ग्रेजुएशन में जाने के पहले तक एक अकेलापन रहा - इस अकेलेपन पर अक्सर गहरी दोस्ती वैसे दोस्तों से हो जाती थी - जो दो भाई होते थे - एक दो साल बड़े छोटे - जब उन दोनों भाईओं को आपस में लड़ते झगड़ते... एक दुसरे के लिए दूसरों से लड़ते ...आपस का प्रेम देख ...मै भी उन दोनों भाईओं के बीच घुसने की संभावना तलाशता था - अगर मै तीसरा कोण बनाने में सफल हो गया तो फिर वो दोनों भाई ..मेरे भी भाई जैसे हो जाते ...पर वो सचमुच में मेरे भाई नहीं होते थे ...पर अपने घर में ...मै उनके हक के लिए लड़ता ...माँ से कहता ...जैसा प्रेम मेरे लिए ...वैसा ही प्रेम मेरे दोस्त / भाई के लिए ...गाँव से लेकर पटना तक ..ऐसा कई बार हुआ...माँ के नहीं रहने के बाद वैसे ही एक दोस्त ने कहा ...वो मेरी भी माँ थीं और अपने व्यस्त कार्यक्रम में दो दिन मेरे परिवार के साथ बिताया ...अच्छा ही नहीं लगा ...जैसे जिस भाव से मैंने उससे दोस्ती की थी ...उस भाव को उसने जिंदा रखा ...वर्षों बाद भी..... पर सच तो यही है ...वो भाई नहीं था ...एक बेहतरीन दोस्त ..बस !
हर बार यही लगता ...कोई ऐसा होता जो मुश्किल क्षणों में ...हर वक़्त अपने एहसास के साथ मेरे पीठ पर खडा होता ...माँ पापा के सपने ...हमदोनो भाई मिल जुल कर पूरा करते ...कुछ मै करता ....कुछ वो करता ! घर परिवार से लेकर आस पड़ोस में जब दो भाईओं को लड़ते देखता हूँ ...सच में दुखी हो जाता हूँ ...एक मै हूँ जो हर रिश्ते में भाई तलाशता रहा ...एक ये हैं ..!
मालूम नहीं आदमी कितने अजीब अजीब से दर्द लेकर जिंदा रहता है ...
@RR - 20 Feb 2013
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