दो चार दिन पहले यूरोप की एक लेखिका की डायरी यूँ ही पढ़ने लगा - जो अब नहीं हैं - कुछ ज्यादा नहीं - पर एक बात उन्होंने जो लिखी थीं - कहती हैं - "जब तक भावनाओं का तूफ़ान नहीं पैदा होगा - वो बेचैन नहीं होंगी किनारों से मिलने के लिए - फिर एक लेखक उन लहरों पर बैठ कर जब लिखता है - वही सही लेखन है " - शायद कुछ ऐसा ही कुछ उन्होंने लिखा था !
एक सुबह से देर रात ..आप कई तरह की भावनाओं से गुजरते हैं ...कब क्या आये ..कहना मुश्किल है ...लेखन एक कैमरा की तरह होता है ...अब आप उस भावनाओं को किस तरह शब्दों में कैद कर लेते हैं ...यह कलाकारी आप पर निर्भर करती है ...पर यह जरुरी नहीं की ..जो सुबह की भावना थी ...वही शाम की भी होगी ...एक इंसान सुबह में कुरते पायजामे में होता है - वही इंसान देर शाम एक डिस्कोथेक में थिरकता है - अब कब की तस्वीर ..आपने अपने शब्दों में क़ैद की ..वही तस्वीर दुनिया देखती है ...या कौन सी तस्वीर आप दिखाना चाहते हैं ..:))
पर सबसे खतरनाक होती है - एक छवी का निर्माण - लेखक और पाठक दोनों इसके लिए दोषी होते हैं - दबाब दोनों तरफ से होता है - जो पक्ष कमज़ोर हुआ ...हार उसकी होती है - पर मजबूत कलम को रोकना मुश्किल होता है - वो एक नदी की तरह अपनी दिशा खुद तय करती है ...पर एक लेखक को पूर्ण छूट मिलनी चाहिए ...एक हलके बंधन के साथ ...सुरक्षा के लिए बने बंधन ...गले का फांस नहीं बनना चाहिए ...है..न ..:))
@RR - 28 February - 2014
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