अब जब दिल्ली आना होता है ...यहाँ उतरते ही भावुकता बढ़ जाती है ...दो चार दिन रहती है ...काल्पनिक और भावुक इंसान हूँ ...पुरे जीवन की कल्पना कर रखी थी ...पर दिल्ली छोड़ना ...ये मेरी कल्पना में नहीं थी ...सो मेरे लिए मुश्किल होता है ...प्रोफेसरगिरी छोड़ने का कोई गम नहीं है ...पर मुहब्बत इस जगह से हो गयी थी ...
आज घर खरीदने का वाक्या याद आया ...लगभग दस साल पहले ...पिता जी से कुछ पैसे उधार लेकर यहाँ आया ...उसके एक साल पीछे से नॉएडा में घर तलाशने के चक्कर में ..बहुतपरेशान था ...सो जो पसंद आया ..ले लिया ...खूब बड़ा घर ...पर्सनल लाईब्रेरी वाला ...जितना अवकात ...सजाया ...:))
अब जब यहाँ आता हूँ...ये पूरा खाली घर हमको ताकता है ...ये टीवी / फ्रीज़ / ये बिस्तर ...जैसा छोड़ के जाता हूँ ...ठीक वैसे ही हाल में ...सप्ताहों इंतज़ार करते हैं ...बच्चों के कमरे में उनके खिलौने ...साईकील ...:))
कई लोग बोले ...किराया लगा दो ...कितना मुश्किल है ...जहाँ आपकी 'केफी / रूह' बसती है ...उसे किसी और को सौंप देना ...
बाप - दादा के घर से भी लगाव है ...पर ये घर तो मेरा अपना घर है ...इधर उधर से कुछ पैसे कमाए थे ...सबसे पहले इसका लोन चुकता किया था ..कहने को कुछ तो रहेगा ..मेरे अपना ...
...बालकोनी में अब कबूतर बसने लगे हैं ...कहते हैं....कबूतर शांती के प्रतीक होते हैं ...पर ऐसी शांती कब मैंने कल्पना की थी ...इसके बालकोनी में बैठ ..न जाने कितनी रचनाएं मैंने लिखी हैं ...
इंसान ..क्या पकडे ....क्या छोड़े ...कितना दम लगाए ...कुछ तो छूटेगा ....कुछ हाथ में रह जायेगा ...पर इस दीवारों को कौन समझाए ...मै एक इंसान हूँ ....
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