ए कुम्हार ...तुम क्या गढ़ते हो ...वो मिट्टी कहाँ से लाते हो ...कैसे उसमे प्राण फूंकते हो ...
ए कुम्हार ...तुम क्या रचते हो ...वो नज़र कहाँ से लाते हो ...कैसे हुबहू बना देते हो ....
मै भी तो मिट्टी का एक लोदा ...कब मुझे साना ...कब मुझे अपनी उंगलीओं से आकार दिया ...कब मुझमे एक प्राण फूंका ....
मूरत भी हंसने लगे ...मूरत भी खिलखिलाने लगे ...मूरत भी कुछ बोलने लगे ...
ए कुम्हार ...ये कला कहाँ से लाते हो ...कुछ मुझे भी सिखाओ ...कुछ मुझे भी बताओ ...
~ रंजन ऋतुराज
@RR - 29 July 2014
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