Thursday, September 25, 2014

ईश्वर ....

..तो कल बात हो रही थी ..ईश्वर के आकार की ...
हम ईश्वर को कब जोर से याद करते हैं या पुकारते हैं ..संभवतः 'अत्यंत खुशी या पीड़ा में' ...जब हमें 'अत्यंत' खुशी मिलती है ..हम ईश्वर को याद करते हैं ..आँखें बंद कर के उनको धन्यवाद देते हैं ...या फिर जब 'अत्यंत' पीड़ा में हों ..ईश्वर को पुकारते हैं ..एकदम दिल से ...दोनों हालात में ...हम किसी आकार को याद / पुकारते नहीं हैं ...बस उस अदृश्य शक्ती को ...हम कोई मंत्रोचारण नहीं करते हैं ...बहुत कम बार ऐसा होता है ...गौरतलब है ...बात मैंने 'अत्यंत पीड़ा' की है और अत्यंत पीड़ा या खुशी दोनों का सम्बन्ध सीधे दिल से है ! इंसान कमज़ोर होता है - जब उसे अत्यंत खुशी मिलती है - उसे लगता है - शायद वो उसका हकदार नहीं है - तब वो ईश्वर को धन्यवाद देता है - जब उसे अत्यंत पीड़ा होती है - उसे लगता है - हे ईश्वर ..मैंने क्या किया ..जो तूने मेरे साथ ऐसा किया ..अब आओ मुझे संभालो ..ईश्वर आता है या नहीं ..पर ऐसे ही किसी दूसरी दुःख की पीड़ा में आप उसे उतनी जोर से नहीं पुकारते हैं ..ईश्वर आया और आपको दुःख सहने की शक्ती दे गया ...
फिर ईश्वर का यह आकार कहाँ से आया - जहाँ तक मै समझता हूँ - भारतवर्ष का ईतिहास बहुत पुराना रहा है - और जब ईन्सान ईश्वर को खोज नहीं पाया - फिर वो आकार देने लगा होगा - "दरअसल जहाँ आनंद है - वहीँ ईश्वर है " - शायद यही कारण रहा होगा - जहाँ कहीं भी किसी को आनंद की अनुभूती हुई - उसने उसी चीज़ को 'ईश्वर' का आकार दे दिया - और दिल को आनंद कहीं भी मिल सकता है - तभी तो चौरासी करोड़ देवी देवता बना दिए गए .. :)) "प्रेम में भी परम आनंद मिलता है - तभी तो उसको पूजा कहते हैं " ! 
मैंने अपने व्यक्तिगत जीवन में कभी भी किसी अवतार की पूजा नहीं की है ...शायद यही कारण है ..खुद के जीवन दर्शन में ...खुद को धर्म से ऊपर रखा हूँ ...अब जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ है ...कुछ तो मानना होगा ..."ब्रह्मा - विष्णु - महेश - सरस्वती - लक्ष्मी - दुर्गा " - बात ख़त्म ! अवतारों की पूजा क्यों - जब भगवान् भी इंसान रूप में आ गए - फिर तो वो भी मेरे जैसे ही हो गए - बचपन से यही सिखाया गया - गाँव / पट्टीदार में दूसरों के दरवाजे पर मत जाओ - भले वो तुमसे कितना भी बड़ा क्यों न हो - सामाजिक हैसियत तो बराबर ही है ..:)) 
जब खुद को उस परात्मा से 'कनेक्ट' करना ही है - फिर वाया - मार्फ़त क्यों - दालान पर बहुत पहले ही मैंने एक कहानी का उल्लेख किया था - कैसे कुछ अबोध लोग गलत मंत्रोचारण करते हुए भी 'शक्ती' को पा लेते हैं और कुछ लोग आजीवन मंत्र ही पढ़ते है - कुछ नहीं होता ! 
जब सारा खेल 'पवित्र मन' का ही है - फिर सारा ध्यान उस पर ही क्यों नहीं - क्यों नहीं 'मन का योग' - जब सारी खुशी वहीँ से मिलनी है - पर इंसान कमज़ोर - करे भी तो क्या करे - खुद से कितना रास्ता तलाशे - कोई बना बनाया हुआ रास्ता मिल जाए और वो झट पट दौड़ पड़े ....:))
~ 25 September 2013 

No comments: