Tuesday, October 14, 2014

पवित्र भावना ....


घर में भोज भात होता आया है - भोज में घी भी परोसा जाता है - जिसे कई जगह / इलाके में "पवित्र" कहा जाता है ! आपने एक ध्यान दिया होगा - घी को बहुत ही बढ़िया या सबसे बढ़िया पात्र में रखा जाता है - याद कीजिए ...कोई फुलहा / कांसा का सबसे साफ़ कटोरा इत्यादी में ! 
जीवन भी उसी तरह है - किसी भी पवित्र भावना को ग्रहण करने के लिए हमें खुद को पवित्र बनाना होता है - आप अपवित्रता के साथ पवित्र भावना की तमन्ना नहीं रख सकते - खुद को पवित्र करना - यह प्रक्रिया आसान नहीं होती - थोड़ी ही नहीं बहुत मुश्किल है क्योंकी इंसान के साथ उसका सबसे चंचल "मन" भी जुड़ा होता है और मन जितना चंचल उतना ही अपवित्र - फिर वो पवित्र भावना को अपने अन्दर समाहित नहीं कर सकता ! एकांत में कोई भी योगी बन सकता है - बीच बाज़ार में योगी बन के दिखाओ तो जाने ....:)) और पूजा किसी भी व्यक्तित्व की होती है - उसके रूप / पद की नहीं ....:))


@RR - 14 October - 2014 

2 comments:

Badkimaai said...

क्या बात है ! दिल जीत लिया आपने ...

Badkimaai said...

क्या बात है ! दिल जीत लिया आपने