तमाम उम्र हम रिश्ते ही बनाते रहते हैं - तरह तरह के रिश्ते - कुछ जन्म के साथ मिले रिश्ते - कुछ हम खुद बनाते हैं - पर हर एक रिश्ता ..एक 'ख़ास हक' के साथ होता है - अब यह 'हक' परस्पर होता है ! जैसे ...एक पिता अपने पुत्र को डांटता है ...पुत्र अपनी गर्दन निचे कर के सुनता है ...उस पिता को डांटने का हक ...उस पुत्र से मिला होता है ...फिर वही पिता अपने पुत्र को अपनी कमाई / धन संपती में उसे अधिकार / हक देता है ...
यह हक की कहानी सिर्फ जन्म के रिश्ते से नहीं मिलता - कई रिश्ते और हक हा खुद पैदा करते हैं - मसलन ..दोस्त ...दोस्त नाम पर हमारे पास कई दोस्त होते हैं ...पर एक दोस्त को वही हक नहीं होता जो कुछ ख़ास या किसी एक दोस्त हो होता है...ऐसे हक कोई छीनता या जोर जबरदस्ती से नहीं लेता ...हम आपस में ही हक का आदान प्रदान करते हैं ...और यह परस्पर होता है ...
दिक्कत कभी भी हक को लेकर नहीं होती ...दिक्कत तब होती है ...जब हम दिए हुए हक को वापस लेते हैं ...पीड़ा तब होती है ...पिता अपनी कमाई किसी और को देने लगे ...पुत्र पीड़ा में जाएगा ...जिस दोस्त से कुछ नहीं छुपा ..वो आपसे कुछ छुपाने लगे ... तब दुसरे को लगता है ...शायद वो अपने हक वापस ले रहा है ...जो पक्ष अपने हक वापस लेता है ..उसकी अपनी दलीलें होती हैं ...जिसे हम मन का बदलना कहते हैं ...आप कितने भी परिपक्व हों ...पीड़ा तो होगी ही ....
एक उदहारण देता हूँ ....ट्रेन में सामने वाली बर्थ पर एक मासूम बच्चा बैठा हुआ है ...आप अपने लिए बिस्कुट निकालते हैं ...और उस अनजान बच्चे को भी बिस्कुट देते हैं ...वो अबोध तुरंत आपकी गोद में आ जाता है ...अब आपने अनजाने में या जान बुझ कर उस बच्चे को एक हक़ दे दिए ...अब अगली बार जब आप बिस्कुट निकालेंगे ...वो आपकी तरफ आशा भरी नज़र से देखेगा ...अब दूसरी बार जब आप उसे बिस्कुट नहीं देंगे ...वो दुखी होगा ...अपने मूल स्वभाव के अनुसार वो अपनी प्रतिक्रिया देगा ...या तो वो आपसे बिस्कुट छीनेगा या फिर अपना सर दूसरी तरफ कर थोडा आंसू भर लेगा ...गलती उस बच्चे की नहीं होती है ...गलती आपकी है ...पहली दफा ही उसे बिस्कुट नहीं देते ...वो आपसे आशा नहीं करता ....वो ट्रेन की खिड़की की तरफ देख ही अपनी यात्रा गुजार देता ...ललचाई नज़र से देखता पर आशा नहीं करता ...
ऐसा हर एक रिश्ते में होता है ...हक देना और हक वापस लेना ...हक देते वक़्त हमारा दिल काम करता है ...हक वापस लेते वक़्त हमारा दिमाग ...:))
क्रमशः ....
( कमेन्ट के पहले ...थोडा ढंग से पढेंगे ...मैंने जीवन में बने हर एक रिश्ते की बात कही है ...जन्म से बने रिश्ते से लेकर ...बस स्टॉप पर खड़े खड़े दो मिनट वाले रिश्ते भी )
@RR - ९ अप्रील - २०१४
....कोई भी रिश्ता बगैर त्याग मजबूत नहीं होता ...हर एक रिश्ते को दोनों तरफ का समर्पण चाहिए होता है ...समर्पण / त्याग आसान नहीं होता ...एक भय के कारण कई बार हम त्याग / समर्पण से डरते हैं ...हमें डर होता है ...मेरा समर्पण / त्याग को अगर इज्ज़त नहीं मिली ..तो ? ऐसे सवाल हमारे कदम पीछे खिंच लेते हैं ....
रिश्ते और हक को लेकर - एक बड़ा ही जटिल रिश्ता होता - जो हर घर में सास - बहु को लेकर होता है - आखिरकार इस रिश्ते में होता क्या है - मै अपनी नज़र से देखने का प्रयास करता हूँ -
एक लड़की जब शादी मंडप में बैठी होती है - वो एक एक कर के - सब कुछ त्याग करती है - अपने पिता के आँगन से लेकर सब कुछ - और अपने जीवन को एक नए घर और आदमी के लिए समर्पित करती है - मै महिला नहीं हूँ - फिर भी उस क्षण की कल्पना कर सकता हूँ - आसान नहीं है ....जब वो नए घर में प्रवेश करती है - उसको जो मान सम्मान मिलता है - वो फर्स्ट इम्प्रेशन होता है - जिसे वो अपने मन मंदिर में क़ैद कर लेती है - उसे लगता होगा - जो त्याग और समर्पण उसने किया है - उसके बदले में उसे बेशुमार हक मिला ....फिर क्या होता है .... कुछ दिन बाद ...एक एक कर के उसके हकों में कटौती शुरू हो जाती है ...वो भाग के ..अपने उस पति के पास जाती है ...जिसके लिए उसने सबकुछ त्याग किया है ...फिर ...?? इस तरह के कई मामलों में ...मै बिना सोचे समझे - अपने घर से लेकर बाहर तक - हमेशा आँख मूँद कर - नयी वधु के पक्ष में ही फैसला सुनाया है - कारण सिपल है - वो सब कुछ त्याग कर आपके पास आयी है - उसका नया जन्म है - अब उसे कैसे रहना है - यह दिशा आप देंगे ...
हक / अधिकार का एक नियम है - हक / अधिकार तब तक वापस नहीं लिए जाने चाहिए ...जब तक की उसका दुरुपयोग नहीं हो ...आप सिर्फ आशंका के मद्देनज़र हक / अधिकार वापस नहीं ले सकते ...
~ १० अप्रील - २०१४....इस विषय पर बहुत कुछ लिखने का मन करता है ...विषय ही कुछ ऐसा है ...इसमे कोई शक नहीं रिश्ते 'त्याग' की बुनियाद पर खड़े होते हैं ...अब यह त्याग छोटा हो या बड़ा ...यह आपके उस प्रेम पर निर्भर करता है ...हाँ ...बगैर 'अहंकार' इंसान का अस्तित्व ही नहीं है ...और अहंकार के साथ प्रेम आ ही नहीं सकता ...बड़ी उलझन है ...अहंकार को रखूं या प्रेम को पाऊँ ...:))
कुछ बेसिक फोर्मुला भी होता है ...जैसे ...हम किसी को तौलें नहीं ...जब हम खुद को तौलवाना पसंद नहीं करते ...फिर हम किसी दुसरे को तौलने का हक कैसे पा लेते हैं ?? किसी भी रिश्ते का सबसे गंदा पहलू होता है - सामने वाले को तौलना ...प्रेम तो उस घड़ी ही छिन्न भिन्न हो गया - जिस घड़ी आपने सामने वाले को अपने तराजू पर चढ़ा दिया ...और लगे तराजू की डंडी को देखने ...इस रिश्ते को कितना किलो 'प्रेम' या आदर चाहिए ...हा हा हा हा ...कोई जरुरत नहीं है ...तराजू की ...उस रिश्ते को हाथों में रख के देखिये ....उसकी गर्माहट ...आपको इस धरती से भी ज्यादा वजनदार लगेगा ....
हाँ ....जो भावना खुद के लिए नहीं पसंद ...वहीँ भावना आप सामने वाले को नहीं परोसिये ...उससे बेहतर है ...आप उस रिश्ते को "प्रणाम' कह आगे निकल जाईये ...शायद रिश्ता ख़त्म होने के बाद भी ...एक आदर / इज्ज़त बचा रह जाय ...और जहाँ मन में इज्ज़त और आदर है ...वो रिश्ता कभी ख़त्म नहीं होता ...हा हा हा हा ...बड़ी उलझन है ....:))
~ 11 April -2014
कई बार लगता है - हमें रिश्तों में नकाब की जरुरत क्यों पड़ती है ? क्या बगैर नकाब सामने वाला स्वीकार कर लेगा ? क्या यही भय हमें नकाब पहनने पर मजबूर करती है या हमारी आदत हो जाती है - नकाब पहनने की - या फिर वही हमारा मूल स्वभाव होता है ?
जहाँ तक मेरी समझ बताती है - जिस रिश्ते को लम्बे समय तक निभाना हो - वहां आप नेचुरल रहिये - एकदम प्राकृतिक - "शुद्ध और सच" - थोड़ी नहीं बड़ी कठनाई आयेगी - दम घुटेगा - पर अगर सामने वाला आपको सच में समझ गया - फिर वो तो आपसे सम्बन्ध नहीं तोड़ेगा - भले आप उब जाएँ ....माँ - बाप के सामने हम कितने नेचुरल होते हैं - वो भला कब हमसे सबंध तोड़ते हैं ...वो प्रथम लोग होते हैं - जो हमारी सारी पोजिटिव और नेगेटिव के साथ हमें स्वीकार करते हैं और हम ताउम्र उनके सामने नेचुरल रहते हैं - उनको दिक्कत तब होगी - जब हम भी उनके साने नकाब लगा कर व्यवहार करें या एक्टिंग करें ! पर वही लड़का - जब ससुराल जाता है - वही माता पिता उसको नकाब लगा देते हैं - बउआ / बाबु - मुह पर रुमाल रख कर हंसना ..हा हा हा हा ...सास - ससुर के सामने तौल के बोलना - यहाँ सचमुच में एक्टिंग की जरुरत होती है ....यहाँ हमें पल भर - एक दो दिन के लिए रुकना होता है ...पर घर तो घर है ....वहां कैसे आप नकाब लगा के रह सकते हैं ...खुद का दम घुटेगा ..!
अब सोचिये ...उस लड़की का ...जिसे आजीवन अपने ससुराल में रहना है ...एक वर्ष / दो वर्ष वो नकाब लगा कर व्यवहार करेगी ...फिर वो नेचुरल होगी ...घर की बहु से घर की बेटी बनना चाहेगी ...यही ट्रांस्फोर्मेशन पीरियड उसके ससुराल वाले को परेशान करता है ...और फिर क्या क्या होता है ...हर घर की कहानी है ...
पर मै जो कह रहा था - जहाँ अनन्त तक रिश्ता निभाना है - वहां शुरू से नेचुरल रहिये - शुद्ध और सच - बदलिए मत - सामने वाले को दिक्कत होगी - कोशिश कीजिए - सामने वाला भी शुद्ध और सच रहे - जो भी उसके पास बोलने और दिखाने को है - उसको सही दिल से स्वीकार कीजिए ....
याद रखिये ...राजा / महाराजा की तस्वीर - भारी भरकम वस्त्रों में ही शोभा देती है ...पर उन वस्त्रों के साथ वो सो नहीं सकता ....वनवास के राम की किस तस्वीर को हमने भारी भरकम वस्त्रों में कल्पना की है ?? .
नहीं ..न ...:))
~ 15 April - 2014
....कोई भी रिश्ता बगैर त्याग मजबूत नहीं होता ...हर एक रिश्ते को दोनों तरफ का समर्पण चाहिए होता है ...समर्पण / त्याग आसान नहीं होता ...एक भय के कारण कई बार हम त्याग / समर्पण से डरते हैं ...हमें डर होता है ...मेरा समर्पण / त्याग को अगर इज्ज़त नहीं मिली ..तो ? ऐसे सवाल हमारे कदम पीछे खिंच लेते हैं ....
रिश्ते और हक को लेकर - एक बड़ा ही जटिल रिश्ता होता - जो हर घर में सास - बहु को लेकर होता है - आखिरकार इस रिश्ते में होता क्या है - मै अपनी नज़र से देखने का प्रयास करता हूँ -
एक लड़की जब शादी मंडप में बैठी होती है - वो एक एक कर के - सब कुछ त्याग करती है - अपने पिता के आँगन से लेकर सब कुछ - और अपने जीवन को एक नए घर और आदमी के लिए समर्पित करती है - मै महिला नहीं हूँ - फिर भी उस क्षण की कल्पना कर सकता हूँ - आसान नहीं है ....जब वो नए घर में प्रवेश करती है - उसको जो मान सम्मान मिलता है - वो फर्स्ट इम्प्रेशन होता है - जिसे वो अपने मन मंदिर में क़ैद कर लेती है - उसे लगता होगा - जो त्याग और समर्पण उसने किया है - उसके बदले में उसे बेशुमार हक मिला ....फिर क्या होता है .... कुछ दिन बाद ...एक एक कर के उसके हकों में कटौती शुरू हो जाती है ...वो भाग के ..अपने उस पति के पास जाती है ...जिसके लिए उसने सबकुछ त्याग किया है ...फिर ...?? इस तरह के कई मामलों में ...मै बिना सोचे समझे - अपने घर से लेकर बाहर तक - हमेशा आँख मूँद कर - नयी वधु के पक्ष में ही फैसला सुनाया है - कारण सिपल है - वो सब कुछ त्याग कर आपके पास आयी है - उसका नया जन्म है - अब उसे कैसे रहना है - यह दिशा आप देंगे ...
हक / अधिकार का एक नियम है - हक / अधिकार तब तक वापस नहीं लिए जाने चाहिए ...जब तक की उसका दुरुपयोग नहीं हो ...आप सिर्फ आशंका के मद्देनज़र हक / अधिकार वापस नहीं ले सकते ...
~ १० अप्रील - २०१४....इस विषय पर बहुत कुछ लिखने का मन करता है ...विषय ही कुछ ऐसा है ...इसमे कोई शक नहीं रिश्ते 'त्याग' की बुनियाद पर खड़े होते हैं ...अब यह त्याग छोटा हो या बड़ा ...यह आपके उस प्रेम पर निर्भर करता है ...हाँ ...बगैर 'अहंकार' इंसान का अस्तित्व ही नहीं है ...और अहंकार के साथ प्रेम आ ही नहीं सकता ...बड़ी उलझन है ...अहंकार को रखूं या प्रेम को पाऊँ ...:))
कुछ बेसिक फोर्मुला भी होता है ...जैसे ...हम किसी को तौलें नहीं ...जब हम खुद को तौलवाना पसंद नहीं करते ...फिर हम किसी दुसरे को तौलने का हक कैसे पा लेते हैं ?? किसी भी रिश्ते का सबसे गंदा पहलू होता है - सामने वाले को तौलना ...प्रेम तो उस घड़ी ही छिन्न भिन्न हो गया - जिस घड़ी आपने सामने वाले को अपने तराजू पर चढ़ा दिया ...और लगे तराजू की डंडी को देखने ...इस रिश्ते को कितना किलो 'प्रेम' या आदर चाहिए ...हा हा हा हा ...कोई जरुरत नहीं है ...तराजू की ...उस रिश्ते को हाथों में रख के देखिये ....उसकी गर्माहट ...आपको इस धरती से भी ज्यादा वजनदार लगेगा ....
हाँ ....जो भावना खुद के लिए नहीं पसंद ...वहीँ भावना आप सामने वाले को नहीं परोसिये ...उससे बेहतर है ...आप उस रिश्ते को "प्रणाम' कह आगे निकल जाईये ...शायद रिश्ता ख़त्म होने के बाद भी ...एक आदर / इज्ज़त बचा रह जाय ...और जहाँ मन में इज्ज़त और आदर है ...वो रिश्ता कभी ख़त्म नहीं होता ...हा हा हा हा ...बड़ी उलझन है ....:))
~ 11 April -2014
कई बार लगता है - हमें रिश्तों में नकाब की जरुरत क्यों पड़ती है ? क्या बगैर नकाब सामने वाला स्वीकार कर लेगा ? क्या यही भय हमें नकाब पहनने पर मजबूर करती है या हमारी आदत हो जाती है - नकाब पहनने की - या फिर वही हमारा मूल स्वभाव होता है ?
जहाँ तक मेरी समझ बताती है - जिस रिश्ते को लम्बे समय तक निभाना हो - वहां आप नेचुरल रहिये - एकदम प्राकृतिक - "शुद्ध और सच" - थोड़ी नहीं बड़ी कठनाई आयेगी - दम घुटेगा - पर अगर सामने वाला आपको सच में समझ गया - फिर वो तो आपसे सम्बन्ध नहीं तोड़ेगा - भले आप उब जाएँ ....माँ - बाप के सामने हम कितने नेचुरल होते हैं - वो भला कब हमसे सबंध तोड़ते हैं ...वो प्रथम लोग होते हैं - जो हमारी सारी पोजिटिव और नेगेटिव के साथ हमें स्वीकार करते हैं और हम ताउम्र उनके सामने नेचुरल रहते हैं - उनको दिक्कत तब होगी - जब हम भी उनके साने नकाब लगा कर व्यवहार करें या एक्टिंग करें ! पर वही लड़का - जब ससुराल जाता है - वही माता पिता उसको नकाब लगा देते हैं - बउआ / बाबु - मुह पर रुमाल रख कर हंसना ..हा हा हा हा ...सास - ससुर के सामने तौल के बोलना - यहाँ सचमुच में एक्टिंग की जरुरत होती है ....यहाँ हमें पल भर - एक दो दिन के लिए रुकना होता है ...पर घर तो घर है ....वहां कैसे आप नकाब लगा के रह सकते हैं ...खुद का दम घुटेगा ..!
अब सोचिये ...उस लड़की का ...जिसे आजीवन अपने ससुराल में रहना है ...एक वर्ष / दो वर्ष वो नकाब लगा कर व्यवहार करेगी ...फिर वो नेचुरल होगी ...घर की बहु से घर की बेटी बनना चाहेगी ...यही ट्रांस्फोर्मेशन पीरियड उसके ससुराल वाले को परेशान करता है ...और फिर क्या क्या होता है ...हर घर की कहानी है ...
पर मै जो कह रहा था - जहाँ अनन्त तक रिश्ता निभाना है - वहां शुरू से नेचुरल रहिये - शुद्ध और सच - बदलिए मत - सामने वाले को दिक्कत होगी - कोशिश कीजिए - सामने वाला भी शुद्ध और सच रहे - जो भी उसके पास बोलने और दिखाने को है - उसको सही दिल से स्वीकार कीजिए ....
याद रखिये ...राजा / महाराजा की तस्वीर - भारी भरकम वस्त्रों में ही शोभा देती है ...पर उन वस्त्रों के साथ वो सो नहीं सकता ....वनवास के राम की किस तस्वीर को हमने भारी भरकम वस्त्रों में कल्पना की है ?? .
नहीं ..न ...:))
~ 15 April - 2014
No comments:
Post a Comment