गाँव में दोपहर के समय या शाम को 'जोगी' आते थे - भीख माँगते हुए - सारंगी बजाते हुए - बिरहा के गीत गाते हुए - गेरुआ कुरता , गेरुआ मुरेठा और बढ़ी हुई दाढ़ी - उम्र तीस से कम ! उनके गीत को सुन डर जाता था - दरवाजे ( दुआर ) से भाग आँगन में दादी की आंचल में छुप जाता था - फिर जंगला ( खिडकी ) से उनको चुपके चुपके देखना ! जब वो चले जाते - हम चचेरे भाई - बहन उनके बारे में चर्चा करते - कहते थे - ये 'जोगी' बारह साल की उम्र में घर छोड़ - अगले बारह साल सारंगी बजाते हुए - भीख माँगते हुए काटते थे - देस बिदेस घुमते हुए - अंतिम साल वो अपनी माँ से भीख माँगने पहुंचते थे - कहते हैं - जब 'माँ' बिना पहचाने उस 'जोगी' पुत्र को भीख दे दे ..जोगी की जोग सफल मानी जाती थी !
कई बार 'माँ' पहचान जाती थी फिर .....कितना दर्द है ...!
जीवन के कई रंग हैं ....मालूम नहीं यह कैसा रंग है ....ऐसा लग् रहा है ..दरवाजे पर् अभी अभी कोई जोगी आया है ..अपनी सारंगी बजाते हुए ...बिरहा के गीत गाते हुए ....
कई बार 'माँ' पहचान जाती थी फिर .....कितना दर्द है ...!
जीवन के कई रंग हैं ....मालूम नहीं यह कैसा रंग है ....ऐसा लग् रहा है ..दरवाजे पर् अभी अभी कोई जोगी आया है ..अपनी सारंगी बजाते हुए ...बिरहा के गीत गाते हुए ....
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