दिक्कत कहाँ है ? समाज कमज़ोर हुआ है ! 'लोग क्या कहेंगे ? का लिहाज़ खत्म हुआ है ! आजादी को हम कुछ ज्यादा ही जीने लगे हैं ! और जब आँखों की शर्म जाती है फिर सब कुछ नोरमल नज़र आता है ! मनुष्य पहले प्रकृति से खिलवाड़ किया फिर वो समाज के नियम तोडने लगा ..विजेता बनने की चाहत में सब कुछ भुलाने लगा !
जरूरतें बेहिसाब बढ़ीं हैं कोई त्याग करने के मूड में नहीं है ! त्याग के सुख को सबसे निचला स्तर मिला हुआ है ..समाज अपना कानून फिर से लिख रहा है ..इस् उठा पटक में 'मूल्य' घसीटे जा रहे हैं ..! हम किसी के भी प्रती जिम्मेदार नहीं होना चाहते हैं ! जब से व्यक्ति समाज से बड़ा हो गया वो समाज के नियम को खुद से परिभाषित करने लगा और जब सबसे शक्तिशाली व्यक्ती ही ऐसा सोच और कर रहा हो ..फिर बाकी तो उसको फौलो करेंगे ही !
जड़ें हिल रही है ..या हिल चुकी है ..शायद बदलाव ही प्रकृति है .. !
No comments:
Post a Comment