूती हो ...:)) मृगमरीचिका ..:))
पल भर के लिए ...यह आनंद मिल सकता है ..बशर्ते ...वह प्रेम एक त्याग / समर्पण / कुर्बानी के आधार पर खडा हो ...और उस त्याग / समर्पण / कुर्बानी की महता हो ...!
जैसे हम ईश्वर के सामने बिलकुल अपनी नंगी आत्मा लेकर खड़े होते हैं ...ठीक उसी प्रकार ..एक इंसान दुसरे इंसान के सामने ..अपने अहंकार की कुर्बानी देना चाहता है ...और जब वो अपने अहंकार की कुर्बानी देकर ..आपके सामने खड़ा हो ...ईद मिलन की तरह ..एक बार प्रेम से गला मिल के देखिये ...उसकी 'कुर्बानी' सफल हो जायेगी ..:))
फिर से एक बार ...बकरीद की शुभकामनाएं ..:))
अल्लाह को प्यारी है ..कुर्बानी !
कोई भी धर्म हमें यही कहता है ..हम ईश्वर से प्रेम करें ! और प्रेम ..बिना त्याग / समर्पण / कुर्बानी के सफल नहीं होता - चित्त चंचल है - कई तरह के विश्वासों और अविश्वासों के बीच चित्त अपनी चंचलता नहीं छोड़ता और चंचल चित्त से प्रेम कभी सफल नहीं होता - फिर कुर्बानी / त्याग / समर्पण हमें एक शांत चित्त की तरफ ले जाता है !
इंसान अपने आप में अतृप्त है ! वह भौतिक दुनिया का बेताज बादशाह है ! एक इंसान दुसरे इंसान को ही प्रेम करे और उससे ही प्रेम पाए - यही कामना उसके अन्दर होती है - पर यह आसान नहीं होता - गुलर के फूल की तरह या मृगमरीचिका ! इंसान इंसान से प्रेम करेगा ..उसकी चाहतें / अपेक्षायें बढेंगी ..फिर वो टूटेंगी - यह इंसान की प्रकृती है !
फिर ईश्वर आता है ...हमें जिस तरह से पाला पोषा गया है ...जो हमें सिखाया गया है ...वहां हम ईश्वर को सिर्फ प्रेम करते हैं ..उससे कोई अपेक्षा नहीं रख पाते ...सुख दुःख ..पाप पुण्य ..जो कुछ ईश्वर हमें देता है ...हम उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण कर लेते हैं ...शायद यही प्रेम है ! इंसान इंसान से कई शिकायतें रखता है ...ईश्वर से कभी कोई शिकायत नहीं रखता ..:)) जैसे एक माँ अपने बच्चे से ..कभी कोई शिकायत नहीं रखती ...वो बस प्रेम करती है ...!
पर क्या ...इंसान इस ईश्वरीय प्रेम से खुद को तृप्त कर पाता है ..? थोडा ..ध्यान से सोचियेगा ...
इंसान को इंसान से ही प्रेम चाहिए ...और जिद यही की ..उस प्रेम में उसे ईश्वरीय आनंद की अनुभूती हो ...:)) मृगमरीचिका ..:))
पल भर के लिए ...यह आनंद मिल सकता है ..बशर्ते ...वह प्रेम एक त्याग / समर्पण / कुर्बानी के आधार पर खडा हो ...और उस त्याग / समर्पण / कुर्बानी की महता हो ...!
जैसे हम ईश्वर के सामने बिलकुल अपनी नंगी आत्मा लेकर खड़े होते हैं ...ठीक उसी प्रकार ..एक इंसान दुसरे इंसान के सामने ..अपने अहंकार की कुर्बानी देना चाहता है ...और जब वो अपने अहंकार की कुर्बानी देकर ..आपके सामने खड़ा हो ...ईद मिलन की तरह ..एक बार प्रेम से गला मिल के देखिये ...उसकी 'कुर्बानी' सफल हो जायेगी ..:))
फिर से एक बार ...बकरीद की शुभकामनाएं ..:))
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