वो झूठ भी बोले तो मारे जाए ....फ़रिश्ते जो ठहरे ...इंसान सी फिदरत कहाँ ...जब चाहो झूठ ..जब चाहो सच ...और ये शहर कब किसका हुआ है ...ना सच्चों का ..ना ही झूठों का ...जिसे जब मन हुआ ..जो चाहां ..बोल निकला ...रुकता तो सवाल उठते ...उसके सच को लोग झूठ बताते ...मैंने फ़रिश्ते को रोक लिया है ...उसे झूठ - सच के कारोबार से यह कह बचा लिया ....कभी मै भी तुम्हारी तरह एक फ़रिश्ता था ....जब तक फ़रिश्ता रहा ..इंसानों ने जीने नहीं दिया ...अब इंसान बन गया हूँ तो मुझमे फ़रिश्ता तलाशते हैं ...अजीब हैं ये शहर वाले ....
~ RR - ८ जून २०१३
~ RR - ८ जून २०१३
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