दिनकर लिखते हैं -
वैशाली जन का प्रतिपालक, विश्व का आदि विधाता,
जिसे ढूंढता विश्व आज, उस प्रजातंत्र की माता॥
रुको एक क्षण पथिक, इस मिट्टी पर शीश नवाओ,
राज सिद्धियों की समाधि पर फूल चढ़ाते जाओ||
जिस विश्व को हमने गणतंत्र सिखाया - वही खुद गुलाम हो गया ! नब्बे साल की लड़ाई - फिर एक आज़ादी - फिर एक अपना संविधान - आसान नहीं था सबकुछ ! आज अखबारों में बहुत सारे महापुरुष के द्वारा बोली / लिखी बातें छापी गयीं है - मौका मिले तो पढ़नी चाहिए ! कई दुसरे देश के महापुरुष हमारे बारे में क्या सोचते थे - उनकी बातें भी छपी हैं ! यह देश अमरीका नहीं है - यह देश यूरोप नहीं है - इसके अन्दर हजारों साल की सभ्यता है - इसके अन्दर लाखों प्रजातियाँ है - इसके हजारों बोली है - फिर भी - यह देश 'एक' है ! और तमाम दिक्कतों के वावजूद - यह देश दौड़ रहा है - यह तबी हो सकता है - जब देश की बेसिक वैल्यू जिन्दा हों - सबकुछ लूट जाता है - बर्बाद हो जाता है - फिर भी कुछ ऐसी चीज़ें है - जो हमें जिंदा रखती है - वही इस देश के साथ भी है !
और यह तभी संभव है - जब अन्दर त्याग की भावना जिंदा हो - तभी तो माखन लाल चतुर्वेदी लिखते हैं -
चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक
'गणतंत्र' की परिभाषा नहीं कर सकता - यह मेरे वश में नहीं है - पर एक सकरात्मक सोच रखते हुए - यह जरुर कह सकता हूँ - महसूस करता हूँ - आज हमारा राष्ट्र कहीं किसी से पीछे नहीं है - और अगर कहीं कुछ दिक्कत है तो - मुझसे क्या कमी रह गयी ? मेरी त्याग भावना कहाँ दब गयी ? इस आज़ादी की होली को जिन्होंने अपने खून से रंग कर हमें दी - कहीं हमने उन रंगों को पहचानने में कोई कमी नहीं की ?
यह देश सबका है - और यह देश भी सबसे कुछ न कुछ आशा रखता है ...!!!
जय हिन्द .....!!!
@RR - २६ जनवरी - २०१४
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